मुझे आज दिन तक पता नहीं क्यों लेकिन पापा मनहूस,मातमी और सैड न्यूज बताने के लिए हमेशा से बेचैन नजर आए। जब मैं घर मे होता-पापा घर घुसते और ठीक से शर्ट भी नहीं उतारते,सीधा कहते- हीरालाल की छोटी बच्चिया नहीं रही। शंभू बाबू का बड़ा लड़का पटना ले जाते-जाते ही रास्ते में खतम हो गया,बिसेसर की मंझली लड़की को दहेज में फ्रीज नहीं देने पर काम टूट गया,मुन्नू की स्साली गया से आ रही थी,बस में छिनतई में सब जेवर चला गया...।
पापा के पास ऐसी मनहूस खबरों की लंबी लिस्ट होती। मां,पापा के इस रवैये से बहुत दुखी होती। अजब मर्दाना हैं,दुनियाभर का मर्दाना घर घुसता है तो कुछ अच्छा बताता है,राजी-खुशी का हाल-चाल बताता है लेकिन इनको ऐसा कोई खबर नहीं मिलता है। घुसे नहीं कि मरे-हेराय(खो जाना),लुटे-पिटे का खबर लेकर शुरु हो जाते हैं। उम्र बढ़ने के साथ पापा की ये आदत और मैच्योर होती गयी। अब तो बल्कि प्रणाम पापा का जबाब तक देने के बजाय सीधा कहते हैं- छोटन फूफा को लकवा मार दिया है,मेहमान का दुकान कल रात जलकर राख हो गया।.उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं यहां दिल्ली में किस हाल में हूं,सुबह उठकर कैसा महसूस कर रहा हूं,क्या काम करना है और क्या सोच रहा हूं। तभी पापा का सुबह,वैसे तो वो सुबह जल्दी फोन नहीं करते लेकिन अगर आ जाए तो उठाने के पहले दस बार सोचना पड़ता है कि फोन पिक करुं कि नहीं?
दिल्ली में बैठकर मैं मां से अक्सर पूछता हूं-ये बताओ मां,इतने बड़े समाज में,घर-परिवार में ऐसी कोई भी घटना नहीं होती है,जिसकी खबर सुनकर अच्छा लगे और जिसे पापा बताएं। मां कहती है-होता नहीं है,खूब होता है। पिछले साल डौली का शादी हुआ,तीन महीने से पेट में है,चोरी-छुपे कलकत्ता जाकर अल्ट्रासाउंड करायी है,डॉक्टर बोला है हर-हाल में लड़का होगा। रश्मि का मर्दाना देवता मिला। एक रुपया दहेज तो नहीं ही लिया,उपर से विदा होते वखत बोला कि मां जी,आपको दामाद नहीं,एक और बेटा मिला है समझिए। कामिनी दू साल पहिले अमरुद का पेड़ लगायी थी,अभी से ही फूल फेक दिया है। खुशी का इ बार अच्छा ग्रेड आया है।..एक तरफ मां के पास छोटी-छोटी खुशियों की एक के बाद एक खबरें और दूसरी तरफ पापा के पास सिर्फ और सिर्फ हताश और टेंशन पैदा करनेवाली खबरें। एक-दूसरे के परस्पर विरोधी मिजाज की खबरें। मेरे पापा के इस रवैये पर कोई सैड24x7 चैनल खोले तो उसे खबरों की कभी किल्लत नहीं होगी और उसकी समझ का विस्तार होगा कि किस-किस एंगिल से मातम मनानेवाली खबरें खोजी जा सकती है?
पापा इन मातमी खबरों की खोज में संबंधों की नजदीकियों से कहीं ज्यादा मातम को प्राथमिकता देते हैं। मसलन कोई खुश होनेवाली घटना बिल्कुल ऐसे परिवार या शख्स से जुड़ी हो जिसे कि मैं बहुत बेहतर ढंग से जानता हूं या फिर जिनसे मेरा भावनात्मक संबंध है तो वो मुझे शायद ही बताएं लेकिन कोई दूर के रिश्तेदार या पड़ोसी के साथ दुर्घटना घटी हो तो उसे बताने में कभी चूक नहीं करते। मुझे कई बार उन्हें याद करने या समझने में समझ लग जाता है कि कौन राजकुमार?..तब वो बताते हैं कि फलां के फलां का फलां..
मेरे घर में जब भी कोई हादसा होता,उससे निबटने के पहले घर में कोई न कोई पापा को खुशी से पहले समझाता है- अभी विनीत को इस बारे में कुछ मत बताइएगा,रात में देर तक जागता है,सुबह-सुबह फोन करने से परेशान हो जाएगा। मां को पता है कि मैं कई सारी चीजों के बारे में इतनी गंभीरता से सोचने लग जाता हूं कि कई बार बीमार तक हो जाता हूं। पापा कुछ नहीं बोलते हैं या फिर ये कि हमहीं बताते हैं क्या हर बात? लेकिन फिर चुपके से फोन करके कहते हैं- मां नहीं बताने बोली थी लेकिन घर का आदमी हो,कैसे नहीं बताएं कि उदय चचा खतम हो गए,अब नहीं रहे इस दुनिया में? पापा को इस तरह की मातमी खबरें बताने में मैंने देखा है कि एक खास किस्म का उत्साह तो नहीं फिर भी एफर्ट रहता है कि उनकी इस खबर से मैं दुखी हो पाता हूं कि नहीं? जब तक फोन पर दो-चार बार ओहहह..,चीचीचीचीचीची, न बोल दूं,उन्हें लगता है कि वो इस मातमी खबर को ठीक से एक्सप्रेस नहीं कर पाए या फिर जितना मातमी वो समझ रहे थे,उतनी बड़ी खबर मेरे लिए है नहीं। मैं बस इतना कहता हूं- जाने दीजिए पापा,क्या कीजिएगा,इतनी बड़ा जिंदगी है,होता ही रहता है। पापा बस इतना कहते हैं- हां,सो तो है। फिर भी लगता तो है न कि कैसे उदय भइया हंसता-खेलता परिवार छोड़कर बीच में ही चले गए। अब वो उनकी मौत से होनेवाले प्रभाव की चर्चा करने लग जाते जिससे कि मैं थोड़ा दुखी हो सकूं।
मेरे सामने जब पापा ऐसी मातमी खबरें बताते तो मां सीधा एक ही सवाल करती- तो खाना लगावें कि मन नहीं है खाने का? मां को लगता कि पापा को भी सदमा लगा है तो शायद नहीं खाएंगे। कई बार मौत और दुर्घटना की खबर सुना रहे होते,उसी दिन मां गुलाबजामुन,लौंगलता,खोए की पूड़ी या ऐसी चीजें बनायी होती,जिसे सुनकर पापा किसी भी हाल में लोभ का संवरण नहीं कर पाते। ऐसे में पापा एक ही बात कहते- जानेवाला तो चल ही गया,जो हम सब बचे हैं तो खाना-पीना छोड़ देने से थोड़े ही चलेगा..लाओ दू पूड़ी खा ही लेते हैं। मातमी खबरों को सुनाने को लेकर ऐसी प्रतिबद्धता मैंने आज दिन तक किसी भी न्यूज चैनल की भी नहीं देखी।
इन दिनों जबकि वो डेली रुटीन के तहत फोन करने लगे हैं,रोज मातमी खबरें नहीं होती तो मेरे ये पूछने पर कि क्या हाल है पापा,जबाब में कहते हैं-दूकान पर अकेले हैं,भइया रांची गया है,बोलकर गया था कि सुबह आ जाएगा लेकिन 2 बज गया,आया नहीं। खाना खाया आपने- खाना,नश्ता भी गुल हो गया आज? कभी-कभी पापा को लेकर चिंता होती है कि वो सिर्फ मातमी या उदास करनेवाली खबरें क्यों बताते हैं हमें? मैं उन्हें सालभर में कभी भी पूछता हूं कि दूकान कैसी चल रही है? उनका जबाब होता है-मीडियम। चाहे मैं दुर्गापूजा के चार दिन पहले के पीक टाइम में ही क्यों न पूछूं? यही सवाल भइया से करें तो यार एक मिनट का समय नहीं है इन दिनों। रात में बात करते हैं। पापा को खुशी की खबरें क्यों नहीं प्रभावित करती,हैरानी होती है। कोई कह दे कि फलां की बहू बहुत सुंदर मिली है,बहुत अच्छा स्वभाव है। पापा का जबाब होता- अठन्नी नहीं दिया है दहेज में। मुफ्त में मोह लिया लड़कीवालों ने शिवनंदन बाबू को,सीधा आदमी जानकर बोक्का बना दिया।.फिर भी अच्छा लगता है कि पापा कम से कम किसी चीज को लेकर तो कमिटेड हैं न,वो बाकी लोगों की तरह खुशी और मातम के बीच का घालमेल तो नहीं करते।
https://taanabaana.blogspot.com/2011/06/blog-post_19.html?showComment=1308516434645#c2992547903680104925'> 20 जून 2011 को 2:17 am बजे
समझ नहीं आता कि क्या प्रतिक्रिया दी जाए ? बहुत ही संवदेनशील और विचारणीय पोस्ट है।
https://taanabaana.blogspot.com/2011/06/blog-post_19.html?showComment=1308560763429#c7257270309403322323'> 20 जून 2011 को 2:36 pm बजे
फ़ादर्स डे पर एक बेहतरीन पोस्ट.... संवेदनशील
https://taanabaana.blogspot.com/2011/06/blog-post_19.html?showComment=1309321534068#c6265656380648064597'> 29 जून 2011 को 9:55 am बजे
पढ़कर कुछ सोचने वाला मूड बन गया, हंसने वाला नहीं, जैसा कि शीर्षक से लगा था. अच्छी पोस्ट.