वैधानिक चेतावनीः- फिल्म देहली-वेली पर ये आलोचना गालियों से परहेज करनेवाले और उनके प्रयोग करनेवालों के पीछे के मनोविज्ञान को समझने के बजाय उनके प्रति हिकारत पैदा करनेवालों के लिए नहीं है। गालियों का अपना एक समाजशास्त्र है और एक मनोवैज्ञानिक तनाव भी। इस फिल्म में इसके बावजूद अगर हम उसके प्रयोग का विरोध कर रहे हैं और आलोचना के जरिए कुछ गालियों का प्रयोग कर रहे हैं तो वो सिर्फ इसलिए कि स्वाभाविक तौर पर दी जानेवाली गालियां जब अस्वाभाविक तरीके से प्रयोग की जाती है तो वो न तो अश्लील और न ही कुंठाओं से मुक्ति का माध्यम बल्कि उबाउ बन जाती है। हम आमिर खान की तरह आलोचना के लिए गालियों का प्रयोग नहीं कर सकते लेकिन अगर करने की कोशिश करते भी हैं तो पता है कि भद्र समाज हमारे साथ क्या करेगा?
फिल्म डेल्ही बेली आमिर खान के गैरजरूरी गुरूर की सिनेमाई अभिव्यक्ति है। बाजार की जबरदस्त सफलता ने उनके भीतर ये अंध भरोसा पैदा कर दिया है कि वो प्रयोग के नाम पर चाहे जो भी कर लें, दिखा दें, उन्हें पटकनी नहीं मिलनी है। उनका ये भरोसा अपनी जगह पर बिल्कुल सही भी है क्योंकि जब तक प्रोमोशन, मीडिया सपोर्ट, पीआर और डिस्ट्रीब्यूशन के स्तर पर उनका ढांचा कमजोर नहीं होता, आगे डेल्ही बेली जैसी फिल्मों से पुरानी शोहरत की कमाई तो खाते ही रहेंगे। हां, ये जरूर है कि इस फिल्म से ऑडिएंस की ओर से ये कहने की शुरुआत हो गयी कि आमिर खान में अब वो बात नहीं रही, वो भी बाजार की नब्ज समझकर सिनेमा का धंधेबाज हो गया है। आमिर खान के लिए इस जार्गन का प्रयोग अगर आनेवाली दो-तीन फिल्मों के लिए होता रहा और बाजार, मीडिया, पीआर के अलावा ऑडिएंस की पसंद-नापसंद की भी कोई सत्ता बचती है, तो आमिर खान का सितारा गर्दिश में ही समझिए।
वेब सिनेमा, नोएडा से निकलकर जब मैं अपने घर के लिए चला तो रास्तेभर सोचता रहा कि इस फिल्म पर इसी की भाषा में समीक्षा लिखी जानी चाहिए। मसलन लोडू आमिर खान ने झांटू टाइप की फिल्म बनाकर देश की ऑडिएंस को चूतिया बनाने का काम किया है। थ्री इडियट्स, तारे जमीं पर, लगान जैसी फिल्में बनानेवाला भोंसड़ी के ऐसी फिल्में बनाने लग जाएगा… ओफ्फ, उम्मीद नहीं थी। फिर ध्यान आया कि जिस तरह आमिर खान ने ए सर्टिफिकेट लेकर और टेलीविजन पर खुलेआम (इसे भी प्रोमोशन का ही हिस्सा मानें) कहकर कि ये फिल्म बच्चों के लिए नहीं है, वैधानिक तौर पर अपने को सुरक्षित करते हुए भी मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा में एडल्ट और सामान्य फिल्म के बीच की विभाजन रेखा को खत्म या नहीं तो ब्लर ही करने की कोशिश की है, वही काम हम आलोचना की दुनिया में नहीं कर सकते। आलोचना के लिए कोई ए सर्टिफिकेट जैसी चीज नहीं होती है। आमिर खान ने इस वैधानिक सुविधा का बहुत ही कनिंग (धूर्त) तरीके से इस्तेमाल किया है।
ये बात इसलिए रेखांकित की जाने लायक है क्योंकि उनके और प्रोडक्शन हाउस के लाख घोषित किये जाने के वावजूद इस फिल्म को लेकर वो धारणा नहीं बन पाती है जो कि घाघरे में धूमधाम, हसीन रातें, कच्ची कली जैसी फिल्मों को लेकर बनती है। फिर दर्जनभर एफएम चैनल और उससे कई गुना न्यूज चैनल्स इसकी प्रोमो से लेकर कार्यक्रम में कसीदे पढ़ने में लगे हों तो वो ऑडिएंस को एडल्ट होने की वजह से नहीं देखने के बजाय और पैंपर करती है, उकसाती है कि वो अपनी भाषा में एडल्ट फिल्म देखें। नहीं तो उसने मेरा चूसा है, मैंने उसकी ली है, गदहे जब रिक्शे की लेते हैं तो ऐसी गाड़ी पैदा होती है जैसे प्रयोग तो अंतर्वासना डॉट कॉम में भी इतने धड़ल्ले से प्रयोग में नहीं आते। यही कारण है कि जिन एडल्ट फिल्मों को जाकर देखने में अभी भी खुले और बिंदास लोगों के पैर ठिठकते हैं, लड़कियां तमाम तरह की सुरक्षा के बावजूद एडल्ट और पोर्न फिल्में सिनेमाघरों में जाकर नहीं देखती, डेल्ही बेली में उनकी संख्या अच्छी-खासी होती है, बल्कि वो कपल में होकर इसे एनजॉय कर रहे होते हैं। ऐसे में मुझे लगता है कि इस फिल्म को लेकर सबसे ज्यादा ऑडिएंस को लेकर बात होनी चाहिए। बच्चों को अगर इस फिल्म से माइनस भी कर दें तो देखनेवालों की संख्या में कितना फर्क पड़ता है, इस पर बात हो। ऐसा करना इसलिए भी जरूरी है कि अधिकांश फिल्में इस तर्क पर बनती है कि बच्चों को टार्गेट करो, पैरेंट्स अपने आप चले आएंगे। ये फिल्म उससे ठीक विपरीत स्ट्रैटजी पर काम करती है।
इस लिहाज से देखें तो ये फिल्म एक नये किस्म की शैली या ट्रेंड को पैदा करने का काम करेगी। बच्चों को बतौर ऑडिएंस माइनस करके भी बिजनेस पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता, तो ए सर्टिफिकेट के तहत ऐसी फिल्मों की लॉट सामने आने लगेगी जिनकी ऑडिएंस लगभग वही होगी जो बागवान, कभी खुशी कभी गम, इश्किया, दबंग जैसी फिल्में देखती आयी है। जबरदस्त मार-काट के बीच ये आमिर खान की नयी मार्केट की खोज है, जिसने कभी इस बात पर बहुत गौर नहीं किया कि इससे आगे चलकर सिनेमा की शक्ल कैसी होगी? माफ कीजिएगा, मैं इस फिल्म को लेकर किसी भी तरह की असहमति इसलिए व्यक्त नहीं कर रहा कि इसमें गालियों का खुलकर प्रयोग किया गया है या फिर एडल्ट फिल्मों से भी ज्यादा वल्गर लगे हैं। मैं इस बात को लेकर असहमत हूं कि जो आमिर खान बहुतत ही पेचीदा और संश्लिष्ट विषयों को बहुत ही बारीकी से समझते हुए, उसे खूबसूरती के साथ फिल्माता आया है, वो गालियों का समाजशास्त्र समझने में, उसके पीछे के मनोविज्ञान को छू पाने में बुरी तरह असमर्थ नजर आता है। ये इस फिल्म का सबसे कमजोर पक्ष है और यहीं पर आकर मिस्टर परफेक्शनिस्ट बुरी तरह पिट जाते हैं। गालियों का अत्यधिक प्रयोग और हर लाइन के साथ चूतिये न तो अश्लीलता पैदा करता है और न ही स्वाभाविक माहौल ही निर्मित करता है बल्कि बुरी तरह इरीटेट करता है। हम जैसे लोग जो कि दिन-रात गालियों से घिरे होते हैं, अक्सर सुनते हुए और कई बार देते हुए… उन्हें भी खीज होती है – ऐसा थोड़े ही न होता है यार कि हर लाइन के पीछे हर कैरेक्टर चूतिया बोले ही बोले। ये स्वाभाविक लगने के बजाय डिकोरम का हिस्सा लगने लग जाता है कि हर लाइन में इसे बोलना ही बोलना है। दरअसल इस फिल्म में जो गालियों का प्रयोग है, वो समाज के बीच जीनेवाले चरित्रों और जिन परिस्थितियों में उनका प्रयोग करते हैं, उनके ऑब्जर्वेशन के बाद शामिल नहीं की गयी है बल्कि ऐसा लगता है कि एमटीवी, चैनल वी और यूटीवी बिंदास पर टीआरपी के दबाव में जैसे तमाम प्रतिभागियों को गाली देने और चैनल की तरफ से अधूरी पर बीप लगाने के लिए ट्रेंड किया जाता है, उन कार्यक्रमों और फुटेज को देखकर स्ट्रैटजी बनायी गयी कि चरित्र इस तरह से गालियां देंगे। यही कारण है कि जिन गालियों को हम दिन में पचास बार सुनते हैं, उसे जब हम इस फिल्म में सुनते हैं तो लगता है इसकी यहां जरूरत नहीं थी। जो इन चैनलों की रेगुलर ऑडिएंस हैं, उनके मुंह से शायद निकल भी रहे होंगे – चूतियों ने हमें चूतिया बनाने की कोशिश की है, भोंसड़ी के एक बार तो देख लिये इस चक्कर में, अगली बार अपने ही हाथ से अपनी ही मारनी होगी, देख लियो अगली बार वीकएंड में ही पिट जाएगी फिल्म।
गालियों के मनोविज्ञान पर आमिर खान को जबरदस्त मेहनत करने की जरूरत थी लेकिन उन्होंने इसे जस्ट फॉर फन या जुबान के बदचलन हो जाने के स्तर पर इस्तेमाल किया। गाली देते हुए किसी भी चरित्र में वो तनाव, चेहरे पर वो भाव नहीं दिखता है, जो कि आमतौर पर हम देते वक्त एक्सप्रेस करते हैं। ये कई बार असहाय और बिल्कुल ही कमजोर शख्स की तरफ से मजबूत के लिए किया जानेवाला प्रतिरोध भी होता है लेकिन वो यहां तक नहीं पहुंच पाते। एक सवाल मन में बार-बार उठता है कि जब गालियों को इसी रूप में प्रयोग करना था तो तीनों के तीनों चरित्रों को मीडिया क्षेत्र से चुने जाने की क्या अनिवार्यता थी? कहीं इससे ये साबित करने की कोशिश तो नहीं कि मीडिया के लोग ही इस तरह खुलेआम गालियां बकते हैं। अगर इसका विस्तार वो समाज के दूसरे तबके और फैटर्निटी के लोगों तक कर पाते तब लगता कि ये दिल्ली या यूथ की जीवनशैली में स्वाभाविक रूप से धंसा हुआ है। ऐसे में ये आमिर खान की नीयत पर भी शक पैदा करता है। हां, मीडिया के लोगों और बहुत ही कम समय के लिए उसके एम्बीएंस को इस्तेमाल करके आमिर खान ने एक अच्छी बात स्थापित करने की कोशिश की है कि अब ये बहुत ही कैजुअल तरीके से लिया जानेवाला पेशा हो गया है। मीडिया को करप्ट और विलेन साबित करने के लिए लगभग आधी दर्जन फिल्में बन चुकी है लेकिन इस फिल्म में मीडियाकर्मी के कैजुअल होने को बारीकी से दिखाया गया है। हां, ये जरूर है कि इन तीनों मीडियाकर्मियों को जिस परिवेश में रहते दिखाया गया है और जिस तरह गरीब साबित करने की कोशिश की गयी है, वो फिल्म की जरूरत से कहीं ज्यादा मन की बदमाशी या चूक है।
मल्टीनेशनल कंपनी में काम करनेवाले कार्टूनिस्ट, फोटो जर्नलिस्ट और पत्रकार आर्थिक मोर्चे पर इतना लचर होगा कि किराया देने तक के पैसे नहीं होंगे और वैसी झंटियल सी जगह में रहेंगे, हजम नहीं होता। फोटो जर्नलिस्ट लैम्रेटा स्कूटर से चलता है। कोई आमिर खान को बताये कि दिल्ली में कितनी साल पुरानी गाड़ी चल सकती है, इसके लिए भी कानूनी प्रावधान है। पुरानी दिल्ली के कभी भी धंसनेवाले घर और छत को तो उन्होंने खोजकर बड़ा ही खूबसूरत माहौल पा लिया लेकिन पुराने परिवेश में जीनेवाले कार्पोरेट पत्रकारों की जिंदगी घुसा पाने में कई झोल साफ दिख जाते हैं। इधर तीन-चार साल से हिंदी सिनेमा ने मीडियाकर्मियों को जिन ग्लैमरस परिस्थितियों में दिखाया है, अचानक से ऐसा देखना विश्वसनीय नहीं लगता। फिर गरीब मां या मजबूर घर के हालात न दिखाकर टिपिकल इंडियन सिनेमा का लेबल लगने से बचने के लिए जो जुगत भिड़ायी गयी है, वो तमाम तरह की स्मार्टनेस के बावजूद कहानी का मिसिंग हिस्सा जान पड़ता है। और आखिरी बात…
आमिर खान ने आइटम सांग के नाम पर न्यूज चैनलों और मीडिया कवरेज में जो सोसा फैलाया, अगर सिनेमाघरों में हम जैसी ऑडिएंस के बीच होते तो सिर पटक लेते। जब उनका आइटम सांग शुरू होता है, आडिएंस उठकर जाने लगती है, उनमें इतनी भी पेशेंस नहीं होती कि वो रुक कर 377 मार्का आमिर खान को देख ले। इसे कहते हैं मुंह भी जलाना और भात भी न खाना। आमिर खान का आइटम सांग डीजे में कितना बजेगा, नहीं मालूम लेकिन फिलहाल इसे ऑडिएंस ने एक फालतू आइटम की तरह बुरी तरह नकार दिया या फिर टीवी, एफएम पर देख-सुनकर पक चुकी हो। फिल्म देखकर बाहर निकलने पर शायद मेरी तरह आपका भी मन कचोटता हो – हिंदी सिनेमा में स्त्रियां दबाने के लिए ही लायी जाती हैं, चाहे कोई भी बनाये। बाकी बनाये तो परिवार, समाज और अधिकार के स्तर पर दबाने के लिए और आमिर खान फिल्म बनाये तो उनके बूब्स दबाने के लिए।
मूलतः प्रकाशितः- मोहल्लाlive
https://taanabaana.blogspot.com/2011/07/blog-post_07.html?showComment=1310047395223#c3127099233722128992'> 7 जुलाई 2011 को 7:33 pm बजे
आपकी समीक्षा ही पर्याप्त है, फिल्म देखने की इच्छा नहीं है।
https://taanabaana.blogspot.com/2011/07/blog-post_07.html?showComment=1310052718546#c9159859876788656098'> 7 जुलाई 2011 को 9:01 pm बजे
"गालियों का अत्यधिक प्रयोग और हर लाइन के साथ चूतिये न तो अश्लीलता पैदा करता है और न ही स्वाभाविक माहौल ही निर्मित करता है बल्कि बुरी तरह इरीटेट करता है। "
इस पूरी पोस्ट और खासकर निम्न हिस्सों से शब्दशः सहमति ...
डेल्ही बेली की गालियाँ अस्वाभाविक हैं और सचमुच इर्रिटेट करती हैं ...
जबकि पीपली लाइव में नत्था का "गांड फट रही है " कहना बहुत ही सहज था....
.मुझे लगता है इस फिल्म की समीक्षा भी ऐसी ही लैंग्वेज में होनी चाहिए... बहुत आप्त विचार ! :)
इस साले चूतिये आमिर को ऐसी लंडूस फिल्म बनाने की क्या सूझी ...
भोसड़ी के अपने आपको बहुत काबिल समझने लगा है और समझता है लवंडे लफाडियों
को फांस कर उनकी गांड मार देगा..और भोसड़ी के कितने गांड मराने के लिए तैयार भी हैं ....
मीडिया वाले भी प्रमोशन में लगे हैं जबकि अमिरवा साले ने उनको भी लौंडा चटा दिया है ..
अब भोसड़ी वालों समझो यह किस समाज की भाषा है ...
लोग इंटरवल से फिल्म छोड़ भाग आ रहे हैं ....आप इत्ता तो झेल लीजिये!
https://taanabaana.blogspot.com/2011/07/blog-post_07.html?showComment=1310058772804#c4898644903278616136'> 7 जुलाई 2011 को 10:42 pm बजे
एक घटिया फिल्म के ऊपर इतनी सारी वेबसाईट में विद्वान लेखकों और विचारकों के उद्गार पढ़कर अचम्भे में हूँ.
अब समझ में आने लगा है कि हम सब कुछ करके भी चूतियाई से बाहर क्यों नहीं निकल पाते. देखा न, अरविन्द जी भी भावुक हो गए!
https://taanabaana.blogspot.com/2011/07/blog-post_07.html?showComment=1310065530678#c8367504419164005960'> 8 जुलाई 2011 को 12:35 am बजे
डिस्क्लेमर या स्टैच्यूरी वार्निंग ?
मेरे विचार से आप जिस चीज के लिए आमिर खान की आलोचना कर रहे हैं स्वयं उसके शिकार हो गए हैं।
निशांत मिश्र ने जो लिखा है वही चिंता मेरी भी है। यह एक औसत फिल्म है। लेकिन आप लोगों की मेहरबानी से इसे कुछेक दर्शक और मिले होंगे।
https://taanabaana.blogspot.com/2011/07/blog-post_07.html?showComment=1310103550308#c5763416380892475930'> 8 जुलाई 2011 को 11:09 am बजे
बहुत कर्री समीक्षा है। अब फिल्म देख कर क्या करेंगे।
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जादुई चिकित्सा !
ब्लॉग समीक्षा की 23वीं कड़ी...।