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कड़वे से परहेज क्यों?

Posted On 12:32 pm by विनीत कुमार |

पिछले कुछ सालों से निजी समाचार चैनलों की साख और प्रासंगिकता को लेकर जो सवाल खड़े हुए हैं, वह उसके लिए अब स्थायी चिंता का विषय बन गए हैं। हाल की  घटनाओं को देखें तो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में अपनी साख बुरी तरह गंवा चुकने के बाद चैनलों ने अन्ना के कार्यकर्ता बनकर अनशन को डैमेज कंट्रोल की तरह इस्तेमाल करके की जो कोशिश की,वह फार्मूला भी काम नहीं आया। 7 अक्टूबर को केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से प्रस्तावित अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग गाइडलाइन को मंजूरी दी और अब भारतीय प्रेस परिषद के नए  अध्यक्ष  मार्कण्डय काटजू ने चैनलों के चरित्र पर जो बयान जारी किए,उससे स्पष्ट है कि आनन-फानन में स्ट्रैटजी तय करके चैनलों के लिए अपने किये पर पर्दा डालना पहले जैसा आसान नहीं रह जाएगा। इतना ही नहीं,आनेवाले समय में सरोकार और लोकतंत्र के नाम पर मुनाफ़ा कमानेवाले कार्पोरेट चैनलों की जिन गड़बड़ियों को महज नैतिकता और कर्तव्य के दायरे में बात करके छोड़ दिया जाता रहा, अब इसके लिए आर्थिक रुप से भारी कीमतें भी चुकानी पड़ सकती है।  


टीवी चैनलों में गंभीरता लाने की घोषणा के साथ 7 अक्टूबर को मंत्रिमंडल ने टेलीविजन चैनलों के लिए जिस नई अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग गाइडलाइन को मंजूरी दी है,वह दरअसल 11 नबम्बर 2005 से लागू गाइडलाइन का ही संशोधित लेकिन अधिक ताकतवर रुप है। इस कड़ी में एक तो पंजीकरण के लिए शुद्ध संपत्ति की राशि 3 करोड़ से बढ़ाकर 20 करोड़ कर दी गयी है वहीँ दूसरी ओर यह शर्त रखी गई है कि चैनल के लिए लाइसेंस मिलने के एक साल के भीतर संबंधित संस्थान को प्रसारण शुरू करना होगा. सबसे जरुरी बात यह है कि अगर कोई चैनल कार्यक्रम और विज्ञापन से संबंधित निर्धारित नियमों का उल्लंघन करता है तो उसका लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा और अगले दस साल के लिए दिए जाने वाले लाइसेंस को दोबारा जारी नहीं किया जाएगा।

समाचार चैनलों से जुड़े लोगों और संगठनों ने 7 अक्टूबर से ही इस गाइडलाइन के खिलाफ माहौल बनना शुरु कर दिया और इसे लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा बताया। चैनलों ने इसका विरोध दो स्तरों पर किया- एक तो यह कह कर कि सरकार मीडिया की आवाज को दबाना चाहती है और दूसरा कि वह अफसरशाही के तहत इसे चलाना चाहती है,जबकि उसमें शामिल लोगों को इसकी बिल्कुल भी समझ नहीं है। इस विरोध के दौरान चैनलों के पक्ष में काम करते आए संगठनों ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका को एक बार फिर से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ और सामाजिक सरोकार का वाहक के तौर पर प्रस्तावित किया और इस गाइडलाइन की तुलना आपातकाल के दौरान सरकारी नीतियों से की। गाइडलाइन की मंजूरी और इस विरोध के तीन दिन बाद सूचना और प्रसारण मंत्री ने आश्वासन दिया कि जिन पांच गलतियों पर सजा देने की बात की गई है,उसके निर्णय में चैनलों से संबंधित लोगों को भी शामिल किया जाएगा और उनके विचारों को भी ध्यान में रखा जाएगा। इसका मतलब है कि जिस गाइडलाइन को चैनल और उनके संगठन हमारे सामने लोकतंत्र पर हमले के तौर पर प्रचारित कर रहे हैं,उसके भीतर चैनल से जुड़े लोगों की भूमिका बनी रहेगी।

चैनलों के हितों के लिए काम करनेवाले संगठन जब इस गाइडलाइन का विरोध कर रहे थे,उस समय यह भी कहा गया कि यह गाइडलाइन दरअसल अन्ना आंदोलन में सरकार की हार की परणति है और चूंकि मीडिया ने सच का साथ दिया इसलिए उस पर शिकंजा कसा जा रहा है। यह एक हद तक संभव हो सकता  है कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल  ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से प्रस्तावित इस गाइडलाइन को ठीक ऐसे समय में मंजूरी दी है जब चैनलों ने सरकार को छोड़  भावावेश में आई आम जनता का साथ दिया। लेकिन इस गाइडलाइन के बनने की प्रक्रिया और समय पर गौर करें तो 22 जुलाई 2010 को ही भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण(ट्राई) ने अपलिंकिंग-डाउनलिंकिंग से संबंधित गाइडलाइन की रुप-रेखा तैयार की थी और उसी के परामर्श पर यह नई गाइडलाइन लाई गई. यह अन्ना से नहीं चैनलों के धंधे में ताकतवर रीयल इस्टेट से निबटने के लिए था। ऐसे में चैनल इसे अन्ना की कवरेज की परिणति बताकर दरअसल राजनीतिक रंग देना चाह रहे हैं।। लेकिन

भारतीय प्रेस परिषद् के नए चेयरमैन मार्कण्डेय काटजू ने टेलीविजन चैनलों के रवैये पर चिंता जाहिर करते हुए इसे नियंत्रित करने के लिए मौजूदा सरकार सहित विपक्ष के नेताओं से विमर्श करके परिषद् को और अधिकार दिए जाने की जो बात की है,वह चैनलों की सिर्फ हाल की घटनाओं पर बात करने के बजाय उसके पूरे चरित्र पर की गई टिप्पणी है जिसके विस्तार में जाने पर उसकी नीयत पर बात की जा सकेगी। काटजू ने अपने बयान में स्पष्ट तौर पर कहा कि चैनल सनसनी फैलाने के लिए गलत संदर्भों को शामिल करते हैं,तथ्यों को सीमित दायरे में लाकर प्रस्तुत करते हैं और घटनाओं की प्रस्तुति इस तरह से करते हैं कि वे अंत में जनविरोधी साबित होती  हैं। काटजू के इस बयान को चैनलों से संबंधित संगठन बीइए( ब्राडकास्ट एडीटर एशोसिएशन) ने तर्कहीन करार देते हुए उन्हें मीडिया का अज्ञानी कहा और अपने पक्ष में कुछ उदाहरण पेश किए। यह अलग बात है कि जस्टिस मार्कण्डय काटजू 'द हिन्दू' सहित दूसरे मंचों पर मीडिया,समाज और संस्कृति पर लंबे समय से लिखते आए हैं।

इस पूरे मामले पर गौर करें तो मूलभूत सवाल यही है कि क्या करीब 314 बिलियन के  टेलीविजन चैनल उद्योग को सचमुच लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जा सकता है जिसमें वे समाचार चैनल शामिल हैं जिनकी खबरें,कार्यक्रम,एजेंड़े और पक्षधरता बैलेंस शीट की सेहत और टीआरपी चार्ट के हिसाब से तय होती हैऐसे में इस नई गाइडलाइन को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर कसनेवाली नकेल के बजाय मीडिया उद्योग पर लागू की जानेवाली शर्तें के तौर पर देखा-समझा जाए तो क्या इसके मायने वही निकलेंगे जो कि चैनलों और उनके पक्ष में खड़े संगठनों की ओर से प्रचारित किए जा रहे है?
दूसरी बात,चैनल अपनी जरुरत के अनुसार बनाए गए संगठनों को पारदर्शिता बरतने और मीडिया के बेहतर बने रहने के लिए पर्याप्त मानते हैं। क्या जब से ऐसे संगठन निर्मित हुए हैं,ऐसा कोई  उदाहरण हमारे सामने आया  है  जिसकी बिना पर इन्हें यह वैधता दी जा सके कि इनकी मौजदूगी से चैनलों के भीतर के कंटेंट और स्थिति में सुधार हो सकेगामसलन

 22 जुलाई 2008 को अमेरिका से परमाणु करार मामले पर संसद में वोट के बदले नोट कांड हुआ और सीएनएन-आइबीएन ने भाजपा के साथ मिलकर स्टिंग ऑपरेशन किया,जिसे उस दिन तो लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर प्रसारित नहीं किया लेकिन भारी दबाव के कारण तीन सप्ताह बाद इस टेप को प्रसारित किया गया जिसमें कि कई जगहों पर छेड़छाड़ की बात सामने आयी और चैनल ने अपनी तरफ से कुछ हिस्सों को हटा दिया। इस संबंध में चैनल से लिखित वजह मांगी गयी लेकिन उसने आज तक इस संबंध में कुछ भी नहीं बताया। चैनलों के हितों के लिए काम करनेवाले संगठनों ने क्या इस संबंध में कोई बात हम तक पहुंचाई?

13 अगस्त 2010 को गुजरात के मेहसाना में एक शख्स आग लगाकर आत्महत्या कर लेता है जिसके पीछे एक मीडिया संस्थान के दो पत्रकारों पर आरोप है कि उसने उसे इस काम के लिए उकसाया। इस बाबत ठीक दस दिन बाद यानी 27 अगस्त को दिल्ली में ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एशोसिएशन की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट आ जाती है। कुल दस पन्ने की रिपोर्ट में जो कि एक ही तरफ छपाई है, 4 पन्ने कवर,कंटेंट और सिग्नेचर के पन्ने हैं। सिर्फ 6 पन्ने पर केस स्टडी है,उसमें सारी बातें समेट दी जाती है और टीवी-9 के जो एक्यूज्ड पत्रकार है कमलेश रावल,उनसे फोन पर बात करने के अवसर का जिक्र भर है। यह सब खानापूर्ति से ज्यादा कुछ भी नहीं है। इस रिपोर्ट के बाद हमें मेहसाना में आत्महत्या करनेवाले शख्स के बारे में मीडिया की तरफ से कोई जानकारी नहीं है। अगर ये मामला कोर्ट,पुलिस के अधीन है तो इसकी फॉलोअप स्टोरी हमें कहीं दिखाई नहीं दी और चैनलों के संगठन ने उसके बाद से इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं की।

इसके अलावे उमा खुराना फर्जी स्टिंग ऑपरेशन में फंसा पत्रकार औऱ चैनल आज भी मौजूद हैं ,2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में दागदार हुए मीडियाकर्मी पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर बनकर काम कर रहे हैं। कार्यवाही के नाम पर सिर्फ चैनल या उनके पद बदल गए हैं। ऐसे में सवाल है कि सरकार जिन चैनलों के लोगों को गड़बड़ियों पर निर्णय लेने के लिए शामिल करेगी,उनका अब तक का रवैया कैसा रहा है और क्या वे अब तक पर्दा डालने से अलग कुछ कर पाएंगे? क्या ऐसे मीडियाकर्मी और संगठन गड़बड़ी करनेवाले चैनलों और मीडियाकर्मियों के खिलाफ निर्णय लेने की स्थिति में हैं?फिलहाल चैनलों की प्रेस रिलीज पर भरोसा करके अगर हम सरकार के बजाय इनके पक्ष में खड़े भी होते हैं तो क्या सच में हम लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के साथ होते हैं  
(मूलतः प्रकाशित- जनसत्ता,6 नवम्बर 2011)
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4 Response to 'कड़वे से परहेज क्यों?'
  1. डॉ .अनुराग
    https://taanabaana.blogspot.com/2011/11/blog-post.html?showComment=1320564288418#c7457563673850482095'> 6 नवंबर 2011 को 12:54 pm बजे

    लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा का रोना ठीक वैसा ही है जैसा अन्ना आन्दोलन के दौरान सरकार का संसद की गरिमा ओर लोकतंत्र की दुहाई का बड़ी चालाकी से जाल फेंकना ..कोई भी माध्यम इतना स्वतन्त्र नहीं हो सकता की वो आलोचना ओर किसी भी क्रोस इक्ज़मिज़िनेशन से इतर हो.

     

  2. प्रवीण पाण्डेय
    https://taanabaana.blogspot.com/2011/11/blog-post.html?showComment=1320571702276#c8100830371283828086'> 6 नवंबर 2011 को 2:58 pm बजे

    कई बड़े प्रश्न खड़े हो गये हैं अब।

     

  3. संगीता पुरी
    https://taanabaana.blogspot.com/2011/11/blog-post.html?showComment=1320591818463#c2020553414409806586'> 6 नवंबर 2011 को 8:33 pm बजे

    पत्रकारिता लोकतंत्र का एक मजबूत स्‍तंभ है .. इसकी भी गरिमा को बचाया जाना चाहिए .. अब भी समय है !!

     

  4. SANDEEP PANWAR
    https://taanabaana.blogspot.com/2011/11/blog-post.html?showComment=1322389411963#c6573408793430634869'> 27 नवंबर 2011 को 3:53 pm बजे

    अब तो हद ही हो गयी गयी है

     

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