साल 2009 के लिए अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल को संयुक्त रुप से ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा और पुरस्कार राशि को सात लाख के बजाय पांच-पांच लाख किए जाने का निर्णय पहली नजर में भारतीय ज्ञानपीठ की यह उदारता प्रभावित करती है। लेकिन तीन लाख का नुकसान सहते हुए भी ऐसा किया जाना न केवल नैतिक रुप से गलत है बल्कि राशि के आधी या कम किए जाने का प्रावधान अगर पहले से घोषित नहीं है तो फिर संवैधानिक रुप से नियमों का उल्लंघन भी है। साल 1999 में निर्मल वर्मा और गुरदयाल सिंह के बीच भी आधी-आधी राशि बांटी गयी थी,तब भी इस पर विवाद हुआ था और इसे अनैतिक करार दिया गया था। संभवतः इसलिए अबकी बार पुरस्कार की राशि आधी करने के बजाय डेढ़ लाख बढ़ाकर दिया जा रहा है जिससे कि हिन्दी समाज की जुबान बंद की जा सके। लेकिन ज्ञानपीठ की इस कोशिश और फैसले से सम्मानित रचनाकारों के उपर क्या बीतेगी,इस सिरे से विचार किए बिना राशि का बंटवारा,यह किसी साहित्यिक संस्था के चरित्र से ठीक उलट मंडी में बैठकर दूकान चलानेवाले की प्रवृत्ति है जो अपने प्रत्यक्ष या परोक्ष मुनाफे के लिए घोषित बाजार भाव को प्रभावित करता है या फिर कार्पोरेट की वह चालाकी जिसमें शर्तें लागू के तहत अपने तरीके की मनमानी करने की खुली छूट हासिल कर लेता है।
भारतीय ज्ञानपीठ अगर ऐसा लगातार करता आ रहा है तो यह बात गंभीरता से समझने की जरुरत है कि कहीं वह मंडी के इसी पैटर्न पर काम तो नहीं कर रहा,जिसे इस बात का अतिरिक्त विश्वास है कि चूंकि वह साहित्यिक संस्थानों के बीच एक मजबूत मंच है,बाजार की एक मजबूत ताकत से संचालित है और उसमें बड़े से बड़े रचनाकारों को प्रभावित करने की क्षमता है तो वह कुछ भी कर सकता है। अगर ऐसा है तो यकीन मानिए,सम्मानित करते हुए भी उसके आगे रचनाकार की अपनी कोई सत्ता नहीं है और तब रचनाकारों को दिया गया सम्मान उनकी कद और गरिमा को बढ़ाने के लिए नहीं,उनके मूल्यों, प्रतिबद्धताओं और स्वयं रचनाकार को दोजख में डालने के लिए है। ऐसे में यह कम बड़ी बिडंबना नहीं है कि जिस श्रीलाल शुक्ल ने जिंदगी भर सांस्थानिक ढांचे के भीतर फैले भ्रष्टाचार और व्यवस्था के विरोध में लिखा और उनकी रचना राग दरबारी इसके दस्तावेज के तौर पर पढ़ी जाती रही हैं,यह पुरस्कार उनके ही आगे ज्ञानपीठ के दरबार होने का एहसास कराता है जहां उन्हें अपने लिखे के प्रति फिर से प्रतिबद्धता साबित करने की स्थिति बनेगी।
पुरस्कारों को लेकर विवाद का यह कोई पहला मामला नहीं है। भारतीय ज्ञानपीठ से लेकर साहित्य अकादमी तक के पुरस्कार लगातार विवादों के घेरे में रहे हैं। कई बार तो यह इतना गहरा जाता है कि जिस मुख्यधारा की मीडिया के लिए साहित्य की दुनिया को शामिल किया जाना कोई मायने नहीं रखता,वह भी इन विवादों को हवा देने का काम करते हैं और साहित्येतर पाठकों को विवाद के जरिए ही पुरस्कार की खबर और संबंधित रचनाकार के बारे में जानकारी मिल पाती है। ऐसे में अक्सर बुद्धिजीवी समाज आनन-फानन में दो धड़ों में बंट जाते हैं जिनमें कि एक अनिवार्य रुप से संबंधित संस्थान के विरोध में होते हैं,पुरस्कार दिए जाने के तरीके को लेकर सवाल खड़े करते हैं जबकि दूसरा संस्थान के समर्थन में प्रहरी के तौर पर खड़े हो जाते है। लेकिन दोनों ही स्थितियों में पुरस्कृत रचनाकारों पर बेवजह नैतिक दबाव बनने शुरु होते हैं कि आखिर वह पुरस्कार स्वीकार करे भी या नहीं।
संभव है 2009 के ज्ञानपीठ पुरस्कार को लेकर जो फैसले आए हैं और जिस तरह से लोगों ने इसके विरोध में लिखना शुरु किया है,अंत तक आते-आते यही स्थिति बने। यहीं पर आकर रचनाकार को दोजख में डालने का काम पहले तो संबद्ध संस्थान और फिर उनके विरोध और पक्ष में लिखनेवाले लोग करते हैं। लेकिन असल में सवाल यह नहीं है कि वे संस्थान के फैसले के पक्ष में या विपक्ष में हैं,सवाल है कि इस पूरे प्रकरण में रचनाकार की मनःस्थिति कैसी बनती है और हम उसे समझते हुए कितना साथ हो पाते हैं। अगर वह असहमति नहीं जताते हुए पुरस्कार ग्रहण कर लेता है तो उसके खिलाफ यह माहौल बनाने की कोशिशें तेज हो जाती है कि वह कुछेक रुपयों के लिए अपने जीवनभर के अर्जित मूल्यों से समझौता कर लिया और अगर नहीं ग्रहण किया तो आर्थिक स्तर पर उसे नुकसान उठाने पड़ते हैं जो कि कई बार उनकी अवस्था और जरुरत के प्रतिकूल होती है।
इस पूरे प्रकरण में सबसे दुखद पहलू जो उभरते हैं,वह यह कि संस्थान के फैसले के पक्ष या विपक्ष में बात करनेवाले दोनों तरह के लोग इस बात को प्रमुखता से दोहराते हैं कि सम्मान का संबंध सिर्फ राशि से नहीं है बल्कि रचनाकार को उस लायक समझे जाने से है। सवाल है कि हिन्दी में लिखनेवाले और विमर्श करनेवाले लोगों के लिए दो लाख रुपये की राशि क्यों इतनी छोटी रकम है और वह भी तब जबकि लंबे-लंबे साहित्यिक लेखों के लिए हजार-पाच सौ से ज्यादा नहीं दिए जाते। महीनों लगाकर लिखी जानेवाली किताब की रॉयल्टी भी इतनी नहीं होती कि किसी रचनाकार का दो-चार महीने आसानी से कट जाए। जहां कुछ रुपयों और साधनों के लिए मार-काट मची रहती है,उसी समाज में दूसरों के पुरस्कार की राशि काटी जाने को लेकर इतना उदार बनने की कोशिश क्यों की जाती है? यह बहस बिल्कुल अलग है कि साहित्य या कला का मूल्य दूसरी किसी भी वस्तु की तरह आंकी नहीं जा सकती लेकिन जिस रचनाकार ने अपना पूरा जीवन इसके पीछे लगा दिया,उसकी भी तो आखिर में पुरस्कार के तौर पर कीमतें लगा ही दी जाती है, तो फिर वो पांच लाख ही क्यों,सात लाख क्यों नहीं?
फिर यह राशि ऐसे अस्सी पार रचनाकार को दिया जाना है जिनके लिए विचारधारा,सामाजिक प्रतिबद्धता और दृष्टिकोण जैसे सवालों के साथ-साथ अवस्था के अनुसार जरुरत का सवाल भी उसी प्रमुखता से जुड़ा हुआ है। अमरकांत के मामले में यह बात तो बेहतर रुप से स्पष्ट है। इस स्थिति में बेहतर यह नहीं होगा कि आगे संस्थान के इस फैसले के प्रतिरोध में जो भी कुछ लिखा जाए,उसमें पूरी राशि दिलाने की कोशिशें शामिल हो और जिन संस्थानों को ऐसा लगता है कि पुरस्कार देना उनकी उदारता का हिस्सा है,उन्हें व्यावसायिक स्तर पर उनके क्या हित होते हैं, इनके मायने लोगों के सामने लाए जाएं?
भारतीय ज्ञानपीठ ने किसी रचना के बजाय रचनाकार के समग्र रचनाकर्म के आधार पर पुरस्कार देने का जो प्रावधान किया है, अगर उनके निर्णायक मंडल सही संदर्भों में समझने की कोशिश करें तो वह दरअसल सिर्फ उस रचनाकार का सम्मान भर नहीं है बल्कि उसकी अवस्था का भी सम्मान है। ऐसे में उसके उपर लिखे के मूल्यों की रक्षा करने और अवस्था की जरुरतों,मनःस्थितियों को समझने की दोहरी जिम्मेदारी बनती है। जिस अमरकांत,निर्मल वर्मा जैसे रचनाकारों के लिए हजार-दो हजार रुपये की राशि खर्च करने के पहले जरुरतों को उसकी प्राथमिकता के आधार पर सोचने के लिए बाध्य करती हो,उनके हिस्से के ढाई-दो लाख रुपये की कतर-ब्योत उनके मन को कितनी चोट पहुंचाएगी,यह किसी भी आधार पर नहीं तो कम से कम मानवीय पहलू पर सोचने को मजबूर करती है। फिर गुरदयाल सिंह जो कि इस मौजूदा निर्णायक मंडल में शामिल है,उनके साथ भी 1999 में ज्ञानपीठ ने ऐसा ही किया था,वे खुद इसके शिकार हुए और विवाद होने के बावजूद संकोची स्वभाव के होने की वजह से निर्मल वर्मा ने इसका प्रतिवाद नहीं किया। अबकी बार ज्ञानपीठ ने फिर से ऐसा करके रचनाकारों को इस बात के लिए बाध्य किया है कि वे इस मामले में चुप्पी साध लें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उनकी उदारता और बड़प्पन पर प्रश्नचिन्ह लगने तय है।
दूसरी तरफ, इस तरह से पुरस्कार देकर रचनाकारों को दोजख में डालने का काम कहीं निर्णायक मंडल के खुद ही दो धड़ों में बदल जाने की परिणति तो नहीं? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि साहित्य को लेकर किया जानेवाला निर्णय गणित या प्रतियोगिता परीक्षाओं के वैकल्पिक सवालों और वस्तुनिष्ठ जबाबों की तरह नहीं होता कि दो अलग-अलग मिजाज के रचनाकारों को एक ही धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया जाए। इस संबंध में फेसबुक पर जो चर्चाएं चली, जब मैंनें अपनी वॉल पर लिखा- मैनेजर पांडे से मैं अपने को इमोशनली बहुत जुड़ा पाता हूं। उन्हें पढ़ते हुए मैंने साहित्य के प्रति कच्ची-पक्की जैसी भी समझ विकसित की है। बहुत ही सहज शब्दों में जो बात कह जाते हैं वो दिल तक उतर जाती है। हाल ही में राजेन्द्र यादव पर लिखा पढ़ा। लेकिन कल देर रात तक परेशान रहा। जो आदमी आज से ठीक एक साल पहले रवीन्द्र कालिया छिनाल प्रकरण के विरोध में सड़कों पर उतर आया था,एक साल बाद ज्ञानपीठ की निर्णायक समिति में जाकर दो लोगों को संयुक्त पुरस्कार पर मुहर लगा जाता है। अगर राशि आधी-आधी बंटी तो पांडेजी पर से रहा-सहा भरोसा टूट जाएगा।उसमें वीरेन्द्र यादव ने मेरी दीवार पर प्रतिक्रिया स्वरुप लिखा कि- आप पता करें कि “ पुरस्कार समिति की बैठक में क्या मैनेजर पांडे जी ने श्रीलाल शुक्ल को पुरस्कार दिए जाने के प्रस्ताव का समर्थन न करके अशोक वाजपेयी का नाम प्रस्तावित किया था.आपका भरोसा न टूटे तो फिलहाल यह भी याद कर लीजिए कि हैदराबाद मे पांडे जी के अभिनन्दन समारोह की अध्यक्षता भी अशोक वाजपेयी ने की थी.हित-संतुलन का यह दृश्य अधिक भरोसा तोड़ने वाला है. नहीं ???” वैसे हैदराबाद विश्वविद्यालय में मैनेजर पांडे के जन्मदिन के मौके पर आयोजित समारोह/संगोष्ठी इसलिए भी अविस्मरणीय है क्योंकि उसमें उनके लगभग सभी शिष्यों ने व्याख्यान दिया था।
बहरहाल,अगर पुरस्कार की निर्णायक मंडली में शामिल होना कर्ज उतारने और एहसान चुकाने का ही माध्यम है तो फिर सम्मानित रचनाकारों को इसका निशाना बनाया जाना क्यों जरुरी है, और वह भी अमरकांत और श्रीलाल शुक्ल जैसे ऐसे रचनाकारों को जो कि इससे बहुत पहले साहित्य अकादमी,दूसरे बड़े सम्मानों सहित पाठकों की ओर से सम्मानित किए जा चुके हैं। निर्णायक मंडल आपस के उन्हीं लोगों को इस पुरस्कार में शामिल क्यों नहीं कर लेते,जिससे बिना खेमे के जीने और लिखनेवाला रचनाकार पुरस्कार पाने के बाद दोजख में जाने और आखिरी दौर में भी आकर नैतिकता साबित करने के पचड़े से बच जाए। कहीं ऐसा करके ज्ञानपीठ सहित उसके फैसले में शामिल लोग अपने भीतर के स्वार्थ और उससे उपजे लिजलिजेपन को ढंकने की कोशिश तो नहीं करते आए है?
भारतीय ज्ञानपीठ की ओर से पुरस्कार देने का जो चलन है,उसका विकसित या कहें विकृत रुप, उसके निर्धारण का आधार रचनात्मकता के बजाय रचनाकार की अवस्था है। यह उसके पूरी तरह घोषित न किए जाने के बावजूद भी स्पष्ट है। युवा ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए वे युवा रचनाकार योग्य हैं जो इसकी पत्रिका नया ज्ञानोदय में छपते आए हैं या फिर उनके द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में चयनित होते हैं। उपरी तौर पर यह उभरती प्रतिभाओं का सम्मान और प्रोत्साहन है लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखें तो यह ज्ञानपीठ ब्रिगेड में शामिल करने की प्रक्रिया है जिसका इस्तेमाल विभूति-छिनाल प्रकरण जैसे मौके पर मूल्यों के बजाय व्यक्ति और संस्था के पक्ष में खड़े होने के लिए किए जाते हैं। ऐसी स्थिति में रचनाकार,रचना के स्तर पर भले ही उन मूल्यों और प्रतिबद्धताओं की बात करता नजर आ जाए,जो उसे संवेदनशील और रचनात्मक करार देते हैं लेकिन उन्हीं मूल्यों की धज्जियां जब संस्थान के भीतर उड़ायी जाती है,तब वह उसके प्रतिरोध में खड़े होने के बजाय उसके बचाव में कुतर्क प्रस्तावित करता है,हस्ताक्षर अभियान चलाता है। आगे चलकर उनकी ऐसी दोमुंही रचनाशीलता किस दिशा में विकसित होगी,यह अलग से बताने की जरुरत नहीं है।
दूसरा पुरस्कार किसी रचना पर दिए जाने के बजाय रचनाकार के समग्र रचनाकर्म पर दिए जाने का है। जाहिर है इसके लिए रचनाशीलता के साथ-साथ वरीयता का सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है। हालांकि ज्ञानपीठ ने इस आधार पर भी गड़बड़ियां की है फिर भी इस पर बात तो होनी ही चाहिए की कि रचनाकारों के लिए सम्मान उसकी रचनाशीलता के लिए है या फिर लेखन से सेवानिवृत होने के लिए। अगर ऐसा है तो फिर ज्ञानपीठ को समग्र रचनाकर्म के लिए पुरस्कार देने के बजाय “आश्रय कोश” का प्रावधान करना चाहिए ताकि उसमें जिन रचनाकारों को आर्थिक और भावनात्मक स्तर पर जरुरत होगी,उन्हें शामिल किया सके। आखिर जिन रचनाकारों ने अपनी बहुत थोड़ी रॉयल्टी लेकर प्रकाशकों की सेहत बनायी रखी है,जीवन के अंतिम दौर में उनकी देखभाल की थोड़ी तो नैतिक जिम्मेदारी उन्हें लेनी ही पड़ेगी।
अच्छा,ज्ञानपीठ इन दोनों अवस्था के आधार पर पुरस्कार देकर बीच की उम्र के रचनाकार लिख-पढ़ रहे हैं,उनको कितनी गंभीरता से समझ पा रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसकी नजर में सिर्फ दो ही तरह के रचनाकारों पर नजर है- एक जो कि भविष्य में बेहतर रचनाकार हो सकता है,वह दूसरे खेमे में न चला जाए और उसे क्रेडिट मिल जाए उन पर और दूसरा जो कि बुजुर्ग हैं। इन बुजुर्ग रचनाकारों को सम्मानित किए जाने से संस्थान साख बनाए रखने की कोशिश और अपने पक्ष में ब्रांडिंग की रणनीति तय करता है। इन दोनों ही स्थितियों में रचनाशीलता,सरोकार और साहित्यिक मूल्यों के सवाल बहुत पीछे छूट जाते हैं। भारतीय ज्ञानपीठ समग्र रचनाकर्म के बजाय अपने अंतिम दौर में संघर्ष कर रहे रचनाकारों को अपनाता है और ज्ञानपीठ पुरस्कार को इस आधार से मुक्त रखता है तो इससे न केवल उनकी बेहतर मदद हो सकेगी बल्कि दो अवस्थाओं के रचनाकारों के बीच जो कुछ भी लिखा जा रहा है,उसका भी बेहतर मूल्यांकन और सम्मान हो सकेगा।
(मामूली फेरबदल के साथ जनसत्ता में प्रकाशित, 2 अक्टूबर 2011)
https://taanabaana.blogspot.com/2011/10/blog-post.html?showComment=1317543359128#c4739527982313156544'> 2 अक्तूबर 2011 को 1:45 pm बजे
ढाँचे की चरमराहट के स्वरों की ही स्तुति, यह कौन सा स्थान है प्रभु।
https://taanabaana.blogspot.com/2011/10/blog-post.html?showComment=1317553735408#c2632810587929434502'> 2 अक्तूबर 2011 को 4:38 pm बजे
भ्रष्टाचार की जब बयार चल रही हो तो सांस्थानिक -भ्रष्टाचार उससे कैसे बच सकता है ? 'राग-दरबारी' को ऐसे पुरस्कारों से प्रतिष्ठित होने की ज़रुरत भी नहीं है.'जनसत्ता' में आपका विमर्श पढ़ा था,यहाँ (ब्लॉग)पर फॉण्ट थोड़ा बड़े कर लें,थोड़ा 'स्पेस' भी दे दें ,पढ़ने में आसानी रहेगी.
आभार !
https://taanabaana.blogspot.com/2011/10/blog-post.html?showComment=1317577624659#c6348863680923839202'> 2 अक्तूबर 2011 को 11:17 pm बजे
जब से यह इनाम घोषित हुआ है तब से इस मसले पर सोच रहे हैं। यह अच्छा ही हुआ कि हिन्दी साहित्य के दो अस्सीपार बुजुर्गवार लेखक सम्मानित किये जा रहे हैं।
ज्ञानपीठ ने शायद सोचा हो कि इन दोनों को ही सम्मानित करना जरूरी है। आगे अन्य भाषाओं के साहित्यकारों के चलते पता नहीं फ़िर यह मौका मिले या न मिले।
लेकिन इनाम की राशि के बंटवारे के चलते ज्ञानपीठ ने दोनों लेखकों को असहज स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। हर संवाददाता इन दोनों से ही यह सवाल जरूर पूछेगा- आपको आधे से कुछ ज्यादा इनाम मिला। आपका क्या कहना इस बारे में!
पता नहीं ज्ञानपीठ की क्या मजबूरियां रहीं होंगे इनाम इस तरह बांटने की लेकिन यह ऐसे लगता है कि जैसे किसी सिंगल बेड के साथ एक बेंच सटाकर उसको थोड़ा चौड़ा कर दिया गया और दो लोगों से कहा गया हो इसई में रात गुजार लो भाई। आपके सम्मान में यही कर सकते हैं हम।
इनाम/छपाई में नेटवर्किंग भी तो हमेशा से काम करते हैं। अब कोई संपादक त्रिकालदर्शी तो हो नहीं सकता कि सब पत्रिकाओं के अच्छे लेखक देखे और उसका संकलन छापे। उसको तो अपनी किताब के लोग अच्छे दिखे उनका संकलन छाप दिया। अब वे छपे हुये लोग उनके दल में शामिल हो जायें तो उस बेचारे संपादक का क्या दोष! :)
मैनेजर पाण्डेय वाली बात पता चले तो बताइयेगा। कामना है कि आपका भ्रम सलामत रहे।
बाकी लिखा चकाचक है! बधाई! :)