हिन्दी मीडिया में मीडिया से जुड़े लोगों की खबरें नहीं होंती। जो इंसान पूरी दुनिया के लिए खबरें बना रहा हो, पूरी दुनिया की खबर ले रहा हो, पूरी दुनिया को खबर कर रहा हो, उसके लिए अखबारों में या फिर टेलीविजन में कोई स्पेस नहीं है। हिन्दी अखबारों में न तो इसके लिए कोई कॉलम है जहां ही इनसे जुड़ी बातों का जिक्र हो। इनके मनोभावों, स्थितियों और परेशानियों की चर्चा हो औऱ न ही टेलीविजन चैनलों के भीतर ऐसे कोई कार्यक्रम हैं जहां उनके बारे में बताया जाता हो, हम दर्शकों को सूचित किया जाता हो। मीडिया के लिए काम करनेवाले लोग मीडिया के बीच से सिरे से गायब हैं। उनकी खबर खुद मीडिया भी नहीं लेती।
कल मैंने एक इंटरटेनमेंट चैनल से एकमुश्त ३० लोगों को निकाले जाने की खबर अपने ब्लॉग पर लिखा। कई फोन आए, कुछ लोगों नें मेल भी किया। सबका एक ही सवाल कि आपने न्यूज चैनल का नाम ही नहीं लिया। आखिर, हमें भी तो पता चले कि किस चैनल ने ऐसा काम किया है। एक कमेंट में यहा तक कहा गया कि आपमें इतना भी साहस नहीं है कि आप चैनल का और उनके कर्ता-धर्ता का नाम लिख सकें। बिना चैनल का नाम लिए पूरी बात कह जाने पर इस तरह की टिप्पणी का आना स्वाभाविक ही है। यह अलग बात है कि मैंने अपनी बात इतने साफ ढंग से कर दी थी कोई भी अंदाजा लगा लेगा कि किस चैनल और प्रोडक्शन हाउस के बारे मे बात की जा रही है। बाद में अनिल रघुराजजी की टिप्पणी से तो सब साफ हो जाता है। खैर,
मैंने गौर किया कि जितने भी फोन और मेल इस जानकारी के लिए मेरे पास आए, उनमें से ज्यादातर लोग किसी न किसी रुप में मीडिया से जुड़े हैं। कुछ लोग मीडिया में बहुत सक्रिय भी हैं। लेकिन वो अंदाजा नहीं लगा पा रहे थे कि किस चैनल के बारे में बात की जा रही है। एक मेल में यहां तक लिखा था कि- इस तरह की बातें मीडिया के भीतर इतनी हो रही है कि अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा है, आप स्पष्ट करें। मीडिया के भीतर एक बड़ी सच्चाई है कि सूचना के स्तर पर एक trainee तक को यह पता होता है कि कौन किस पैकेज पर कहां जा रहा है औऱ किस चैनल के लिए जा रहा है और वहां जाने पर वो किस रुप में काम करेगा। यह बात मैं अपने अनुभव से कह रहा हूं। लेकिन इसी मीडिया के भीतर यह जानकारी नहीं है कि किस तीस चैनल के लोगों की छंटनी की गयी। यह मीडियाकर्मियों के अधिकार का मामला है जिसकी जानकारी लोगों को नहीं मिल पायी। इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि सूचना समाज के नाम पर और खबरों की बाढ़ के बीच कौन सी खबरें तैर रही हैं और कौन सी खबरें परे धकेल दी जातीं हैं।
तेजी से एक प्रोमोशन और मजबूत पैकेज के लिए एक चैनल से दूसरे चैनल में जाने की घटना मीडिया के लोगों के लिए वाकई में कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन इसके साथ ही ३० लोगों की छंटनी भी कोई बड़ी बात नहीं है। उसे भी आसानी से पचाया जा सकता है। हिन्दी मीडिया के भीतर इस तरह की खबरों को लेकर जो अभ्यस्त मानसिकता तेजी से पनप रही है वो मीडिया के लिए कितना खतरनाक है इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि तमाम तरह के शोषणों के वाबजूद मीडिया के बीच से प्रतिरोध का कोई स्वर सुनाई नहीं देता। अधिकारों के लिए यूनियन औऱ संगठन की बात तो बहुत आगे की चीज है। किसी मीडिया हाउस पर हमला या आरोप लगा हो तो यह काम भी आ जाए लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर किसी मीडियाकर्मी के साथ कोई गड़बड़ी होती है तो यह काम आएगी इसे विश्वसनीय ढ़ंग से नहीं कहा जा सकता।
जून के मीडिया मंत्र अंक में पुष्कर पुष्प ने जब यह छापा कि एक पत्रकार ने आजीज आकर अपने बॉस के उपर थूक दिया तो लगा कि चलो कुछ तो पत्रकारों की हिम्मत बंधी होगी। लेकिन इसे आप प्रतिरोध का स्वर नहीं कह सकते। यह असहाय हो जाने की स्थिति को संकेतित करता है। मैं अपनी तरफ से इस बात की कोई घोषणा नहीं करता कि प्रतिरोध के स्तर पर हिन्दी मीडिया के पत्रकार असहाय हो गए है। ऐसा कहने का न तो मेरे पास कोई अधिकार है और न ही यह घोषित करने का दावा। लेकिन इतना तो जरुर कहा जा सकता है कि दुनिया भर के लोगों को नागरिक अधिकारों का पाठ पढानेवाले मीडियाकर्मी अपने लिए इतने चुप क्यों रह जाते हैं। इसके पीछे जो मजबूरी इनकी है वही मजबूरी बाकी नागरिकों के साथ भी है तो फिर जागरुक समाज होने का दावा कहां बचा रह जाता है।
क्या यह स्थिति कुछ ऐसी है कि एक मल्टीनेशनल के एक दिन में दर्जनों जूते बनानेवाला मजदूर चप्पल के अभाव में फटी बिबाइयां लिए घूम रहा है। एक किसान जो लहलहाती फसलों के बीच मंत्रालय के लिए अपनी फोटो खिंचवाता है और दो जून की रोटी के लिए पछाड़ खाकर गिरता-पड़ता रहता है। क्या अधिकारों के स्तर हिन्दी मीडिया के पत्रकारों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। जो सिर्फ सिर झुकाए स्क्रिप्ट तैयार करते हैं, पैकेज काटते हैं और अन्याय होते देख सामान्य से ज्यादा उंची आवाज में हमें सचेत करते हैं। क्या इन शब्दों में, इन पैकेजों में उनका कोई स्वर नहीं होता।
अगर ऐसा है तो फिर इनके अधिकारों का क्या होगा। महीनों पांच हजार, छः हजार की नौकरी करनेवाले मीडियाकर्मी कब तक देश की क्रांति के लिए पृष्ठभूमि चैयार करते रहेंगे। कब तक डबल शिफ्ट करते हुए शोषण और उत्पीड़न के विरोध में पैकेज तैयार करते रहेंगे। दुनिया के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए सरकार है, स्वयंसेवी संगठन हैं, प्रेस हैं और न्यायालय है लेकिन इनके लिए। जाहिर है व्यावहारिक स्तर पर,,,,,,,
चैनल का नाम अब भी नहीं दे रहा क्योंकि मेरी पोस्ट और अनिल रघुराज की टिप्पणी से सब स्पष्ट है
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http://taanabaana.blogspot.com/2008/06/blog-post_25.html?showComment=1214417160000#c8611412841935596722'> 25 जून 2008 को 11:36 pm बजे
मिडिया से ज्यादा उम्मिद मत रखिये. मिडिया मे राजनिति ज्यादा है. लेकिन आपकी कटाक्ष मे दम है. ब्लौग मे एक से एक धुरंधर पत्रकार लोग लिखते हैं. जो मिडिया के नाम पर समाज के हर बुराई को बाहर लाने का डिंग हांकते हैं. वे मिडिया मे ऐसे ऐसे समाचार लाते हैं जैसे मालुम होता है कि आम आदमी कि तरह वो भी बेचैन हों कि उनका अखबार मे नाम कैसे हो. सब हेंकडी गुम हो जाती है जब खुद पर आती है. आप और हम तो लिखेंगे ही. अपना घर कि रोशनी royal lantern से थोडे ना आती है.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/06/blog-post_25.html?showComment=1214540640000#c1077643778270339254'> 27 जून 2008 को 9:54 am बजे
hmmm aajkal vayapar hai sab kuch ek log lekin fir bhi sachhayi ke saath ahi
aapka lekh achha laga