हिन्दी समाज भले ही इस बात को ताल ठोककर हेकड़ी भरता रहे कि संवेदना के मामले में वो अंग्रेजी से आगे है। भाषा की बात आने पर अंग्रेजीवालों का मुंह नोचने पर आमादा हो आए, हिन्दी को लेकर कितना सीरियस है इस पर बात न करके अंग्रेजी के नाम पर कितना जल्दी खून खौल जाए में अपना बडप्पन समझता है। लेकिन सच्चाई यही है कि इतने प्रयासों के बावजूद हिन्दी के लोग अंग्रेजी के मुकाबले बहुत पीछे हैं।
अपनी समझ से शुरु से ही मैं मानकर चलता हूं कि जब कभी भी हम भाषा पर विचार करते हैं तो सवाल सिर्फ अभिव्यक्ति में आए फर्क को लेकर नहीं होता है बल्कि कंटेंट और संदर्भ भी पूरी तरह बदल जाते हैं। यहां अगर बात अंग्रेजी और हिन्दी को ध्यान में रखकर की जाए तो यह मामला साहित्य, मीडिया और टीवी चैनलों में साफ दिखाई देता है। इस बात पर मुझे कुछ भी कहने की जरुरत महसूस इसलिए हुई कि मेरी पोस्ट पर एक साथी ने लिखा कि आप बताएं- देश में क्या सिर्फ अंग्रेजीवाले सीरियस न्यूज देखना चाहते हैं। साथ विकास का सवाल इस मामले में था कि हिन्दी चनलों को जब भी कहा जाता है कि ये सांप-सपेरों या फिर जलवों में फंसकर रह गए हैं तो इनका सीधा जबाव होता है कि दर्शक जो देखना चाह रही है वही हम दिखा रहे हैं। विकास का कहना बिल्कुल जायज है कि अगर अंग्रेजी चैनलों में अनर्गल चीजें कम आतीं हैं तो इसका मतलब तो यही हुआ न कि अंग्रेजी के दर्शक हार्ड कोर सीरियस न्यूज देखना चाहते हैं।
हिन्दी मीडिया और साहित्य दोनों को लेकर बात करें तो जो मेरी अपनी समझदारी बनती है वो यह कि जो बंदा अंग्रेजी में न्यूज देख-समझ रहा है, उससे इस बात की उम्मीद की जाती है कि वो केवल भाषा ही नहीं समझ रहा है बल्कि मुद्दों के स्तर पर भी मैच्योर है, समझदार है, पढ़ा-लिखा है। ये वो दर्शक है जिसे कि आप कुछ भी दिखा देंगे और वो देख लेगी ऐसा नहीं है, वो सीधे आपके चैनल को छोड़कर कहीं और चली जाएगी। इसलिए अंग्रेजी चैनल खबरों या पैकेजों को चलाते समय इस बात का ध्यान रखती है कि उसका ऑडिएंस भाषा के साथ-साथ कटेंट को लेकर भी सजग है। जबकि हिन्दी मीडिया के साथ बात बिल्कुल दूसरी है। जो हिन्दी जानता है, समझता है उससे इस बात की अपेक्षा नहीं होती कि वो मुद्दे को लेकर भी उतना ही समझदार है, वो सारे मसलों को उतनी ही सजींदगी से समझता है। ये वो दर्शक है जो अभी-अभी सूचना की दुनिया से जुड़ा है या फिर पहले भी जुड़ा गै तो भी शिक्षित हो जरुरी नहीं। इनमें नेगलेंस क्षमता नहीं होती, इन्हें जो भी दिखा दो, देश लेगी। यानि एक स्तर पर हिन्दी मीडिया मानकर चलती है कि हमारी ऑडिएंस मूर्ख हैं, इम्मैच्योर है। ऐसे मैं अगर बात ईमानदारी की जाए तो कायदे से हिन्दी मीडिया को अपनी ऑडिएंस को ज्यादा समझदार बनाना चाहिए, उसे मैच्योर बनाए लेकिन मीडिया अगर ऐसा करने लगे तो फिर उसका काम तो हो गया। ये लम्बी प्रक्रिया है, बहुत पेशेंस का काम है। और फिर अगर ऑडिएंस उतनी समझदार हो भी गई तो फिर इनका कौन-सा भला होगा, उल्टे इनका नुकसान ही होगा। वो आगे से इनके अधकचरे ज्ञान को, खबरों को, जल्दीबाजी में बटोरे गए आंकड़ों और बाइटों पर भरोसा करना छोड़ देगी। वो समझने लगेगी कि आधे से ज्यादा खबर अंग्रेजी तैनलों, बेबसाइटों और न्यूज एजेंसियों की कॉपी है, उनका सीधे-सीधे अनुवाद हुआ है। अगर ऑरिजिनल कॉपी हाथ लग जाए तो अंग्रेजी बहुत अच्छी न होने पर भी बात ज्यादा समझ में आएगी। जिस दिन हिन्दी मीडिया की ऑडिएंस समझदार हो गई उस दिन हिन्दी मीडिया के दावों की जो कि सीना तानकर कहते-फिरके हैं कि हमने खोजा, हमने दिखाया की हवा निकाल देंगे। उस दिन उन्दें हिन्दी चैनलों की स्टोरी पायरेटेड लगने लगेगी।
अब इसी बात का कोई विरोध करे और बताए कि हिन्दी मीडिया में दोयम दर्जे का काम होता है तो हिन्दी भक्तों को सीधा लगेगा कि ऐसा लिखनेवाले बंदे का हाथ तत्काल काट लिए जाएं। वो सीधा-सीधा उसे अंग्रेजी का पिछलग्गू समझ बैठेगा। जबकि गड़बड़ी कहां है, आप सब जानते हैं और ये भी जान रहे हैं कि यहां विरोध भाषा को लेकर नहीं है। बल्कि गड़बड़ी इस बात को लेकर है कि हिन्दी मीडिया अपने होमवर्क को लेकर अंग्रेजी चैनलों से बहुत पीछे है। हिन्दी का रिसर्च वर्क बहुत कमजोर है। वो किसी भी असर को घटना के तौर पर देखना-समझना चाहती है जबकि असर को रिसर्च करते हुए देखने की जरुरत होती है। इसमें भाषा का कहीं कोई दोष नहीं है और न ही हिन्दी में शब्दों की कोई कमी है। लेकिन आप खुद महसूस करेंगे कि हिन्दी पट्टी, मान लीजिए बनारस में कोई घटना होती है तो उसकी कवरेज आमतौर पर किसी हिन्दी अखबार या चैनलों के मुकाबले अंग्रेजी के चैनलों, न्यूज एजेंसियों में ज्यादा बेहतर तरीके से आती है। क्यों, क्योंकि अंग्रेजी चैनलों को इस बात का एहसास है कि हमारी ऑडिएंस रेशनल है, वो ऐसे सिर्फ खबरों से नहीं मानने वाली है, उसे सारी चीजें बड़ी लॉजिकल तरीके से समझानी होगी। जबकि हिन्दी चैनलों के सामने दूसरे तरह की सिरदर्दी है, उससे लोगों के बीच सबसे पहले जाने की हड़बड़ी है। उसके सामने अभी भी बाजार की प्रायरिटी अंग्रेजी के मुकाबले ज्यादा है, वो अभी भी अपने को जनता के सामने स्थापित नहीं कर पायी है। कोई चैनल चार-पांच सालों से नंबर वन पर है तो भी लगातार डर बना हुआ है कि पता नहीं कब ताज छिन जाए। इसलिए एक घबरायी हुई, बौखलाई हुई स्थिति में जो खबरें मिलती हैं हमारे सामने परोस दी जाती है, बिना किसी रिसर्च के, बिना ऑडिएंस के इश्यू को ध्यान करके। इसलिए आप देखेंगे कि
हिन्दी मीडिया रामनामी बेचनेवाली खबर और रंडी की दलाली करनेवाली खबरों में फर्क नहीं कर पाती।।।
आगे पढ़िए, साहित्य के स्तर पर हिन्दी और अंग्रेजी
https://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_25.html?showComment=1206439200000#c5766805486863034402'> 25 मार्च 2008 को 3:30 pm बजे
विनीत बाबू बहुत गुस्से में हो लेकिन गुस्सा जायज है, बोल हल्ला को आपके लेख का इंतजार है
https://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_25.html?showComment=1206443040000#c6769342499597885118'> 25 मार्च 2008 को 4:34 pm बजे
सच कह रहे हैं
मैं तो सिर्फ छुटटी वाले दिन ही टीवी देखता हूं
उस एक दिन में ही मैं सारे सीरियल की कहानी भी समझ जाता हूं और तो और अपन के न्यूज चैनल एक दिन में ही बोर करने लगते हैं। सब पर वही न्यूज ब्रेकिंग न्यूज और एक्सलूसिव की पटटी चलाकर।
कई बार नीचे स्क्रोल में चल रहे टिकर की हिंदी को देखकर माथा पकड लेता हूं।
https://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_25.html?showComment=1206443880000#c7008942510674536967'> 25 मार्च 2008 को 4:48 pm बजे
जब खबर देखनी होती है, हिन्दी द्रोह कर अंग्रेजी चैनल देख लेता हूँ, और अंग्रेजी अखबार पर नजरे फेर लेता हूँ.
दुख तो होता है... :(
https://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_25.html?showComment=1206448980000#c2938866598311234888'> 25 मार्च 2008 को 6:13 pm बजे
bahut sahi baat pakdi guru..aage ki post ka intzaar hai.
https://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_25.html?showComment=1206456120000#c3666310639933937143'> 25 मार्च 2008 को 8:12 pm बजे
एकदम सही मुद्दा, हिन्दी मीडिया अभी भी घुटनों के बल ही है… इलेक्ट्रानिक… प्रिंट मीडिया नहीं
https://taanabaana.blogspot.com/2008/03/blog-post_25.html?showComment=1206469680000#c2031107470285945170'> 25 मार्च 2008 को 11:58 pm बजे
विनीत जी, पहले तो आपको धन्यवाद इस लेख के लिए. आपने एकदम सटीक और सही आकलन किया है. मैं आपकी बात से सहमत हू, जिस दिन हिन्दी का दर्शक समझदार हो गया इस नौटंकियों की दुकान बंद होने मे समय नही लगेगा. लाख टके का सवाल है की हिन्दी के दर्शकों की सोच को जगाया कैसे जाय? मैने आपके ही किसी अन्य लेख मे पढ़ा था की हमे वैकल्पिक मीडिया की आवश्यकता है.
कैसे? ये ही मुद्दा है. परिवर्तन लाए जा सकते है बस एक लहर की ज़रूरत है. मैने एक पत्रकार की कोशिश के बारे मे लिखा है, जिसने अपने छोटे से अख़बार से कई जिलो में क्रांति ला दी है. आपको समय मिले तो देखिएगा.