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मेरे घर में कांटा-चम्मच से लेकर कूकर,कडाही, डब्बा-डिब्बी, एसी,फ्रीज,टीवी,वॉशिंग मशीन सब हिन्दी की कमाई से है. पूंजी के नाम पर मीडिया और कल्चरल स्टडीज की जो सैंकड़ों अंग्रेजी में किताबें हैं, वो सबकी सब हिन्दी की कमाई है..आपको मेरा लिखा, मेरी जो भी जैसी समझ है जिसे आप वक्त-वेवक्त सराहते हैं, वाया हिन्दी ही बनी है. मुझे नहीं पता कि गर मैं इकॉनमिक्स का छात्र होता, पॉलिटिकल साइंस पढ़ा होता, एमबीए,बीबीए, बीसीए किया होता तो आज कहां होता या क्या कर रहा होता ? लेकिन ये जरूर महसूस करता हूं कि शायद इतना आजाद, बिंदास और छोटी-छोटी चीजों में खुशियां निकालकर आपके आगे धर देने का न तो वक्त होता और न ही शायद मिजाज. किसी मजबूरी के तहत हिन्दी नहीं पढ़ी, एक से एक डफर साइंस का बिल्ला लटकाकर चौड़ा होते रहे..लेकिन
मैंने अपने जिस संत जेवियर्स कॉलेज से ग्रेजुएट तक की पढ़ाई की, अपने इकॉनमिक्स, पॉलिटिकल साइंस, हिस्ट्री और यहां तक कि अंग्रेजी साहित्य के शिक्षकों का दुलारा था. मेरे बाकी के दोस्त ग्रेजुएशन के वक्त आए थे जबकि मैंने इंटरमीडिएट की पढ़ाई भी इसी कॉलेज से की थी..श्रीवास्तव सर जो कि अब इस दुनिया में नहीं रहे, मुझे अलग से इंग्लिश लिटरेचर दिया करते. पॉलिटिकल साइन्स के आर.एन सिन्हा को यकीन था कि मैं पॉलिटिकल साइंस के अलावा कुछ और ऑनर्स ले ही नहीं सकता. चौबे सर की मैक्रो इकॉनमिक्स का मैं अच्छा छात्र था. फ्रैकलिन बाखला को लगता था मैं वर्ल्ड हिस्ट्री में पीएचडी करुंगा..लेकिन मैंने इन सबको निराश किया. सीधा गिरा हिन्दी विभाग में
मरने के कुछ वक्त पहले श्रीवास्तव सर ने एक दिन कहा- आइ एम रियली प्राउड ऑफ यू..यू विल डू वेटर इन योर लाइफ..यू वेटर अन्डर्स्टैंड द साउंड ऑफ द सोल..मैं मेलटिना मैम, सुनील भाटिया और कमल बोस का छात्र हो गया...इसी तरह हिन्दू कॉलेज में रामेश्वर राय और रचना मैम का विद्यार्थी. मुझे सच में कभी अफसोस नहीं हुआ कि क्यों हिन्दी की पढ़ाई की, कुछ और क्यों नहीं पढ़ा ?
सच पूछिए तो मैंने वही किया जो करना चाहता था, कुछ भी सपने के हिस्से का छूटा नहीं है..ऐसे में हिन्दी दिवस मेरे लिए स्यापा का नहीं, संभावना का दिन है..अपने टुकड़ों-टुकड़ों में फैले सपने पर एक नजर मार लेने का दिन..बिंदास होने का दिन..एक ऐसी भाषा का दिन जिसमे बोलता हूं तो जितनी सहजता से मेरी मां को बात समझ आती है उतनी ही लंदन की प्रोफेसर फ्रेंचेस्का को भी. हमने हिन्दी साहित्य और भाषा की पढ़ाई इसलिए की क्योंकि हम अपनी जिंदगी की सहजता बचाए रखना चाहते थे..और फिर वही बात, हम कुछ और पढ़ रहे होते तो दूसरे के मोहताज होते, यहां तो जब तक उंगलियों में जान है, बैचलर्स किचन आबाद रहेगा..जिंदगी में बहुत नहीं चाहिए होता है, बस इतना चाहिए होता है कि ज्यादा चाह की मानसिकता के प्रति विरक्ति होने लगे. कल का दिन अपने बर्थडे से भी ज्यादा अच्छे से सिलेब्रेट करुंगा.
हिन्दी पर स्यापा वो करें जो इसे केवल सरकारी संस्थानों, पुरस्कारों और हिन्दी विभाग की जागीर समझ कर बैठे हैं..हमें पता है कि अपनी इस हिन्दी के साथ जिसके पीछे पड़ने पर घर से लेकर बाहर के लोगों के ताने सुने, क्या करना है ? मेरा पिछले 15 सालों में ये भ्रम भी टूटा है कि बाकी के सब्जेक्ट के लोग तीर मार ले रहे हैं. एक बात और बताउं, जिस हिन्दी को लोग पानी पी-पीकर कोसते, गरिआते हैं न, अभी फैशन में ये है कि उसी की दुनिया की सामग्री पकड़कर अंग्रेजी में रिराइट कर दे रहे हैं, चिंतन की हिन्दी की विशाल परंपरा रही है, कुछ नामवरों की मठाधीशी और सामंती लठैती के आगे हम उस दिशा में सोच ही नहीं पाते ज्यादा..
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ए राजा ! दो न रे, एकदम करीना जैसी बहू मिलेगी तेको. जोड़ी सलामत रहे राजा. ए चिकने, गर्लफ्रेंड को लेकर कहा उड़ा जा रहा है रे, इधर भी तो देख, क्या कमी है ?
रेडलाइट पर ऑटो के ठीक आगे आकर इस तरह के संवाद और तालियों के बीच ट्रैफिक की चिल्ल-पों जैसे थोड़े वक्त के लिए फ्रीज हो जाती है.

साथ में दोस्त की पत्नी बैठी हो, भाभी हो, दीदी बैठी हो, कभी पलटकर बहस नहीं करता कि जिसे आपने मेरी गर्लफ्रेंड कहा है वो असल में क्या लगती है मेरी और जिस करीना जैसी बहू की कामना मेरे लिए कर रही हैं, वो मेरे एजेंड़े में है नहीं. चुपचाप दस का नोट आगे बढ़ाते हुए मुस्करा देता हूं. कभी ऐसा नहीं हुआ कि दस का नोट बढ़ाने के बाद सिर पर हाथ फेरने की कोशिश न की हो. एकाध बार तो गाल कुछ इस तरह छुए कि एस्नो-पाउडर की महक के आगे अर्मानी की खुशबू दब गई.
आज आजाद मार्केट रेडलाइट पर जैसे ही ऑटोवाले भइया ने ब्रेक लगायी. वो आयी और रे..चिक..अभी रे चिकने वाक्य पूरा करती कि मैंने बीस के नोट पकड़ा दिए. वो अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पायी. चेहरे के भाव अजीब से बन गए कि पैसे तो मिल गए लेकिन वो जो कहना चाह रही थी, वो अधूरा ही रह गया. सामने रुकी होंडा सिटी के शीशे पर हाथ से कई बार थपकी दी, हारकर पीछे बैठी एक महिला ने शीशा नीचे किया और कहा, आगे जाओ. वो आगे न जाकर वापस मेरे पास आ गयी और सीधा पूछा- अरे चिकने, स्साले तुम्हारे पास ज्यादा पैसा है क्या, बिना पूछे बीस रुपये पकड़ा दिए और वो देखो बैन की..इतने जेवर लादे बैठी है, साफ मना कर दिया.
आपको मेरे पैसे देने से बुरा लगा तो वापस कर दीजिए, एक पाव भिंडी तो आ ही जाएगी.
बैनचो..तेरे पर गुस्सा नहीं हो रही हूं बस ये जानना चाह रही थी कि तू पहले से नोट निकालकर क्यों बैठा था ?

सामने सिग्नल की ओर देखा 97 यानी कुछ बात इनसे की जा सकती है..देखिए, मैंने आपको पैसे आप पर रहम खाकर नहीं दिए. आपने मेरे आगे भले ही ताली न बजाई हो और मैंने आपको रे..चिक..के आगे बोलने का मौका न दिया हो लेकिन मैंने जब सामने आपको ताली बजाकर पैसे मांगते देखे तो मुझे क्लास नाइंथ में अपने उपाध्याय सर की शास्त्रीय संगीत की क्लास याद आ गयी. एकताल, तीनताल, झपताल. हम जैसे लोग उस संगीत को पढ़कर अच्छे नंबर लाए और भूल गए लेकिन आप पता नहीं क्लास गई भी होंगी या नहीं लेकिन इसे दिल्ली की सड़क पर जिंदा रखी हुई हैं सो दिया...और जिस अंदाज में आप पैसे मांग रही थी न सामने बाइकवाले से..लगा आप मेरी कोम टाइप से डायलॉग डिलिवरी कर रही हों, सो उसके लिए दस ज्यादा दिए..आपकी रंगों में शास्त्रीय संगीत औऱ हिन्दी सिनेमा का टुकड़ा दौड़ता है और मैंने बस एक मीडिया के छात्र की हैसियत से एक अध्याय के लिए पैसे दिए..
बैनचो..बड़ी लंबी-लंबी छोड़ने लगा तू तो, बीस रुपये देकर ही..स्साला तेरे ही जैसे सनकी औलाद सबके पैदा हो जाएं तो हमरी जात भी कलाकार कहलावेगी..स्साले ने दिन बना दिया.. औलाद वाली बात कहकर उन्होंने रे चिक..अधूरे वाक्य पूरे कर लिए थे.
डिस्क्लेमरः- ये उनकी तस्वीर नहीं है जिनसे अभी थोड़ी देर पहले बात हुई, ये गूगल से ली गई तस्वीर है लेकिन ऑटो के आगे बिल्कुल इसी अंदाज में खड़ी हुई थी तो बस उस भाव के लिए इस तस्वीर को लगा रहा हूं. ‪#‎दरबदरदिल्ली‬
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"आपको जब सिंपल भाषा इतनी ही पसंद हो तो आप आर्टस या कॉमर्स कॉलेज ज्वायन कीजिए"- 
फिजिक्स टीचर, थ्री इडियट्स

इचक-दाना, बिचक-दाना( श्री 420 ) गाने में मिरची लिखा देख आप दुविधा में पड़ सकते हैं कि "मिर्ची" सही है या फिर सिनेमा की इस टीचर ने जो "मिरची" लिखा है, वो सही है.शायद शब्दकोश पलटने की जरुरत पड़ जाए. लेकिन इस गाने का ब्लैकबोर्ड आपको खींचता है, साथ ही साथ बहुत कुछ बताता चला जाता है.
लकड़ी के पाट से जोड़कर बनाया गया ये ब्लैकबोर्ड किसी सरकारी स्कूल का, बढ़ई लगाकर नहीं बनवाया गया है और न ही आज के स्कूलों की तरह इसके लिए लाखों में इसकी बजट होती है. आमतौर पर फलों की पेटियों से निकली तख्ती या इधर-उधर फेंकी गई लकड़ी की तख्ती से जोड़कर बनाया ये ब्लैकबोर्ड साफ इशारा करता है कि ये क्लासरूम अपनी सुविधा, पढ़ाने की ललक और इसी बहाने जीवकोपार्जन के लिए लगायी गयी है. इस ब्लैकबोर्ड में कितने जोड़ हैं, बिल्कुल सपाट नहीं है. चित्रों के जरिए वर्णमाला का ये वो पाठ है जिसे सिखाया तो जो रहा है उन बच्चों को जो खेल और पढ़ाई के बीच डूब-उतर रहे हैं लेकिन एक व्यापक संदर्भ में नए सिरे से पढ़ने( स्वाभाविक है जिंदगी) की कोशिश कर रहा है हवेली की खिड़की पर खड़ा वो श्री 420 जिसकी जिंदगी में ये वर्णमाला कब आए होंगे और कब गुजर गए होंगे. ये खुली पाठशाला संस्थान नहीं, समाज को शिक्षित करने की एक प्रक्रिया ज्यादा है.

इन विजुअल में पूरी की पूरी वायनरी है. वर्णमाला जैसे सहज चीज सीखाने के लिए जिस जुगाड़ और मुश्किल स्थितियों में बच्चों को सिखाने की कोशिश है, बड़े के लिए वो पाठ उतना ही दुरुह( सुविधाजनक स्थिति में रहकर भी दिमागी तौर पर उद्धत हो जाने की स्थिति). क्या पाठ के सहज होने के साथ ही संदर्भ की ये दुरुहता आगे की फिल्मों के क्लासरूम में इसी तरह दिखाई देते हैं ?

मैं हूं न में इचक दाना की तरह वर्णों की पहेलियां नहीं है और न ही क्लासरूम के बच्चे वर्णमाला का ज्ञान लेने आए हैं. यहां सवाल है कैल्शियम की एटॉमिक वेट क्या है ? इस एक सवाल के साथ-साथ ब्लैकबोर्ड का रंग, चॉक जो पेंसिल की तरह न होकर इचक दाना में पत्थर के टुकड़े की तरह थे, हम जिसे अपनी मगही भाषा में खल्ली कहा करते हैं, वो भी रंगीन, ग्लैमरस शिक्षक( सुष्मिता सेन) जिसकी केमेस्ट्री की क्लास में ही खुले बाल पर सौन्दर्य चर्चा की कोशिश की जाती है. ये भारी लागत से बने बोर्ड हैं जिन्हें ब्लैकबोर्ड कहने पर इसका समुद्री हरे रंग का होना शामिल नहीं हो पाया लेकिन अफसोस कि बोर्ड का रंग बदल जाने पर भी इसके लिए कोई नया नाम नहीं रखा गया है. क्लासरूम की पूरी कोशिश इसे मस्ती की पाठशाला में बदल देने की है और आगे चलकर ऐसा होता भी है और तब बोर्ड पर केमेस्ट्री के लिखे फॉर्मूले और कर्सिव इंग्लिश में लिखी परिभाषाओं को छोड़ दें तो पूरा नजारा किसी डिस्को थेक का हो जाता है.( फैंटेसी में ही सही )..इस बात के लिए आप हिन्दी सिनेमा पर आरोप लगा सकते हैं कि कॉलेजों, विश्वविद्यालयों को जो बाजार, ब्रांड और मीडिया के इवेंट स्पॉट भर बनाकर छोड़ देने की कवायद चल रही है, उसके ब्लूप्रिंट यही सिनेमा तैयार कर रहे हैं. खैर,

थ्री इडियट्स का सवाल भी अ से क्या होता है जैसा ही सरल है, मशीन क्या है ? रणछोड़दास( आमिर खान) इसे बाकायदा न केवल हिन्दी में बल्कि अपने रोजमर्रा के अनुभव से इसे परिभाषित करने की कोशिश करता है जिसका मजाक सारे स्टूडेंट्स तो उड़ाते ही हैं, फिजिक्स का शिक्षक अपनी पैंट की जिप उपर-नीचे करके ये कहते हुए कि अप-डाउन,अप-डाउन ये मशीन है, इग्जाम में यही लिखोगे.( हालांकि रणछोड़ पहले ये काम कर चुका होता है). यहां ब्लैकबोर्ड काले रंग का तो है लेकिन वही ब्लैकबोर्ड नहीं जो लकड़ी की तख्ती या पत्थर, सीमेंट को काले रंग से रंगकर बनाए जाते रहे हैं. बाकायदा लकड़ी के फ्रेम में जड़े जिस पर बार्निश की पॉलिश है. लिखा जिस पर अंग्रेजी में सिर्फ मशीन है..बाकी फिल्म के बीच-बीच में वो हिस्सा जरूर है जहां साइन थिटा, बिटा, पाइ, अंडरस्कोर जैसे चिन्हों से बोर्ड भरे हैं क्योंकि ये इंजीनियरिंग कॉलेज का नजारा है...यही नजारा तारे जमीन पर का भी है जिससे ये सारे चिन्ह उड़-उड़कर बाहर निकलते दिखाए जाते हैं.

स्टूडेंट ऑफ दि इयर में शक्ल तो बोर्ड जैसी ही दिखाई देती है लेकिन है वो पीपीटी( पावर प्वाइंट प्रजेंटेशन) और इस पर जो कुछ भी लिखा है वो सिर्फ अंग्रेजी में लिखी परिभाषाएं, ये मैनेजमेंट की क्लास है. बोर्ड का आकार पूरी क्लासरूम की चौड़ाई जितनी है जिस पर कि बड़े आराम से "मेरी कोम" फिल्म प्रदर्शित की जा सकती है.

थोड़ी देर के लिए ये छोड़ दे कि हिन्दी सिनेमा के क्लासरूम में शिक्षक क्या पढ़ा रहे होते हैं, किस सब्जेक्ट की क्लास होती है तो भी सिर्फ ब्लैकबोर्ड के हुलिए से वो सबकुछ अंदाजा लग जाता है जो फिल्म स्टैब्लिश करना चाहती है. एकबारगी तो आपके मन में सवाल उठेगा कि 1955 में विद्य़ा( नरगिस) ने जो हिन्दी वर्णमाला सिखायी थी, वो बच्चे बाद में गए कहां ? क्या उन सबके सब ने साइंस या मैनेजमेंट ले लिया और उऩ्हीं कॉलेजों में घुस गए जहां करिअर का दवाब तो है लेकिन वो सहजता नही है जो वो अपनी विद्या मैम से सीखकर आए थे. क्या ये वो बच्चे हैं जो फिजिक्स, केमेस्ट्री की क्लास में भी मजाक का पात्र बनने की हद तक इंसानियत, जिंदगी जीने की कला और सौन्दर्यबोध की बात करते हैं. अब के हिन्दी सिनेमा में वर्णमाला, साहित्य और आर्ट्स विषय की कोई क्लास नहीं होती है..सिर्फ साइंस, मैनेजमेंट, इंंजीनियरिंग, मेडीकल की और अगर साहित्य या आर्ट्स की गलती से क्लास हो भी तो शिक्षक औऱ इस विषय का उपहास उड़ाने के लिए. आपको एक वक्त के लिए हताशा होती है लेकिन

दिलचस्प है कि इन साइंस, इंजीनियरिंग औऱ मैनेजमेंट की क्लास में भी कहानी उन्हीं मुद्दों पर जाकर घूमती है जो कि विषय नैतिक शिक्षा, साहित्य या समाज विज्ञान के होने पर घूमती. मुन्नाभाई एमबीबीएस से लेकर थ्री इडियट और स्टूडेंट ऑफ द इयर की यही कहानी है..तब आपको लगेगा कि इचक दाना के विद्या मैम के ये विद्यार्थी इंजीनियरिंग तो इन कॉलेजों में पढ़ रहे हैं लेकिन उनका पढ़ना एकतरफा नहीं है, वो अपने उन सारे साइंस शिक्षकों को इंसानियत का पाठ पढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं जो रिजल्ट, प्लेसमेंट, तरक्की के आगे न केवल भूल चुके हैं बल्कि इन सबको दो कौड़ी की चीज समझते हैं. विषय के गायब होने के बावजूद विषय की तासीर बचाए रखने के बीच हिन्दी सिनेमा के ब्लैकबोर्ड और क्लासरूम काफी कुछ कह जाते हैं. हम जैसे आर्ट्स के सिकंस के लिए कहिए तो खुशफहमी का एक पुड़िया तो थमा ही जाते हैं कि कल को हमारे बच्चे भले ही मैनेजमेंट, पीआर प्रैक्टिस और मीडिया बिजनेस के कोर्स में चले जाएंगे लेकिन अपनी इसी विद्या मैम और कोठी की खिड़की पर खड़े होकर रणवीर राज( राज कपूर) के बीच की इंटरटेक्टचुअलिटी( अंतर्पाठियता) को भी सहेजने, समेटने की कोशिश करेंगे..आखिर श्री 420 का रणवीर, मैं हूं न में मेजर रामप्रसाद शर्मा( शाहरुख खान) केमेस्ट्री का छात्र तो बनकर घुस ही आया है. 

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शिक्षक और छात्र के भावनात्मक संबंध( हालांकि इसकी बेतहाशा धज्जियां उड़ती रही है और जारी है, फिर जो थोड़ा-बहुत बचा है) के बीच और जिसे कि अलग से व्यक्त करने के लिए शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता रहा हो, देश के प्रधानमंत्री का घुस आना क्या इतना ही स्वाभाविक है ? यदि आपको ये सवाल अटपटा लगता है तो इसका मतलब है कि आपको संबंधों के बीच के स्पेस और उस स्पेस के हथिया लिए जाने की राजनीति समझने में न दिलचस्पी है और न ही आपको ऐसा किया जाना अनैतिक ही नहीं, अमानवीय भी लगता है. आप इसे इसी रूप में ले रहे हैं कि घर के अभिभावक को किसी के भी कमरे में, किसी दो के बीच की बातचीत, अंतरंग पलों के बीच घुस आने का हक है, इसे किसी भी हाल में गलत ढंग से नहीं लिया जाना चाहिए. संभव है कि आप श्रद्धावश अपने प्रधानमंत्री या सांसद को ऐसा करने का मौका भी दें. लेकिन

आपको नहीं लगता कि स्पेस के सिकुड़ते जाने और जगह की भारी किल्लत होते जाने के बीच हम संबंधों के मामले में हम उतने ही ज्यादा खुल रहे हैं, पहले से ज्यादा व्यापक संदर्भ में संबंधों को समझ रहे हैं. हमें अब ये बात समझ आने लगी है कि आठ साल-दस साल के हमारे घर के बच्चे हैं तो उनकी भी अपनी प्रायवेसी है, उन्हें भी अपने तरीके के लोग, दोस्त चुनने का हक है और रोज का कुछ वक्त और साल के कुछ दिन अपने तरीके से बिताने की उसी तरह की आजादी है, जितना ही हम वयस्क लोगों को है..आप अगर इस समझदारी के साथ उन्हें स्पेस देते हैं तब तो ठीक है लेकिन संस्कारित किए जाने, नैतिकता का पाठ पढ़ाने के नाम पर अगर आप दिन-रात उनके पुच्छल्ले बन जाएंगे और घड़ी-घड़ी दुहाई देते फिरेंगे कि हम ये सब आपके भले के लिए कर रहे हैं तो यकीन मानिए यही बच्चे बड़ी ही बेशर्मी से आपसे स्पेस की मांग करेंगे, कुछ वक्त अपने तरीके से बिताने की बात करेंगे और आखिर में ये भी जोड़ देंगे कि अब मैं बच्चा/बच्ची नहीं हूं, प्लीज.

कहानी बस इतनी है कि बच्चों की दुनिया अब उतनी सपाट रही नहीं है कि जिसे हम वयस्क जैसे और जिस हिसाब से चाहें ड्राइव कर दें. लोहे-लक्कड़ के कबाड़ को हमने विकास का नाम दिया है और जितनी उनकी ज्यादा कॉम्प्लीकेटेड हो गयी है. ऐसे में वो मां-बाप के अलावा टीचर को सिर्फ ज्ञान और संस्कार का जरिया नहीं समझता बल्कि उसे एक ऐसे शख्स के रूप में लेता है जिससे वो जो चाहे, जैसे चाहे शेयर करे.. अच्छा होता मोदी सरकार इस शिक्षक दिवस को "शेयरिंग डे"( अंग्रेजी से परहेज है तो अन्तर्मन दिवस) के रूप में मनाने की बात करती ताकि इस दिन बच्चे अपने मन की कोई भी बात खुलकर अपने पसंदीदा शिक्षक से कर पाते. आज के बच्चों को ज्ञान, संस्कार से कहीं ज्यादा शेयर करने, उन्हें सुनने की जरूरत है. हंसते-खेलते और बिंदास दिखते ये स्कूली बच्चे मन के स्तर पर कितने बंद, बीमार और दबे होते हैं, शायद इसका अंदाजा न तो मोदी सरकार को है और न ही भाषण देने के लिए आतुर स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी साहब को. 364 दिन के भाषणनुमा क्लासरूम से ये बच्चे तो वैसे ही उबे, हारे होते हैं, एक दिन तो शेयर करने के दिन होते. लेकिन

इन सारी बातों की उम्मीद हम एक ऐसे प्रधानमंत्री और उनकी सरकार से नहीं कर सकते जो खुद "ब्रांड पोजिशनिंग" के बिजनेस फार्मूले से यहां तक आया हो. ये फार्मूला साफ-साफ कहता है कि पहले अपने को मदर ब्रांड के रूप में स्थापित करो और फिर धीरे-धीरे उन सभी क्षेत्र में सिस्टर ब्रांड पैदा करके घुस जाओ, जो तुम्हारा इलाका नहीं रहा हो. मसलन अगर टाटा कंपनी पर आप यकीन करते हैं और उसकी बनायी ट्रक को मजबूत मानते हैं तो केबल, बाल्टी और फोर व्हीलर को क्यों नहीं ? आप देखते हैं, ब्रांड की पूरी राजनीति इसी तरह काम करती है. चुनाव के दौरान वोटर को खुलेआम कहा गया- आप जो वोट देंगे वो सीधे मुझ तक आएंगे यानी आप बीजेपी को नहीं मोदी को वोट दे रहे हैं और इस तरह एक बार बहुमत हासिल करके जब नरेन्द्र मोदी ब्रांड बन गए तो अमित साह से लेकर जोगी आदित्यनाथ जैसे दागदार भी सिस्टर ब्रांड होते चले गए. अब ऐसा होगा कि ब्रांड मोदी ने जिस पर हाथ रख दिया, वो ब्रांड.

ब्रांड पोजिशनिंग की ये राजनीति मार्केट में अपनी मोनोपॉली कायम करने के लिए ऐसे-ऐसे सेक्टर में घुस आती है जिसका कि पहले से उसे कोई लेना-देना नहीं होता. मसलन आपने कभी सोचा होगा कि तेल निकालनेवाली कंपनी रिलांयस सब्जी भी बेचेगी और आम-लीची के बागान तक खरीदकर धंधा करेगी. लेकिन अब लिस्ट बनाइए तो दस में कम से कम चीन से चार चीजें ऐसी आप इस्तेमाल करते हैं जो इनके होते हैं यानी आपकी जिंदगी में ये ब्रांड काबिज हो गया है.

चूंकि नरेन्द्र मोदी ब्रांड पोजिशनिंग कोई उत्पाद के लिए नहीं कर रहे बल्कि राजनीति के लिए खुद को ही ब्रांड में तब्दील किया है, ऐसे में उनके मामले में ये काम राजनीति, सेवा,संस्कृति, संस्कार जैसे ऐसे शब्दों के साथ घुल-मिलकर आ रहे हैं ताकि ये कहीं से धंधे का हिस्सा न लगकर राष्ट्र के विकास का अनिवार्य पहलू लगे. नहीं तो जो देश का प्रधानमंत्री है उसे उतने ही अधिकार से शिक्षक दिवस में, उतने ही अधिकार से परवरिश और उन सामाजिक पहलुओं पर दिशा-निर्देश देने का अधिकार नहीं मिल जाता जो कि स्वाभाविक रुप से सोशल इंजीनियरिंग और सामाजिक गतिविधियों का हिस्सा है और जिसके निर्वाह में पूरी प्रक्रिया काम करती है, रातोंरात की हवाबाजी नहीं.

अब जबकि उन्होंने बतौर प्रत्याशी बहुमत हासिल कर लिया है तो ऐसे में वो उसी ब्रांड पोजिशनिंग स्ट्रैटजी के तहत शिक्षक, अभिभावक, आदर्श भाई होने की अतिरिक्त छूट जिसे पाखंड कहना ज्यादा सही होगा, हासिल करना चाहते हैं जैसे ब्रांड अपने कमतर कंपनियों को कुचलकर स्पेस खत्म करता है. शिक्षक दिवस के मामले में क्या ये सवाल नहीं है कि छात्र और शिक्षक के बीच संबंध चाहे जो भी रहे हों, जबरिया घुसकर एक स्वाभाविक संबंध के बीच के स्पेस को पहले के मुकाबले और खत्म कर रहे हैं ? नहीं तो एक बार इस व्यावहारिक पक्ष पर गौर करें तो अंदाजा लग जाएगा कि प्रधानमंत्री क्या, इस दिन छात्र प्रिंसिपल छोड़कर इतिहास, अंग्रेजी, हिन्दी या सोशल साइंस के शिक्षक के साथ वक्त बिताना चाहता है, उनकी बात सुनना चाहता है, जिसके हाथ में देने के लिए और न ही बिगाड़ने के लिए कुछ है. मोदी की भाषण देने की ये ललक ऐसे शिक्षक को बौना बनाने के अलावा कुछ नहीं करेगी. छात्रों से पसंद की बहुलता का ये हक एक झटके में छीन लेगी.

रही बात भाषण के जरिए संस्कार देने की तो जनाब जब आपने विकास का पूरा पैमाना ही ज्यादा से ज्यादा प्रोडक्ट और सर्विसेज के इस्तेमाल किए जाने पर लाकर टिका दिया है और एक सफल व्यक्ति होने का आधार ही अपनी गाड़ी, अपना घर और मजबूत बैंक बैलेंस हो गया है तो आपके इस भाषण से कॉमिक रिलीफ भले ही मिल जाए लेकिन छात्र के पैर उसी प्लेटफॉर्म की तरफ बढ़ेंगे जहां से इस कबाड़ जुटाने को सफल होने का पर्याय बनाया जाता हो..फिर जबरिया अगर आज ये आपका ज्ञान सुन भी लें तो उन्हें आपके प्रति भला सम्मान कैसे पैदा हो सकेगा कि जो शख्स खुद देशा का पैसा पानी की तरह बहाकर, कार्पोरेट और पूंजीपतियों के दम पर सत्ता तक पहुंचा है, उसकी सादगी के पाठ में कितनी दरारें होंगी. सादगी और संस्कार के पाठ का असर उसके जीने में है, किऑस्क बनाकर चमकाने में नहीं.

कुल मिलाकर बात सिफत बस इतनी है कि शिक्षा की दुनिया वैसे भी कारोबार की दुनिया पहले से ही विलीन होती जा रही है जहां शिक्षक सिर्फ सिकंस( सिलेबस कंटेंट सप्लायर) बनकर रह गया है..ऐसे में ब्रांड नरेन्द्र मोदी का हर क्षेत्र, पेशे और संबंध के आदर्श पुरुष बनने की उत्कंठा ऐसे सिकंस को और पराजित, बौना और टीटीएम का शिकार बनाएगी.. माफ कीजिएगा, हमने देश चलाने के लिए सांसद और उनके मार्फत प्रधानमंत्री चुना था, अपनी जिंदगी की छोटी-छोटी बातों को तय करनेवाला मालिक-मुख्तयार नहीं, हम इतने गार्जियनों के बीच घिरकर नहीं जी सकते.

तस्वीर, साभारः ओपन मैगजीन, 28 अगस्त 2014
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