12 मार्च. टेलीविजन पर इंडिया और साउथ अफ्रीका के बीच क्रिकेट वर्ल्ड कप का रोमांचकारी मैच और दिल्ली में हिन्दीः बदलेगी तो चलेगी! पर बड़ी बहस। आयोजक ने भी हिन्दी समाज की अच्छी लॉइल्टी टेस्ट करवाने जा रही है,आज उनके लिए इमोशनल अत्याचार है। जो समाज हिन्दी के नाम पर दिन-रात बहसबाजी में पड़ा रहता है,उसके संकट में आ जाने के भय से रोता-कलपता नजर आता है,आज इसके बदलाव और बनी रहने को लेकर बहस हो रही है तो देखते हैं कि वो इसमें शामिल होते हैं भी या नहीं? वो जिस टेलीविजन को पूंजीवादी माध्यम मानकर दिन-रात कोसते हैं,क्रिकेट को सांस्कृतिक अफीम मानते हैं,उससे अपने को अलग रख पाते हैं भी या नहीं? मैच तो रोमांचकारी होगा ही,इसमें कोई शक नहीं । देश की करोड़ों ऑडिएंस साढ़े चार बजे अपने को टेलीविजन स्क्रीन के आगे झोंक देंगी..लेकिन दिल्ली में मौजूद हिन्दी समाज? क्या वो भी उन आंखों में शामिल होगा। वो भी दर्जनों मल्टीनेशनल कंपनियों से चिपके मैंदान से डूबता-उतरता रहेगा,हर 20 मिनट में कोक,थम्स अप के विज्ञापनों को झेलता रहेगा,अभी कायदे से जवानी चढ़ी नहीं कि इंश्योरेंस की चिंता में डूब जाएगा। नहीं साहब नहीं, वो ऐसा नहीं करेगा। उसे पता है कि ये मैच तो फिर भी कहीं दोबारा देखने को मिल जाए, कुछ नहीं तो न्यूज चैनलों की फुटेज में ही सही,टुकड़ों-टुकड़ों में मैच का मजा मिल जाएगा,लेकिन ये जो बहस होने जा रही है, वो कहां से रिपीट होगी? लेकिन दिक्कत तो फिर भी है। हिन्दी समाज को वो तबका जिसे हिन्दी से भी उतनी ही मोहब्बत है और क्रिकेट को अपना धर्म मानता है,उनका क्या करेंगे? आयोजक से उनके लिए बस इतनी अपील है कि उनके फैसले को लॉयल्टी का हिस्सा न मानकर अंतिम समय में लिया गया फैसला मानकर बख्श दें। बहसहाल
हिंदी बदलेगी तो चलेगी! आज यानी 12 मार्च को होनेवाली बहस के इस शीर्षक में विस्मयादिबोधक चिन्ह लगाकर आयोजक ने भले ही विनम्रता जाहिर करने की कोशिश की हो कि ऐसा लगे कि वे वक्ताओं से उनकी राय जानना चाह रहे हैं, अपनी तरफ से कोई स्टेटमेंट जारी नहीं कर रहे हैं – लेकिन ये शीर्षक अपने आप में बिना किसी बहस के कुछ स्टेटमेंट भी जारी करता है, जिसे मैं इस रूप में समझ रहा हूं…
एक तो ये कि अगर हिंदी नहीं बदली, तो इसके विभाग तो फिर भी चलेंगे लेकिन इस विभाग से पैदा होनेवाली हिंदी नहीं चलेगी। मतलब कि हिंदी के बरतने में हिंदी विभाग से पैदा होनेवाली हिंदी का कोई योगदान नहीं माना जाएगा। वैसे भी हिंदी भाषा को लेकर जब भी बहस की शुरुआत होती है और इसके संकट पर मर्सिया पढ़ा जाता है, तो कहीं न कहीं इस बात की रस्साकशी चलती है कि अकादमिक संस्थानों में उगायी जानेवाली हिंदी का इस्तेमाल क्यों नहीं हो रहा है और वो गहरे संकट के दौर से गुजर रही है? हिंदी के पूरे विमर्श का एक बड़ा हिस्सा संकट का विमर्श है। ये संकट से कहीं ज्यादा अकादमिक संस्थानों के हृदय का कचोट है कि जिस हिंदी को उन्होंने लाठी-डंडे-नंबर और ग्रेड के दम पर वर्चस्व में बनाये रखने की कोशिश की – ये एक बड़ा मसला है कि लोग इन तमाम यातनाओं के बावजूद इससे मौका मिलते ही बगावत क्यों कर बैठते हैं? दूसरा ये कि अगर हिंदी नहीं बदलेगी तो संभव है कि भविष्य में हिंदी विभाग भी न चले। इसकी वजह साफ होगी कि आनेवाले समय में सरकारी नीतियां कुछ इस तरह से काम करेगी कि जिन विषयों की मॉनिटरी वैल्यू नहीं है, वो बाजार पैदा नहीं कर सकते या वो बाजार के अनुरूप अपने को नहीं बना पाते, उन्हें ऐसे कई दूसरे विषयों के साथ मिलाकर इमर्ज कर दिया जाए और ऐसे विषय बनाये जाएं जो कि रोजगार और बाजार पैदा करने में सहायक हो। ऐसे में हिंदी इंडियन कल्चरल स्टडीज, इंडियन लैंग्वेच एंड लिटरेचर के भीतर एक विषय बनकर रह जाए और अभी जो देशभर में हिंदी विभाग शक्तिपीठ के तौर पर स्थापित हैं, वो धीरे-धीरे ध्वस्त कर दिये जाएं। आनेवाले समय में विदेशी विश्वविद्यालयों की जो फ्रैंचाइजी खुलनेवाली है, वो बिना किसी बहस और झंझट के ये साबित कर देगी कि इस देश की शिक्षा में हिंदी के लिए अलग से विभाग की कोई खास जरूरत नहीं है, ये परजीवी विषय है इसलिए इसे दूसरे विषयों के साथ जोड़ दिया जाए। संभव है कि ये लग्जरी सब्जेक्ट के तौर पर करार दिया जाए और इसकी फीस इतनी अधिक कर दी जाए कि वो एलीट और अत्यधिक संपन्न लोगों की पहुंच के लिए ही हो। जिस हिंदी को आज मुगलसराय जंक्शन की तरह पकड़ा और पढ़ाया जा रहा है कि कहीं की कोई गाड़ी नहीं मिली तो हिंदी की सवारी पकड़ ली – इससे बिल्कुल अलग स्थिति होगी।
इन दोनों स्थितियों में जो एक चीज कॉमन है कि हिंदी को हर हाल में ये जिद छोड़नी होगी कि सिर्फ साहित्य हिंदी नहीं है। देश के विभागों को इस ठसक से बाहर निकलना होगा कि हिंदी सिर्फ उनके ही कारखाने से पैदा हो रही है। उन्हें सख्ती से समझने की जरूरत है कि हिंदी को सिर्फ न तो साहित्य बना रहा है और न ही विभाग से अकादमिक शिक्षा लेनेवाले लोग। इसमें एक भाषा या अभिव्यक्ति के स्तर पर तेजी से एक तबका शामिल हो रहा है, जो कि बोलने के स्तर पर पहले से ही मौजूद था और अब वो लिखने के स्तर पर भी सक्रिय हो रहा है, जिसने कि रोजी-रोजगार के लिए कुछ और इलाका चुना है और रचनात्मक बने रहने के लिए हिंदी। हिंदी का ये वर्ग आपको इंटरनेट पर जो लोग अपनी प्रोफाइल घोषित करते हुए लिख रहे हैं, उससे साफ अंदाजा लग जाएगा। हिंदी के इस इस्तेमाल से ये भाषा एक हद तक व्याकरण और शुद्धता की हठधर्मिता से छिटककर तकनीकी सुविधा और कीबोर्ड की चालाकी पर आकर टिक जाती है। संभव है कि हिंदी का ये प्रयोग कई स्तरों पर गलत हो लेकिन ऐसी हिंदी इस्तेमाल करनेवाले लोगों की सोशल स्टेटस और पर्चेजिंग कैपिसिटी किसी विभागीय हिंदी बरतनेवाले से ज्यादा है तो वही हिंदी को ड्राइव करेगा। वो पहले तो अनजाने में लेकिन बाद में अपनी बादशाहत दिखाने के लिए हिंदी को वैयाकरणिक स्तर पर डैमेज करेगा और अकादमिक संस्थान उसका कुछ नहीं कर पाएंगे। ये दबंगई वाली हिंदी होगी, जिसका असर हम पॉपुलर मीडिया और मंचों पर साफ तौर पर देख रहे हैं। आयोजक ने जो शीर्षक प्रस्तावित किया है, यहीं पर आकर वो एक स्टेटमेंट की शक्ल में दिखाई देता है।
अब हम एक दूसरी संभावना पर भी विचार करें जो कि हमें फिलहाल फैशन और आर्किटेक्चर के तेजी से बदलते रूप में दिखाई दे रहा है। आइडियोलॉजी के स्तर पर भी एक हद तक हमें ये देखने को मिल रहा है। आधुनिकता के विस्तार के बाद जिस तरह से विचारधारा रैडिकल और हाइपर रैडिकल होती चली गयी, फैशन और आर्किटेक्चर टिकाऊपन के बजाय अपने भड़कीले और भव्य तौर पर विस्तार पाता गया, आज वो फिर से उस पारंपरागत दौर में लौटने की कोशिश में नजर आता है, जो कि कभी तर्क के आधार पर खारिज कर दिये गये थे। पुरानी चीजों को खारिज करने का जो दौर चला, उसमें उसके एक-एक चिन्ह निकाल-बाहर किये गये। अब वो सबकुछ एक पोस्टमाडर्न परिवेश रचते हुए भी लौटने की प्रक्रिया में है। ऐसे में संभव है कि बालमुकुंद गुप्त और द्विवेदीयुग की हिंदी के कुछ शब्दों को अपनाते हुए हिंदी आगे बढ़े। इस हिंदी को आप नास्टैल्जिक होकर फिर से अपनाएंगे और भावनात्मक अत्याचार के बजाय इमोशनल अत्याचार बोलना ज्यादा पसंद करेंगे। मेरी अपनी समझ है कि हिंदी जैसी भी बदलेगी और जो भी बदलेगी उसमें अतीत के शब्दों को लेकर नास्टैल्जिक और अंग्रेजी, कॉल्किकल या स्ट्रीट लैंग्वेंज को अपनाने की छटपटाहट के साथ हिंदी आगे बढ़ेगी। इस हिंदी के साथ सूचना की सहजता और अनुभूति की गहनता का सवाल फिर भी बना रहेगा। हिंदी ने सूचना, बाजार, रोजगार की शर्तों को लेकर अपनी सूरत जिस तरह से बना डाली है, अनुभूति की गहनता का सवाल आनेवाले समय में एक बार फिर से उठेगा। ऐसे में विभागीय हिंदी की शिनाख्त फिर से हो कि जनाब चलिए, सूचनावाली हिंदी तो आप नहीं बना पाये, बाजार की हिंदी से आपका विरोध रहा लेकिन अनुभूति की गहनता का जिम्मा तो आपके हाथों में था, बताइए… आपने इसके लिए क्या किया?
https://taanabaana.blogspot.com/2011/03/blog-post_12.html?showComment=1299909732922#c4076598667980306285'> 12 मार्च 2011 को 11:32 am बजे
Penguin hindi valon ne 12 march ko ek varta ka ayojan kar sawal uthaya hai ki " kaun batayega ki hindi kaise badalegi aur kaise chalegi?" Kya yah sawal hi galat nahin? Kya Hindi samay aur zaroorat k anusar badal nahin rahi? Kya Hindi aaj chal nahin rahi?
Kya pichhale 10 salon me jabki mobile se lekar internet tak jan-vyavhar ka bahuaayami vistar hua hai, HINDI ko janata ne apane hisab se badal nahin liya? Kya hindi ko badalane k lie kisi vidvan ya prakashak ke udyam ki zaroorat ab bhi mahsoos ki ja rahi hai? Jo bhasha Janata ke bal par chalati hai, use svayam janata hi apane hisab se sajati-savarti rahati hai. Mujhe to yahi lagata hai ki Hindi k liye bhi kisi ko pareshan hone ki zaroorat shayad nahin hai! Baharhal, vichar-vimarsh ki mudra apanane k lie abhar, kintu isake liy sahi mudda chuna jana chahiy!
https://taanabaana.blogspot.com/2011/03/blog-post_12.html?showComment=1300002176370#c2544630251558455566'> 13 मार्च 2011 को 1:12 pm बजे
हिन्दी चलेगी भी और टिकेगी भी।
https://taanabaana.blogspot.com/2011/03/blog-post_12.html?showComment=1300509080879#c377499818417636672'> 19 मार्च 2011 को 10:01 am बजे
कुछ करने योग्य् कार्य-
१) कभी किसी मंच पर बोलिये कि भारत जैसे विशाल देश की 'अपनी' अंग्रेजी होनी चाहिये ; हमे ब्रिटिश या अमेरिकन लहजे की नकल नहीं करनी चाहिये बल्कि 'भारतीय अंग्रेजी' में विश्व को रंगने की कोशिश करनी चाहिये। (अंग्रेजों के गुलाम भड़क उठेंगे)
२) कभी अंग्रेजी बोलते हुए उसमें 'मात्र १०%' देसी शब्द मिलाने की कोशिश कीजिये। (अंग्रेजी के पिट्ठू आप को घसीटकर नीचे बैठा देंगे।)
३) कभी कहिये कि हमें अंग्रेजी में 'स्पेलिंग रिफॉर्म' चलाना चाहिये ताकि आने वाली पीढ़ीयों को स्पेलिंग न रटना पड़े ; जैसा उच्चारण हो उसके अनुरूप वर्तनी हो। (कोई मैकालेपुत्र बोल पड़ेगा कि इसकी क्या आवश्यकता है?)