दिनेश्वर प्रसाद ने कहा था- पहले कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ो, फिर कुछ और
Posted On 12:54 pm by विनीत कुमार | 9 comments
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तो अब तुम विज्ञापन बनाने का कोर्स करोगे, पीआर बनोगे. जैसे बाकी लोग पैसे के पीछे भागते हैं,तुम भी भागोगे ? एक बार फिर से विचार करना अपने इस फैसले पर..उनकी कही ये आखिरी लाइन थी जिसके बाद संयोग ऐसा बना कि दोबारा कभी उनसे मिलना न हो सका..लेकिन आखिर में मैंने हिन्दू कॉलेज से हिन्दी साहित्य से एम.ए.ही किया. उनके कहने भर से नहीं लेकिन उस भरोसे से कि अगर मुझे आगे साहित्य पढ़ने कहा है तो कुछ तो सोचा होगा. खैर,
दिनेश्वर प्रसाद मेरे कॉलेज या कोर्स टीचर नहीं थे. उन्होंने कभी क्लासरुम में मुझे पढ़ाया भी नहीं. वो अक्सर बुल्के शोध संस्थान आया करते और लाइब्रेरियन रेजिना बा बताती कि बहुत विद्वान शख्स हैं. फिर मैंने बुल्के जयंती पर दो साल लगातार बोलते सुना तो उनका कायल हो गया. साहित्य को श्रद्धा के बजाय उसमें निहित सामाजिक प्रतिबद्धता और बदलाव का दस्तावेज जैसी समझ पहली बार उनसे ही सुना,सीखा. कार्यक्रम खत्म होने के बाद कहा-सर, आपसे मिलना चाहता हूं. कुछ बात करना चाहता हूं. उन्होंने मुस्कराते हुए कहा- हां-हां क्यों नहीं, मैं तुम्हें अक्सर यहां टेबल पर बैठकर पढ़ते देखता हूं, अच्छा लगता है,कभी भी आ जाओ मेरे घर पर. ये कोई बीए सेकण्ड इयर की बात होगी. लेकिन तब हम उनके पास नहीं गए.
थर्ड इयर तक आते-आते साहित्य का ऐसा नशा छाया कि लगा इसमें एम.ए. करना है, दिनेश्वर प्रसाद जैसा ही विद्वान बनना है. बुल्के शोध संस्थान की आवोहवा कुछ ऐसी थी कि हमें साहित्य से लगातार बांधे रखती थी. मेरी सीनियर थी नीतू नवगीत. अच्छी दोस्त. शादी के बाद अब हम उन्हें नीतू दी कहते हैं. उन पर भी कुछ ऐसा ही नशा छाया था. एक दिन गर्मी की इसी तरह की दुपहरी में हमने बन बनाया कि आज दिनेश्वर सर के यहां चलेगें. बुल्के शोध संस्थान से थोड़ी ही दूर पर उनका घर था. हम गए.
हमारे जाने पर वो बहुत खुश हुए. खुद उठकर पानी,लड्डू लाने चले गए. बहुत प्यार से बिठाया. हमने आने का कारण बताया. नीतू दी टू द प्वाइंट बात करती थी सो साहित्य के बाकी छात्रों की तरह बड़ी-बड़ी भारी-भरकम अभिव्यक्ति में न फंसकर सीधे कहा- सर,मुझे जेएनयू से एम ए करना है,आप गाइड करें. वो अपने साथ सिलेबस और पुराने साल के सवाल लेकर आयी थी. दिनेश्वर प्रसाद ने एकबारगी उसे पलटा और फिर एकदम से कहा- देखो, बाकी चीजें तो ठीक है,सिलेबस,लेखक,कविता लेकिन सबसे पहले कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ो. इसके बाद बाकी चीजों पर बात होगी. नीतू दी अपने मिजाज के अनुरुप चाहती थी कि दिनेश्वर प्रसाद उन्हें जेएनयू प्रवेश परीक्षा के लिए बाकायदा ट्यूशन दें जो कि उनके मिजाज के अनुरुप नहीं था. शायद इसलिए उसने एक-दो बार के बाद उनके पास जाना छोड़ दिया. लेकिन मेरा जाना और उनके बताए अनुसार साहित्य पढ़ना जारी रहा. इसकी एक वजह ये भी थी कि मेरे पास एक साल का समय था और मैं सचमुच कोर्स के अलावे भी साहित्य पढ़ना चाहता था. हम मिलते रहे और वो कुछ-कुछ बताते रहे.
देखते-देखते थर्ड इयर निकल गया. जेएनयू का फार्म भरने का समय भी आ गया. हम जैसे बिहार-झारखंड़ से आनेवाले लोगों के लिए जेएनयू तब एक ऐसा विश्वविद्यालय हुआ करता जिसे लेकर सोच थी कि एक बार घुस गए तो जिंदगी संवर जाएगी. वो हमारे लिए पढ़ने से कहीं ज्यादा फैंटेसी की दुनिया थी. हम चाहते थे कि परीक्षा देने के पहले एक बार यहां आकर देखें तो कि कैसा है ? हमने ये बात दिनेश्वर प्रसाद को बतायी. वो खुश हो गए- ये तो बहुत अच्छी बात है. वहां वीर भारत तलवार है. उनसे मेरे बारे में बताना और मिलना. वो तुम्हें सही निर्देशन देंगे.
भारत तलवार से तब से आज दिन तक की आखिरी मुलाकात थी.
मुझे तब बात उतनी समझ नहीं आती थी कि दिनेश्वर प्रसाद साहित्य के जरिए हमें क्या समझा रहे हैं ? लेकिन अब जब साहित्य पर होनेवाले विमर्शों से गुजरता हू तो महसूस करता हूं कि उन्हें चीजों की कितनी बारीक समझ थी. भाषा के कितने अच्छे जानकार थे. बुल्के की डिक्शनरी को पिछले 15 सालों से वही अपडेट करते आए थे. साहित्य अकादमी से डॉ. कामिल बुल्के पर छपी किताब उन्होंने ही लिखी. रिटायर होने के बाद उतना जूझकर पढ़ते हुए मैंने आसपास के शिक्षकों को नहीं देखा. वही उनका बरामदा, ताड़ के पंखे से गर्मी भगाते हुए दिनेश्वर प्रसाद. किसी के व्यक्तित्व का कितना असर होता है. उनको अक्सर एक ही शर्ट में देखकर खुद कपड़े की दूकान होते हुए भी मैंने उनकी तरह ही रहना शुरु कर दिया था. बहुत ही गिनती के कपड़े.

