कथादेश के नबम्बर अंक में रवीन्द्र त्रिपाठी ने अशोक वाजपेयी के नाम एक खुला पत्र लिखा है। वही अपने वाजपेयीजी जो साहित्य की लॉन में राजनीति, समाजशास्त्र और इसी तरह दूसरे डिसीप्लीन के खोंमचे लगाने से लोगों को मना करते हैं। वो नहीं चाहते कि जो साहित्य टहलने या टेनिस खेलने की जगह है वहां लोग राजनीति, समाज, शोषण और हाय रे देखो वो मरा, वो गया कि हांक लगाते फिरे। रवीन्द्र त्रिपाठी ने इनसे एक कला चैनल खोलने या फिर इस दिशा में काम करने का अनुरोध किया है।
रवीन्द्र त्रिपाठी का कहना है कि- वाजपेयीजी, मैं नहीं जानता कि आप टेलीविजन के बारे में क्या निजी विचार रखते हैं। वाजपेयीजी, आमतौर पर हिन्दी के जिन बुद्धिजीवियों से मेरा बौद्धिक आदान-प्रदान का संबंध रहा है उनमें से ज्यादातर टेलीविजन के बारे में गंभीर राय नहीं रखते। दुर्भाग्य से ऐसा इसलिए हुआ है कि निजी टेलीविजन चैनलों की आपसी होड़ ने उसे सनसनीपूर्ण अतिरेक का पर्याय सा बना दिया है। फिर भी यहां जोर देकर कहना चाहूंगा कि टेलीविजन की संभावनाएं अभी पूरी तरह तलाशी नहीं गयी है।....
आगे रवीन्द्र त्रिपाठी की बात रखूं इसके पहले अपनी तरफ से जोड़ता हूं कि हिन्दी का बौद्धिक समाज न केवल टेलीविजन के प्रति गंभीर राय रखते हैं बल्कि जो इसकी आलोचना और इसके विमर्श में लगे हैं, उन्हें भी हल्के ढंग से लेते हैं। संभव है ऐसा इसलिए भी है कि आलोचना करनेवाले भी टीवी पर स्टीरियोटाइप से बात करते हैं अगर गंभीरता से बात करने की कोशिश करते हैं तो मार्क्स को इस कदर लादने पर आमादा हो जाते हैं कि दस-बीस पन्ने के बाद टीवी गायब हो जाता है औऱ सारी बहस पूंजी, उत्पादन और उसका समाज पर पड़नेवाले प्रभाव पर आकर टिक जाती है। बहुत हुआ तो एडोर्नो की कल्चर इन्डस्ट्री के आजू-बाजू फेरे लगाकर दम मार लेते हैं। वो साठ के बाद या फिर दूरदर्शन के आगे बढ़ ही नहीं पाते। बढ़िया चैनल के नाम पर वो दूरदर्शन को रख देते हैं. नतीजा ये होता है कि अंत तक आते-आते ये साबित कर देते हैं कि निजी हाथों टीवी की साकारात्मक छवि पेश की ही नहीं जा सकती.और दुर्भाग्य तो ये है कि कई बुद्धिजीवी टीवी को बिना देखे-समझे ही दुत्कारने लगते हैं। अकड़कर कहते हैं, मैं तो कभी टीवी देखता ही नहीं। उनकी सारी समझ टीवी क दरकिनार करके विकसित हुई है। संभवतः यही वजह है कि हन्दी समाज- ने अभी तक टीवी में बड़ी संभावना की खोज नहीं की है। वो अभी भी स्त्रीन पर आने के बजाय जोड़-तोड़ से किताब छपवाने में भरोसा रखते हैं। ये जानते हुए भी कि जिसके लिए वो किताब लसिख रहे हैं, शायद ही व इस किताब को पढ़ पाएगा य फिर उसकी हैसियत होगी कि वो इसे खरीद सके।
आगे उन्होंने कहा- मैं इस ओर आपका और साथ ही बैद्धिक समुदाय की भी ध्यान दिलाना चाहूंगा कि हिन्दी में कलाओं के संबंधित एक टेलीविजन चैनल की जरुरत है और ललित कला अकादेमी, साहित्य अकादेमी, साहित्य अकादेमी, संगीत नाटक अकादेमी व राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय मिलकर सामूहिक रुप से एक कला चैनल की शुरुआत करें तो उससे कलाओं का भी लाभ होगा और सहृदयता का विस्तार भी।
रवीन्द्र त्रिपाठी ने जो अनुरोध किया है वो आम कलाप्रेमियो, दर्शकों और कला, साहित्य और संस्कृति को लेकर भला सोचनेवालों के लिए डेमोक्रेटिक है। अगर वाजपेयीजी सहित दूसरे लोग भी इस दिशा में प्रयास करते हैं और चैनल खुल जाता है तो वाकई हम जैसे घसीट-घसीटकर, बशर्मी से लिफ्ट मांगकर मंडी हाउस, आइआइसी और हैबिटेट सेंटर जानवाले लोगों को बहुत ही राहत मिलेगी। वहां जाकर फैब इंडिया में लदे-फदे लोगों को देकर कॉम्प्लेक्स पालने से मुक्ति मिलेगी। पहले इन्ट्री टिकट ले लें या फिर इसे छोड़कर केबलवाले का बिल भर दें, इस दुविधा से राहत मिलेगी। और वैसे भी हमारे जैसे देशभर में करोड़ों दर्शक बैठे हैं जो भीड़-भाड़ में जाने के बजाय सबकुछ टीवी पर ही देख लेने की जोड़-तोड़ में लगे होते हैं। और फिर फ्री इन्ट्री होने पर भी कहां संभव है कूद-कूदकर हौजखास औऱ लोदी रोड जाना। आने-जाने में ही सौ-डेढ़ सौ ढीला। जितना का बउआ नहीं उससे ज्यादा का झुनझुना। अब कहने को कईंया कह लीजिए लेकिन सच बात है कि कला और संस्कृति के नाम पर जो माहौल बन रहा है उसमें आदमी चाहकर भी शामिल नहीं हो पाता। दुनियाभर के सांस्कृतिक संस्थान इस अर्थ में विस्तार और अभिरुचि पैदा करने के बजाय क्लास पैदा करने में लगे हैं जिसे देखकर ही लगेगा कि वो इस ऐसे-वैसे को शामिल होने ही नहीं देना चाहते. इसलिए
चैनल की सोच के स्तर पर रवीन्द्र त्रिपाठी की बात जितनी व्यावहारिक है, प्रैक्टिस के लेबल पर उतनी ही परेशानी पैदा करनेवाली। इस मामले में उनका हिन्दी समाज के प्रति ज्ञान कच्चा है। अब जब चैनल खुल जाएंगे तो फिर मठाधीशी का क्या होगा। सभाओं में जो अकड़ बनती है उसका क्या होगा। औऱ किसने कह दिया कि इन संगोष्ठियों, प्रदर्शनियों में लोग कलाप्रेम की वजह से जाते हैं। एक नजर मारिए तो कि जो भी आयोजन होते हैं उसका वाकई उद्देश्य होता है कि कला का विस्तार होता है। आपको क्या लगता है कि चैनल खोलने के पहले बौद्धिक टोली इस एंगिल से विचार नहीं करेगी। रवीन्द्रजी आप तो उन्हें अपने ही पैर पर कुल्हाडी मारकर पालकी बनाने क अनुरोध कर रहे हैं...दधीचि का सपना आया था क्या। ऐसा कुछ नहीं होनेवाला।.. हिन्दी४ समाज ज्यादा से ज्यादा मैनुअल मीट में विश्वास रखता है, आप है कि उन्हें वर्चुअल होने की राय दे रहे हैं। हां कोई निजी कम्पनी चैनल खोले तो जमा लेगा।
https://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_09.html?showComment=1226222940000#c2500557817054327384'> 9 नवंबर 2008 को 2:59 pm बजे
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सबकुछ होय.
वाजपेयी क्य्य मान लें, भले त्रिपाठी रोय.
भले त्रिपाठी रोय,टी.वी. की गाये गाथा.
किसको फ़ुर्सत है,जो फ़ोङे अपना माथा.
कह साधक कविराय,करो सब धीरे-धीरे.
धीरे सब-कुछ होय,त्रिपाठी धीरे-धीरे.
https://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_09.html?showComment=1226252040000#c3451414522698454112'> 9 नवंबर 2008 को 11:04 pm बजे
एक साल पूरा होने की बधाई!
https://taanabaana.blogspot.com/2008/11/blog-post_09.html?showComment=1226252880000#c3601840625013189111'> 9 नवंबर 2008 को 11:18 pm बजे
आपकी बात से सहमत कि
हिन्दी में कलाओं के संबंधित एक टेलीविजन चैनल की जरुरत है और ललित कला अकादेमी, साहित्य अकादेमी, साहित्य अकादेमी, संगीत नाटक अकादेमी व राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय मिलकर सामूहिक रुप से एक कला चैनल की शुरुआत करें तो उससे कलाओं का भी लाभ होगा और सहृदयता का विस्तार भी।
-पर यह सपना सपना ही रह जाएगा ऐसी आशंका है।