मूलतः प्रकाशित- जनसत्ता, 6 अप्रैल 2014
आगामी लोकसभा चुनाव 2014 को लेकर किए जा रहे विज्ञापन, रैली एवं प्रचार की पूरी रणनीति किसी भी दूसरे व्यवसाय के लिए की जानेवाली मार्केटिंग एवं “ब्रांड पोजिशनिंग” की ही तरह है. यह रणनीति न केवल माध्यमों और लोकवृत्त के प्रचार संसाधनों पर कब्जा जमाने को लेकर है बल्कि इसके लिए उन्हीं विज्ञापन एवं मार्केटिंग एजेंसियों की मदद ली जा रही है जो कि साबुन, मोबाइल सेवा, कार या दूसरे उत्पाद के लिए व्यावयायिक रणनीति बनाने का काम करते हैं. मतदान आधारित राजनीति को राजनीति एवं छवि की मार्केटिंग मे तब्दील करने के पीछे यह स्पष्ट है कि जिसका विज्ञापन और माध्यमों पर कब्जा होगा, उसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के भीतर सरकार गठन करने का मौका मिलेगा. ऐसे में जरूरी है कि संवैधानिक प्रावधान के तहत मतदान के जरिए चुनाव लड़ने और जीतने से पहले माध्यम और विज्ञापन आधारित चुनाव जीत लिए जाएं. बाजार में कोई भी ब्रांड लोगों को इसी तरह उत्पाद के पहले उसकी छवि का उपभोग करने की मानसिकता तैयार करता है और उसके भीतर यह भरोसा पैदा करता है कि अगर उसने सचमुच इसका उपभोग करना शुरु किया तो वह संतुष्टि के चरम तक पहुंच सकता है.
ब्रांड मार्केटिंग की
इस रणनीति के आधार पर “कार्पोरेट और बिजनेस के
लोकतंत्र” में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बनाए जा चुके हैं.
अब जो कुछ दिनों बाद से जो चुनाव और मतदान प्रक्रिया शुरू होने जा रही है, वह
नागरिक समाज के लिए चुनाव भले ही हो और उनके मतदान को अंतिम निर्णय के रूप में
परिभाषित किया जा रहा हो लेकिन कार्पोरेट और बिजनेस के लोकतंत्र के लिए यह
औपचारिकता और खानापूर्ति से ज्यादा कुछ भी नहीं है. ऐसा कहना इस चुनावी माहौल में
एक रुपक का गढ़ लेना भर नहीं है बल्कि इसकी जमीन ठोस रूप से आंकड़े और उनके
विश्लेषण पर तैयार की जा चुकी है.
देश की अर्थव्यवस्था की नब्ज अगर शेयर सूचकांक
से निर्धारित होती है जिसे कि राजनीतिक गलियारे में आगे चलकर विकास के रूप में
परिवर्तित कर दिया जाता है तो पिछले 27 मार्च को जो उछाल आया और 22,307 (बीएसइ))
तक चला गया, इसके पीछे मौजूदा सरकार की कहीं भूमिका नहीं बतायी जा रही. इसकी
व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना लगभग तय
हो गया है और देश के निवेशक सहित विदेशी निवेशक इस बात को लेकर आश्वस्त हो रहे हैं
कि अब अगले पांच साल तक सिर्प विकास आधारित कार्य होंगे और जाहिर है विकास का अर्थ
अधिक से अधिक निवेश, संसाधनों की खपत और वस्तु एवं सेवाओं में मांग तो सरकार
बनते-बनते ये सूचकांक आसमान छूने लग जाएगा. स्वाभाविक है कि शेयर सूचकांक को ही
विकास का पर्याय मान लेने की स्थिति में नागरिक के बीच यह नैतिक दवाब पहले से ही
बनाने का काम शुरू हो गया है कि अगर वे आनेवाले समय में इस सूचकांक को और उपर
देखना चाहते हैं तो हर हाल में बीजेपी और नरेन्द्र मोदी के लिए ही वोट करना होगा.
यह किसी भी उत्पाद की ब्रांड रणनीति से अलग नहीं है जहां क्रमशः चार चरण में पहला
अभाव, हताशा एवं बेचैनी, दूसरा मौजूदा उपायों और उत्पादों के प्रति नकारात्मक भाव,
तीसरा प्रस्तावित उत्पाद या ब्रांड को अंतिम विकल्प और चैथा उस उत्पाद के उपभोग के
बाद आनंद और समस्या से मुक्ति अपने प्रति अनुकूल परिवेश की निर्मिति करता है. यह
सब माध्यम के जरिए दर्शक/श्रोता को उपभोक्ता की शक्ल में
तब्दील करने की प्रक्रिया में किया जाता है.
नरेन्द्र मोदी को ब्रांड बनाने की
प्रक्रिया में उन विज्ञापनों, रैली में कहे गए शब्द और उनकी ही शारीरिक भंगिमा पर
गौर करें तो इन चारों चरण से मतदान आधारित राजनीति “पॉलिटिकल
मार्केटिंग” में बदलने की कोशिश करती दिखाई देती है.
भ्रष्टाचार का नरेन्द्र मोदी के प्रति बेहद ही सम्मानजनक संबोधन के साध वो आनेवाले
हैं से लेकर क्योंकि मोदीजी को हम लानेवाले हैं की विज्ञापन श्रृंखला इसी
प्रक्रिया का लगातार दोहराव है जहां नागरिक को पहले चक्र में दर्शक और श्रोता में
बदलने की कोशिश होती है और जब वह इस स्तर पर जुड़ जाए तो उसे वापस नागरिक के रूप
में परिवर्तित करके वोट के लिए अपील की जाए. विज्ञापन और माध्यमों के जरिए इस छवि
निर्माण का दिलचस्प पहलू है कि पूरी राजनीति लोकवृत्त की सामाजिक संरचना, समस्याओं
और मुद्दे से हटकर अतियथार्थ के उस धरातल पर जाकर टिकनी शुरू हो जाती है जहां
प्रसारण ही सत्य और आक्रामक मौजूदगी ही लोकतंत्र के मूल्य के रूप में प्रस्तावित
किए जाने लगते हैं जबकि ये सारी गतिविधियां पूरी तरह व्यावसायिक जमीन पर होती हैं
जिसका कि सामाजिक प्रक्रिया से सीधे-सीधे कोई लेना-देना नहीं होता है. लेकिन इसे
माध्यमों द्वारा दिखाया/बताया उसी रूप में जाता है जैसा कि
राजनीति के मार्केटिंक का हिस्सा बनने के पूर्व से दिखाया जाता रहा है.
यह अकारण नहीं है कि
जिस बिजनेस चैनल पर अर्थव्यस्था और व्यवसाय से जुड़ी छोटी-छोटी घटनाओं, नए उत्पाद
एवं सेवाओं की चर्चा ब्रांड में तब्दील होने की प्रक्रिया के रूप में प्रसारित
किया जाता रहा है, ऐसे दौर में कि एक राजनीतिक पार्टी और उसका प्रत्याशी अपनी
पुरानी और लंबे समय तक स्थिर छवि को पूरी तरह ध्वस्त करके ( स्वाभाविक है जनसंपर्क
कंपनी एवं मीडिया प्लानर की मदद से) नयी छवि निर्मित करने की कोशिश में आक्रामक
तौर पर 360 डिग्री माध्यमों( माध्यम के जितने भी रूप हैं) पर मौजूद हो, इस काम के
लिए करोड़ों रूपये के निवेश किए गए हों, उसकी चर्चा अर्थव्यवस्था, राजस्व और
ब्रांड बनने की प्रक्रिया को लेकर न होकर उसी जाति, क्षेत्र, भाषा और सम्प्रदाय
आधारित राजनीतिक विश्लेषण को लेकर किया जा रहा है जो काम समाचार चैनलों पर होते आए
हैं. इतना ही नहीं, एक ही मीडिया संस्थान ने जो समाचार चैनल और बिजनेस चैनल की
अलग-अलग लाइसेंस ले रखा है, दोनों पर एक ही सामग्री का प्रसारण करते हैं जिनमे
बिजनेस की चर्चा नहीं है. उपभोक्ता चाहे तो सवाल कर सकते हैं कि अगर दोनों चैनलों
पर एक ही सामग्री का प्रसारण किया जाना है तो बिजनेस चैनल के लिए अलग पैकेज की
कीमत क्यों दी जाए और दूसरा कि अगर राजनीति भी बिजनेस का अनिवार्य हिस्सा है तो
राजनीति के राजनीति मार्केटिंग में तब्दील हो जाने और प्रत्याशी के ब्रांड
पोजिशनिंग की प्रक्रिया को क्यों प्रसारित नहीं किया जा रहा ? स्पष्ट है कि चुनावी अभियान जिस जमीन पर खड़े होकर चलाए जा रहे हैं, उस
जमीन से दर्शक/श्रोताओं को पूरी तरह काटकर उन संदर्भों में
शामिल करने की जबरदस्ती कोशिश की जा रही है जो व्यावसायिक एवं ब्रांड रणनीति के
आगे अपने आप गौण होते चले गए हैं.
यह अलग से कहने की
जरूरत नहीं है कि छवि आधारित ब्रांड पोजिशनिंग की यह राजनीति( मार्केटिंग) नागरिक
को दर्शक/श्रोता
में तब्दील करके ब्रांड उत्पाद की तरह ही किसी भी तरह का सवाल, चयन और असहमति दर्ज
करने का हक छीन लेता है और आखिर में उपभोक्ता की जरूरत, फैशन. इच्छा और विवशता
एक-दूसरे से गड्डमड्ड होती चली जाती है. राजनीति की जमीन का बदल जाना और उसके भीतर
से पूरी प्रक्रिया को काटकर अलग कर देना बहस के नए संदर्भ की ओर ले जाता है जो कि
चुनाव विश्लेषकों को एक हाथ में जाति, क्षेत्र और समुदाय की सूची रखने के साथ-साथ
दूसरे हाथ में राजनीतिक दलों और माध्यमों की बैलेंस शीट रखने की मांग करता है.
https://taanabaana.blogspot.com/2014/04/blog-post.html?showComment=1397547229647#c8266035917974695639'> 15 अप्रैल 2014 को 1:03 pm बजे
well said