भइया तो अभी तक हमने बात की थी कि कैसे विद्या भवन में देश और संस्कृति को लेकर समझदारी बढ़ाने के नाम पर एक पेपर का पैटर्न कुछ इस तरह तैयार किया गया है जिसके जरिए पत्रकारिता को हिन्दूवादी शक्ल में ढालने की कोशिश होती है। अपने लगभग एक साल के मीडिया करियर में कभी भी इस तरह के ज्ञान की जरुरत महसूस नहीं हुई और न ही मुझे लगा कि संस्कृति के नाम पर वेदों की संख्या रटी जाए। अब आगे........
कल्चरल हैरीटेज ऑफ इंडिया की क्लास सिर्फ शनिवार को हुआ करती थी जिसमें कि एटेंडेंस अनिवार्य था। भावी पत्रकार बताते हैं कि ये सिससिला अब भी बरकरार है। वैसे भी इस तरह की क्लासेज के लिए एक दिन ही पर्याप्त होता। एटेंडेंस की मार से क्लास में खचाखच भीड़ होती और मुझे लगता कि गौरवशाली आर्य संस्कृति का उद्धार करने के लिए हमें तैयार किया जा रहा है। इन सब मामलों में मैं शुरु से ही उपयोगितावादी किस्म का आदमी रहा हूं। सो एकदिन मास्टर साहब से बोल दिया कि- सर जब इतना सबकुछ कराते ही हो तो क्लास के बाद कुछ बंटवा क्यों नहीं देते...कुछ मुंह मीठा करा दिया करो। तब से मास्टर मुझे ताड़ता रहता और क्लास में एकाध सवाल जरुर मुझसे पूछता। सवाल पूछता कि किसी पांच उपनिषदों का महत्व बताओ। पांच क्या मुझे अपने लिए एक भी उपनिषद् काम के नहीं लगते और मैं चुप मार जाता। उस समय वे लेडिसों की तरफ ऐसे ताकते मानो उनका मखौल उड़ा रहे हों कि ये है तुम्हारी पसंद, ऐसा लद्धड कि जिसको अपनी संसकृति का एबीसी भी नहीं आता। लेकिन लेडिस कहां टूटूने वाली थी।
सबेस्टियन की एड की क्लास मुझे छोड़ और किसे समझ आती थी। दरअसल जितना मैं अपने इस कोर्स को लेकर कन्प्यूज्ड था उतना ही बंदा अपनी क्लास को लेकर। इसलिए अंग्रेजी में वो जो कुछ भी बांचता उसका हिन्दी तर्जुमा मैं टीवी विज्ञापनों से जोड़कर समझा देता और लेडिस लोग यू नो आई मीन लगाकर बहस नहीं करती। मेरे सर्किल में जितनी भी लेडिस थी उसमें अमूमन सब सुंदर ही थी। अंग्रेजी में कुछ के हाथ एमसीडी स्कूल या फिर बिहार बोर्ड के कारण तंग थे। कुछ की अंग्रेजी काफी अच्छी थी लेकिन वो अंग्रेजी कॉफी हाउस, रिक्शेवाले का भाड़ा काटने और छिछोरे किस्म के लौंडों को सटकाने के समय ही काम आते। क्लास में आते ही अंग्रेजी में उनका टावर काम नहीं करता औऱ नेटवर्क पूरी तरह गोल। ऐसे में अपनी खूब चलती। तो ऐसे-वैसे, जैसे-तैसे जो भी कह लें पत्रकार होने की उम्मीद बढ़ती जा रही थी। कोर्स पूरे होनेवाले थे। अच्छा, आजकल मार्केट में अधपके आइटम की डिमांड ज्यादा है इसलिए ठीक इसी समय - ले लीजिए न सर, देख लीजिए न सर, हो जाएगा न सर वाली लाइफ स्टाइल में इन्ट्री कर गया।
इग्जाम भी नजदीक आ रहे थे और देखते ही देखते गुलजार भवन मुर्दा सराय बन गया, लोगों ने आना बंद कर दिया था।
....अब सबसे मुलाकात सिर्फ इग्जामिनेशन हॉल में ही होते।मेरे सारे पेपर बहुत ही अच्छे जा रहे थे। आर्टस से था सो ज्यादा दिमाग नहीं लगाता। खूब जमकर लिखता, आत्मविश्वास से लवरेज होकर। दिमाग में बस यही होता कि किसी सवाल के उपर जितना कुछ आता है सब लिख डालो मास्टर को जो-जो पसंद आएगा,छांटकर नंबर दे देगा।
अब रह गया था सिर्फ एक पेपर विद्या भवन का सबसे फेवरेट पेपर। कल्चरल हैरि....। और दिन होता क्या था कि बंदे लोग और खासकर लेडिस इग्जाम के पांच मिनट पहले तक किताबों पर ऐसे नजर गड़ाती जैसे कुछ दिन पहले अपनी मॉडल गीतांजलि दिल्ली की सड़कों पर गड़ाती नजर आयी थी। लेकिन इस पेपर में नजारा कुछ बदला-बदला सा लगा। लोग-बाग खुल्ला घूम रहे थे, पेपर के बाद क्या करेंगे इस पर हांक रहे थे। एक लेडिस जो मुझ पर अक्सर झिड़कती रही और जिसपर मैं जान छिड़कता रहा, आज आपही आकर बोलती है, पेपर के बाद आज मैं तुम्हें कॉफी पिलांउगी, साथ में टोमैटो टैंगो लेज भी। मैडमजी हम तो सिर्फ आपकी कम्पनी से निहाल हो जाते आप तो माल भी खर्चेंगे। धन्य है बाबा कामदेव की माया।
चलिए, ये भी पेपर अपने निर्धारित समय से शुरु हो गया। सवाल थे, वही सब जो सब पढ़ाए गए थे या यों कहिए जो संस्कार डाले गए थे। वेदों को लेकर, रामायण के कौनसे पात्र आपको सबसे अच्छे लगते हैं, और क्यों। महापुरुषों पर टिप्पणियां जिसके उपर मैंने ऐसे लिखा कि वे इतने महान क्यों हैं कि ये हमारी परीक्षा में सवाल के रुप में अवतरित हुए। मैं तो खूब दबाकर लिख रहा था, कुछ तो चिढ़ से कि -कर चेक बेटा मेरी कॉपी, कॉपी की वजन देखकर नंबर देगा औऱ कुछ अपनी लत भी है बहुत लिखने की। एम.ए फर्स्ट इयर में कम लिखता था लेकिन जब सबको कॉपी लेते देखा तो लूज मोशन शुरु हो गया था, हर पांच मिनट पर आवाज आती सर शीट। दूसरे साल मैंने पढ़ने से ज्यादा लिखने पर जोर दिया और परीक्षा की कॉपी को उगलदान बना डाला। यही लत बरकरार थी।
मुझे आधे घंटे तक ध्यान नहीं था, बाद में जब खुसुर-फुसुर हल्ले में कन्वर्ट हो गया तो देखा लोग आपस में बातें कर रहे हैं। कोई भवन की अमूल्य किताब निकाल रहा है। मास्टर मिमियाकर कह रहा है मत करो ऐसा भाई लेकिन मॉड लेडिस के सामने वो भी ज्यादा देर तक टिक नहीं पाया, फिर तो महौल परीक्षा से ज्यादा ऐसा था कि कौन देखकर सबसे बढ़िया लिख सकता है। मैं लेडिस देखकर अच्छा बोल सकता हूं लेकिन किताब देखकर लिख नहीं सकता। बस दनानद लिखता जा रहा था। मास्टर ने दरवाजा बंद कर दिया था और खुद बाहर खड़े हो गए थे कि कोई आए तो बंदों को इत्तला कर दें। एकबार मेरे पास आए और बोले कोई परेशानी है तो तुम भी देख लो। मैंने कहा डिस्टर्ब न करें जनसत्ता के पाठक से ऐसी बात। हिकारत भरी नजरों से उन्हें देखा लगभग गरियाते हुए और वे इस अंदाज में कि ये ते झागवाला है।
पेपर खत्म हो गए थे, सारे लोग इत्मीनान से बाहर गप्पे लड़ा रहे थे, गजब का आत्मसंतोष दिखा सबों के चेहरों पर। एक- दो बंदा मेरी तरफ देखकर तड़प रहा था जैसे घर में टीवी पर हरीशचंद्र सीरियल आने पर चैनल बदलने के लिए तड़प उठता है, बदलो इस चैनल को.....अभी तुरंत। कॉफी पिलानेवाली लेडिस दिल्ली एनसीआर( है एक बंदा) के साथ मोमो खा रही थी। विद्या भवन इस पेपर के जरिए लोगों को हिन्दूवादी पत्रकार तो नहीं बना पाया लेकिन अपने धरोहर का बेहतर इस्तेमाल करना सिखा गया जो कि ज्यादा जरुरी है।लोगों ने फोन करके बताया कि विनीत अपना रिजल्ट आ गया है लेकिन चार महीने बाद भी जब रिजल्ट लाने की सोचता हूं तो पता नहीं क्यों मितली सी आने लगती है।
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https://taanabaana.blogspot.com/2007/10/blog-post_4222.html?showComment=1192110840000#c9122389327201265856'> 11 अक्टूबर 2007 को 7:24 pm बजे
बहुत खूब!
बंधुवर, आपका लिखा पढ़कर इतना तो समझा हूं मै कि किसी का झाग निकालने के लिए आपको किसी सहायता की ज़रुरत नही बस आपके शब्द ही काफ़ी हैं।
उतारते रहिए ऐसे ही आवरण,
रिजल्ट तो ले आइए आप सबसे पहले!!
https://taanabaana.blogspot.com/2007/10/blog-post_4222.html?showComment=1192210140000#c346786923645716215'> 12 अक्टूबर 2007 को 10:59 pm बजे
bahut achhe sir, khhoob lee h vidya bhawan ki or apke purane prasango ko padh kar mja aa gaya