मन तो किया, पलटकर कहूं- नहीं-नहीं, दिल्ली भूकंप से नहीं हिली थी. वो तो काउच से खिसकर मेरी तरफ हग करने के लिए बढ़ी थी कि न्यूज चैनलों को बर्दाश्त नहीं हुआ तो हो-हो करने लगे कि दिल्ली में भूकंप आ गया. बत्तख कहीं के..जितना भूकंप दिल्ली में आया नहीं, उससे दस गुना बलिया-बक्सर-भटिंडा में टीवी स्क्रीन ने पैदा कर दिया. क्या पता जिनके घर एलइडी है, उनके यहां तो लावा ही फूटने लगे होंगे..समझ नहीं आता इन पैनल प्रोड्यूसरों के गांव-घर में कोई चिंता करने और होली-दीवाली पर अगोरनेवाली बूढ़ी मां,काकी,दादी है भी या नहीं. मेरी मां ने तो अब तक गंड़े-ताबीज की म्यूजियम में एकाध चक्कर लगा लिए होंगे. पीतल के दीए घिस-घिसकर ठाकुरजी के आगे जलाए होंगे, सलामत रखियो हमर बुतुरु के दीनानाथ.
इन चैनलों का असर ये कि सलामती के जिन रिश्तेदारों ऑब्लिक शुभचिंतकों के फोन आ रहे हैं जैसे सबके सब इंडिया टीवी,आजतक के स्ट्रिंगर हो गए हों..सबके सब हमसे टिक-टैक लेने में हों. कब हुआ, क्या तीव्रता रही, दिल्ली में माहौल कैसा है, कोई मरा कि नहीं, सरकार की तरफ से कोई बयान आया कि नहीं. पता नहीं ये मेरे रिश्तेदारों का आलम है कि पूरा खानदान ही घर-गृहस्थी में नहीं न्यूजरुम में फंसा जान पड़ता है..आप भी गौर कीजिएगा ऐसी प्राकृतिक आपदा के दौरान रिश्तेदारों के फोन आनेवाली भाषा पर और मिलान कीजिएगा चैनलों की भाषा से..संभव है एकृ-एक पंक्ति माध्यम-तर्जुमा लगे.
और अगर मेरे जैसा सुस्त या इन विपदाओं के प्रति उदासीन शख्स मिल जाए तो उनकी वही प्रतिक्रिया होती है जैसे मुंबई के एक मामूली खोपचे में आग लगने पर इधर दिल्ली में पप्पू की छत गिरने और पांच व्यक्ति के मर जाने पर होती थी..आ जा बेटा सीलमपुर से..तेरी स्टोरी मर गई..मर गई, सर यहां तो बड़ी हालत खराब है. पप्पू के घर में कुछ पांच लोग मर गए हैं, पूरी छत परिवार के उपर गिरी है, कोहराम मचा है.घर के बाकी बचे लोगों का बुरा हाल है..सेंटी मत बन बेटा,आ जा. शाहरुख खान ने डीडीएलजे बना दी, अब तू आ जा. सीलमपुर में कौन देखता है हमारा चैनल.मुंबई की खबर टॉप पर है, तेरी स्टोरी मर गई.. कमोवेश यही हाल रिश्तेदारों का मेरा जवाब सुनकर होता है.
अच्छा, तुमको कुछ पता ही नहीं चला. यहां तो आजतक,इंडिया टीवी, एबीपी सब दिखा रहा है कि दिल्ली में हालत खराब है. भारी भूकंप आया है. चारो तरफ हंगामा मचा हुआ है. तुम ठीक तो हो न..ठीक, मस्त हैं और फिर इस चैता में कौन चिरकुट मस्त नहीं रहेगा..वो हमारी सलामती पर उदास हो जाते हैं..चैनलों की मेरी बात से फोटो कॉपी जैसी मिलान करने लगते हैं कि दोनों एक ही तरह की बात करेगा लेकिन कॉपी मिलती नही और मेरे सही-सलामत होने पर भी उन्हें मजा नहीं आता. मजा तब आता जब मैं कहता- कोहराम, अभी देखकर आ रहा हूं कि बजीराबाद पुल ककड़ी जैसा टूटकर दो टुकड़ा हो गया है और उसके बीच तीन आदमी मूली जैसा अटक गया है. हरे रंग का कपड़ा पहना था तो हवा चलने से ऐसा लग रहा है कि मूली का पत्ता लहलहा रहा है..जिस बस में बैठे थे. सामने एक औरत बैठी थी. हाथ में मंगल बाजार से कलछी लेकर चढ़ी थी और भूकंप में बस ऐसा हिलोरा मारा कि कलछी छातिए में खचाक..
लेकिन यहां तो आलम ही कुछ और था. नंदनगरी से एप्पी की बोतल लेकर जब चढ़ा तो थोड़ी ही दूर पर जाकर उस बोतल के भीतर बकार्डी जैसी खनक उठी. लगा ये डीटीसी 212 मेट्रो सुरंग में जाकर घुसेगी और रिठाला वाली ट्रेन से बहनापा करने लगेगी..सामने बैठे सारे लोग डिब्बाबंद होकर अमेरिका जा रहे हैं. लेडी कन्डक्टर टिकट देने के बजाए सोने की कीमत घटने पर तनिष्क की कूपन पकड़ा रही है..ये सब पांच मिनट से ज्यादा नहीं चला होगा कि बस उसी तरह बिहारी दिल्ली में रौ में आकर दौड़ने लगी थी..माल रोड तक आते-आते गांधी सेतु पर दौड़नेवाली बस जैसी रफ्तार. माल रोड से फिर साकेत.ओटो में क्या रवानगी थी. राग मालकोश गाती हुई सवा घंटे में साकेत. दुनिया चुस्की में डूबी थी तो हम क्यों पिछड़ जाते. चूसने लगे..दस मिनट में लगने लगा कि जिस दिल्ली में भूकंप के आने की खबर चैनलों पर फफूंदी की तरह पसरी है, हम उससे बाहर हो गए हैं. जो करना था किया, वापस कमलानगर..लकधक में तैयार घूमती दर्जनों आंटीज-भाभीज. इन आंटीज और भाभीज को पटरी पर बिक रही ब्रा-पैंटी से लेकर छल्ली तक के प्रति जो आकर्षण देखता हूं तो जैसे राजीव गांधी सोचा करते थे कि अगर लाल मिर्च मंहगी होती है तो फिर सीधे वही क्यों नहीं उपजाते, हरी क्यों उपजाते हो वैसे ही कि जब आंटीजी और भाभीज अपनी जिंदगी और इन छोटी-छोटी चीजों से इतनी खुश है तो इस देश में सारी लड़कियां सीधे आंटीज-भाभीज बनकर पैदा क्यों नहीं होती ? क्या असर होता है इनका उत्साह देखकर. मुझे कभी ये छल्ली-झल्ली खाने का मन नहीं होता. इतने मसाले की सुबह यमराज के आगे हाजिरी लगाने जैसी नौबत आ जाती है. लेकिन एक भाभी छल्ली के उपर ऐसे चमकीले दांत गड़ा दिए थे और वो पूरा नजारा इतना इरॉटिक लग रहा था कि सोचा- आज जाए बीस रुपये पानी में तो जाए, खाउंगा नहीं लेकिन इनकी तरह दो बार कायदे से दांत गड़ा दिए तो पैसे वसूल. इधर-उधर देखकर दांत गड़ाए फिर लिफाफे में रख लिया. ये सोचकर कि चल बेटा, घर चल..आज तुझे बैचलर्स कीचन की सैर कराता हूं.
घर आया, दे छुड़ाए और मिक्सी ग्राइंडर में पीस डाला. दो चुटकी सूजी मिलायी और आधी मुठ्ठी बेसन. इधर गमले में उगे थोड़े से लाल साग और दो आलू. उधर इस छल्ली के मक्के की रोटी तैयार. तो जी हो गया डिनर मौजा ही मौजा. मैंने इस पूरे छह घंटे में किसी को अफरा-तफरी और उब-डूब में बात करते नहीं देखा..कारण सबके सब घर से बाहर थे और भूकंप कोई आइपीएल मैच तो था नहीं कि उसकी खबर रुककर टीवी दूकानों पर देखते. जो भी जानकारी मिल रही थी, कान में कनठेपी लगे एफएम से तो उसमे कहां मातमपुर्सी होती है..हर बात में तो भसड़. दंगे हो, भूकंप हो सबमे कपल मूवी टिकट, जनता कब्बाली और सानिया भाभी की तिजोरी लुटने-लूटाने की प्रतियोगिता..तो साबजी जो दिल्ली में नहीं रहते हैं..दिल्ली में रहते हुए भी घरों में पड़े थे..उनके कमरे और खोपचे में भूकंप ज्यादा घुस गया और हम जैसे लोग जो दिल्ली में ही नहीं संयोग से भूकंप के पांच-छह घंटे बात तक लगातार घर से बाहर शहर के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में भटकते रहे, लगा ही नहीं कि हम किसी प्राकृतिक आपदा के शिकार हुए हैं और हमारे शुभचिंतकों को टिक-टैक करने की जरुरत है.. और वैसे भी इतने बड़े शहर में रहने पर इतनी काबिलियत तो हमारे भीतर होनी ही चाहिए कि जो हम किस्तों में जिंदगी के भूकंप झेलते हैं,ऐसे भूकंप आने पर उसका वार्षिक सम्मेलन मानकर कूल हो जाएं.
कभी चैनल से बाहर की जिंदगी पर यकीन कीजिए न, आपको फोटो कॉपी की स्पेलिंग मिलाने की नौबत नहीं आएगी. हम ये सबकुछ अपने रिश्तेदारों को बताना चाह रहे थे लेकिन जनाब वो तो हमारी सलामती की खबर जानकर ही उदास हो गए थे.
https://taanabaana.blogspot.com/2013/04/blog-post.html?showComment=1366132885760#c7415291012791523851'> 16 अप्रैल 2013 को 10:51 pm बजे
हम खुश हुये तुम्हारी सलामती का नमूना यह पोस्ट देखकर! बहुत खूब!