हिंदी लिटरेचर की दुनिया में कहीं-कोई पत्ता हिला नहीं कि मीडिया नामवर सिंह से बयान लेने दौड़ पड़ते हैं। नामवर सिंह से बयान लेने का मतलब है कि उस मसले पर हिंदी समाज क्या सोचता है, इसका प्रतिनिधित्व हो जाता है। बाकी पीछे या अलग से कोई कहे, असहमत हो जाए, ये सब नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाती है। हिंदी संगोष्ठी की ग्रामेटलॉजी भी कुछ इस तरह से बनी है कि अगर आयोजन को सफल बनाना है तो बाकी कोई आये या न आये – नामवर को बुला लो। हिंदी की दुनिया में नामवर एक जरूरी हस्ताक्षर होने से कहीं ज्यादा ब्रांड सिंबल हैं, जिनकी डिमांड पूरी तरह बाजार के पैटर्न पर है। हालांकि ऐसी ब्रांडिंग करना आसान काम नहीं है, कई रचनाकार तो जिंदगी भर ठेले लगाते-लगाते ही पस्त हो जाते हैं। जैसे ठंडा मतलब कोका कोला, हर चिपकाने वाली चीज फेवीकॉल, हर वनस्पति घी डालडा, सर्दी में हर सूंघने-रगड़नेवाली चीज विक्स के नाम से बेची-खरीदी जाती है, फिर उस नाम के, पैटर्न के आजू-बाजू कई उत्पाद बाजार में आ जाते हैं। वो कहीं न कहीं मदर ब्रांड की इमेज को कैरी करते हैं, कम दाम में भी वही असर के दावे के साथ।
नामवर सिंह हिंदी में ग्राहकों/पाठकों/श्रोताओं की इसी मानसिकता का प्रतिनिधित्व करते हैं। हिंदी समाज में लिखनेवालों का एक वर्ग यही पाइरेटेड नामवर हैं जो कि मदर ब्रांड इमेज को कैरी करते हैं। हिंदी में नामवर का वर्चस्व बाजार के इसी फार्मूले की तरह है। जिस तरह बाजार में उत्पाद अपने ब्रांड को लेकर चौकस रहता है, उसी तरह हिंदी समाज में नामवर सिंह का नाम है। ऐसे में बाजार में ब्रांड के वर्चस्व और उसके कायम रखने के तरीके और नामवर सिंह का ब्रांड, वर्चस्व और कायम रखने के तरीके में कोई अंतर नहीं है। लेकिन सालों से ब्रांड और बाजार के फार्मूले पर नामवर सिंह को इस्तेमाल में लानेवाले मीडिया और साहित्यिक मंचों पर लांच करते रहनेवाले लोगों ने विभूति-छिनाल प्रसंग में जिसे कि वर्चुअल स्पेस में हंटर साहब की कोतवाली जुबान के तौर पर भी जाना जाने लगा है, नामवर सिंह को इस मसले पर ब्रांड के तौर पर सामने लाने की कोशिशें नहीं की। नहीं की इसलिए कि अगर की भी होगी और उन्होंने मना भी कर दिया होगा तो भी कहीं भी ये लाइन नहीं आयी कि इस मसले पर उन्होंने कुछ भी बोलने से मना कर दिया।
चैनलों में बाइट लेने के जो बंधे-बंधाये चालू फार्मूले हैं, उस हिसाब से भी नामवर सिंह का बोलना जरूरी है लेकिन कहीं कुछ भी नहीं। यहां मौके के बीच ब्रांड पिट गया या फिर उसे मैदान में उतरने ही नहीं दिया गया। ऐसा करके (मीडिया, मंच और खुद नामवर सिंह भी) बेवजह झंझटों से मुक्त होने के मुगालते में भले ही हों, लेकिन हिंदी मतलब नामवर सिंह जो पंचलाइन बनी रही है, वो ध्वस्त होती है। इस पूरे प्रकरण से आप ये भी समझ सकते हैं कि कई बार बाजार खुद भी अपने ही बनाये फार्मूले से मुकर जाता है और नये फार्मूले की खोज में भटकने लग जाता है। विभूति नारायण के मामले में नामवर सिंह की चुप्पी कुछ इसी तरह से है। हिंदी का पढ़ा-लिखा समाज फिर भी समझता है कि हिंदी का मतलब सिर्फ नामवर सिंह नहीं होता लेकिन समाज का एक बड़ा तबका जिसके लिए नामवर एक हिंदी ब्रांड है, वो उन्हें यहां न देखकर हैरान है।
दूसरी बात, नामवर सिंह ने हिंदी समाज के भीतर अपनी ब्रांडिंग उन मल्टीनेशनल कंपनियों की तरह बनायी है, जो कान खोदने की बड से लेकर इंटरनेशनल हाइवे पर दौड़नेवाली कार/जेट तक बना सकती है और बना रही है। अपने यहां आप इसे टाटा कंपनी को ध्यान में रखकर सोच सकते हैं। नामवर एक ऐसे ब्रांड हैं, जो अपभ्रंश के विकास से लेकर उत्तर-उपनिवेशवाद, इतिहासवाद तक बात कर सकते हैं। उनके यहां विचारों का उत्पाद इन्हीं मल्टीनेशनल कंपनियों के फार्मूले पर होता है। यह अकारण नहीं है कि हर कविता संग्रह, कहानी संग्रह, उपन्यास, संस्मरण, आलोचना तो उनकी मदर ब्रांड ही है पर बोलने-लिखने के लिए रचना उत्पादकों का तांता लगा रहता है। नामवर सिंह ने इसके लिए कट्टरता की हद तक (रचनाकर्म के साथ-साथ मार्केटिंग मैनेजमेंट तक) मेहनत की है। ऐसे में होता ये है कि जहां किसी एक उत्पाद का नाम चमक गया और कंपनी ने उसकी इमेज को दूसरे उत्पाद के साथ रिस्टैब्लिश कर दिया तो दूसरा, फिर तीसरा, फिर चौथा, फिर पांचवां इसी तरह से सारे उत्पाद चमकने लग जा सकते हैं। अब अगर अमूल बटर बेहतरीन है तो अमूल चीज खराब कैसे हो सकती है, ये बात कनज्यूमर के दिमाग में कंपनी स्टैब्लिश कर देती है। नामवर सिंह ने अपने अथक परिश्रम से यही किया है, इसलिए वो हिंदी में एक यूनिवर्सल ब्रांड के तौर पर उभरे हैं। ये अलग बात है कि इलाहाबाद की राष्ट्रीय संगोष्ठी में इस ब्रांड इमेज को भुनाने में उनकी भारी भद पिटी थी। इस हालत में अब जबकि पूरा हिंदी समाज विभूति-छिनाल प्रसंग को लेकर सुलगा हुआ है और हिंदी का सबसे बड़ा ब्रांड चुप्प है तो हम मानकर चल रहे हैं कि बाजार का एक बड़ा फार्मूला ध्वस्त हुआ है।
लेकिन, अभी-अभी मोहल्ला लाइव के मॉडरेटर ने एक पोस्ट के इंट्रो में लिखा है कि ऐसा इसलिए है कि विभूति नारायण जिस विश्वविद्यालय के कुलपति हैं, नामवर सिंह इसी विश्वविद्यालय के कुलाधिपति हैं। अब ऐसे में वो कैसे बोल सकते हैं। ब्रांड का फार्मूला कहता है कि ऐसे नाजुक मौके पर जबकि अपने ही हाउस के किसी उत्पाद में शिकायत आ जाती है तो वो इसे बाजार से वापस ले लेता है, इससे उसकी बाजार में साख घटने के बजाय बढ़ती है। नोकिया के मोबाइल, बैटरी, सोनी के लौपटॉप, मारुति की गाड़ियां इसी बिना पर बाजार से वापस लिये जाते हैं। ऐसे में बाजार का फार्मूला बताता है कि नामवर सिंह को चुप रहने के बजाय उन्हें खुलकर सामने आना चाहिए और बाजर से इस घटिया, नाक कटानेवाले उत्पाद को वापस ले ले। कोई दूसरी लांच करने की बात करे। इस मोर्चे पर भी नामवर की ब्रांड ध्वस्त होती है। अब आइए हिंदी मान्यताओं पर जो कि बाजार से थोड़ा अलग है।
हिंदी में जड़ जमा चुके उन दो शब्दों पर, जिसके बिना एक पन्ने की कहानी से लेकर सात खंडों की रचनावली और रचनाकारों तक को विश्लेषित नहीं किया जा सकता। ये शब्द है – सफल और सार्थक। हिंदी की पूरी बहस इस बात पर टिकी होती है कि आप सफल तो हैं लेकिन क्या सार्थक भी हैं? जाहिर है हम बाजार के फार्मूले की बात करते हुए हिंदी के इस फार्मूले को नजरअंदाज नहीं कर सकते। नामवर सिंह एक सफल आलोचक-रचनाकार हैं। रचनाकार भी क्योंकि स्वयं नामवर आलोचना को रचना मानते हैं। लंबे समय तक हम नामवर सिंह को सफल होने के साथ-साथ सार्थक मानते आये हैं। उन्होंने हिंदी की उन गुत्थियों को बहुत ही साफ-सधे हुए शब्दों में, बहुत ही कम पन्ने खर्च किये किताबों, जो कि हैंडीबुक्स हैं, के माध्यम से सुलझाया। अपभ्रंश जैसे बोरिंग मुद्दे पर ऐसी किताब लिखी कि उसे पढ़ते हुए रचना का सुख मिलता रहा है, छायावाद अपने आप में इतना चिपचिपा (संश्लिष्ट) है कि झमेला हो जाता है, उसे बहुत ही रोचक शैली में हमारे सामने रखा। कुल मिलाकर नामवर सिंह ने कॉलेजों में पढ़ रहे अब तक लाखों लोगों का बेड़ा पार किया, एक साफ समझ पेश की है। लेकिन जो नामवर सिंह लगभग सभी मुद्दों पर बात करने का माद्दा रखते हैं, जिनकी पहचान ही ओवरऑल आलोचक के तौर पर है, वो अपने परिवेश के सामयिक मुद्दे पर कितनी बात करते हैं? यहां मुद्दे गिनाने की जरूरत नहीं है। इसे आप घटनाक्रम के हिसाब से आसानी से समझ सकते हैं। वो खाप-पंचायत पर क्या रुख रखते हैं, ऑनर कीलिंग के मामले पर क्या स्टैंड हैं, कहीं जान-समझ नहीं सकते। अभी उनसे लाभान्वित एक शिष्य ने सालों से ऑडियो वर्जन में कही गयी बातों को लिखित रूप दिया है। ये किताबें नामवर सिंह की उस छवि को तोड़ने के काम थोड़ी देर तक तो आ सकते हैं कि इन्होंने सालों से कुछ लिखा नहीं लेकिन उसमें सामयिक मुद्दे कितने शामिल हैं, इसे देखना दिलचस्प होगा।
दिलीप मंडल ने हवाला दिया है कि सामयिक मसलों पर चुप मार जानेवाले नामवर सिंह ने हाल में जाति आधारित जनगणना के सवाल पर बोला भी तो कहीं से उसमें लंबे समय तक प्रगतिशील मूल्यों को बरतनेवाले शख्सियत के बयान की झलक नहीं है। ये उस किस्म का बयान है जैसे कोई समर्थ, समृद्ध और ठसकवाला शख्स अपनी जाति (रामविलास शर्मा का जाति शब्द नहीं) में पैदा होने का कर्ज जातिगत उत्थान के लिए चुकाने की तत्परता दिखाता है।
आज नामवर सिंह इतने बड़े मसले पर चुप हैं। उनके प्रगतिशील तरकश में एक भी वो मारक तीर नहीं है जो कि इस बेहूदेपन को ध्वस्त करके अपने मूल्यों को बचा सके। ऐसे में अगर आप सार्थकता के सवाल को यहां रखें, हिंदी के लोगों के पास तो कोई उपाय भी नहीं है, अभी तक जब वो इसी से सारी चीजें देखते-समझते आये हैं तो फिर यहां क्यों नहीं, तो नामवर सिंह को लेकर एक नये किस्म की धारणा बनती, विकसित होती है। इस धारणा का तेजी से प्रसार जरूरी है। इधर बाजार-ब्रांड-मार्केट मैनेजमेंट अभी भी इसे कैरी करता है, तो हम मानकर चल रहे हैं कि ये ब्रांड भी मिलावट के वाबजूद बाजार पर काबिज है। साहित्य की दुनिया में भी कुछ खांटी नहीं रह गया। घी, तेल, दूध, सब्जी की तरह अब साहित्य और हिंदी का सबसे बड़ा ब्रांड मिलावटी हो गया। हम अभिशप्त हैं मिलवाटी उत्पादों के इस्तेमाल के लिए?
https://taanabaana.blogspot.com/2010/08/blog-post_03.html?showComment=1280837897585#c783124915643688419'> 3 अगस्त 2010 को 5:48 pm बजे
सही लिख रहे हैं आप ।
https://taanabaana.blogspot.com/2010/08/blog-post_03.html?showComment=1280838270681#c8849736394853083590'> 3 अगस्त 2010 को 5:54 pm बजे
नामवर के ब्रांड का इससे ज्यादा मूल्य क्या हो सकता है कि एक तीक्ष्ण विश्लेषक नामवर के एक विषय पर ३ दिन तक चुप रहने के मायने खोजने लगे... नामवर क्यों चुप है..ये नामवर जाने....शायद अखबार वाले गए नहीं....हो सकता है..कही कोई गोष्टी में बुलाये नहीं गए...सायबर स्पेस का इस्तेमाल करना जानते नहीं...या लिख कर बात करेंगे ऐसी बात दिमाग में हो...या आग मेंहाथ क्यों जलाऊँ..पहले आग बुझ जाए..सब के पोजीशन साफ़ हो जाएँ फिर बोलूंगा...या कुछ भी हो...जिस ब्रांड के ध्वस्त होने की बात तुम कर रहे हो उसका ध्वस्त ना होना...नामवर की चतुराई से ज्यादा हिन्दी पट्टी के लेखकों और आलोचकों की मूढ़ता और अकर्मण्यता ज्यादा है...नामवर ने जब चोरी भी की तो उसे अपनी भाषा और दृष्टी से नया बनाया..या 'नया जैसा' बनाया ... आज सारी सुविधा होने के बावजूद जब लोग चोरी कर रहे हैं तो पकडे जा रहे है..कि देखो ये अनुवाद तो फलां किताब का है..और ये अंश तो फलां पाराग्राफ से है....नामवर ना बोलें या बोलें उसे इतना महत्व दिया जाना ही बताता है कि नामवर का आतंक पुराणी पीढी पर ही नहीं नयी विद्रोही पीढी पर भी है....
https://taanabaana.blogspot.com/2010/08/blog-post_03.html?showComment=1280839305479#c1082786262217938585'> 3 अगस्त 2010 को 6:11 pm बजे
लीजिये नामवर जी ने ले ली विभूती नारायण की जगह...ज्ञानपीठ की प्रवर समिति में ....समझ में आया खेल ...
https://taanabaana.blogspot.com/2010/08/blog-post_03.html?showComment=1280840151476#c7399317202914002579'> 3 अगस्त 2010 को 6:25 pm बजे
अनावश्यक विस्तार आपकी आदत है लगता है !
https://taanabaana.blogspot.com/2010/08/blog-post_03.html?showComment=1282567888667#c1181388693851254906'> 23 अगस्त 2010 को 6:21 pm बजे
kaphi Accha pryas hai issi tarah likhte raho