गणेश अब पुरानी जिंदगी में लौटकर नहीं जाना चाहता। आमिर को गाते-गाते इसलिए आंसू आ गए कि उसके पापा ऑटो चलाते हैं। तुलसी यानि स्मृति इरानी की आंखे इसलिए छलछला गयीं कि वो समझ ही नहीं पा रही है कि यहां से निकलने के बाद स्लम से आए इन बच्चों का क्या होगा?
रियलिटी शो की एक तस्वीर ये भी है। अभी तक लोग टीवी को जितना देखते आए हैं, उससे कई गुना ज्यादा उसकी आलोचना करते आए हैं, उसे कोसते आए हैं। चेलीविजन स जुड़े लोग भी इस बात को समझते हैं क्योंकि उनका बचपन भी यही सब सुनते गुजरा है कि- टीवी मत देखो, पढ़ाई करों, टीवी से आंखे खराब हो जाती है, टीवी देखने से बच्चे बर्बाद हो जाते हैं। टीवी औऱ उसके कार्यक्रमों की आलोचना सांस्कृतिक विकृति से लेकर उपभोक्तावाद, बाजारवाद और पूंजीवद की जादुई लीला, न जाने कितने तरीके से की जाती रही है। इस मामले में टेलीविजन इतना सहज माध्यम है कि कोई जैसे चाहे इसकी आलोचना करे. किसी भी छोर से इसकी शुरुआत कर सकता है और अंत में ये साबित कर सकता है कि टीवी वाहियात चीज है। हर आदमी के पास इसकी बुराई में कहने के लिए कुछ न कुछ तथ्य मौजूद हैं. भले ही वो दे-चार लोगों को देखते ही देखते करोडपति और सिलेब्रेटी क्यों न बना दें।
इललिए आप देखेंगे कि टीवी कार्यक्रमों को आकर्षक बनाने के साथ-साथ अपनी छवि लगातार सुधारने में जुटा है।
ये है जलवा का गणेश, राखी सावंत की चिल्लड पार्टी, लिटिल चैम्पस का आमिर और वूगी-वूगी की मदर्स स्पेशल की मां जिसका पति सूनामी में मारा गया इसकी योजना की कड़ी हैं। ये है जलवा ने तो बार-बार इस बात की घोषणा भी की है कि ये आम आदमी का शो है। यानि देश का वो आम आदमी जिसे कि आज से दो-चार साल पहले स्टूडियो का चौकीदार आस-पास फटकने तक भी नहीं देता और आज वो सिलेब्रेटी है। गणेश जब अपने स्लम जाता है तो लोग उसका ऑटोग्राफ लेने के लिए घेर लेते हैं। आमिर पूरे इलाके का उदाहरण बना हुआ है। देश की उन मांओं को बल मिलता है कि 35 साल की कल्पना पति की मौत हो जाने के बाद भी इसलिए यहां डांस कर रही है क्योंकि एयर फोर्स में काम करनेवाला उसका पति उसे अक्सर कहा करता था कि- देखो मैं सुबह जा रहा हूं और अगर दोपहर और उसके बाद कभी नहीं लौटा तो तुम रोना मत, जिंदगी हमेशा मुस्कराने का नाम है।
रियलिटी में शो में इस तरह के कंटेस्टेंट की संख्या बढ़ रही है। इससे कार्यक्रमों की अपनी ब्रांड इमेज तो बनती ही हैं साथ ही लोगों का भरोसा भी बनता है कि यहां स्टेटस को लेकर भेदभाव नहीं है। सा,रे, ग,म की पूनम अभी तक आपको याद होगी। लखनउ की पूनम जो कि रेडियो और अपनी मां से सुन-सुनकर सारेगम के फाइनल रांउड तक पहुंचती है। उसके पापा नहीं है और न ही कोई दूसरा सहारा। मां-बेटी बड़ी मुश्किल से ट्युशन पढ़कर अपना गुजरा कर रही थी।
इस तरह से जिस तपके के कंटेस्टेंट को शो में शामिल किया जाता है, उनके साथ-साथ उस हालात में जी रहे करोड़ों लोग उसके साथ अपने-आप जुड़ जाते हैं। उनके सपने जुड़ते चले जाते हैं कि जब गणेश, पूनम, कल्पना और आमिर तो फिर हम क्यों नहीं। यानि बदहाली में जी रहे लोग जिनके भीतर हुनर है, निराशा और फ्रस्ट्रेशन में जीते हैं, ये रियलिटी शो उनके बीच एक सपना पैदा करता है, एक संभावना को जन्म देता है कि तुम भी सिलेक्रेटी की पांत में आ सकते हो। ये अलग बात है कि एक बड़ी सच्चाई है कि सबके सब ऐसा नहीं हो सकते। दस करोड़ के सपनों के बीच कोई एक सफल होगा।
लेकिन रियलिटी शो के लिए एक संख्या भी पर्याप्त है क्योंकि उदाहरण के लिए बस एक व्यक्ति चाहिए। ऐसे अगर आप सोचने लगेंगे तो आपको बात समझ में आ जाएगी कि राम तो एक ही हुए,हुए भी इस पर भी शक है तो भी। सब जानते हैं कि कोई दूसरा राम हो ही सकता, तो भी अपने को लगातार बेहतर करने की कोशिश और उनकी जीवनी पढने की कोशिश तो सभी करते हैं। इस हिसाब से सोचने पर आप देखेंगे कि रियलिटी शो उन तमाम पैटर्न को फॉलो करती है जिसके भीतर हम और आप जीते हैं, लेकिन गौर नहीं करते। जिंदगी जीते हुए और रियलिटी शो देखते हुए फर्क सिर्फ इतना ही होता है कि असल जिंदगी में हम अपनी स्थितियों के हिसाब से सोचते हैं जबकि रियलिटी शो देखते हुए दूसरों या फिर सफल हुए लोगों के हिसाब से सोचते हैं। यही तो है टीवी का मायाजाल। झूठ भी नहीं लेकिन सही भी तो नहीं।...।
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