इंटरनेट के जरिए हिन्दी में जो कुछ भी लिखा-कहा जा रहा है उसे देख-पढ़कर प्रिंट मीडिया और अकादमिक जगत के अनुभवी और बुजुर्ग लोगों का एक खेमा तेजी से इसके विरोध में सक्रिय होता जा रहा है। कभी पूरे हिन्दी ब्लॉग लेखन को भड़ास ब्लॉग लेखन तक सीमित करते हुए मृणाल पांडे हिन्दुस्तान में संपादकीय लिखती हैं तो कभी आलोक मेहता अपने पक्ष में पोस्टों को खंगालते हुए रमेश उपाध्याय की पुरानी पोस्ट को नयी दुनिया में छापते हैं,रमेश उपाध्याय इंटरनेट की दुनिया में,हिन्दी में लिखनेवालों पर आरोप लगाते हैं कि- बड़े खेद की बात है कि इसका दुरुपयोग अपनी भाषा और साहित्य से लोगों को विमुख करने के लिए किया जा रहा है। और यह काम हिंदी वाले स्वयं कर रहे हैं। रमेश उपाध्याय की इस बात का मीडिया विशेषज्ञ औऱ अनुभवी अध्यापक जगदीश्वर चतुर्वेदी न सिर्फ खुलकर समर्थन करते हैं बल्कि इंटरनेट पर के लेखन को- इसके लेखन से भाषा न तो समृद्ध होगी और न भाषा मरेगी,नेट के विचार सिर्फ विचार है और वह भी बासी और मृत विचार हैं,उनमें स्वयं चलने की शक्ति नहीं होती, आप नेट पर महान क्रांतिकारी किताब लिखकर और उसे करोड़ लोगों को पढाकर दुनिया नहीं बदल सकते जैसी राय जड़ देते हैं। इंटरनेट पर हिन्दी में जो कुछ भी लिखा जा रहा है उसे कूड़ा-कचरा बतानेवाले ये नए लोग नहीं है।इनसे पहले भी कई लोगों ने असहमति के लेख को इसी तरह इंटरनेट लेखन के विरोध में महौल बनाने का काम किया जबकि इन्हीं के बीच से आए वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की आवाज जब अखबारों ने नहीं सुनी तो मजबूरन उन्हें इंटरनेट पर लिखी जा रही हिन्दी पर उम्मीद जतानी पड़ गयी। विरोध में महौल बनाने का काम जारी रहेगा लेकिन इतना तय है कि जो लोग यहां उपदेश और ज्ञान देने का काम करेंगे वो मारे जाएंगे-
जगदीश्वर चतुर्वेदी said:
विनीत कुमार जी,
समस्या व्यक्ितगत नहीं है, बहस को व्यक्ितगत बनाने से ज्यादा बेहतर है यह जानना कि वर्चुअल तो नकल की नकल है, आपने मेरी किताबें देखी हैं तो कृपा करके पढकर भी देखें । फिर बताएं। मैं निजी तौर पर हिंदी में इंटरनेट के जनप्रिय होने और इंटरनेट पर ज्यादातर सामग्री आने के पहले से ही कम्प्यूटर,सूचना जगत वगैरह पर लिख चुका हूं। यह मेरी हिंदी के प्रति नैतिक जिम्मदारी है कि हिंदी में वह सभी गंभीर चीजें पाठक पढ़ें जिन्हें वे नहीं जानते अथवा जो उनके भविष्य में काम आ सकती है। आप वर्चुअल की बहस को व्यक्ितगत न बनाएं,वर्चुअल में झगड़ा नहीं करते, टोपी भी नहीं उछालते,वर्चुअल तो आनंद की जगह है,सामंजस्य की जगह है,संवाद की जगह है। कृपया हिंदी साहित्य की तू-तू मैं- मैं को नेट पर मत लाइए,चीजों को चाहे जितनी तल्खी से उठाएं किंतु व्यक्ितगत न बनाएं। आप अच्छे लोग हैं और अच्छे लोग अच्छे ही रहते हैं,संवाद करते हैं.
जगदीश्वरजी,
बात बहुत साफ है। हम नेट पर लिखने वालों को अक्सर ये हिदायत देते आये हैं कि आप चीज़ों को व्यक्तिगत मत बनाइए। सार्थक बहस कीजिए वगैरह… वगैरह। लेकिन ऐसा कहते हुए हम इंटरनेट की दुनिया के मिज़ाज को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं। यहां तो जिसके पास बिजली की सुविधा है और इंटरनेट कनेक्शन है, वही कीपैड तान देता है। मैं इसे न तो ग़लत मानता हूं और न ही इनके पीछे उपदेश की ताक़त झोंकने के पक्ष में हूं। हां, इतना ज़रूर कहना चाहता हूं कि आज इंटरनेट की दुनिया में हिंदी अगर इतनी तेज़ी से लोकप्रिय होती जा रही है, आये दिन इसे लेकर नये-नये सॉफ्टवेयर लाये जा रहे हैं, तो ये किसी के संपादकीय लिखने का फल नहीं है और न ही किसी अखबार-पत्रिका के मीडिया विशेषांक निकाले जाने का नतीजा है। ये हमहीं जैसे कच्चे-पक्के लिखनेवाले लोगों की बढ़ती तादाद को देखते हुए किया जा रहा है क्योंकि सीधा-सीधा मामला बाज़ार, उपभोग और उससे जुड़ी लोकप्रियता का है।
आप भी इंटरनेट की दुनिया में सक्रिय होते हैं, हम जैसे नौसिखुए के लिखे पर प्रतिक्रिया करते हैं, पढ़कर बहुत अच्छा लगता है लेकिन जैसे ही कोई रमेश उपाध्याय या फिर मृणाल पांडे जैसा ज्ञान देने लग जाता है तो इंटरनेट की दुनिया पर लगातार लिखनेवालों का बिदकना स्वाभाविक है। हमने इसी संपादकीय डंडे की मार और मठाधीशी से ऊबकर यहां लिखना शुरू किया है। ऐसा भी नहीं है कि हममें प्रिंट में छपने और लिखने की काबिलियत नहीं है लेकिन अब अधिकांश जगहों में छपने के पहले ही घिन आने लगती है। माफ कीजिएगा, हम कोई नयी या क्रांति की बात नहीं कर रहे लेकिन शालीनता और सभ्यता के नाम पर लिजलिजेपन को बर्दाश्त नहीं कर सकते।
हर मिज़ाज के लोग लिख रहे हैं, किसी की भाषा थोड़ी उग्र है तो किसी की थोड़ी उटपटांग। ये तो होगा ही लेकिन इसका मतलब ये बिल्कुल भी नहीं है कि सुनियोजित तरीके से इंटरनेट लेखन के विरोध में लगातार महौल बनाये जाएं और उससे भी जी न भरे तो अखबारों में लेख और संपादकीय लिखने लग जाएं। आप आज से दो साल पहले के इंटरनेट पर हिंदी लेखन और अब में तुलना कीजिए तो आपको साफ फर्क समझ आ जाएगा कि पहले के मुकाबले आज की राइटिंग कितनी मैच्योर हुई है। ऐसे ही आगे भी होगा। इसमें कहीं से ज़्यादा बिफरने की कोई ज़रूरत नहीं है। हां इतना तो आप भी जानते हैं कि इंटरनेट की दुनिया में जो कोई भी उपदेश देने का काम करेगा, वो मारा जाएगा। आप देख लीजिए, हजारों ऐसे ब्लॉग हैं, जिनमें बहुत अच्छी-अच्छी बातें लिखी हैं लेकिन उस पर पांच हीटिंग भी नहीं है। ऐसा इसलिए कि वो क्या महसूस करते हैं से ज़्यादा क्या महसूस कराना चाहते हैं की शैली में लिखे गये हैं। लेखन को लेकर ईमानदारी है ही नहीं। संगोष्ठियों में ओढ़ ली गयी शालीनता तो यहां नहीं ही चलेगी न। कई नामचीन लोग बडी-बड़ी बातें लिख देते हैं लेकिन उन्हें कोई पूछनेवाला नहीं है, आखिर क्यों? हिंदी समाज ज्ञान की मुद्रा से अघा चुका है। वो महसूस करने के स्तर पर लिखना-पढ़ना चाहता है।
और जहां तक आपकी किताब पढ़ने की बात है, तो सच कहूं तो माध्यम साम्राज्यवाद से लेकर माध्यम सैद्धांतिकी, युद्ध और ग्लोबल मीडिया संस्कृति सबों से होकर गुज़रा हूं। भाषा में एक हद तक बेहयापन हो सकता है लेकिन जिन चीज़ों के बारे में नहीं जानता, कोशिश करता हूं कि उस पर न ही बात करूं। शुरुआती दौर में मीडिया की जो भी कच्ची-पक्ची समझ बनी है, उसमें आपकी किताबों ने बड़ी मदद की है। इसलिए मेरा कमेंट व्यक्तिगत न मानकर एक लेखक-पाठक के बीच का संवाद मानकर पढें, तो मुझे भी अच्छा लगेगा। अपने पक्ष में बहुत अच्छा कहने के बजाय इतना ज़रूर कहूंगा कि आपको बहुत कम ही पाठक ऐसे मिले होंगे, जो आपसे असहमति रखते हुए भी आपकी सारी किताबों को बेचैनी से ढूंढते हुए पढ़ता है। बाकी संवाद को मैं भी सृजन प्रक्रिया का सबसे अनिवार्य हिस्सा मानता हूं। भाषा को लेकर अगर बेशर्मी बरती हो, तो माफ करेंगे।
♦ विनीत कुमार
पूरी बहस पढ़ने के लिए क्लिक करें- मोहल्लाlive
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https://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html?showComment=1250653561902#c1302286631911470819'> 19 अगस्त 2009 को 9:16 am बजे
आपका कहना सही है.
इन चुक चुके तथाकथित रचनाकारों को ये नहीं पता कि उनकी अपनी स्वयं की रचनाओं को - और उनके जीवन की संपूर्ण रचनावली को बस्तर से न्यूयॉर्क तक सर्वसुलभ, जन-जन तक पहुँचाने का इंटरनेट से सस्ता (बहुत से मामलों में मुफ़्त का) सुंदर और टिकाऊ साधन कोई दूसरा है ही नहीं! इंटरनेट पर रचनाकार (http://rachanakar.blogspot.com ) जैसे दो दर्जन से ज्यादा हिन्दी साहित्य को समर्पित ब्लॉग और इंटरनेट साइटें इनके बयानों से जुदा बात न सिर्फ कह रही हैं, बल्कि स्थापित कर रही हैं तो इनकी ग़लत बयानी स्वयंसिद्ध है ही.
दरअसल, वे अपनी तकनॉलाज़ी अज्ञानता को स्वीकार नहीं कर पा रहे, और इसीलिए वे इसे खारिज करने की कोशिश कर रहे हैं. और, इस कोशिश में वे अपनी साहित्यिक हाराकिरी कर रहे हैं.
https://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html?showComment=1250664229360#c4210139427317111981'> 19 अगस्त 2009 को 12:13 pm बजे
जिन्हें ब्लॉग एक मरा हुआ विचारबक्सा दिखता है, उनका सर्वे करा के देखिए.....कंप्यूटर न जान पाने की हीन भावना उन्हें ये सब लिखवाती है....और कुछ नहीं....उनसे कहिए हिंदयुग्म से प्रशिक्षण लें मुफ्त का और फिर ब्लॉग का जादू देखें..
https://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html?showComment=1250666837711#c24309406802523005'> 19 अगस्त 2009 को 12:57 pm बजे
आपत्ति का कारण ही समझ नहीं आता। कल को तो ये लोग कहेंगे कि जो हाथ से कलम के सहारे लिखता है वहीं लेखन है, यदि सीधे ही कम्प्यूटर पर लिखेगे तो वह साहित्य नहीं है। निखिल आनन्द गिरी की सलाह मानने को कहिए और कुछ सीख लीजिए। जो लोग ब्लाग पर साहित्य लिख रहे हैं, वह साहित्य ही हैं लेकिन जो अन्य बाते लिख रहे हैं वो तो वैसे भी साहितय ही नहीं है। किताबें तो अल्मारियों में बन्द धरी रह जाएंगी, हमारे मरने के बाद कबाडी भी नहीं लेगा। लेकिन जो नेट पर है वह हमेशा रहेगा।
https://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html?showComment=1250667229585#c6470455183891053492'> 19 अगस्त 2009 को 1:03 pm बजे
अरे विनित भाई, वे वैचारिक क्रांती की बात करते हैं.. तो क्या वैचारिक क्रांती महज गिने-चुने लोगों के द्वारा पढ़े-लिखे जाने से ही होती है?
यहां ब्लौग पर कई बातें लिखी-गुणी जा रही है.. उससे क्रांती होने से रही? एक कमरा बंद कर उसमें ये सभी बैठ जायें और अपनी वैचारिक क्रांती वहां के चूहे-छछूंदरों को सुनाते रहे यही इनका एकमात्र मार्ग है..
https://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html?showComment=1250669128034#c5125361010100010371'> 19 अगस्त 2009 को 1:35 pm बजे
यदि इन स्वानमधन्य पत्रकारों और सम्पादकों के भरोसे रहता तो कभी भी ब्लाग न लिख पाता, इनके द्वारा लगातार मेरे लेख कूड़ेदान में फ़ेंकने के कारण ही ब्लाग लिखना शुरु किया और अब बड़ा अच्छा लगता है कि कम से कम किसी के रहमोकरम पर मोहताज तो नहीं हैं। ये थकेले लोग जल्दी ही अपने शब्द वापस मुँह में डालेंगे जब 3G तकनीक के मोबाइल आम वस्तु बन जायेगी और लोग अखबार, लेख और (तथाकथित साहित्य भी) उसी पर पढ़ेंगे व ब्लाग से प्रेरणा लेंगे…। आने वाला समय ब्लॉग का ही है, लेकिन रेत में मुँह गड़ाये कुछ शतुरमुर्ग इस तूफ़ान को अनदेखा कर रहे हैं…
https://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html?showComment=1250680206376#c5423268051183269118'> 19 अगस्त 2009 को 4:40 pm बजे
अरे क्यों नाहक हमें तंग कर रहे हैं। इंटरनेट पर हमे लिखने दें..बीच में टांग मत फंसाइए..
https://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html?showComment=1250704362602#c5580728680829612070'> 19 अगस्त 2009 को 11:22 pm बजे
विनीत भाई , आपने एक बात सही कही कि अख़बारों में छपने की काबिलियत हममें भी है . ऐसा नहीं है कि हम केवल छपास रोग से पीड़ित लोग हैं जो अंतरजाल पर अपनी भड़ास निकलते हैं . यहाँ तो ऐसी -ऐसी साहित्यिक- राजनितिक -समसामयिक विषयों से जुडी रचनाएँ मिल जाएँगी जो समकालीन मुख्यधारा की पत्रकारिता और साहित्यजगत में डिबिया बार के खोजने से भी न मिले ! आपने ब्लॉगजगत के सक्रीय प्रतिनिधि के तौर पर सटीक जबाव दिया है . अब , ब्लॉग जगत को भी कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए . सबसे पहले तो ब्लॉगजगत की जिम्मेदारी ऐसी आलोचनाओं से और बढ़ जाती है अतः ब्लॉग केवल अपने शौक के लिए न लिखा जाने वाला विषय रह गया है . हमें इसे समझ लेना चाहिए . आने वाला समय ब्लॉग/ वेबसाइट को चौथे स्तम्भ के रूप में स्थापित करेगा इसकी भूमिका अभी से बन रही है . विनीत जी आप ने काफी अच्छे और सार्थक मुद्दे पर बहस चली जिसका फायदा ब्लॉगजगत को जरुर मिलेगा .
https://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html?showComment=1250786947550#c3734451118374804217'> 20 अगस्त 2009 को 10:19 pm बजे
बहुत सही कहा भाई.....!!आपकी बात हमें भी रास आई....!!
https://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html?showComment=1250913263374#c5794780361524848267'> 22 अगस्त 2009 को 9:24 am बजे
आपकी एक टिप्पणी सुधा ढ़ींगरा के ब्लाग पर प।धी। इससे 'बुल्के शोध संस्थान' के बारे में बहुत कम जानकारी मिली। मैने इस संस्थान के बारे में 'सर्च' करके और जानने की कोशिश की किन्तु कुछ भी नहीं मिला।
क्यों न आप इस महान हिन्दीसेवी के नाम पर बने इस संस्थान के बारे में एक लेख लिखें। यह अपने आप में फादर कामिल बुल्के के लिये सच्ची श्रद्धान्जलि होगी।
https://taanabaana.blogspot.com/2009/08/blog-post_19.html?showComment=1250945815536#c76002969509104213'> 22 अगस्त 2009 को 6:26 pm बजे
कमाल का लिखते हो भाई. एकदम रस्सी पर चलने जैसा.
अनुनाद सिंह की बात से सहमत हूँ. हिंदी का भला करना है तो स्वयं आगे बढ़कर साबित करना होगा कि देखो इसे ऐसे भी किया जा सकता था.