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हजार-दो हजार की रकम की चेक पर साइन करते वक्त पापा ऐसे कराह उठते कि जैसे अपनी पूरी मिल्कियत एक ऐसे नालायक लौंड़े के नाम करने जा रहे हों जो पूरी की पूरी एकाध दिन में कविता, कहानी, उपन्यासों की किताबों पर लुटाकर हाथ झाड़कर खड़ा हो जाएगा और बीच सड़क पर बोकराती छांटने लगेगा-
जिंदगी में पैसा-वैसा कुछ नहीं है, असल चीज है इमोशनल थस्ट. पैसा अगर ये कर पा रहा है तो वेल एंड गुड और अगर नहीं कर पा रहा है तो उड़ा दो. वैसे ये थस्ट पूरी होती है मैला आंचल जैसे उपन्यास पढ़ने और खरीदकर बांटने से. ऐसे में मैला आंचल उपन्यास नहीं, विचारधारा है.

पापा जब चेक के कर्मकांड जिसमे तारीख डालने से लेकर, रकम की कई स्तरों पर जांच तक शामिल होती तो निगाहें इतनी गहरी टिकी होती कि हमने कभी यूजीसी-जेआरएफ की बहुविकल्पीय वस्तुनिष्ठ सवालों के आगे भी न डाले होंगे. इस चुस्त निगाहों की देखरेख में जबरदस्त सुंदर लिखावट जैसे कि मां की मूंगाकोटा साड़ी का फूलदार पल्लू कागजों पर उतर आया हो. रोशानाई को मोतियों की शक्ल में ढलते हमने पापा के हाथों जी-भरकर देखा है. लेकिन इस सुंदर लिखावट और चुस्त निगाहों के बीच तल्लीनता से रचे जिस सौन्दर्य का विस्तार होता, उसी के बीच एक खास किस्म के काईयांपन की कछारें भी पनपती नजर आती और तभी मेरे भीतर उनका वो काईंयापन धकियाकर सौन्दर्य को धीरे-धीरे दरकिनार कर देता. ऐसा लगातार होता रहा.

कॉलेज तक आते-आते पापा मुझे पूंजीवाद के प्रतीक पुरुष लगने लगे और उनकी दी गई राशि/चेक सीएसआर का हिस्सा. लिहाजा भीतर प्रतिरोध के स्वर पनपने शुरु हो गए और एक टीनएजर फैंटेसी आकार लेने लगा- किसी दिन इससे सौ गुणा रकम की चेक काटकर इऩ्हें दूंगा बल्कि चेक काटूंगा भी उनके ही सामने. उनकी तरह इत्मिनान से नहीं. एकदम घसीटा मारकर ताकि कोई भी राइटिंग देखकर ही अंदाजा लगा ले कि इसकी जिंदगी में दस-बीस लाख कोई मायने नहीं रखता और इतनी व्यस्तता होती है कि ठीक से लिखने का सामय तक नहीं होता. एकाध भूल हो तो हो सही, पापा को मिर्ची लगे तो लगे अपनी बला से.

जिंदगी में आज पहली बार अपने नाम चेकबुक मिली और वो भी बारह ततबीर( झंझट) के बाद. हाथ में लेते ही लगा- पहली चेक तो पापा के नाम ही बनता है, वही इमोशनल थस्ट वाला चक्कर. मन तो किया कि सीधे पांच करोड़ की कांटू, घर जाने पर उनके हाथों में पकड़ाउं और आगे अमिताभ बच्चन की केबीसी की डायलॉग ठेल दूं..छूकर देखिए, कैसा महसूस कर रहे हैं. फिर अकाउंट की प्रकृति के अनुसार चेकबुक की हैसियत देखी तो समझ आया, दस लाख से ज्यादा की काट नहीं सकते. खैर कोई बात नहीं. केबीसी डायलॉग की गुंजाईश यहां भी है. तो मैं आपको दे रहा हूं पूरे दस लाख. लेकिन हमारे और आपके बीच गेम अभी यहीं खत्म नहीं हुआ है. इसे मैं अपने पास रख ले रहा हूं और अगली बार जब घर आया तो आपको दूंगा पूरे पांच करोड़ की चेक... हां, ये जरूर है कि वो इस रकम को मजाक के बदले संस्कार से जोड़ देगे- रक्खो, अपने पास, हम हराम का एक रुपया नहीं लेते, जिसकी कमाई का साधन ही गलत हो, उसके लिए रुपया ढेला-पत्थर है.( सिकंस इमानदारी और एपेशेवर होकर भला पांच करोड़ रुपये कहां से लाएगा ?) 

मुझे पता है कि गलती से इस चेक को अगर पापा ने जमा कर दिया तो बाउंस होने और उसके बाद की कानूनी कार्रवाई होने से मुझे कोई रोक नहीं सकता. लेकिन फिर टीनएज की मेरी उस थस्ट का क्या और फिर शुद्ध हवाबाजी इतना सोच-समझकर थोड़े न की जाती है.
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1 Response to 'पापा के नाम फर्जी चेक : शुद्ध हवाबाजी'
  1. neeru jain
    https://taanabaana.blogspot.com/2014/05/blog-post_24.html?showComment=1400943716602#c5940240336279154447'> 24 मई 2014 को 8:31 pm बजे

    what

     

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