आज से करीब तीन दिन पहले डीयू में हिन्दी विभाग के अन्तर्गत पत्रकारिता का कोर्स कर रहे स्टूडेंट सड़को पर उतर आए। उनका कहना है कि मीडिया के नाम पर उन्हें जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है, वो ठीक नहीं है। हिन्दी साहित्य पढ़कर आए लोग ही इसे पढ़ा रहे हैं। इसके अलावे इसे पढ़ाने और समझाने के लिए जिस इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरुरत होती है वो भी नदारद है। ये तो निश्चित तौर पर विचार करने वाली बात है कि कोई बंदा साल भर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पढ़ाए और कभी किसी समाचार चैनल का मुंह ही नहीं देखा हो।....ये तो वही बात हो गई जैसे जिंदगी भर ईश्वर की सत्ता पर प्रवचन देनेवाले बाबाजी कभी खुद ईश्वर को नहीं देख पाए। ऐसे में पत्रकारिता या मीडिया को पढाना, मीडिया के नाम पर पाखंड है। साहित्य को लम्बे समय तक पढ़ते हुए और मीडिया में काम करते हुए मैंने अनुभव किया कि अपनी संरचना और काम करने के तरीके के कारण मीडिया और साहित्य दो अलग-अलग चीजें हैं और आप दोनों को पढने और पढाने के लिए एक ही तरीका नहीं अपना सकते। दोनों के विश्लेषण के लिए आपको अलग-अलग टूल्स अपनाने होंगे। इसलिए अपने ब्लॉग में भी हमनें दोनों के लिए अलग-अलग खाता खोल रखा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए बुद्धू बक्सा और हिन्दी के लिए हिन्दी का टंटा। डीयू के हिन्दी विभाग में भी हिन्दी को पॉपुलर, कमाऊ और रोजगारपरक विषय बनाने की नीयत से जब पत्रकारिता को पढ़ने-पढ़ाने के लिए शामिल किया गया तो अक्सर मैं अफसोस जताया करता था कि इससे आनेवाले हिन्दी के छात्रों का बंटाधार हो जाएगा। अबतक बिहारी, मतिराम या प्रगतिशीलता के नाम पर नागार्जुन और मुक्तिबोध को पढ़ाने वाले गुरुजी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए समाचार निर्माण की प्रक्रिया पढ़ाएंगे।....वो भी पत्रकारिता की किताबों को पढ़कर। जिनके पास किसी भी समाचार चैनल या एजेंसी में एक भी दिन काम करने का अनुभव नहीं है। ऐसे में कबीर और टीआरपी के बीच डूबते-उतरते वे क्या पढ़ाएंगे या अबतक क्या पढ़ा रहे हैं, इसका विश्लेषण बहुत जरुरी है। इन गुरुओं के लिए कभी कोई वर्कशॉप नहीं हुआ और न ही पढ़ाने के लिए कहीं से कोई ट्रेनिंग ही ली। मेरे कहने का ये बिल्कुल मतलब नहीं है कि हिन्दी के लोग मीडिया पढ़ा नहीं सकते। मैं तो सिर्फ ये जोड़ना चाहता हूं कि अगर हिन्दी साहित्य पढ़कर कोई बंदा सीधे आज के स्टूडेंट को मीडिया पढ़ाना चाहता है तो बेहतर हो कि इससे पहले कोई वर्कशॉप में जाए। इससे उनकी गलतफहमी दूर हो जाएगी कि मीडिया सिर्फ शब्दों का खेल है।
हिन्दी साहित्य पढ़कर मीडिया पढ़ाने में होता ये है कि एक तो गुरुओं को ये पता ही नहीं होता कि टेलीविजन के लिए लिखने में कितना बड़ा फर्क होता है। साहित्य के ठीक उलट इसे देखने वाले अलग-अलग मिजाज के लोग होते हैं।...आप शब्दों से अच्छे-अच्छे भाव पैदा करना चाहते हैं लेकिन आप जो कुछ भी कह रहे हैं वो लोगों को समझ ही नहीं आ रहा। सबसे जरुरी बात है कि वैसे किसी भी चीज के उपर लिखना या बहस करना और बात है और एक न्यूज की शक्ल में समय, बाजार और स्पेस के दबाव में लिखना बिल्कुल दूसरी बात है। इन सब चीजों की जानकारी ये हिन्दी वाले गुरु जी नहीं देते क्योंकि इन्होंने खुद कभी भी इस दिशा में गंभीरता से विचार नहीं किया। कुल मिलाकर इन गुरुओं को आज की मीडिया और उसकी वर्किंग कल्चर के बारे में कोई समझ नहीं है। वे साहित्य की तरह ही टेलीविजन को डील कर देते हैं। बहुत हुआ तो अखबारी पत्रकारिता के हिसाब से न्यूज चैनलों के लिए समाचार लिखने की प्रक्रिया समझा देते हैं। इस तरह पत्रकारिता के नाम पर हर साल एक ऐसी फौज खड़ी हो रही है जो अपने को हिन्दी वाले से अलग बताकर पत्रकारिता की पढ़ाई की है, वे हिन्दी विभाग से जुड़कर भी नागार्जुन या मुक्तिबोध के बारे में बात करने की स्थिति में नहीं हैं और न ही मीडिया की समझ उस ढ़ंग की है जिससे कि यहां से निकलकर सीधे किसी चैनल में काम कर सकें। ये हिन्दी सहित इन स्टूडेंट के लिए खतरनाक स्थिति है। ऐसे में अगर डीयू में इस पत्रकारिता का कोर्स कर रहे स्टूडेंट सड़कों पर उतर आते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।....आप मीडिया में भी इथिक्स के नाम पर साहित्य झोंकते चले जाएंगे तो विरोध तो होगा ही...क्योंकि इस तरह के कोर्स को लाने के पहले आपने ही इसे रोजगारपरक होने की बात की थी और अब आप ही दोहरा चरित्र अपना रहे हैं। इसलिए और पौध बर्बाद हो इससे पहले गुरुजी कोई ठोस निर्णय लें...वरना विरोध का स्वर और तेज होगा।
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https://taanabaana.blogspot.com/2007/10/blog-post.html?showComment=1191217680000#c3402134930762261991'> 1 अक्टूबर 2007 को 11:18 am बजे
sir,
really it is vry true and a big problm with media students.First they didn't get to decide what is the difference between the language and the style of literature and media and due to this very confusion they don't be able to get any kind of job after doing this type of demanding n reputed courses. Even they didn't get confidence and again they hv to expend a gd amount of money in any private courses related to media.Aur isse institution ka nam bhi bdnam hota hai jise teachers ko smajhna chahiye..
https://taanabaana.blogspot.com/2007/10/blog-post.html?showComment=1191219000000#c2689081135667586831'> 1 अक्टूबर 2007 को 11:40 am बजे
baat pate ki hai..
lekin yahan rahne wale logo ko hi is me sudhar lane ki aawaeskataa hai..
https://taanabaana.blogspot.com/2007/10/blog-post.html?showComment=1191227100000#c5675915369891216699'> 1 अक्टूबर 2007 को 1:55 pm बजे
मुझे जो सबसे जरुरी लगता है वो ये कि मीडिया में काम करने के पहले उसकी वर्किंग कल्चर को समझना बहुत जरुरी है जो कि हिन्दी विभाग मुहैया नहीं करा पा रहा है
https://taanabaana.blogspot.com/2007/10/blog-post.html?showComment=1191235500000#c5261807174880721540'> 1 अक्टूबर 2007 को 4:15 pm बजे
मित्र आपका लेख बहुत अच्छा है मुद्दा भी बहुत अच्छा है और उसको उठाया भी सही ढंग से है पर बस वो बाबाजी और ईश्वर के दर्शन वाला उदाहरण गलत है क्यों कि ज्ञान और ईश्वर के दर्शन दो अलग अलग बातें हैं।
https://taanabaana.blogspot.com/2007/10/blog-post.html?showComment=1191263520000#c827356198347933030'> 2 अक्टूबर 2007 को 12:02 am बजे
विकास भाई,टिप्पणी के लिए धन्यवाद। ऐसे ही सुझाव देते रहें।
https://taanabaana.blogspot.com/2007/10/blog-post.html?showComment=1191265740000#c1181838180154173877'> 2 अक्टूबर 2007 को 12:39 am बजे
बिल्कुल ठीक. पर विनीतजी ऐसा न हो कि हिन्दी विभाग के मीडिया पढाने वाले मास्साहब लोग आपको नज़र पर चढ़ा लें. क्योंकि ये काम तो वर्कशॉप अटेंड करने से ज़्यादा आसान है और हमारे गुरुओं को इसमें महारत हासिल है.
लिखा बढिया है आपने.
शुक्रिया और शुभकामनाएं
https://taanabaana.blogspot.com/2007/10/blog-post.html?showComment=1191298260000#c233023217924647125'> 2 अक्टूबर 2007 को 9:41 am बजे
सरजी, मेरे गुरुजी अक्सर कहा करते हैं भइया हर जगह compermise मत किया करो,अब यही गुरु मंत्र चल जाए तो हमारा वश कहां है। वैसे भी मेरा ब्लॉग गुड ब्ऑय के विरोध तो जाता ही है। लिखूं तो भी न लिखूं तो भी।
https://taanabaana.blogspot.com/2007/10/blog-post.html?showComment=1191492540000#c1635118040950839315'> 4 अक्टूबर 2007 को 3:39 pm बजे
काहे अभी से गुड बैड के चक्कर में पड़े हो- बिंदास लिखे जाओं-
रही गुरूओं के नाराज होन की बात--तो भैया खुश होकर ही कोनो पूजा करते हैं
उनहें करने दो जो वे करें- तुम अपना काम ठीक कर रहे हो- जारी रहो।