ब्लॉग के बहाने पहले तो वर्चुअल स्पेस में और अब प्रिंट माध्यमों में एक ऐसी हिंदी तेजी से पैर पसार रही है जो कि देश के किसी भी हिंदी विभाग की कोख की पैदाइश नहीं है। पैदाइशी तौर पर हिंदी विभाग से अलग इस हिंदी में एक खास किस्म का बेहयापन है, जो पाठकों के बीच आने से पहले न तो नामवर आलोचकों से वैरीफिकेशन की परवाह करती है और न ही वाक्य विन्यास में सिद्धस्थ शब्दों की कीमियागिरी करनेवाले लोगों से अपनी तारीफ में कुछ लिखवाना चाहती है। पूरी की पूरी एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है जो निर्देशों और नसीहतों से मुक्त होकर हिंदी में कुछ लिख रही है। इतनी बड़ी दुनिया के कबाड़खाने से जिसके हाथ अनुभव का जो टुकड़ा जिस हाल में लग गया, वह उसी को लेकर लिखना शुरू कर देता है। इस हिंदी को लिखने के पीछे का सीधा-सा फार्मूला है जो बात जैसे दिल-दिमाग के रास्ते कीबोर्ड पर उतर आये उसे टाइप कर डालो, भाषा तो पीछे से टहलती हुई अपने-आप चली आएगी।
आपमें से जो कोई भी रवीश कुमार के ‘कस्बा’ की मोबाइल पत्रकारिता , ई-स्वामी का भाषा-प्रवाह मतलब “मन का रेडियो बजने दे जरा”, प्रमोद सिंह के पतनशील साहित्य ‘अजदक’, मनीषा पांडे की ‘बेदखल की डायरी’, ‘मोहल्ला’ की बौद्धिक खुराकों, सामूहिक ‘रिजेक्टमाल’ के दलित साहित्य, ‘कबाड़खाना’ की कविता और पेंटिग चर्चा और चोखेरबालियों की बहसों से गुजरा है – वे समझ सकते हैं कि हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगाली, भोजपुरी, हरियाणवी और टिपिकल दिल्ली की भाषा-बोली में लिखे साइनबोर्डों और बतकुच्चन के बीच जाकर अपनी दावेदारी वाली हिंदी कैसे एडजेस्ट कर जाती है? बिस्तरे ही बिस्तरे की तर्ज पर बड़े आराम से रिश्ते ही रिश्ते हो जाता है, चना सत्तू शेख हो जाता है, भोपाल में 90 एमएल बच्चा पैग हो जाता है। यानी साहित्यिक विमर्शों के लिए प्रयोग होनेवाली हिंदी से इतर हिंदी दो पैसा कमाने की भाषा, झाड़-झड़प गुस्सा जाहिर करने की भाषा, सेंटी होकर लोगों को अपनी तरफ खींचने की भाषा, भूली-बिसरी घटनाओं को संस्मरण की शक्ल देनेवाली भाषा कैसे बने, इसकी कोशिश में समाज का एक बड़ा तबका दिन-रात लगा है। हिंदी ब्लॉगिंग की अभिव्यक्ति का एक बड़ा हिस्सा इसी जद्दोजहद के बीच से विकसित होती है।
यह बहुत हद तक संभव है कि भाषा के इस मौजूदा रूप में विमर्श न होने पाएगा, गुरु-गंभीर बातें अगर इस भाषा में की जाए तो फटीचरपने का एहसास होगा, विचारधारा और बदलाव की बात इसमें न की जा सकेगी लेकिन हिंदी का कल्याण करने की अपार चिंता और बंटाधार हो जाने की स्थायी कुंठा से मुक्त जिस हिंदी का विकास वर्चुअल स्पेस में हो रहा है, गूगल के हजारों पन्ने तैयार हो रहे हैं, वह किताबी दुनिया के भाषा-साहित्य से कम दिलचस्प नहीं है। हिंदी के इस रूप को समझने के लिए वैयाकरणाचार्यों, वाक्य विन्यास विशेषज्ञों और भारी-भरकम शब्दकोशों की तरफ नजर टिकाने से कहीं ज्यादा जरूरी है कि मेरठ के बेगम पुल पर, दिल्ली के गफ्फार मार्केट में, बनारस के गुदौलिया चौक पर और बिहार के बलिया-बक्सर, लहेरियासराय के हाट-बाजार में टीशर्ट, मोबाइल, कैमरा, गुडपापड़ी, गुजिया, केले और संतेरे बेचनेवाले दुकानदारों, प्रोपर्टी डीलरों और आये दिन घरों-मोहल्लों में चिकचिक करते लोगों की जुबान पर गौर किये जाएं।
हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया से अगर आप गुजरते हैं और आपको इसके इतिहास-वर्तमान की थोड़ी सी भी जानकारी है तो आप समझ सकते हैं कि इसमें जितने भी नामचीन ब्लॉगर हैं और बनने के कगार पर हैं, उनमें से एक का भी सीधा संबंध हिंदी विभाग और साहित्य से नहीं रहा है। हिंदी ब्लॉगिंग के पुरोधा रविरतलामी टेक्नोक्रेट हैं, उड़न तश्तरी नाम से मशहूर समीरलाल कनाडा के एक बिजनेस फर्म में कार्यरत हैं, सुनील दीपक इटली में डॉक्टर हैं, नारद नाम से एग्रीगेटर शुरू करनेवाले जितेंद्र का संबंध कंप्यूटर फर्म से रहा है, बेजी संयुक्त राज्य अमीरात में शिशु-चिकित्सक हैं। यहां तक कि हिंदी के आदि ब्लॉगर आलोक कुमार का भी संबंध साहित्य से नहीं रहा। इस तरह हजारों ऐसे ब्लॉगर हैं जो सूचना प्रौद्योगिकी, इंजीनिरिंग, अकाउंटिंग, वकालत जैसे पेशे से जुड़े हैं जहां सीधे-सीधे हिंदी लेखन का काम नहीं है लेकिन वर्चुअल स्पेस पर ये कविता, कहानियां, संस्मरण, रिपोर्ताज और कई बार तो पेशेवेर पत्रकारों की तरह रिपोर्ट लिख रहे हैं।
अनूप सेठी ने अपने लेख ‘हिंदी का नया चैप्टरः ब्लॉग’ में ऐसे गतिमान हिंदी लेखन को बिना लेखकों का गद्य कहा है। वे हमारी-आपकी तरह ही मैला आंचल, राग-दरबारी, गालिब छुटी शराब और काशी का अस्सी जैसी रचनाओं पर प्रतिक्रिया जाहिर कर रहे हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि वे हमारी तरह संवेदना और शिल्प तलाशने की छटपटाहट से मुक्त हैं, वे इस पर विचारधारा का लेबल चस्पाने की फिराक में नहीं है। संभव है कि शुरुआती दौर में हिंदी समाज के बीच इसे लेकर जो जबरदस्त विरोध रहा है, उसकी एक बड़ी वजह यह भी रही हो। फार्मूले के तहत पढ़ने-लिखने की कवायद के बीच जो हिंदी और “साहित्य कुछ खास लोगों का कर्म बनकर रह गया है जहां साहित्य के पाठक काफूर की तरह हो गये हैं, लेखक ही लेखक को और संपादक ही संपादक की फिरकी करने में लगा है, वहां इन पढ़े-लिखे नौजवानों का गद्य लिखने में हाथ आजमाना कम आह्लादकारी नहीं है। वह भी मस्त मौला, निर्बंध लेकिन अपनी जड़ों की तलाश करता मुस्कराता, हंसता, खिलखिलाता, जीवन से सराबोर गद्य। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय। लोकल और ग्लोबल। यह गद्य खुद ही खुद का विकास कर रहा है, प्रौद्योगिकी को भी संवार रहा है। यह हिंदी का नया चैप्टर है।” ( अनूप सेठी, वागर्थ जनवरी 2005)
हिंदी के इस नये चैप्टर को लेकर हिंदी समाज के बीच विरोध, असहमति, हील-हुज्जत, कौतूहल, मौन समर्थन और इसे अपनाने-हथियाने की प्रक्रिया कई स्तरों पर समान रूप से जारी है। हममें से कोई अगर इस पूरी प्रक्रिया पर संवेदनशील होकर शोध करना चाहे, तो संभव है कि किताबी दुनिया में दर्ज हिंदी और मुद्दों से इतर कई नयी झलकियां मिल जाए। विज्ञान और प्रौद्योगिकी को लेकर हिंदी लेखन का व्यावहारिक प्रयोग समझ आ जाए जिसे कि लोग जानकारी बढ़ाने से कहीं ज्यादा उस तकनीक को अपने इस्तेमाल में लाने के लिए लिख-पढ़ रहे हैं। हां इस काम के लिए इतना जरूर है कि विचारधारा, संवेदना और शिल्प के खांचे में रहकर चीजों को देखने की आदत से बाहर निकलना होगा।
यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि ब्लॉगिंग का आविर्भाव न तो अभिव्यक्ति के औजारों से हुआ है और न ही अकादमिक प्रशिक्षण केंद्रों में रहकर इसका कोई मानक रूप दिया गया है। जिस समय हिंदी समाज हिंदी का ग्लोबल स्तर पर विस्तार देने के क्रम में संगोष्ठियों में रमा रहा, ठीक उसी समय गैर हिंदी विभागी लोग हिंदी फांट, तकनीक और सॉफ्टवेयर को लेकर लगातार माथापच्ची करते रहे। इन्हीं लोगों के बीच से ई-स्वामी पत्नी की असहमति और बाबला करार दिये जाने के बावजूद एग्रीगेटर के लिए दुनियाभर के हिंदीप्रेमियों से मदद करने की अपील कर रहे थे। इसी समय कोई गूगल जिसे कि प्रभाव के कारण चिढ़ में हम सूचना का दैत्य भी कह देते हैं, उसके परिसर में हिंदी के लिए जगह बनाने की जुगत भिड़ा रहा था। हिंदी के अगाध प्रेम में पगे लोग इनका शायद ही नाम जानते हों क्योंकि इन्होंने यह सब कुछ बिना कोई बैनर टांगे, मंच सजाये, माइक लगाये और दरी बिछाये किया। हिंदी ब्लॉगिंग पर बात करने के क्रम में इन सब बिंदुओं को शामिल करना जरूरी है।
यह काम इसलिए भी जरूरी है कि एक तो इसे लंबे समय तक स्टीरियोटाइप से इस रूप में परिभाषित किया जाता रहा कि यह हिंदी भाषा और साहित्य से सीधे-सीधे जुड़े लोगों के विरोध में है और दूसरा कि अब तक के तमाम माध्यमों की तरह इसे भी विचारधारा, बाजार विरोधी तर्क, सामाजिक सरोकार को तय करनेवाले कारकों के तहत विश्लेषित कर लिये जाने का मन बना लिया गया। सिर्फ कंटेंट पर केंद्रित न होकर इसकी पूरी प्रक्रिया पर गौर करें तो ब्लॉगिंग न केवल इन दोनों नीयतों को ध्वस्त करता है बल्कि उन तमाम लोगों के आत्मविश्वास को कमजोर करता है जो कि साहित्य और पत्रकारिता के औजार से इसे विश्लेषित करने का उपक्रम रचते हैं। इस तरह की घटनाओं को लेकर बहुत सारे बारीक संदर्भ जुटाने के बजाय हम एक उदाहरण पर गौर करें तो स्थिति साफ हो जाती है।
इलाहाबाद के हिंदुस्तानी एकेडेमी सभागार में पहुंचते ही हिंदी चिठ्ठाकारी की दुनिया नाम से होनेवाले दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी (23-24 अक्टूबर) का जो पर्चा हमें थमाया गया, कार्यक्रम और बातचीत के विषयों की जो जानकारी हमें दी गयी उससे साफ हो गया कि हिंदी ब्लॉगिंग को अब अकादमिक जगत और साहित्य के संस्कार से विश्लेषित करने की तैयारी शुरू हो गयी है। यह संगोष्ठी देश के किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय में ब्लॉगिंग पर होनेवाली पहली और सबसे बड़ी संगोष्ठी थी जिसका श्रेय निश्चित रूप से महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा को दिया जाना चाहिए। ब्लॉगरों के लिए यह कम सम्मान की बात नहीं थी कि जिस काम को वे टाइम पास और मौज-मजे के तौर पर करते आये हैं, उस पर अब अकादमिक बहसें होनी शुरू हो गयी है। जिन लोगों ने इस काम की पार्श्व-निंदा की, मंच से अनुपयुक्त लेखन करार दिया, अब वे ही लोग पर बात करने हमारे सामने मौजूद हैं। लेकिन, हिंदी ब्लॉगिंग को साहित्य से संस्कारित किये जाने और इस पर अनावश्यक हिंदी प्रेम लुटाने के नतीजे से इन्हीं ब्लॉगरों को गहरा आघात लगा।
थोड़ी देर पहले शुरू होनेवाले जिस आयोजन के पीछे ब्लॉगर, ब्लॉग की दुनिया का एक बड़ा भविष्य बनता देख रहे थे, उन्हें तुरंत ही इस दुनिया में कतर-ब्योंत करने की साजिश नजर आने लगी। हिंदी आलोचक नामवर सिंह ने जैसे ही हिंदुस्तानी एकेडेमी के सभागार को ऐतिहासिक करार देते हुए कहा कि ब्लॉगिंग के लिए हिंदी में चिठ्ठाकारी शब्द खोज लाने का श्रेय महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा को जाता है तो सभागार की करतल ध्वनि के बीच देशभर से आये दर्जनों ब्लॉगरों के भीतर एक गलत इतिहास दर्ज किये जाने का दर्द उठा। अचानक से शोर-शराबा बढ़ गया। इसी बीच कानपुर से आये अनूप शुक्ल ( फुरसतिया) की लाइव पोस्ट मेरे लैपटॉप पर फ्लैश होती है, जिसके वाक्य कुछ इस तरह से थे – “नामवर जी ने ब्लाग के बारे में अपनी समझ बतायी। जब उन्होंने कहा कि चिट्ठाकारी शब्द वर्धा विश्वविद्यालय ने दिया, तब हमें अपने भाई आलोक आदि चिट्ठाकार याद आये। तुम वहां चंड़ीगढ़ में हो भैया और तुम्हारे मानस शब्द का अपहरण हो गया।”
अंग्रेजी शब्दों का हिंदी अनुवाद करके जो वक्ता अपने हिंदी प्रेम को स्थापित करने की कोशिश में थे, तकनीक और हाइपर टेक्सचुअलिटी को हिंदीआयी हुई अभिव्यक्ति बताने पर जोर दिया जा रहा था, उनके ऐसा करने से हिंदी ब्लॉगिंग के न केवल ऐतिहासिक संदर्भ कुचले जा रहे थे, न केवल उन तकनीक विशारद हिंदीप्रेमियों और एड़ी-चोटी एक करके एग्रीगेटर खड़ी करनेवाले मैथिली गुप्त जैसे लोगों को भुलाया जा रहा था बल्कि ब्लॉगिंग को समझने की गलत परंपरा की नींव डाली जा रही थी। हिंदी समाज इतना स्वार्थी है कि वह हर नयी अभिव्यक्ति को साहित्य के पाले में खींच ले जाएगा, इसकी कल्पना ब्लॉगरों के बाहर की चीज थी। हिंदी ब्लॉगिंग के इतिहास में यह घटना इसी रूप में याद की जाएगी।
तकनीकी शब्दावलियों का तर्जुमा करने भर से हमें अपनी भाषा के शब्द मिल जाने की खुशी तो जरूर होती है लेकिन तकनीक को लेकर अपनी दावेदारी करने लग जाना बेमानी है। इस पर खुशी और दावेदारी जाहिर करने के बजाय जब तक इस पूरी प्रक्रिया की समझ के साथ विश्लेषित करने का काम नहीं किया जाता तब तक यह आलोचना के नाम पर हिंदी पाठकों के साथ छलना है। अनुवाद के जरिये भाषायी प्रेम प्रदर्शित करने में हमारी वस्तुस्थिति के प्रति समझ कैसे विचलित होती है, इसकी एक मिसाल इसी संगोष्ठी में ‘anonymous’ शब्द को लेकर देखने को मिली। इस संगोष्ठी में हिंदी चिठ्ठाकारी के कुंठासुर नाम से सत्र रखा गया और उसे नकारात्मक अर्थ में प्रस्तावित किया गया जबकि पूरी ब्लॉगिंग के इतिहास पर नजर डालें जिसमें कि इराक युद्ध पर रिवरबेंड की ब्लॉगिंग भी शामिल है जो कि अब बगदाद बर्निंग नाम से किताब की शक्ल में है – तो यही अमूर्त नाम/बेनामी ही ब्लॉगिंग की सबसे बड़ी ताकत बनकर उभरा है। दुनिया की कई बड़ी न्यूज एजेंसियां और मीडिया हाउस जिसमें कि सीएनएन भी शामिल है, इनकी बातों को प्रमुखता से छापती-दिखाती आयी हैं, कोई नहीं जानता कि गुल्लिवर कौन है? अनुवाद के जरिये अतिरिक्त भाषा प्रेम प्रदर्शित करने का नतीजा है कि बेनामी को हिंदी समाज हमेशा से गलत मानता आया है जबकि कई बार उसके नाम से ज्यादा उसकी बात ज्यादा मायने रखती है। यही हाल तकनीक को लेकर है।
अंतर्जाल की इस दुनिया में अक्षर के तौर पर हमें हिंदी तो जरूर दिखाई दे रही है लेकिन इसकी ‘ग्रैमटलॉजी’ साहित्य की दुनिया से बिल्कुल अलग है। इसने किताबी पाठ की हायरारकी को ध्वस्त किया है। एचटीएमएल कोड, यूआरएल, कीवर्ड्स की शैली में ऑडियो-वीडियो से सटाकर लिखे जानेवाले इस बहुविध पाठ की व्याख्या और विश्लेषण सिर्फ हिंदी की सदइच्छा लेकर संभव नहीं है। हिंदी ब्लॉगिंग की आलोचना करनेवाले लोगों पर इस बात की दोहरी जिम्मेदारी है कि वह न्यू मीडिया और बदलती वैश्विक आर्थिक शर्तों के बीच हिंदी और उसके भीतर की अभिव्यक्ति को देखना शुरू करें। नहीं तो महज कंटेंट के स्तर पर आलोचना के लिए दर्जनों मुद्दे पहले से ही मौजूद हैं और जो नहीं हैं उसे आपसी सहमति के आधार पर जारी रखिए, अच्छा प्रयास, अद्भुत, नाइस कहने-कहलवाने वालों की जो जमात पनप रही है, जिनके दम पर एक ऐसा लिक्खाड़ समाज आकार ले रहा है जो अपनी हर तुकबंदी और भाषिक कलाबाजी के बूते कवि, लेखक और चिंतक कहलाने के लिए बेचैन है, वे आकर थमा ही जाएंगे।
(नया ज्ञानोदय मई 2010 में प्रकाशित "ब्लॉग के बहाने" नियमित कॉलम से..)
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https://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_06.html?showComment=1273132487378#c3214382346857204123'> 6 मई 2010 को 1:24 pm बजे
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
https://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_06.html?showComment=1273132530866#c4259878495486333788'> 6 मई 2010 को 1:25 pm बजे
हिंदी ब्लोगरी पर एक विस्तृत समालोचना प्रस्तुत किया आपने. धन्यवाद!
(मैन ब्लोगिंग को ब्लोगरी लिखता हूँ)
https://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_06.html?showComment=1273149970742#c3594816712575966529'> 6 मई 2010 को 6:16 pm बजे
मैंने पढ़ा था ........सही कहा आपने ,
https://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_06.html?showComment=1273203879464#c7120535763598703885'> 7 मई 2010 को 9:14 am बजे
ये निहायत ही ज़रूरी है कि हम अपनी लेखन का विश्लेषण करें।आपने बहुत सही काम शुरू किया है और ब्लागजगत के भूत और वर्तमान को जमकर खंगाला है।भविष्य ठीक हो इसके लिये ये ज़रुरी भी है।ब्लागिंग में कोई नियम,नीति-निर्देश नही होने के कारण एक प्रकार कि निरंकुशता भी नज़र आने लगी है और कई बार इसका दुष्प्रभाव मैं खुद की लेखनी मे भी देख चुका हूं।वैसे भी समय-समय पर विश्लेषण होने से ये भी पता चल जाता है कि हम सही रास्ते पर हैं या नही और हमारी रफ़्तार ठीक है या नही।ऐसा करने से भट्काव के आसार नही रहते और सुधार की पुरी-पुरी गुंजाईश भी रहती है।बहुत-बहुत बधाई हो आपको,अनंत शुभकामनाएं ।
https://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_06.html?showComment=1273373154960#c3978909873507428914'> 9 मई 2010 को 8:15 am बजे
कई बार इसे देखा और पढ़ा। बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर। बधाई।
मुझे पूरा भरोसा है नया ज्ञानोदय में तुम्हारे द्वारा ब्लाग के बहाने जो लिखा जायेगा उससे ब्लॉग के बारे में लोगों अच्छी समझ बनेगी।
शुभकामनायें।
https://taanabaana.blogspot.com/2010/05/blog-post_06.html?showComment=1370842428183#c6901617086727476259'> 10 जून 2013 को 11:03 am बजे
बहुत सारे कटु सत्य सामने ले आए आप...| एक विचारशील लेख पढ़ कर अच्छा लगा...बधाई...|
प्रियंका