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मीडिया को इस बात की जानकारी पहले से थी। पूरी बात सुनने के पहले,अधूरे वाक्य के बीच में ही उधर से जबाब आता- हॉ, हॉ पता है, कल है न। हमारे सर ने भी बताया कि अधिकांश मीडिया को फैक्स कर दिया गया है,मेल भी किया गया है। लेकिन टेलीविजन चैनलों में दूरदर्शन और सहारा के अलावा हमें कोई नहीं दिखा। बीच-बीच में कैमरे के फ्लैश चमकते तो हमने अंदाजा लगाया कि अखबार से लोग आए होंगे। लेकिन आज हिन्दी-अंग्रेजी सहित देश के चार बड़े अखबारों में खोजा तो कहीं कोई खबर नहीं थी।
हमारे साथ जुड़े कई लोगों को मीडिया के इस चरित्र पर हैरानी हो रही थी, अफसोस हो रहा था औऱ कुछ कह रहे थे, सब ढ़ोंग पालते हैं ये मीडियावाले। एक बार गड्डे से प्रिंस को बचाने में मदद कर दी, जसिका लाल मामले में महौल तैयार कर दिया तो उसे अभी तक विज्ञापन करके उलजुलूल खबरें दिखायी जा रही है औऱ दावा करते हैं कि हम आदमी के पक्ष में काम कर रहे हैं, हम देश का चेहरा दिखा रहे,बकवास करते हैं, सब के सब। मेरे साथ के लोग जिसे मीडिया की बशर्मी कह रहे थे उसे मैं मीडिया की मजबूरी समझ रहा था और कोशिश कर रहा था कि उनकी सफाई में कुछ कहूं।
आमतौर पर डीयू, जेएनयू कैंपस में यूनिट लगाकर दिन-दिनभर लोगों की बाट जोहते रिपोर्टर्स आपको मिल जाएंगे। देश के किसी भी कोने में कोई हलचल हो, कोई फेरबदल हो औऱ इस मामले में देश के युवाओं से राय जाननी हो, इन रिपोर्टरर्स के लिए सबसे आसान होता है कि कैंपस की राह पकड़ लें। दो-चार हैप किस्म के लड़के-लड़कियों को पकड़ लें, उनका मन हो चाहे नहीं हो, उस मामले में उनको कोई जानकारी हो चाहे नहीं हो, बोलना चाहते हों या नहीं हो लेकिन चार-पांच मिनट की ब्रीफिंग के बाद उन्हें उस मसले पर कुछ बोलने के लिए मिन्नतें करने लगेंगे। अनचाहे ढंग से दी गई उनकी बाइट देश के युवाओं की सोच बन जाती है।
सवाल भी ऐसे-ऐसे कि- क्या आपको नहीं लगता कि धोनी का करियर बॉलीवुड की कमेस्ट्री की वजह से गड़बड़ रहा है, आपको लगता है कि राहुल गांधी ही देश के युवाओं के सही विकल्प हैं, क्या गांगुली को क्रिकेट से संन्यास ले लेने चाहिए। लड़कियों के लिहाज से कितनी सेफ है दिल्ली, आपको क्या लगता है। स्टिरियो टाइप के वो सारे सवाल ये आपसे पूछते हैं जिसे कि असाइनमेंट डेस्क पर अपने बॉस के साथ तय करके आते हैं या फिर रास्ते में ड्राइवर से डिस्कश करके तैयार करते हैं. मुझे तो कई बार इस मामले में ड्राइवर ज्यादा काबिल लगा है। इस बाइट, अपनी पीस टू औऱ आइडिया के बूते उन्हें लगता है कि आज उन्होंने कोई तीर मार लिया है और अगर इसी तरह की स्टोरी करते रहे तो जरुर गोयनका अवार्ड मिल जाएगा। बाइट के लिए लोगों के बीच रिरियाते हुए कोई बंदा इसे देखता है तो एक घड़ी को जरुर मीडिया में जाने का अपना इरादा बदल लेगा। प्रोफेसर्स तो कहते हुए गुजर ही जाते हैं कि- ये भी बेचारे क्या करें, इनका पेशा ही कुछ ऐसा है।
लेकिन इन्हीं रिपोर्टरों को कल जब डीयू, जेएनयू और जामिया मिलिया औऱ इग्नू के दौ सौ से भी ज्यादा स्टूडेंट्स, टीचर्स औऱ मानवाधिकार के लिए संघर्ष कर रहे लोग पुलिस हेडक्वार्टर पर विरोध प्रदर्शन किया तो उन्हें इसमें कोई स्टोरी नहीं दिखी। यह जानते हुए कि ये लोग क्या यहां सड़कों पर उतर आए हैं, ये जानते हुए कि जिस लड़की के साथ जातीय उत्पीड़न हुआ है वह भी डीयू कैंपस की ही छात्रा है उन्हें चलाने के लिए कुछ नहीं मिला। अब मीडिया के हमारे सारे दोस्त बेशर्मी तो कर गए लेकिन सफाई हमें देनी पड़ गयी।
देखिए, हुआ क्या होगा कि जो लोग डेली रुटीन रिपोर्टर के तौर पर कैंपस को कवर करते हैं, उन्हें लगा होगा कि ये तो कैंपस में कुछ हो ही नहीं रहा। विरोध प्रदर्शन करनेवाले लोग तो आइटीओ जा रहे हैं। इन रिपोटरर्स के लिए लोग से ज्यादा मायने लोकेशन रखते हैं। इसलिए कल की स्टोरी को कवर करने की जिम्मेवारी उन पर नहीं थी। उनकी जिम्मेवारी कैंपस में होनेवाली गतिविधियों को कवर करने की है। इसलिए गलती उनलगों की है जिन्होंने प्रदर्शन कैंपस में न करके आइटीओ पर किया। आप इन कैंपस रिपोर्टरों को दोष नहीं दे सकते।
अच्छा, जब ये स्टोरी कैंपस की है ही नहीं,पुलिस मुख्यालय की है तो फिर ये जेनरल स्टोरी है। जेनरल स्टोरी ऐसी कि डीयू में रिसर्च करनेवाली एक लड़की को उसके मकान-मालिक ने सिर्फ इसलिए पीटा कि उसे पता चल गया था कि वो दलित है। घर खाली करने के लिए कहा और यह धमकी कि नहीं खाली करोगे तो सामूहिक रेप करेंगे इसलिए दी कि वो दलित है। एक जेनरल स्टोरी के हिसाब से दिल्ली जैसे बड़े शहर में कौन सी बात है, ऐसा तो आए दिन होता रहता है,दिल्ली के लोग और खुद मीडिया भी इस तरह की घटनाओं की अभ्यस्त हो चुकी है। अब गली-गली में ऐसा होता रहे तो मीडिया थोड़े ही सभी खबरों को चलाएगी। मीडिया तो सेलेक्टेड स्टोरी उठाएगी और उसके जरिए लोगों में इस बात की जागरुकता पैदा करेगी कि आगे से ऐसी कोई घटना न हो। कल के विरोध-प्रदर्शन की अगर मीडिया ने कोई खोज-खबर नहीं ली,45 दिनों से मकान के लिए भटक रही कनकलता और उसके भाई-बहनों की मीडिया ने कोई सुध नहीं ली तो इसमें नया क्या है औऱ 6 मई को दलित एक्ट लग जाने के बाद भी ग्रोवर परिवार को 20 मई को जमानत मिल जाती है तो इसमें आश्चर्य क्या है। किसे नहीं पता कि दिल्ली पुलिस कई मामलों में आरोपियों को सहयोग करती आई है, इसमें आश्चर्य क्या है।
मुझे नहीं लगता कि अगर मीडिया ने कल के प्रदर्शन और इस पूरे मामले को नहीं उठाया तो कोई बशर्मी है और अगर बेशर्मी कह भी रहे हैं तो मीडिया की मजबूरी भी कम नहीं हैं,उनके पास ऐसा करने के ठोस तर्क हैं। इसलिए मीडिया को लेकर हाय-तौबा मचाने की जरुरत नहीं हैं। अपने तरफ से इतनी सफाई तो पर्याप्त है।
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2 Response to 'मीडिया तुम करो बेशर्मी, सफाई हम दिए देते हैं'
  1. Sarvesh
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/06/blog-post_20.html?showComment=1213942320000#c6498421949292096612'> 20 जून 2008 को 11:42 am बजे

    मुझे भी बहुत ताज्जुब हो रहा है इस बात पर. आम तौर पर दलित शब्द मिडिया और पत्रकारों का प्यारा शब्द है. शायद वे इसलिये दुखी होन्गे कि ऐसा hot टौपिक वे क्यों नहीं catch पाये? ये डि यू और जे एन यु वाले इस hot टौपिक को पकड लिये हैं. अब उनके आका उन्हे आदेश दिये होन्गे कि जाओ और ऐसा हि अपना Indigenous समाचार ढुढं कर लाओ. जिसे बेच सके के फ़लाने news, tak, times का मुहिम. वैसे आप ने सहि सफ़ाइ दी है मिडिया के तरफ़ से.

     

  2. डा० अमर कुमार
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/06/blog-post_20.html?showComment=1213989780000#c3185924378656927044'> 21 जून 2008 को 12:53 am बजे

    आप भी कहाँ उलझे बैठे हो ?

     

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