कटऑफ लिस्ट को लेकर डीयू के हंसराज कॉलेज के हिन्दी विभाग में क्षेत्रीयता के आधार पर भेदभाव करने का मामला सामने आया है। हंसराज कॉलेज से पास आउट हुए छात्रों का आरोप है कि हिन्दी विभाग में पर्सेंटेज को लेकर भारी गड़बड़ी है। विभाग की कोशिश है कि हिन्दी भाषी राज्य बिहार के लोग यहां नहीं आएं इसलिए उसने बड़ी चतुराई से कटऑफ लिस्ट जारी किया है। इस बात में कितनी सच्चाई है ये अलग मसला है लेकिन कटऑफ लिस्ट में जो पर्सेंटेज तय किए गए हैं और उसके पीछे जो तर्क दिया जा रहा है, वो अजीबोगरीब और हैरत में डालने वाले जरुर हैं।
विभाग ने बीए हिन्दी ऑनर्स में एडमीशन लेने के लिए जो पहली लिस्ट जारी की है उसमें पर्सेंटेज ६५ और ७० है। यानि ६५ प्रतिशत कोर वालों के लिए और ७० प्रतिशत सेलेक्टिव वालों के लिए। यहां तक तो मामला ठीक बनता है लेकिन आगे की बात जरुर चौंकानवाली है।विभाग ने आरबीएच हिन्दी के लोगों के लिए ८० प्रतिशत तय किया है। आरबीएच का मतलब है राष्टभाषा हिन्दी। पूरे देश में बिहार ही एक ऐसी जगह है जहां इंटरमीडिएट में हिन्दी को राष्टभाषा हिन्दी के नाम से पढ़ाया जाता है। इसे सबको पढ़ना अनिवार्य होता है। यहां के अलावे आरबीएच बोलकर हिन्दी नहीं पढ़ाई जाती। विभाग द्वारा इस आरबीएच हिन्दी के लोगों के लिए ८० प्रतिशत करने का मतलब है कि बिहार के लोगों को हंसराज के हिन्दी विभाग से दूर रखा जाए। छात्रों का तर्क है कि एक तो ये कटऑफ ही गलत है क्योंकि आरबीएच हिन्दी में किसी को ८० प्रतिशत आया ही नहीं है. हिन्दी में किसी को ८० प्रतिशत आया भी होगा तो या तो वो देश के दूसरी जगहों के होंगे या फिर सीबीएससीइ बोर्ड के. जिन लोगों ने बिहार बोर्ड की पढ़ाई की है, उनके ८० प्रतिशत नंबर नहीं आए। यानि वो एडमीशन की दौड़ से बाहर है। जबकि देश के दूसरे हिस्से के लोग या फिर दूसरे बोर्ड के लोग ६५ या ७० प्रतिशत नंबर लाकर भी एडमीशन के काबिल हैं।
छात्रों को गुस्सा इस बात पर आ रहा है कि जब विभाग ने बाकियों के लिए ये प्रतिश तय किया है तो फिर आरबीएच के लोगों के लिए ८० प्रतिशत तय करने का क्या मतलब है। यानि विभाग सीधे-सीधे बिहार के लोगों को न रोक पाने की स्थिति के बाद भी चतुराई से को बाहर कर देना chaahta है। दूसरे विषयों में हिन्दी को लेकर भेदभाव का मामला तो कई बार देखने में आया है। दिल्ली के कॉलेजों में हिन्दी के मुकाबले अंग्रेजी को बेहतर साबित करने और हिन्दी के लोगों को गयागुजरा मानने की बात तो सामने आयी है. करीब दो साल पहले इस बात को लेकर डीयू के हिन्दी विभाग में काफी हंगामा भी हुआ। लेकिन हिन्दी का हिन्दी के स्तर पर भेद किए जाने का ये मामला, मेरी नजर में पहली बार सामने आया है।इस मामले में जब छात्रों ने विभाग के लोगों से बात की तो विभाग का जबाब था कि- ऐसा इसलिए किया गया है कि आरबीएच हिन्दी पढ़कर जो लोग आते हैं उनका सिलेबस बहुत ही कमजोर है, इसलिए अधिक पर्सेंटेज तय करना स्वाभाविक है, इसमें कहीं कोई गड़बड़ी नहीं है। जबकि इसी बात को लेकर छात्रों का तर्क बिल्कुल अलग है.
छात्रों का कहना है कि देश के किस बोर्ड की सिलेबस कमजोर है और कहां की नहीं, यह तय तरने का जिम्मा यूजीसी को है न की किसी कॉलेज के विभाग को। औऱ फिर बिहार की हिन्दी का सिलेबस क्या अगरतल्ला और मिजोरम से भी कमजोर है, क्या देशभर की हिन्दी में सबसे कमजोर सिलेबस बिहार की ही है, ऐसा हो ही नहीं सकता। हंसराज के पुराने छात्र इस लचर तर्क मानते हैं और सिरे से खारिज करते हैं। दो साल पहबले एमए पास हुए हंसराज के एक छात्र का यहां तक कहना है कि मेरे बाद हिन्दी विभाग में बिहार के बहुत ही कम लोगों को हिन्दी विभाग में बीए के लिए लिया गया. और लिया भी गया तो वे बिहार बोर्ड के नहीं थे। क्या विभाग के लिए सिर्फ हिन्दी ही कमजोर है, बाकी विभाग के लोगों ने तो ऐसा कोई भी तर्क नहीं दिया। ऐसा जान-बूझकर किया जा रहा है, तर्क चाहे जो भी दिए जाएं।छात्र इसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने के लिए तैयार हो रहे हैं और अगर इनके द्वारा बताई गयी बात सचमुच में सही है तो दिल्ली विश्वविद्यालय के लिए वाकई बहुत शर्मनाक स्थिति है।
बिहार क्या, देश के किसी भी हिस्से से पढ़कर आए लोगों के साथ इस तरह का भेदभाव जायज नहीं है। केन्द्रीय विश्वविद्यालय होते के नाते इसे मानक रुप तय करने और मानने ही होंगे। छात्रों की बातों की सच्चाई के साथ हम उनके साथ हैं और किसी भी स्तर पर भेदभाव किए जाने के खिलाफ हम उनका जमकर विरोध करते हैं।
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