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गुजरात के बाद भी "उम्मीद होगी कोई"

Posted On 10:46 am by विनीत कुमार |


गुजरात में इतना अधिक पोलराइजेशन है, चाहे वो ज्यूडिसरी को लेकर हो, रिसर्च को लेकर हो, राजनीति या फिर किसी और चीज को लेकर कि चीजों को सीधे या तो ब्लैक या फिर व्हाइट साबित कर दिया जाता है, बीच में कोई धरातल बचता ही नहीं है। यहां के लिए बीच की चीजों को समझने की कोई गुंजाइश ही नहीं बचती। सरुप बेन की किताब उम्मीद होगी कोई गुजरात 2002-2006 इसके बीच की धरातल मुहैया कराती है। गोधरा के बाद तो लगता है कि गुजरात में कोई उम्मीद है ही नहीं लेकिन सरुप बेन इसके बीच समझ और संवेदना की धरातल की खोज करती हुई रचना के तौर पर उम्मीद होगी कोई हमारे सामने पेश करती है। गोधरा पर लिखी गयी बाकी किताबों या फिर समाज विज्ञान के आधार पर लिखी गयी किसी दूसरी किताबों की तरह ये किताब हमारे सामने समाज विज्ञान के शोध का खांचा नहीं खींचती। इसे आप रिपोर्टिंग भी नहीं कह सकते। इतिहास लिखने के जो प्रचलित रुप हमारे सामने हैं, उस लिहाज से ये किताब इतिहास भी नहीं है। लेकिन इन सबके वाबजूद इसमें न तो समाज विज्ञान की ही कोई कमी है और न ही इतिहास की समझ की। दरअसल सरुप बेन ने गुजरात के दर्द को समझने और प्रस्तुत करने के लिए जिसे मेथड का इस्तेमाल किया है वो मेथड ही इसकी खासियत है। गुजरात की लेखिका औऱ संस्कृतिकर्मी सरुप बेन की किताब पर बात करते हुए प्रो.धीरुभाई सेठ ने जब गुजरात से बीच की जमीन के गायब हो जाने की बात की तो ये सवाल फिर से ताजा हो गया कि क्या किसी प्रदेश या राज्य का लोकतंत्र भी इतना खतरनाक हो सकता है कि उसके खरोच के निशान घाटियों की तरह इतने गहरे हो सकते हैं कि उसे पाट पाने की कहीं कोई उम्मीद नहीं झलकती। धीरुभाई इस निशान के बीच उम्मीद को किसी सरकारी योजना और राहत कार्य से पाटे जाने के बजाय उस दर्द को बार-बार याद किए जाने और संजोने के रुप में देखते हैं। संभव है गुजरात में टाटा नैनो की तरह और भी कई दर्जनों धकियायी और ठुकराई गयी कम्पनियां आ जाए लेकिन कहां है उम्मीद, ये उम्मीद क्या उन लोगों की झोली में गिरेंगे और अगर गिर भी गए तो क्या वो उम्मीद की ही शक्ल में होगी जिनकी नजरों के सामने अपनी बेटी का बलत्कार हुआ है, तुतलाती जुबान को साफ करने की कोशिश में लगा बच्चा खोया है। धीरुभाई के मुताबिक सरुप बेन उम्मीद की तलाश दर्द के बीच ही करती है,उसे कहीं और किसी रुप में विस्थापित करके नहीं।
किताब के संपादक रविकांत ने कहा- जब भी हिन्दुस्तान में गुजरात या फिर इस तरह के किसी औऱ घटना की चर्चा होती है उस पर अधिकांश विद्वानों द्वारा पार्टिशन जारी है जैसा लेबल चस्पा दिया जाता है। इसे देखकर हम जैसे लोग कुनमुनाते हैं, बार-बार ये ख्याल आता है कि क्या गुजरात के उपर इस तरह का लेबल चस्पाना सही तरीका है। रविकांत की बातों को समझें तो ये विभाजन के दर्द के मार्फत गुजरात और बाकी कांडो़ं के दर्द को समझने की सहुलियत देता है या फिर विश्लेषण का सरलीकरण करता है। क्या तात्कालिक दर्द औऱ टीस को स्मृति के दर्द के साथ जोड़कर महसूस किया जा सकता है। ऐसा करने से विश्लेषण में सुविधा होते हुए भी कहीं अनुभूति की गहराई को कमतर औऱ फार्मूलाबद्ध करने की कोशिश तो नहीं की जाती। किताब का संपादन करते हुए बकौल रविकांत कई बार रोए। क्या ये पार्टिशन के दर्द को याद करते हुए, उस स्मृति के बूते अभ्यस्त होते हुए, इसका भी जबाब वो स्वयं देते हैं। पहले तो मैंने सोचा कि बहुत हो गया रोना-धोना, अब नहीं रोना है मुझे इस तरह की बातों पर।....लेकिन फिर इस किताब से गुजरते हुए,कई बार रोया। बाद में दिमाग की चमड़ी मजबूत करके ही इसका संपादन कर सका। कौन मजबूर कर देता है रोने के लिए, सरुप बेन की प्रस्तुति, दो सौ परिवारों का दर्द जिसकी बातचीत को सरुप बेन ने संवेदनशील तरीके से किताब में टांका है या फिर पूरी किताब में उम्मीदी के मुकाबले नाउम्मीदी के मैजॉरिटी में होने की स्थिति या फिर लोकतंत्र के उपर भी वर्चस्ववादी कवर के चढ़ा दिए जाने की पीड़ा। इस पर विचार करना जरुरी है। फिलहाल, इसी कवर को हटाने की जद्दोजहद की स्थिति में अभिषेक कश्यप( संपादन सहयोग) तमाम खामियों के वाबजूद भी लोकतंत्र को बेहतर मानते हैं, जिसके तहत सरुप बेन किताब लिख सकीं।
किताब के भीतर दर्द, अथाह दर्द व्यक्ति स्तर का भी दर्द औऱ समाज के स्तर का भी दर्द, इस दर्द के कई रुप, कई परतें लेकिन ये दर्द हमारे बीच निराश का साम्राज्य फैलाने के बजाय उम्मीद पैदा करती है,उम्मीद की संभावना पैदा करती है। खत्म होती हुई उम्मीद के बीच उम्मीद के खत्म न होने की गुंजाइश की तलाश करती ये किताब उस जिद का एक बार फिर से दुहराती है- जीवन हर हाल में जिया जा सकता है। सबकुछ लूटने के वाबजूद भी, समेटने की साहस को संजोते हुए....
कल पढ़िए स्वयं रचनाकार क्या कहती है उम्मीद होगी कोई के बारे में, इतिहासकार अविनाश कुमार और समाजशास्त्री प्रो. शैल मायाराम के विचार। उसके बाद किताबों पर चर्चा
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2 Response to 'गुजरात के बाद भी "उम्मीद होगी कोई"'
  1. अनुनाद सिंह
    https://taanabaana.blogspot.com/2009/03/blog-post_08.html?showComment=1236521760000#c7584502159762793606'> 8 मार्च 2009 को 7:46 pm बजे

    भारत में गुजरात उम्मीद का दूसरा नाम है। गुजरात के बाद' का क्या मतलब है?

     

  2. ghughutibasuti
    https://taanabaana.blogspot.com/2009/03/blog-post_08.html?showComment=1236569100000#c3961290804484796612'> 9 मार्च 2009 को 8:55 am बजे

    यह किताब पढ़ी नहीं है। पढ़ने पर ही कुछ कहा जा सकता है।
    घुघूती बासूती

     

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