निजी चैनलों पर सरकार एक बार फिर से लगाम कसने का मन बना रही है। इस मामले में दिलचस्प पहलू है कि इसके पहले सरकार ने जब भी इन चैनलों पर लगाम कसने की बात की तो उसमें सीधे तौर पर जनहित के सवाल जुड़े रहे लेकिन अबकी बार अन्ना हजारे अनशन को लेकर चैनलों ने जिस तरह से कवरेज दी,सरकार का पक्ष है कि वह तटस्थ होने के बजाय एकतरफा रही और उसमें सरकार की ओर से कही गयी बातों का या तो गलत संदर्भ दिया गया या फिर उसकी बातों की अनदेखी की गई। दूसरी तरफ अन्ना की टीम ने मंच से बार-बार मीडिया और इन निजी चैनलों का शुक्रिया अदा किया, अन्ना समर्थक तिहाड़ जेल से लेकर रामलीला मैंदान तक थैंक्यू टू ऑल मीडिया की अलग से तख्ती दिखाते नजर आए। इसका सीधा मतलब है कि जिस कवरेज को लेकर सरकार नाराज है,उसी कवरेज से अन्ना की टीम,समर्थक और अनशन में शामिल लोग संतुष्ट हैं जिसे कि भारतीय जनमानस की अभिव्यक्ति करार दिया जा रहा है।
निजी समाचार चैनलों पर लगाम कसने और उसे नियंत्रित करने की बात कोई नई घटना नहीं है। सरकार अपनी तरफ से नैतिकता,सरोकार,जागरुकता और संप्रभुता जैसे सवालों के साथ जोड़कर इसे नियंत्रित करने की कई कोशिशें करती आयी हैं। लेकिन अबकी बार नियंत्रण करने का जो मामला बन रहा है,वह पहले से अलग इस अर्थ में है कि 2 जुलाई को भ्रष्टाचार और मीडिया की भूमिका पर बोलते हुए देश के सैंकड़ों पत्रकारों के बीच सूचना और प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने कहा था कि वह स्वयं और सरकार नहीं चाहती है कि मीडिया पर किसी तरह का उनकी तरफ से नियंत्रण हो। अंबिका सोनी ने मौजूदा चैनलों में कुछ कमियों की चर्चा जरुर की थी लेकिन उसे भी इनके लिए काम कर रहे लोगों को ही दुरुस्त करने की सलाह दी थी। लेकिन अब सरकार अन्ना अनशन के एक सप्ताह भी नहीं बीते कि दोबारा से नियंत्रण लाने की बात कर रही है तो इसका सीधा मतलब है कि इस दौरान हुई कवरेज को लेकर उसे दिक्कत है और चैनलों ने देश की भारी भीड़/जनता को दिखाते हुए मौजूदा सरकार की जिस तरह की छवि पेश की है,संभव है उससे एक हद तक खतरा भी हो।
इधर चैनलों का अपना तर्क है कि उन्होंने यह सब देश में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए किया है। इस दौरान चैनलों ने न केवल अन्ना अनशन और भ्रष्टाचार के खिलाफ हो रही गतिविधियों का प्रसारण किया बल्कि दर्शकों से इस बात की अपील भी कि आप इनके साथ आएं। एक अंग्रेजी चैनल ने अपने ही संस्थान के अखबार में विज्ञापन छपवाया- सपोर्ट अन्ना और चैनल पर भी लगातार इसे फ्लैश करता रहा। जाहिर है चैनलों ने इस घटना की जिस तरह से कवरेज की,उसमें कई बार यह साफतौर पर झलक रहा था कि वह अन्ना की टीम के तौर पर ही काम कर रहे हैं जिसे कि अब वे जनभावना के साथ होने का नाम दे रहे हैं। ऐसे में सरकार जिस नीयत से इन चैनलों को नियंत्रित करना चाहती है,उसकी मंशा तो हमें एक हद तक समझ आती ही है कि यह भी कोई व्यापक जनसरोकार के पक्ष में नहीं है लेकिन चैनलों का जो रवैया रहा है और जिस तर्क से वे खबरों का प्रसारण करते रहे, ऐसे में अन्ना के इस अनशन,जनलोकपाल बिल और उसे लागू किए जाने के तरीके से जिन्हें असहमति रही है,उनके शामिल होने की गुंजाइश मीडिया के इस रुप में कहां थी, चैनल अपने भीतर के विपक्ष को जिस तेजी से खत्म कर रहा है,वह क्या लोकतंत्र के लिए कम खतरनाक है? क्या इस पर सरकार से अलग,दर्शकों की तरफ से कोई सवाल नहीं बनते हैं?
अब अपने को जनसरोकारों का प्रतिनिधि बताकर सरकारी नियंत्रण की बात शुरु होते ही मीडिया संस्थानों से जुड़े लोग आपस में लामबंद होने शुरु हो गए हैं,मीडिया और चैनलों का प्रतिनिधित्व करनेवाले संगठनों के बयान आने शुरु हो गए हैं जिसमें सरकार के इस कदम की कठोर निंदा की जा रही है। बीइए(ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एशोसिएशन) के महासचिव एन.के.सिंह का कहना है कि खुदा के लिए इस कवरेज को मुनाफे और बिजनेस के लिहाज से फायदे का हिस्सा मानकर मत देखिए,सरकार का कहना है कि हमने एकतरफा खबरें दिखाई लेकिन सवाल है कि भ्रष्टाचार का भला दूसरा पक्ष क्या हो सकता है?
फिलहाल जो स्थिति बनी है वह यह कि अगर आप अन्ना के अनशन के समर्थन में हैं तो आपको मौजूदा न्यूज चैनलों के इस तर्क के साथ खड़ा ही होना होगा। चैनलों ने इस अनशन के दौरान अपनी जो शक्ल पेश की है,उससे अलग होने का मतलब है कि आप भ्रष्टाचार खत्म किए जाने की भूमिका के साथ नहीं है। अन्ना,मीडिया और भ्रष्टाचार विरोधी गतिविधियां एक-दूसरे से कुछ इस तरह घुल-मिल गए हैं कि इनमें से एक से भी असहमत होने का अर्थ है उस अनशन,उस पहल से अपने को अलग करना जिसके माध्यम से एक बेहतर स्थिति बनने की पूरी-पूरी गुंजाईश है और जिसे कि समाचार चैनलों ने तमाम अन्तर्विरोधों को नजरअंदाज करके लगभग प्रस्तावित कर दिया है। ऐसे में कुछ जरुरी सवाल तो जरुर हैं जिसे कि न्यूज चैनलों सहित उनका प्रतिनिधित्व करनेवाले संगठनों से पूछे ही जाने चाहिए या फिर उन तथ्यों की तरफ ईशारा किया जाना चाहिए जो कि भ्रष्टाचार खत्म होने की मुहिम के पहले बनती दिखाई दी?
सबसे पहला सवाल कि क्या इस अनशन के भीतर टीआरपी की संभावना नहीं होती तो भी इस की कवरेज जारी रहती और दूसरा कि चैनल अन्ना अनशन के साथ ही भ्रष्टाचार के सवाल के साथ क्यों खड़े हुए? अगर चैनल भ्रष्टाचार के सवाल को लेकर इतनी चौकस है तो फिर चैनल का चरित्र उससे अलग क्यों नहीं है?
पहले सवाल के जबाब में अगर हम अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के उस संदर्भ पर गौर करें जहां उनकी टीम मुख्यधारा की मीडिया पर पूरी तरह निर्भर होने के बजाय अपने स्तर से न्यू मीडिया को लेकर लोगों के बीच अपनी पकड़ बना चुकी थी। फेसबुक के इंडिया अगेन्सट करप्शन के पन्ने पर भारत सहित दुनियाभर के देशों से जिस तरह की लाखों में सकारात्मक प्रतिक्रिया आ रही थी,उससे यह स्पष्ट हो गया था कि सड़कों पर उतरने से पहले ही वर्चुअल स्पेस पर यह आंदोलन पूरी तरह खड़ा हो चुका है। ऐसे में फेसबुक की कुल संख्या का 20 से 30 फीसदी लोग भी सड़कों पर उतरते हैं तो यह एक असरदार मुहिम होगा। इसका सीधा मतलब है कि अन्ना की टीम ने फेसबुक पर इंडिया अगेन्स टरप्शन की जो शुरुआत की थी,टेलीविजन के लिए टीआरपी के बीज उसी में छिपे थे। चैनलों को इसकी लोकप्रियता से इस बात का अंदाजा लग गया था कि इस मसले पर लोगों की गहरी दिलचस्पी है और अगर यह चल निकला तो लंबे समय के लिए टीआरपी के लिहाज से स्थायी सामग्री होगी। इसके साथ ही चैनल के अपने पुराने एजेंड़े को भी अंजाम दिया जा सकता है।
3 अप्रैल से जब अन्ना का अनशन जंतर-मंतर,दिल्ली में शुरु हुआ और इस टीम के अपने नेटवर्क प्रबंधन से लोगों का जमावड़ा शुरु हुआ। अगले दिन से एक-एक करके चैनलों की टुकड़ियां कवरेज के लिए हाजिर होने लगी और 8 अप्रैल तक अन्ना के अलावे कोई दूसरी खबर प्रमुखता से नहीं चली। इस दौरान चैनलों ने कुल 6000 क्लिप्स दिखाए जिसमें कि 65 को छोड़कर बाकी 5592 क्लिप्स अन्ना के समर्थन में थे। चैनलों के इन क्लिप्स की अगर विज्ञापन राजस्व के लिहाज से हिसाब लगाएं तो इसमें करीब 175 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। आप कह सकते हैं कि अन्ना अनशन के पहले दौर में चैनलों ने इतनी मोटी रकम निवेश कर दिया था जिसमें कि भविष्य के लिए स्थायी तौर पर टीआरपी मिलती रहने की संभावना थी। 8 अप्रैल के बाद आईपीएल शुरु होते ही चैनल अन्ना की खबरों से हटकर वही आइपीएल, मनोरंजन,क्रिकेट और रियलिटी शो की खबरों पर वापस लौटने लगे लेकिन अन्ना की कवरेज के दौरान जो टीआरपी चैनलों को मिली,उससे उनकी कई तकलीफें दूर होने की संभावना बनती दिखाई दी। फिक्की-केपीएमजी की रिपोर्ट पर गौर करें तो समाचार चैनल,मनोरंजन चैनलों से लगातार मार खाते आ रहे हैं,लोग खबरों के बजाय मनोरंजन और दूसरे कार्यक्रमों की तरफ शिफ्ट हो रहे हैं। दूसरा कि राष्ट्रीय चैनल के बजाय क्षेत्रीय चैनलों की तरफ लोगों का रुझान तेजी से बढ़ रहा है,ऐसे में दो ही रास्ता है- एक तो नेशनल चैनल एक-एक करके क्षेत्रीय स्तर पर चैनल शुरु करे या फिर क्षेत्रीय स्तर पर जो चैनल सफल हैं,उनके साथ व्यावसायिक समझौते करे। अन्ना के अनशन की सफलता में कई मोर्चे पर फंसे राष्ट्रीय चैनलों के उबरने की गुंजाईश बनती दिखायी दी।
इस संदर्भ में टीआरपी के साथ-साथ एक बड़ा मसला था कि इस दौरान समाचार चैनलों की साख 2जी स्पेक्ट्रम मामले में पूरी तरह मिट्टी में मिल चुकी थी। सरकारी जांच एजेंसियों ने जिस तरह से एक के बाद एक टेप जारी किए थे और उसमें एक से एक मीडिया दिग्गजों के नाम सामने आने लगे थे, ऐसे में देखते-देखते बड़े-बड़े समाचार चैनल पूरी तरह बेपर्द हो गए। उनकी साख इतनी नहीं रह गयी थी कि वे लोगों के सामने इस अधिकार से सामने जा सकें कि वे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के तौर पर काम करते हैं। समाचार चैनलों की साख गिरने की पुष्टि इस बात से भी हो जाती है कि जब 8 अप्रैल को अन्ना के अनशन के सफल होने की जश्न में इंडिया गेट पर 2जी स्पेक्ट्रम मामले में अपनी साख गंवा चुके पत्रकार ने जब लाइव कवरेज करने की कोशिश की तो लोगों ने उसका प्रतिरोध किया और उन्हें बिना कवर किए वहां से जाना पड़ा। 2 जी स्पेक्ट्रम में दागदार हुए पत्रकारों और संस्थानों की याद अब भी लोगों के बीच बनी हुई थी। चैनलों के लिए अन्ना का यह अनशन उस डैमेज कंट्रोल की तरह था जिसे मजबूती से पकड़े रहने की स्थिति में खोई हुई साख को वापस लाने की संभावना बनती।
जून आते-आते अन्ना की टीम के सदस्यों पर कई तरह की वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगने शुरु हुए जिसमें कि कुछ राजनीतिक लोगों के नाम जुड़कर आने से विवाद गहरे होते चले गए। अप्रैल महीने में जो चैनल अन्ना की टीम की लगभग एकतरफा कवरेज करते आए थे और भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई प्रतिपक्ष की खबर नहीं होती की तर्ज पर आगे जा रहे थे,अब उनकी दिलचस्पी विवादों को प्रसारित करने में होने लगी। थोड़े देर के लिए चैनल यह भूल गया कि उसे अन्ना के अनशन के साथ जुड़कर अपनी छवि बेहतर करनी है। इसी बीच 7 जून को लाइव इंडिया ने अन्ना हजारे,अरविंद केजरीवाल के साथ दो घंटे की इंडिया की सबसे बड़ी बहस नाम से लाइव बहस चलायी जिसकी रिकार्डतोड़ टीआरपी करीब 37 रही। चैनल सहित दूसरे मीडिया संस्थानों के बाद बेहतर ढंग से समझ आ गयी कि अन्ना मौजूदा दौर के सबसे बड़े टीआरपी तत्व हैं और एक के बाद एक दूसरे चैनलों ने भी अन्ना के अनशन को प्रमुखता से कवर किया। दूसरी बात कि अन्ना ने इस शो में जिस तरह से पूरी टीम को लेकर बात कही,चैनलों को यह फार्मूला पकड़ते देर नहीं लगी कि फिलहाल विवादों के बजाय अन्ना के सुर के साथ होना ही बेहतर है क्योंकि इस खबर को तर्क,नियम और संवैधानिक प्रावधानों पर चर्चा करने के बजाय भावनात्मक रुप देने से ज्यादा सुरक्षित स्थिति हो सकती है। ऐसा करने से जनभावनाओं के टीआरपी में बदलने,सीरियल और मनोरंजन चैनलों के दर्शकों को तोड़कर यहां लाने और पूरे मुद्दे को राष्ट्रीय बनाने में मदद मिलेगी। तभी एक-एक करके चैनलों ने लोगों से अन्ना के साथ रामलीला मैंदान में जुटने की अपील की।
अगस्त में अन्ना के अनशन की जिस उत्साह से कवरेज किया गया,वह जून में मिले उसी फार्मूले और अंक 37 तक पहुंचने के लक्ष्य का नतीजा था। यह अलग बात है कि बाद में अन्ना की दर्जनभर लाइव कवरेज चली लेकिन लाइव इंडिया सहित कोई भी दूसरा चैनल इस लक्ष्य हो हासिल नहीं कर सका। अन्ना की टीम ने पहली बार की तरह इस बार भी मुख्यधारा की मीडिया से जुड़ने के साथ-साथ न्यू मीडिया के मोर्चे को मजबूती से पकड़े रहा जिसका नतीजा खुलकर सामने आया। जिस इंडिया अगेन्सट करप्शन के फेसबुक पन्ने से अन्ना की टीम ने शुरुआत की थी,उस पर करीब चार लाख लोगों ने पसंद का चटका लगाया, पांच लाख लोग इस अनशन के समर्थन में जुड़े, तिहाड़ जेल से दिए अन्ना के इंटरव्यू को यूट्यब पर एक लाख से ज्यादा लोगों ने देखा। अन्ना कौन है,इसे जानने के लिए गूगल पर दुनियाभर से करीब 12 करोड़ 20 लाख क्लिक किए गए। इसका एक मतलब तो साफ था कि अन्ना के अनशन ने अपने तरीके से एक मीडिया नेटवर्क खड़ा कर लिया था जिसका असर बढ़ रहा था और यहां तक आते-आते समाचार चैनलों के अप्रसांगिक हो जाने का खतरा झलकने लगा था। यह खतरा इसलिए भी था क्योंकि न्यू मीडिया के तौर पर विकीलिक्स ने दुनियाभर की मुख्यधारा की मीडिया को पहले ही प्रेस रिलीज की मीडिया साबित कर चुका था। बावजूद इसके अन्ना की टीम अगर मुख्यधारा मीडिया से जुड़ रही थी तो इसका सबसे बड़ा लोभ इस बात से था कि इसे शहरी मध्यवर्ग,इन्टरनेट से जुड़नेवाले नागरिक के अलावे उन लोगों तक पहुंचाया जाए जो कि तथ्यों से हटकर भावनात्मक और छवि निर्माण के स्तर पर जुड़ सकें। देशभर की गलियों और पार्कों में बच्चे वंदे मातरम के नारे लगाते दिखआई दिए,वह इसी स्ट्रैटजी का हिस्सा था जिसमें कि अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने बच्चों के बीच पकड़ बनाने के लिए सारेगमप लिटिल चैम्पस जैसे रियलिटी शो में आकर अपील की थी। दूसरी तरफ न्यूज चैनलों में खबरों की वापसी( यह अलग बात है कि इसकी प्रकृति रियलिटी शो और मेलोड्रामा के करीब रही) और राजनीतिक खबरें कवर करनेवाले जो लोग रियलिटो शो और ग्लैमर की खबरों के आगे लगभग अप्रासंगिक हो चले थे,उन्हें अपनी जगह हासिल करने में सहूलियतें हुई। बालिका वधू और कौन बनेगा करोड़पति जैसे कार्यक्रमों को छोड़कर इन खबरों के प्रति दिलचस्पी और लोकप्रियता से उनका भरोसा कायम हुआ कि लोग अभी भी खबर ही चाहते हैं और भूत-प्रेत-सांप-नागिन और यमराज का आंतक जैसी खबरों का अंत करीब है। टीआरपी मीटर के लिहाज से भी यह सब दिखानेवाले चैनलों के लिए अन्ना का अनशन शोक ही साबित हुआ।
इन सबके बीच मई महीने में कैग ने राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी अपनी रिपोर्ट पेश की। इस रिपोर्ट में खेलों और प्रबंधन को लेकर हुई गड़बड़ियों के साथ-साथ मीडिया की भूमिका पर भी सवाल खड़े किए। किस तरह मीडिया के दिग्गज संस्थानों ने कवरेज को लेकर सौदेबाजी करने की कोशिश की और सफल न होने की स्थिति में खिलाफ में खबरें दिखायी,इसे विस्तार से बताया। लेकिन न तो मीडिया में और न ही बीइए और एडीटर्स गिल्ड जैसे संगठनों ने इस संबंध में कुछ भी कहना जरुरी समझा और चुप्पी साधे रहे। मीडिया संगठन इस दौरान सरकार की ओर से न्यू मीडिया को नियंत्रित करने के संबंध में जो नियम लाए,उस पर भी कुछ नहीं कहा और वे सारे नियम बिना तर्क और असहमति के लागू हो गए। जो मुख्यधारा की मीडिया ब्लॉग,ट्विटर,फेसबुक जैसे माध्यमों का बड़ा हिस्सा अपने लिए इस्तेमाल करता आया है,वह इसके नियमों के लाने जाने पर चर्चा तक नहीं की।
इसके अलावे, 2 जी स्पेक्ट्रम मामले से लेकर 13 अगस्त 2010 को आग लगाकर आत्महत्या करने के लिए उकसाने और उसकी लाइव कवरेज दिखाने के मामले में बीइए जैसे संगठन ने आधी-अधूरी कमेटी गठित करके कैसे दस दिनों के भीतर शामिल चैनल को क्लिनचिट दे दी,ये सब हमारे सामने स्पष्ट है। चैनलों के भीतर मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाते हुए किस तरह से लोगों से काम लिए जाते हैं, चैनल बंद होने की स्थिति में सैंकड़ों पत्रकार कैसे सड़कों पर आ जाते हैं और वह चैनल में एक लाइन की खबर नहीं बन पाती, मीडिया संगठन उनसे किसी भी तरह का सवाल-जबाब नहीं करते, ऐसे में सरकार अगर इन समाचार चैनलों पर नकेल कसने जा रही है तो इसका विरोध एक हद तक बिल्कुल जरुरी है लेकिन साथ में यह सवाल है कि क्या सरकार सचमुच उस मीडिया पर लगाम लगाने जा रही है जो कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है या फिर वह कार्पोरेट मीडिया है जिसका लक्ष्य अपनी मिट्टी में मिल चुकी साख और मुनाफे को दोबारा से हासिल करना है? फिर भी अन्ना की टीम इस मीडिया का बार-बार शुक्रिया अदा कर रही है तो हैरानी हो रही है और सवाल भी पैदा हो रहे हैं कि क्या प्रतिरोध के स्वर के साथ खड़ा होने का का हक उसे है जो खुद भी मुजरिम है लेकिन जिसमें खुद के लिए वकील बनने की भी काबिलियत है? जाहिर है इसमें चैनल के साथ-साथ उसकी रक्षा में खड़े गठित संगठन भी हैं।
(मामूली फेरबदल के साथ मूलतः जनसत्ता में 4 सितंबर 2011 को प्रकाशित)
(मामूली फेरबदल के साथ मूलतः जनसत्ता में 4 सितंबर 2011 को प्रकाशित)
https://taanabaana.blogspot.com/2011/09/blog-post.html?showComment=1315214361175#c2626998485119989389'> 5 सितंबर 2011 को 2:49 pm बजे
जब जागें तभी सबेरा।
https://taanabaana.blogspot.com/2011/09/blog-post.html?showComment=1315274160007#c2733806638854901743'> 6 सितंबर 2011 को 7:26 am बजे
बहुत गहरी बात कही आपने।
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नमक इश्क का हो या..
पैसे बरसाने वाला भूत...