महुआ
न्यूज के मीडियाकर्मियों का धरना-प्रदर्शन खत्म हो गया. खबर है कि प्रबंधन
ने उनकी मांगें मान ली है. मीडिया के कुछ साथी हमें भी इस बात की बधाई
देते हुए इसे मीडियाकर्मियों के लिए विजय दिवस है बता रहे हैं. बधाई लेने
का न तो हमें कोई अधिकार है और न ही ये अवसर पैदा करने में मेरी कोई भूमिका
है..लेकिन मीडियाकर्मियों ने प्रबंधन के सामने जो मांगे रखी थी,उस पर गौर
करें तो विजयी दिवस करार देने जैसा कुछ भी नहीं है. मीडियाकर्मी ने
खून-पसीना एक करके भले ही बकवास कार्यक्रम और खबरें प्रसारित करते हैं
लेकिन मेहनत तो लगती ही है. इस बिना पर वो बच्चों की मुस्कराहट के दर्शन से
लेकर सोलमेट के साथ कुछ वक्त बिताने तक के सुख से वंचित रह जाते हैं..ऐसे
में उन्हें जो भी पैसे दिए जाने चाहिए, उसके महीनों रोके जाने पर
विरोध-प्रदर्शन करना उनका हक है. ये तो उनकी न्यूनतम मांगे थी..लेकिन सवाल
है कि क्या इतने भर से चैनल के भीतर की सारी गड़बड़ियां खत्म हो जाएगी ?
यकीन मानिए, प्रबंधन ने बकाए वेतन देने और कुछ आगे देने की बात करके दरअसल मामले को थोड़े वक्त के लिए ठंडा करने की कोशिश की है. मीडियाकर्मियों के भीतर जो आग लगी थी, उन पर पानी छिड़कने का काम किया है. ताकि प्रबंधन की ओर से किए गए इस छिड़काव से मीडियाकर्मियों के बीच कुछ हरामजादे पैदा हों और वो प्रबंधन के साथ मिल जाएं..फिर दोनों मिलकर धीरे-धीरे कमजोर नसों को दबाएं और एक-एक करके चैनल के काम से बेदखल करते जाएं.
चैनलों का इतिहास रहा है कि जब भी प्रबंधन और मीडियाकर्मियों के बीच समझौते हुए हैं, कुछ हरामजादों का जन्म हुआ है. उन्हें इस मुश्किल घड़ी में प्रबंधन की ओर से कुछ ज्यादा ही लाभ और आश्वासन मिलते हैं और अतिरिक्त अधिकार भी कि वो बाकी के खून चूस सकें. ऐसे में बकाया वेतन मिलने की थोड़े वक्त तक तो खुशी मनायी जा सकती है लेकिन इस बिना पर न तो दीवाली मनायी जा सकती है और न ही इस मुगालते में रहा जा सकता है कि मीडियाकर्मियों ने मिलकर प्रबंधन को रास्ते पर ला दिया. मेरे ख्याल से इस पूरे प्रकरण में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है कि प्रबंधन को ये बात समझ आए कि उन्हें आगे से मीडियाकर्मियों से पंगे नहीं लेने चाहिए.
कल अगर मालिक चैनल पर ताला जड़ देता है जिसकी बहुत अधिक संभावना है तो यही तर्क देगा- हमने तो चलाने की बहुत कोशिश की लेकिन आपलोगों ने वेतन का मुद्दा बनाकर पूरे सिस्टम को कमजोर कर दिया. जो थोड़े पैसे थे वो आपलोगों के बकाए भुगतान में निकल गया. असल मसला है कि सारे मीडियाकर्मी अपने-अपने कॉन्ट्रेक्ट पेपर निकालें, उसे दोबारा से पढ़ें और उन पंक्तियों को गांठ बांध लें जिसमें कि दो साल-तीन साल तक के करार हुए हैं और करार टूटने की स्थिति में किन-किन शर्तों का पालन किया जाएगा. इसके साथ ही चैनल ऐसे मौके पर मीडियाकर्मियों के लाखों के पीएफ ढकार जाती है. इस अनशन के खत्म होने के साथ ही व्यापक स्तर पर छंटनी की भूमिका बन गयी है और अब एक-एक करके टार्गेट किया जाएगा और इस काम के लिए पैदा हुए हरामखोरों को काम में लाया जाएगा.
चैनलों के भीतर के वायरल( निश्चित अवधि भर के लिए) अनशन का यही इतिहास रहा है. आप चाहें तो कह सकते हैं कि मीडियाकर्मियों के पास इतना वक्त और सुविधा नहीं है कि वो लंबे समय तक अनशन ही करते रह जाएं, घर-परिवार और जीवन चलाना होता है, आपकी तरह बकवास करने नहीं होते..लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि ऐसे अनशन से बदलाव के नाम पर रुकी हुई सैलरी भले ही मिल जाए, चैनलों के भीतर का फर्जीवाड़ा और मीडियाकर्मियों की रीढ़ की हड्डी को केंचुएं में तब्दील करने का काम जारी रहेगा.
यकीन मानिए, प्रबंधन ने बकाए वेतन देने और कुछ आगे देने की बात करके दरअसल मामले को थोड़े वक्त के लिए ठंडा करने की कोशिश की है. मीडियाकर्मियों के भीतर जो आग लगी थी, उन पर पानी छिड़कने का काम किया है. ताकि प्रबंधन की ओर से किए गए इस छिड़काव से मीडियाकर्मियों के बीच कुछ हरामजादे पैदा हों और वो प्रबंधन के साथ मिल जाएं..फिर दोनों मिलकर धीरे-धीरे कमजोर नसों को दबाएं और एक-एक करके चैनल के काम से बेदखल करते जाएं.
चैनलों का इतिहास रहा है कि जब भी प्रबंधन और मीडियाकर्मियों के बीच समझौते हुए हैं, कुछ हरामजादों का जन्म हुआ है. उन्हें इस मुश्किल घड़ी में प्रबंधन की ओर से कुछ ज्यादा ही लाभ और आश्वासन मिलते हैं और अतिरिक्त अधिकार भी कि वो बाकी के खून चूस सकें. ऐसे में बकाया वेतन मिलने की थोड़े वक्त तक तो खुशी मनायी जा सकती है लेकिन इस बिना पर न तो दीवाली मनायी जा सकती है और न ही इस मुगालते में रहा जा सकता है कि मीडियाकर्मियों ने मिलकर प्रबंधन को रास्ते पर ला दिया. मेरे ख्याल से इस पूरे प्रकरण में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है कि प्रबंधन को ये बात समझ आए कि उन्हें आगे से मीडियाकर्मियों से पंगे नहीं लेने चाहिए.
कल अगर मालिक चैनल पर ताला जड़ देता है जिसकी बहुत अधिक संभावना है तो यही तर्क देगा- हमने तो चलाने की बहुत कोशिश की लेकिन आपलोगों ने वेतन का मुद्दा बनाकर पूरे सिस्टम को कमजोर कर दिया. जो थोड़े पैसे थे वो आपलोगों के बकाए भुगतान में निकल गया. असल मसला है कि सारे मीडियाकर्मी अपने-अपने कॉन्ट्रेक्ट पेपर निकालें, उसे दोबारा से पढ़ें और उन पंक्तियों को गांठ बांध लें जिसमें कि दो साल-तीन साल तक के करार हुए हैं और करार टूटने की स्थिति में किन-किन शर्तों का पालन किया जाएगा. इसके साथ ही चैनल ऐसे मौके पर मीडियाकर्मियों के लाखों के पीएफ ढकार जाती है. इस अनशन के खत्म होने के साथ ही व्यापक स्तर पर छंटनी की भूमिका बन गयी है और अब एक-एक करके टार्गेट किया जाएगा और इस काम के लिए पैदा हुए हरामखोरों को काम में लाया जाएगा.
चैनलों के भीतर के वायरल( निश्चित अवधि भर के लिए) अनशन का यही इतिहास रहा है. आप चाहें तो कह सकते हैं कि मीडियाकर्मियों के पास इतना वक्त और सुविधा नहीं है कि वो लंबे समय तक अनशन ही करते रह जाएं, घर-परिवार और जीवन चलाना होता है, आपकी तरह बकवास करने नहीं होते..लेकिन ये भी उतना ही बड़ा सच है कि ऐसे अनशन से बदलाव के नाम पर रुकी हुई सैलरी भले ही मिल जाए, चैनलों के भीतर का फर्जीवाड़ा और मीडियाकर्मियों की रीढ़ की हड्डी को केंचुएं में तब्दील करने का काम जारी रहेगा.
व्आइस ऑफ इंडिया, सीएनइबी और अब महुआ न्यूज जैसे चैनलों के उगने और कुछेक सालों में ही बंद होने की स्थिति में आने का सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक कि मीडिया महंत धनपशुओं को सब्जबाग दिखाने का काम बंद नहीं कर देते. वो संपादक और सीइओ के नाम पर प्रॉपर्टी डीलर की भूमिका में आने बंद नहीं कर देते और इधर मीडियाकर्मी दो-तीन महीने की रुकी हुई सैलरी की मांग पर अनशन और पूरी हो जाने को ही अपना संपूर्ण अधिकार हासिल कर लेने की भूल करनी बंद नहीं कर देते. उन्हें दो-चार दिन के नहीं बल्कि हर समय प्रबंधन के आगे दवाब बनाए रखना होगा कि आप हमें पत्रकार तो बाद में एक इंसान को देखने-समझने की कोशिश करें..इसके लिए जरुरी है कि बंधुआ और भेड़-बकरी की जिंदगी और हमारे जीवन की स्थिति से मिलान करें और महसूस करें कि हम उनसे किसी भी हद तक अलग नहीं हैं. सारी गड़बड़ियां इसलिए बनी की बनी रह जाती है क्योंकि पूरा मीडिया और मीडियाकर्मी तात्कालिकता में जीता है. उसके व्यापक और लंबे समय तक के प्रभाव से कोई लेना-देना नहीं होता. अनशन के बाद जो भी दो-तीन महीने की बकाया राशि मिलती है वो खुश हो जाता है और इस बात पर दिमाग लगाता है कि कैसे तीसरे महीने तक कहीं शिफ्ट हो जाए. दरअसल ये मीडिया के भीतर की भगोड़ा संस्कृति है जो आनेवाले समय में इस संभावना को लगातार प्रबल करती है कि दागदार,रीयल इस्टेट के माफिया चैनल खोलते रहेंगे,डुबोते रहेंगे, महंत सब्जबाग दिखाते रहेंगे और मीडियाकर्मी उछल-कूद मचाते हुए एक दिन थककर सेमिनारों में मीडिया की नैतिकता और सामाजिक सरोकार पर व्याख्यान देते रहेंगे.
https://taanabaana.blogspot.com/2012/08/blog-post.html?showComment=1344002669545#c1503900308847355604'> 3 अगस्त 2012 को 7:34 pm बजे
शानदार, मैं कुछ ऐसा ही कहना चाहता था, लेकिन वही बात कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे...