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फटाफट जेनरेशन का रेडियो और यूथ कल्चर शीर्षक से मेरा लेख कालियाजी के हाथ में था. पन्ने पलटते हुए उनके हाथ कांप रहे थे और मेरी पूरी देह. अव्वल तो डर इस बात का था कि कहीं उन्हें ये विषय ही बहुत जरूरी न लगे और दूसरा कि लेख में अंग्रेजी के शब्दों के इस्तेमाल से वो भड़क न जाएं. लेकिन लेख पर एक नजर डालने के बाद इतना ही कहा- तुम इसमे ऐसा क्यों नहीं करते कि एक बॉक्स बनाकर सारे एफएम चैनलों की फ्रीक्वेंसी लिख दो जिससे कि हमारे जिन पाठकों को रेडियो सुनने का मन करे, वो इसे देखकर सुन सकें.
जी सर, कर देता हूं लेकिन असल में ज्यादातर लोग एफएम चैनल मोबाईल से सुनते हैं और हम जिस शहर में जाएं, ऑटो ट्यूनिंग करते ही सारे चैनल अपने आप सेट हो जाते हैं. उन्होंने कुछ कहा नहीं. जेब में हाथ डाली और मोबाईल निकालकर मुझे देते हुए कहा- तो तुम अब पहले मेरी ही सेट कर दो. मैंने कर दिया और इयरफोन लगाकर एक मिनट सुना दिया.
हां, अब ठीक है. तुम्हारा लेख भी ठीक है. कुणाल से मिल लिए. उसे दे दो..आगे भी लिखते रहना. कुणाल भी तब तक आ गया और मेरे ब्लॉग लेखन के बारे में उन्हें बताने लगा..सुनने के बाद उन्होंने कहा- तो तुम पत्रिका के लिए ब्लॉगजगत में जो कुछ चल रहा है, हर महीने उसी पर एक लेख लिख दिया करो. मैंने उनसे लिखने का वादा किया और कमरे से बाहर आ गया. ये मेरी कालियाजी से पहली मुलाकात थी.
मैंने ब्लॉग पर पहला लेख लिखा- हिन्दी विभाग की पैदाईश नहीं है ब्लॉगिंग. लेख को मोहल्लालाइव पर भी अविनाश ने चढ़ाया. लोगों की प्रतिक्रिया आई लेकिन इसके बाद नया ज्ञानोदय के लिए लिखना न हो सका. कालियाजी के संपादन में करीब ढाई साल तक मैंने डेढ़ दर्जन से ज्यादा लेख लिखे होंगे लेकिन विभूति नारायण राय इंटरव्यू -नया ज्ञानोदय विवाद के बाद अपनी इच्छा से लिखना छोड़ दिया. उस वक्त माहौल कुछ ऐसा बना कि इस प्रकरण में मेरा बचपन का दोस्त राहुल भी छूट गया और मेरे लेख को बहुत ही जतन से पढ़ने और संपादित करनेवाला नया-नया बना दोस्त कुणाल भी. एकाध बार बात हुई बीच में लेकिन "कालियाजी के पास गिरवी नहीं रखी है कलम" शीर्षक से जो पोस्ट मैंने अपने ब्लॉग पर लिखी थी, ये दोनों इससे बहुत आहत हुए और मुझे किसी खास कैंप का मानकर दूर होते चले गए. खैर,
कालियाजी के बारे में जितनी भी नकारात्मक बातें मैंने सुनी थी, उनमे से कुछ भी अनुभव के स्तर पर मेरे हिस्से नहीं आई. बहुत ही मिलनसार और प्रो-यूथ लगे. ये बात उनके विदा होने के बाद नहीं कह रहा. मयूर विहार की एक उदास रात मैंने कुणाल से शेयर किया- दोस्त, बहुत अकेला महसूस करता हूं कभी-कभी, तुम सब एक-एक करके दूर होते चले गए. पुराने दिनों की याद आती है. तुम ही तो कहा करते थे न- चैनल टाइप के प्रोफेशनल मत बनो. नया ज्ञानोदय के दफ्तर आते हो तो हाय-हैलो कर लिया करो कालियाजी को, याद करते हैं कभी-कभी तुम्हें..मैं एक दिन आकर कालियाजी को सॉरी बोलना चाहता हूं. जो लिखा उसके लिए नहीं, इसके लिए कि उन्हें मैंने बिना बताए लिखना बंद कर दिया.
असल में झारखंड विशेषांक से नया ज्ञानोदय में लिखने का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसके बाद लिखता चला गया. लेकिन लेख पहुंचाने कभी जाता नहीं था. कुणाल के बताए पते पर मेल कर देता और जो सुधार करने कहते, वो करके दोबारा मेल कर देता..लेकिन जैसे ही पता चलता कि अंक छपकर आ गया है, बेचैनी बढ़ जाती और इतना भी बर्दाश्त नहीं होता कि अंक के हॉस्टल के कमरे तक आने का इंतजार करूं. इतने में चार-पांच दिन निकल जाते. लिहाजा मैं आधी दूरी डीटीसी से और आधी ऑटो से तय करके दफ्तर पहुंच जाता और अंक लेकर आता. अब नया ज्ञानोदय में छपे वो सारे लेख नौकरी के लिए तैयार की गई फाईलों में है..पलटता हूं कभी-कभी.
कालियाजी मेरे लिए वो पहले संपादक रहे जिन्होंने मुझे पहली बार छापा. झारखंड विशेषांक में छापा तो लगा कि एक बार इसलिए छाप दिया कि मैं वहीं से हूं लेकिन फिर दोबारा, उसके बाद और फिर लगातार छपने लगा तो लगा कि सचमुच उन्हें नए लेखकों से प्यार है. उसे प्रोत्साहित करने में मजा आता है. बहुत ही कूल संपादक लगे मुझे..लेकिन
कालिजयाजी का लिखा मैंने तब तक तो बिल्कुल भी नहीं पढ़ा था जब पत्रिका के लिए लिखा करता था. उन्हें पढ़ना शुरू किया रवि रतलामी के ब्लॉग रचनाकार पर गालिब छुटी शराब पर लगाए अंश से. रतलामी ने तो पूरी किताब ही पोस्ट कर दी थी वहां..मजेदार बात ये कि किताब बाजार में आसानी से उपलब्ध थी लेकिन मैं यहीं एक-एक करके पढ़ा और फिर बाकी चीजें भी. पढ़ने के बाद कचोट रही कि इन्हें पहले से पढ़ा होता तो जिस लापरवाही से नया ज्ञानोदय के दफ्तर जाकर वापस आ जाता हूं, शायद वैसा नहीं करता..कुछ और बातें करता.
एबीपी न्यूज ने उनके गुजरने की खबर में ये लाइन बहुत सही प्रसारित की कि वो ऐसे अनूठे संपादक थे जिन्हें पाठक की नब्ज और बाजार की भी बराबर समझ थी. शायद इसलिए हम जैसे ब्लॉगरों का हिन्दी की दुनिया उपहास उड़ाती, कालियाजी ने मौका दिया. उन्हें कहने की बदलती दुनिया का सही अंदाजा था...ए, इससे क्या बात करना इस मुद्दे पर, ये तो ब्लॉगर सब है, पॉपुलिस्ट सब कहकर जो हमें चलता कर देते, कालियाजी ने हम जैसे को छापकर थोड़ा जरूर परेशान किया.
मेरे पहले संपादक के तौर पर आप मुझे बहुत याद आएंगे सर, याद आते रहेंगे. आपका मोबाईल कहां है, नहीं पता लेकिन आगे भी जो भी कहेगा उसकी ट्यूनिंग मिलाता रहूंगा..

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साल 2001 में जब अरविंद राजगोपाल की किताब इंडिया आफ्टर टेलीविजन आई तो पढ़ने-लिखनेवाले लोगों के बीच हंगामा मच गया. राजगोपाल ने बहुत ही बारीक विश्लेषण करते हुए ये तर्क स्थापित किए थे कि इस देश में दक्षिणपंथ का मुख्यधारा की राजनीति में जो उभारा हुआ है, बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान साम्प्रदायिक ताकतों का निरंतर विस्तार हुआ, उसके लिए कहीं न कहीं दूरदर्शन पर प्रसारित रामायण जैसे टीवी सीरियल भी जिम्मेदार रहे हैं. ऐसे सीरियलों ने दक्षिणपंथी राजनीति के लिए माहौल बनाने का काम किया और टीवी में स्थायी रूप से भारतीय संस्कृति के नाम पर इनकी पकड़ मजबूत होती चली गई.
दिलचस्प है कि इस किताब की जबरदस्त चर्चा हुई लेकिन तथाकथित प्रगतिशील लोगों ने भी इस किताब को बहुत अधिक सराहा नहीं. राजनीतिक स्तर पर तो वो राजगोपाल की बात से फिर भी सहमत हुए कि दक्षिणपंथ राजनीति का निरंतर विस्तार हो रहा है लेकिन इसके लिए टीवी जिम्मेदार है, ऐसा मानने के लिए तैयार नहीं हुए. इसकी बड़ी वजह ये भी रही है कि वो टीवी को इतना गंभीर माध्यम मानने को तैयार नहीं थे, उसे ये क्रेडिट देना नहीं चाहते थे कि वो समाज और राजनीति की दिशा तय होने लग जाए. नतीजा ये किताब कम से उन लोगों के बीच से बिसरती चली गई जो टीवी को उथला या सतही माध्यम मानते रहे हैं. लेकिन
साल 2012 में कृष्णा झा और धीरेन्द्र के. झा की लिखी किताब "अयोध्या दि डार्क नाइटः दि सिक्रेट हिस्ट्री ऑफ रामाज एपीयरेंस इन बाबरी मस्जिद" से गुजरें और खासकर इसमे जो उद्धरण शामिल किए गए हैं, वो राजगोपाल के तर्क को मजबूत करते हैं. इस किताब में बाबरी मस्जिद विध्वंस के संदर्भ में अलग से टीवी के कार्यक्रम की चर्चा नहीं है लेकिन सरकार की उन नीतियों और तर्क पर जरूर चर्चा शामिल है, जिन पर गौर करें तो उनमे प्रसारण नीति अपने आप शामिल हो जाते हैं. इस दौर की प्रसारण नीति, राजनीति और सरकार के रवैये को समझने के लिए भास्कर घोष की लिखी किताब दूरदर्शन डेज कम महत्वपूर्ण नहीं है.( राजीव गांधी को भक्ति भाव से याद किए जाने के बावजूद). खैर,
साल 2012-13 में शुरु हुए टीवी कार्यक्रमों को एक बार दोबारा से राजगोपाल के तर्क के साथ रखकर समझने की कोशिश करें तो ये समझना और भी आसान हो जाता है कि इस देश में दक्षिणपंथी पार्टी की जो सरकार 2014 में सत्ता में आई, टीवी पर ये दो साल पहले ही आ गई थी. महाराणा प्रताप, रानी लक्ष्मीबाई, पृथ्वीराज चौहान, देवों के देव महादेव, जीटीवी का रामायण ऐसे दर्जनभर टीवी सीरियल हैं जो कि वहीं काम दो-ढाई साल पहले से करते आए हैं जो काम दक्षिणपंथी पार्टी एक्सेल शीट पर कर रही थी और जो काम इकॉनमिक टाइम्स जैसा अखबार सेन्सेक्स की खबरें छापकर कर रहा था.
कुल मिलाकर कहानी ये है कि मनोरंजन की दुनिया को हम जिस हल्के अंदाज में निबटा देते हैं, इस देश की राजनीति का बड़ा सुर वही से साधने का काम होता आया है. राजनीति में इसका इस्तेमाल माल राजनीति के लिए किया जाए तो वो देशभक्ति हो जाती है और इसी इन्‍डस्ट्री के लोग सही अर्थों में राजनीति करने लगें तो वो असहिष्णु करार दे दिए जाते हैं.
( जाहिर है, इस असहिष्णुता की शुरूआत कांग्रेस से ही हुई है. झा की किताब का पन्ना लगाया है, आप चाहें तो बड़ा करके नेहरू का वो उद्धरण पढ़ सकते हैं जिसे कि उन्होंने मई 1950 में राज्य के मुख्यमंत्रियों से बेहद ही खिन्न भाव से कहा था-
ये बड़े अफसोस की बात है कि जो कांग्रेस धर्मनिपेक्षता के लिए जानी जाती है, वो इतनी जल्दी इसका अर्थ भूल जाएगी..बिडंबना ही है कि जो जिन चीजों पर जितना अधिक बात करता है, वो उतना ही कम उसका अर्थ समझता है, उसे उतना ही कम व्यवहार में लाता है..

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मैंने उस वक्त जितनी बार दीपक चौरसिया को देखा, नौकिया ग्यारह सौ के साथ ही देखा. दो-दो फोन लेकिन वही. पुण्य प्रसून के साथ भी मामूली मोबाईल. शम्स ताहिर खान के मोबाईल पर तो कभी नजर ही नहीं गई. वो अपने जीवन में, अपनी शैली में वैसे भी बेहद सादगी पसंद इंसान है. मयूर विहार फेज वन का वो इलाका जिसे अब सेल्फीप्रधान मीडियाकर्मचारी लो स्टेटस की जगह मानते हैं, बड़े आराम से आपको घूमते-टहलते मिल जाएंगे. जिस वक्त ये लोग नोकिया ग्यारह सौ और उसके आसपास की मोबाईल से अपना काम करते, उसी वक्त बाजार में एक से बेहतरीन मंहगे मोबाईल मौजूद थे. ब्लैकबेरी की जबरदस्त क्रेज थी लेकिन  मामूली मोबाईल इनका खुद का चुनाव था, कहीं कोई मजबूरी नहीं.

ये देश के वो मीडियाकर्मी हैं जिन्हें राह चलते लोग पहचानते हैं. आप इनकी स्टोरी-एंकरिंग की क्वालिटी का विश्लेषण न भी करें तो भी सिलेब्रेटी टीवी चेहरे हैं. पूरे देश में इन्हें लोग जानते-पहचानते हैं. हमने कभी भी इन तीनों को न तो सिलेब्रेटी जैसा व्यवहार करते देखा और न ही कभी किसी सिलेब्रेटी के पीछे दौड़ लगाते. हां ये जरूर है कि तीनों अपनी सेल्फ को लेकर कॉन्शस रहनेवाले लोग.  अब मुझे नहीं पता कि ये कौन सा मोबाईल रखते हैं लेकिन हां इतना तो जरूर है कि इस सेल्फी सर्कस में कभी दिखाई नहीं दिए. स्मार्टफोन होंगे भी तो वो इनकी पत्रकारिता का एक हिस्सा होगा, न कि सत्ता के आगे लोट जाने की चटाई.

मैं 2007-08 की अपनी इन्टर्नशिप, ट्रेनी औऱ नौकरी के दिनों को याद करता हूं और आज इस नजारे से गुजरता हूं तो क्लासरूम में अपनी ही कही बात से लड़खड़ाने लग जाता हूं- पत्रकारिता करने के लिए बहुत अधिक संसाधन नहीं चाहिए, एक मामूली मोबाईल जिससे तस्वीर ली जा सके, रिकॉर्डिंग हो सके और टाइपिंग हो सके बस..इसके आगे आप जो भी करेंगे वो संचार क्रांति का हिस्सा होगा, उससे सूचना क्रांति कभी नहीं आएगी.

आज जब इस तमाशे से गुजरता हूं तो लगता है कि जिन संसाधनों से बेहतरीन वैकल्पिक पत्रकारिता की जा सकती है, स्टोरी की लागत में कटौती की जा सकती है, उसे इन मीडिया कर्मचारियों ने कितनी बुरी तरह टीटीएम के काम में लगा दिया. ऐसे नजारे देखने के बाद भी आपके मन में सवाल रह जाते हैं कि आखिर मीडिया को लेखकों का पुरस्कार लौटाना, प्रतिरोध में सरकार से असहमत होते हुए अपनी बात कहना क्यों रास नहीं आता ? आखिर जिस चेहरे के साथ सेल्फी खिंचाने के लिए वो लंपटता और मवालियों की हद तक जा सकते हैं, आखिर वो अपने इस प्रतीक पुरूष की छवि ध्वस्त होते कैसे देख सकते हैं ? #मीडियामंडी
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जी न्यूज के दागदार संपादक सुधीर चौधरी को 16 दिसंबर 2012 में हुए दिल्ली गैंगरेप की पीडिता के दोस्त का इंटरव्यू के लिए साल 2013 का रामनाथ गोयनका सम्मान कल दिया गया. ये सम्मान सुधीर चौधरी के उस पत्रकारिता को धो-पोंछकर पवित्र छवि पेश करती है जिसके बारे में जानने के बाद किसी का भी माथा शर्म से झुक जाएगा.
पहली तस्वीर में आप जिस महिला के कपड़े फाड़ दिए जाने से लेकर दरिंदगी के साथ घसीटने,बाल नोचने के दृश्य दे रहे हैं, ये शिक्षक उमा खुराना है. इन पर साल 2007 में लाइव इंडिया चैनल ने स्टिंग ऑपरेशन किया और लोगों को बताया कि ये महिला शिक्षक जैसे पेशे में होकर छात्राओं से जिस्मफरोशी का धंधा करवाती है. चैनल ने इस पर लगातार खबरें प्रसारित की.
नतीजा ये हुआ कि दिल्ली के तुर्कमान गेट पर बलवाईयों ने इस महिला को घेर लिया..कपड़े फाड़ दिए और मार-मारकर बुरा हाल कर दिया. पुलिस की सुरक्षा न मिली होती तो इस महिला की जान तक चली जाती. बाकी देश के लाखों लोगों की निगाह में ये शिक्षक ऐसी गुनाहगार थी जिसका फैसला लोग अपने तरीके से करने लग गए थे. लेकिन
जल्द ही पता चला कि चैनल के रिपोर्टर प्रकाश सिंह ने कम समय में शोहरत हासिल करने के लिए जिस स्टिंग ऑपरेशन को अंजाम दिया था वो पुरी तरह फर्जी है. उस वक्त चैनल के प्रमुख यही सुधीर चौधरी थे और उन्होंने अपने रिपोर्टर को क्रिमिनल बताते हुए साफ-साफ कहा कि इसने हमें धोखे में रखा और इस खबर की हमें पहले से जानकारी नहीं थी. चैनल एक महीने तक ब्लैकआउट रहा. प्रकाश सिंह थोड़े वक्त के लिए जेल गए..फिर छूटकर दूसरे न्यूज चैनल और आगे चलकर राजनीतिक पीआर में अपना करिअर बना लिया और इधर खुद सुधीर चौधरी तरक्की करते गए.
इस फर्जी स्टिंग ऑपरेशन के देखने के बाद जनता ने शिक्षक उमा खुराना के साथ जो कुछ भी किया, उसकी कोई भरपाई नहीं हुई..अब वो कहां हैं, क्या करती हैं, किस हालत में है इसकी मीडिया ने कभी कोई खोजखबर नहीं ली लेकिन अब जबकि सुधीर चौधरी को महिलाओं के सम्मान के लिए ये अवार्ड मिला है तो कोई जाकर उनसे अपने चिरपरिचत अंदाज में पूछे कि आपको ये खुबर सुनकर कैसा लग रहा है तब आपको अंदाजा मिल पाएगा कि महिलाओं का सम्मान कितना बड़ा प्रहसन बनकर रह गया है. 
बाकी जी न्यूज के इस दागदार संपादक पर बोलने का मतलब देशद्रोही होना तो है ही. ‪#‎मीडियामंडी‬
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करीब पैंतीस मिनट के इंतजार के बाद जिस ऑटो रिक्शा ने मेरी बताई जगह पर जाने के लिए हामी भरी, साथ में अपनी शर्त भी रख दी- आईटीओ से जाएंगे, हमें जमना घाट पर कुछ सामान देना है, सुबह के अर्घ्य के लिए..

रास्ते में अचानक फुल वॉल्यूम में केलवा के पात पर, हो दीनानाथ( शारदा सिन्हा ) और मारवौ रे सुगवा धनुख से( अनुराधा पौडवाल) बजाती हुई गाड़ी सर्र से गुजर जाती और हम थोड़े वक्त के लिए नास्टैल्जिक हो जाते..घर में कभी किसी ने छठ किया नहीं है लेकिन घाट पर से नारियल का गोला लेकर मां के साथ लौटना हर बाहर भीतर तक भिगो देता है.. समझ गया अब शारदा सिन्हा की खुदरा-खुदरा आवाज के बीच एकमुश्त लव-गुरु और जिएं तो जिएं कैसे, बिन आपके टाइप के गाने में कोई मजा बचा नहीं है..लिहाजा कान से इपी निकालकर, समेटकर वापस बैग में रख लिया.

आईटीओ पहुंचते ही मेरी नीयत बदल गई. आधी रात में कंबल लपेटकर बैठे, ओढ़कर अध-मरी स्थिति में अपने डीयू-जेएनयू के दोस्तों को लांघकर गुजरने की हिम्मत नहीं हुई. नजदीक जाते ही दीनानाथ, मौका मिलेगा तो हम बता देंगे जैसे गीत-गाने बहुत पीछे रह गए थे और अब कान में बेहद स्पष्ट, दमदार एक ही आवाज सुनाई दे रही थी- अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेड़िए..
आइटीओ मेट्रो से सटे करीब दो दर्जन छात्रों से घिरा एक शख्स अपनी रौ में डफली पर थाप देते हुए गा रहा था..आज रात दिल्ली में चारों तरफ से गानों की आवाज आ रही है..आप बहुत कोशिश करेंगे तो बीच-बीच में एकाध शब्द पकड़ में आ जाएंगे लेकिन आइटीओ की सड़कों पर ( जो कि अखबारों के दफ्तर से भरा इलाका है, रात ) पिछले सोलह-सत्रह दिनों से वही गीत, वही कविता, वही सारे शब्द बहुत साफ सुनाई दे रहे हैं जो कि पाठ्यक्रम से, क्लासरूम से जो कवि और कविता एक-एक करके खिसकाए जाने लगे हैं या तो पाठ्यक्रम में होकर भी चुटका-कुंजी के ठिकाने लगा दिए गए हैं, वो इन दिनों आइटीओ की सड़कों पर अपने वास्तविक अर्थ में मौजूद हैं. कला की जो परिभाषा आर्ट गैलरी में जाकर कैद हो जा रही है वो आधी रात गए लैम्पपोस्ट की रोशनी में अपनी जरूरत खुलकर राहगीरों को बता दे रही है..
थोड़े वक्त के लिए आप भूल जाइए कि ये जिस बात को लेकर यूजीसी का, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और केन्द्र सरकार का जिस बात को लेकर विरोध कर रहे हैं, वो किस हद तक जायज है. आप सत्ता और सरकार के ही पक्ष में खड़े रहिए, हितकारी तो यही है. लेकिन आधी रात को जो गतिविधियां यहां चल रही होती है( स्वाभाविक रूप से दिन में भी होती हैं), उनसे गुजरने पर आप महसूस करेंगे कि ये उपरी तौर पर भले ही विरोध है, आपको ये भी राष्ट्र का अपमान नजर आए लेकिन जिस जुनून के साथ यहां गीत गाए जाते हैं, कविता की जो पंक्तियां लिखी-टांगी और दोहराई जाती है, संप्रेषण के लिए जिन पारंपरिक तरीके का इस्तेमाल किया जा रहा है, उन सबसे गुजरने के बाद एकबारगी आपको जरूर लगेगा कि कला की, कविता की हिफाजत असल में ऐसे ही मौके और जगहों पर संभव है.
बात-बात में जो हमारी संस्थाएं, अलग-अलग प्रदेश की सरकार करोड़ों रूपये विज्ञापन और पीआर प्रैक्टिस पर झोंक देती हैं, आप अपनी बात रखने के इनके तरीके पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि प्रतिरोध का असल अर्थ, अपनी बात लोगों तक पहुंचाने का सही जरिया वो शब्द ही है जिन पर कि हम धीरे-धीरे बहुत कम यकीं करने लगे हैं. कविता को निबटाकर जुमले,नारे और विज्ञापन की पंचलाइन पर उतर आए हैं. ऐसे प्रतिरोध शब्दों के प्रति यकीन की तरफ लौटने की कार्रवाई है, कविता की जरूरत और कला को आर्ट गैलरी के कैदखाने और ड्राइंगरूम की हैसियत से बाहर निकालकर ठहरकर सोचने के लिए है...बाकी ये हमारी-आपकी तरह के कोजी कमरे का मोह त्यागकर सड़क किनारे जैसे-तैसे सोए पड़े हैं, इनकी मांगे पूरी होती है तो सुविधा उठाने के काबिल इनसे पहले हम-आप होंगे.
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