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ST,SC एक्ट के तहत जातिसूचक शब्दों का प्रयोग असंवैधानिक है। ऐसा करने से जाति विशेष का अपमान होता है। थोड़ी-बहुत ही मशक्कत करने के बाद आपको ऐसे सैंकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें कि दबंग जातियों ने जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करके अपमानित करने का काम किया गया और इसके विरोध में बड़ी मुश्किल से  मामले दर्ज किए गए। लेकिन पंजाब के लुधियाना के गांवों में इसी जातिसूचक शब्दों के प्रयोग से अपनी पहचान दर्ज कराने की कोशिशें तेज हुई हैं। इस जाति से जुड़े लोगों का मानना है कि उन्हें दलित भी नहीं कहा जाए,इससे उनकी पहचान छिपती है,वो चमार हैं और उन्हें इस बात पर गर्व है। पंजाबी गायक राज ददराल का यहां तक कहना है कि हम चाहते हैं कि हमारी जाति का नाम ज्यादा से ज्यादा लोगों की जुबान पर चढ़ जाए।

दिलचस्प है कि अपनी जाति छुपाकर जीने की विवशता या फिर सार्वजनिक होने पर सहमे भाव से जीने की आदत को इसी आजाद भारतीय समाज में जीवन जीने का एक तरीका मान लिया गया, अपनी जाति खुलेआम बताने और उस पर गर्व करने का का जो साहस सामाजिक आंदोलनों, सांवैधानिक प्रावधानों या स्कूल कॉलेज की सालों-साल के क्लासरुम लेक्चर न पैदा कर सकें,वो काम पंजाब में कुछ गानों की सीडी,टीशर्ट और नयी बनी इमारतें कर रही हैं। जिस जातिसूचक शब्दों के प्रयोग किए जाने से इस जाति से जुड़े लोगों के बीच कुंठा, आत्मग्लानि और विवशता का बोध होता आया है,आज उन्हीं शब्दों के इस्तेमाल से उनके भीतर ताकत,गर्व और हिम्मत का बोध होता है। वो चमारा दे की बीट पर थिरक रहे हैं,सरेआम आठ लाख की गाड़ी में बजा रहे हैं। वो इस "चमार" शब्द में अपनी पहचान की सबसे बड़ी वजह स्थापित करने में लगे हैं। हमें इन सारी बातों की जानकारी एनडीटीवी इंडिया पर प्रसारित रवीश की रिपोर्ट हौसले,उम्मीद और कामयाबी की उड़ान से मिलती है।
 रवीश ने अपनी रिपोर्ट में जिन माध्यमों के जरिए दलितों की नयी पहचान बनने की बात की है,उन माध्यमों के विश्लेषण से दलित विमर्श के भीतर एक नए किस्म की बहस और विश्लेषण की पूरी-पूरी गुंजाइश बनती है। जिन माध्यमों को कूड़ा और अपसंस्कृति फैलानेवाला करार दिया जाता रहा है,वही किसी जाति के स्वाभिमान की तलाश में कितने मददगार साबित हो सकते हैं,इस पर गंभीरता से काम किया जाना अभी बाकी है। इलीटिसिज्म के प्रभाव में मशीन औऱ मनोरंजन के बीच पैदा होनेवाली संस्कृति पर पॉपुलर संस्कृति का लेबल चस्पाकर उसे भ्रष्ट करार देने की जो कोशिशें विमर्श और अकादमिक दुनिया में चल रही हैं,उसके पीछ कहीं साजिश ये तो नहीं कि अगर इनके भीतर की ताकतों का प्रसार अधिक से अधिक हुआ तो वर्चस्वकारी संस्कृति रुपों की सत्ता कमजोर पड़ जाएगी। रिपोर्ट देखने के बाद हमने महसूस किया किया कि अस्मिता  को लेकर जो भी विमर्श चल रहे हैं उनके भीतर अगर उन चिन्हों की तलाश की जाए जिसके भीतर पहचान की नई कोशिशें छिपी है तो सामाजिक आंदोलनों और सैद्धांतिक आधारों को फ्लो देने में आसानी होगी। ये नए माध्यम उस अस्मिता को उभारने में मददगार साबित होगें।

पॉपुलर संस्कृति पर दर्जनों किताबें लिखी गयी हैं। साठ के दशक में JOHN STREY  से लेकर हाल-हाल तक  JOHN A WEAVER ने इसके भीतर कई तरह की संभावनाओं की तलाश की है। इसी क्रम में MC ROBBIE ने फैशन और ड्रेसिंग सेंस के जरिए कैसे अस्मिता की तलाश की जा सकती है,इस पर गंभीरता से काम किया है। पोशाक भी हमारे भीतर प्रतिरोध की ताकत पैदा कर सकते हैं,इसका विश्लेषण उनके यहां मौजूद हैं। STEVEN JOHNSON ने EVERYTHING BAD IS GOOD FOR YOU में ये विस्तार से तार्किक ढंग से समझाने की कोशिश की है कि How today's popular culture is actually making us smarter. लेकिन अपने यहां संस्कृति के इस रुप से पहचान,अस्मिता और प्रतिरोध के स्वर भी पैदा हो सकते हैं,इस पर बात अभी शुरु नहीं हुई है। अभी भी यहां संस्कृति के विश्लेषण में उद्दात्त का आंतक पसरा हुआ है। अभी भी संस्कृति रुपों में इलिटिसिज्म का साम्राज्य कायम है जिसके तार कहीं न कहीं सामंतवाद से जुड़ते हैं। बाकी जो कुछ भी लिखा-पढ़ा,गाया-बजाया,बनाया और खाया जाता है उसे लोक संस्कृति का हिस्सा मान लिया जाता है। ये भी एक नए किस्म की साजिश है। लेकिन रिपोर्ट देखने के बाद ये साफ हो जाता है कि सीडी,टीशर्ट और नई ईमारतों के जरिए इस दलित समाज के बीच जो संस्कृति पनप रही है उसे आप किसी भी हालत में लोक संस्कृति का हिस्सा नहीं मान सकते। ये वही माध्यम हैं जिसके जरिए दबंग जाति और संस्कृति ने एक बड़ी पूंजी और वर्चस्व पैदा किए और अब दलित उससे पहचान पैदा करने की कोशिश में जुटे हैं। इसलिए अब ये बहुत जरुरी है कि जिस पॉपुलर संस्कृति को लो कल्चर मानकर रिसर्च किए जा रहे हैं,उऩके भीतर से अस्मिता के जो स्वर लगातार फूट रहे हैं,उस पर भी काम हों,उऩ्हें लोक संस्कृति के साथ घालमेल करना सही नहीं होगा।

अच्छा मजेदार बात ये है कि पहचान की जहां भी लड़ाईयां लड़ी जा रही हैं,अस्मिता को लेकर जहां भी संघर्ष जारी हैं,वहां इन पॉपुलर संस्क़ति रुपों को हाथों-हाथ लिया जाता है। पंक कल्चर,मोटरसाइकिल राइड,जॉज ये जितनी भी विधाएं और सांस्कृतिक रुप हैं,उन सबके पीछे अपनी जाति,समुदाय,क्षेत्र और स्वरों को  पहचान देने की कोशिशें हैं। आज जिस बेनटॉन,लिवाइस,स्पाइकर या फिर दूसरे बड़े ब्रांड को फैशन का हिस्सा मान-अपनाकर अपने को एलीट खेमे में रखते हैं उसकी शुरुआत के पीछे कहीं न कहीं इसी पहचान की कहानी छिपी है। आज ये ब्रांड हो गए लेकिन कभी ये आंदोलन के चिन्ह हुआ करते थे। ठीक उसी तरह जैसे लुधियाना में इन दिनों रविदासियों ने टीशर्ट पर स्लोगन और लोगो छपाकर पहनना शुरु कर दिया है। भारी-भरकम गाड़ियों में रविदासी,रैदासी समुदाय के होने के स्टीगर छिपकाने शुरु कर दिए हैं। रिपोर्ट बताती है कि ऐसा किया जाना किसी सामाजिक आंदोलन से कम नहीं है और फिर इसके पनपने के पीछे भी सामाजिक कारण ही रहे हैं।

मई 2009 में वियना के दलित संत रामानंद की हत्या कर दी गयी। इसके लिए इस समुदाय के लोगों ने पंजाब में दस दिनों तक बंद रखा। इस आंदोलन को ध्वस्त करने की कोशिशें की गयी लेकिन मामला नाकाम रहा। उसके एक साल बाद से ही जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते हुए बाजार में बीसों सीडी आ गयी। अकेले राज ददराल की जो सीडी है उसमें दस ऐसे गाने हैं जिनमें कि जातिसूचक शब्दों का प्रयोग है। ये गाने दरअसल अपनी जाति को पहचान दिलाने और दबंग जातियों के प्रतिकार की कहानी कहते हैं। अब तक होता ये आया था कि जिस गाने पर खुद दलित समाज नाचता,थिरकता वो जाटों की मर्दांनगी का गान होता। यानी सामाजिक तौर पर उनका प्रतिरोध करते हुए भी मनोरंजन के स्तर पर उसके साथ चले जाते। अब ऐसा नहीं है। एसएस आजाद की इस पहल पर अब अपने उत्सव हैं तो अपने गाने भी हैं, अपनी धुनें भी हैं और चमार का बच्चा भी किसी से कम नहीं है, इस भाव को विस्तार मिलता है। इन्हीं धुनों के बीच से न केवल मनोरंजन की भाषा बदलती है बल्कि इनकी देह की भाषा भी बदलती है जो अब ये गाता है – गबरु पुत्त चमारा दे और कहता है – चमार के लड़कों से टकराना आसान नहीं।.
गंभीर विमर्श में धंसे-पड़े लोगों को ऐसा भले ही लगता रहे कि कहीं कोई सामाजिक आंदोलन नहीं हो रहा, बदलाव की कहीं कोई कोशिशें नहीं हो रही है लेकिन मनोरंजन, फैशन और जीवन-शैली को भी अगर बदलाव के चिन्ह मानकर चलें तो उन्हें न केवल हैरानी होगी, बल्कि बहुत कुछ लिखा-पढ़ा कूड़ा हो जाएगा और नये सिरे से मेहनत करनी पड़ जाएगी। एनडीटीवी की ये रिपोर्ट उन्हीं चिन्हों को तलाशती नजर आती है।

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किसी शख्सीयत के बारे में लिखते या बात करते हुए ये लाइन हमनें थोक के भाव में पढ़ी है कि वो शख्स हमसे खास आदमी का चोला उतारकर मिला। एकबारगी तो मन करता है कि अनुराग के बारे में यही लाइन जड़ दूं लेकिन नहीं, यहां चोले-वोले उतारने और पहनने का चक्कर नहीं था। हम उनसे और वो हमसे बहुत ही रॉ फार्म में मिले। ये कहना ज्यादा सही रहेगा कि वो हमसे कैंपस के पासआउट एक सीनियर की तरह मिले। होटल के अंदर पहुंचते ही दो बोतल लिये बैठे थे और सीधे कहा – तुमलोग जल्दी बताओ, क्या लोगे। ये या फिर वो, फिर जिस पर आम सहमति बनी उसे रखा और फिर कुर्सियों में धंस गये। खास के आम आदमी होकर मिलने में भी एक खास किस्म का बड़प्पन दिखाने का मोह नहीं छूटता है, लेकिन सीनियर होकर मिलने में ये भाव हमेशा बना रहता है – अपने इन जूनियर दोस्तों के साथ हवाबाजी करने से क्या फायदा, इन्हें सब कुछ तो पता ही है कि मैं कैसे यहां तक पहुंचा, कैंपस के दिनों में मेरी क्या स्थिति थी और करियर को बनाने-संवारने में हमने कौन-कौन से पापड़ बेले हैं?
उनके आगे हम सिर्फ उनके फैन नहीं थे। पहली बार मिलने पर भी न तो हम उनसे ऑटोग्राफ लेने के लिए मरे जा रहे थे और न कंधे पर हाथ रखकर फोटो खिंचाने के लिए बेचैन हुए जा रहे थे। एक तस्वीर मैंने और मिहिर ने रेस्तरां के सारे काम निबटाकर पार्किंग के आगे जरूर खिंचवा ली कि बस याद रहे कि हमने उनके साथ कुछ वक्‍त बिताये। लेकिन ये तस्वीर भी ठीक उसी हॉस्टल नाइट के अंदाज में, जब सीनियर की शह पर हम जैसे जूनियरों का कोक या लिम्का में ही नशे का पारा स्कॉच के नशे से ऊपर जाकर टिक जाता है। मुझे ये एहसास शायद इसलिए भी हुआ कि न तो हमें उनसे मिलने के बाद जल्दी से जल्दी पैकेज बनाने की हड़बड़ी थी, रेस्तरां के भीतर वो स्पॉट नहीं खोजने थे, जहां से हम सीधे पीटूसी कर सकें, हमें किसी चैनल स्क्रीन पर एक्सक्लूसिव की पट्टियां नहीं चलवानी थी कि उड़ान की स्क्रीनिंग के बाद अनुराग कश्यप ने सबसे पहले हमसे बात की, न उसे बाहर निकलते ही किसी इंटरव्यू की शक्ल में तब्दील कर देने की नीयत थी। इस मामले में हम उन सिद्धहस्‍त मीडिया पत्रकारों से कई गुना खुशनसीब हैं, जिनकी बातों का सिरा या तो पेशे से जुड़ता है या फिर मौके-मौके भर की दोस्ती से। निपट मिलने के लिए मिलने का सुख शायद ही उन्हें मिल पाता हो।
अब तक हमने डीयू के दर्जनों सीनियर के आईएएस, आइपीएस, टीचर, फेलो बनने या फिर किताब छपने के नाम पर उनके साथ लंच या डिनर किया है। लेकिन ये पहला मौका था कि हम एक फिल्ममेकर सीनियर से मिल रहे थे। अनुराग कश्यप के साथ वो चार घंटे और होटल सांगरी-ला का डिनर मुझे इसी रूप में याद रहेगा। मुझे इस रूप में अनुराग से मिलना सिर्फ इसलिए याद नहीं रहेगा कि उन्‍होंने हमारी तरह ही डीयू में रहकर पढ़ाई की, उन्हीं कॉलेज के हॉस्टल में रहे, विश्वविद्यालय के वो नजदीक इलाके जो बार-बार अपने को कैंपस का ही होने का दावा करते हैं, उसी के बीच सैंकेड़ों लोगों को देश की मशीनरी का पुर्जा बनते देखा और अपने भीतर की क्रिएटिविटी को लेकर कभी खुश हुए तो कभी-कभी आशंकित। ये तो डीयू का बहुत पुराना किस्सा है कि सब अपने-अपने कॉलेजों और हॉस्टलों के बारे में पौराणिक कथा की तरह याद करते हैं कि यहां से शाहरुख पढ़-रहकर गया, अमिताभ भी कभी किरोड़मल में थे, मनोज वाजपेयी तो अपने यहां ही रहकर गये… ब्ला, ब्ला। अब तो कई कॉलेज के सॉविनियर भी इन किस्सों को स्पेस देते हैं।
दूसरी तरफ वो शख्स जो जानता है कि सामनेवाले से मिलने के बाद इसकी खबर न तो किसी अखबार में आएगी, न ही ये पब्लिसिटी के काम आएगी और न ही ये पीआर के तौर पर काम आएगा। फिर भी चार घंटे साथ बिताने के बाद उसकी खुशी चेहरे पर साफ तौर पर झलकती है। हमें भले ही एकबारगी संकोच जरूर होता है कि इतनी देर तक इनके साथ बिता लिया, पता नहीं क्या सोच रहे होंगे? लेकिन समरेंद्र के ये कहने पर कि सिगरेट तो यहां नहीं पी सकते हैं, उनका जवाब था, तो चलो न कमरे में, आराम से पीते हैं। अगर सुबह की फ्लाइट न होती तो शायद मामला आगे लंबी रात तक जाता। बातचीत के दौरान उनके फोन आते हैं, कुछ सामान्य और एक-दो खास। हममें से बैठे लोग राय देते हैं, हम यहीं पर हैं, आप उधर जाकर बात कर लीजिए न। ये औपचारिकता नहीं बल्कि मिलने की वो सादगी और सहजता थी, जो कि किसी भी शख्सीयत की जिंदगी में पब्लिसिटी स्टंट तो हो सकता है लेकिन स्वाभाविक हिस्सा – ये इतना भी आसान नहीं है। इस तरह से एक सीनियर से मिलने का एहसास अनुराग कश्यप ने हमें खुद कराया। पूरी बातचीत का जो अंदाज था, जिस तरह की भाषा का प्रयोग वो हमारे साथ कर रहे थे, वो भाषा हमारे कैंपस की भाषा से (क्लॉकियल हिंदी/अंग्रेजी) जुदा नहीं थी। वो भी जैसे हम यूनिवर्सिटी की राजनीति और उसके भीतर पाये जाने वाले लोगों की चिरकुटई पर चुटकी लेते हैं, वैसे ही वो फिल्म इंडस्ट्री के गुणा-गणित पर अपनी बेबाक राय दे रहे थे, खालिस उसी भाषा में जिस भाषा में बात सबसे ज्यादा बेहतर तरीके से कम्युनिकेट हुआ करती है, आप तो समझ ही रहे होंगे।
बीच-बीच में हममें से कइयों की बात एक-दूसरे के ऊपर चढ़ा-चढ़ी कर देती तो फिर वो ठहरकर पूछते – अच्छा, तुम क्या कह रहे थे? फिर हम बताते कि अंडा वेज है और देर रात जब अजय ब्रह्मात्मज सर के दोस्त को लगा कि मैं क्या खाऊंगा, तो मैंने उनकी फ्रीज में पड़े अंडे देखकर अपनी नीयत जाहिर कर दी थी। फिर इसी से बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ जाता है। मिहिर और गौरव को लगातार फिल्मों पर बात करना अच्छा लगता है तो फिर अनुराग भी रौ में आ जाते हैं। उड़ान की बात, संस्मरण की शक्ल में पाश को लेकर नामवर सिंह से लगातार होनेवाली बातचीत, सिनेमा की कुछ मशहूर शख्सियतों के साथ की बिडंबना, इंडस्ट्री का बिजनेस कल्चर… इन सब मुद्दों पर बारी-बारी से बातचीत। जिसको अनुराग की बातों में हां में हां नहीं मिलानी नहीं है, तो अपनी बात के लिए आजाद। अपनी हर फिल्म को लेकर बाबूजी की प्रतिक्रिया और गुलाल को अब तक की सबसे बेहतर फिल्म करार देना, माताजी के नजरिये से फिल्मों के भीतर की कुलबुलाहट… सब कुछ, सब कुछ। हम बस टेबल पर केहुनी टिकाकर सुनने लग जाते हैं। वो हमारे लिए मानिक मुल्ला बन जाते हैं। किसी की पैग कमजोर न पड़ जाए, हम जैसे वेज खानेवालों की चम्मच प्लेट से न टकराने लग जाए, इसका वो इसी कहानी के बीच खास ख्याल रखते।
इस बीच चार घंटे कैसे बीते, पता तक नहीं चला। पार्किंग तक में आधे घंटे से ऊपर हो गया, कई बार एक-दूसरे ने आपस में कहा कि सुबह निकलना भी तो है… लेकिन फिर कुछ छिड़ जाता… फिर, फिर… अच्छा तो अब फाइनली विदा लेते हैं, फिर मिलते हैं, कुछ बड़ा करते हैं, जल्द ही मिलते हैं, संपर्क में रहेंगे। आपके पास मोहल्लालाइव का लिंक तो है न, बहस यहां भी होगी देखिएगा। अरे हां, सच में बहुत दिनों के बाद मजा आएगा, ये शाम याद रहेगी। कुछ-कुछ वैसे ही इमोशनल हुए जैसे माल रोड, निजामुद्दीन, नयी दिल्ली पर सीनियर को सीऑफ करते हुए। सीनियर से मिलना ऐसे ही तो होता है। बस एक कमी रह गयी जो कि अच्छा ही हुआ – अनुराग ने बाकी सीनियरों की तरह नहीं कहा – जल्दी से पीएचडी पूरी कर लो, तब फिर ये ब्लॉगिंग-श्लॉगिंग करना।
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दिल्ली मेट्रो सिर्फ हिन्दुओं की बपौती है, मेरी इस पोस्ट पर दर्जनों ब्लॉगर और पाठकों ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की है। कुछ लोग तो पिल पड़ने के अंदाज में भला-बुरा कहा है। मेरे ये लिखने पर कि मैं इस बात का इंतजार ही करता रहा कि कोई चैनल दिल्ली मेट्रो की अपने ही बनाए नियमों की  धज्जियां उड़ाने पर कुछ कहता,एक ने पूरी की पूरी पोस्ट ही लिख डाली है। हम सबकी जज्बातों का सम्मान करते हैं। लेकिन दिल्ली मेट्रो के इस रवैये से असहमति पहले की तरह बरकरार है बल्कि पिल पड़नेवाले अंदाज में लिखनेवाले लोगों को पढ़कर हमारी इस समझ को और मजबूती मिली है।

मेरी पूरी पोस्ट में नारियल फोड़ने और तिलक लगानेवाली बात को लेकर तो सबों ने रिस्पांड किया। उसे संस्कृति का हिस्सा बताया,उसे हिन्दु मान्यता के साथ नत्थी करने के बजाय देश की संस्कृति मानने की दलील दी,कुछ ने हमें समाज में दरार पैदा करनेवाला बताते हुए साझा संस्कृति की मिसाल दी। ये सारी बातें पढ़ने,सुनने और समाज के लोगों के बीच रखने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन पावर डिस्कोर्स में ये सारी बातें एक गहरी साजिश का नतीजा है। फिलहाल हम उस बहस में बिल्कुल भी जाना नहीं चाहते। दरगाह में जाने या फिर मुसलमान होने पर भी अंडा नहीं छूने जैसी बातों का कितना तार्किक आधार है,ये एक अंतहीन बहस साबित होगी। यहां हम उस दूसरी बात को फिर से रखना चाह रहे हैं जिस पर कि किसी ने रिस्पांड नहीं किया। संभव हो इस बात की काट के लिए कोई मजबूत तर्क न जुटा पाए हों या फिर उसमें उलझने पर खुद ही फंसने का डर बन आया है।

ये सवाल फिर से यहां उठाना जरुरी है जो किसी रिचुअल्स या परंपरा का हिस्सा नहीं बल्कि उस नियम का हिस्सा है जिसे कि खुद दिल्ली मेट्रो ने बनाया है। ये नियम सब्जेक्टिविटी के सवाल से नहीं जुड़ते हैं बल्कि मामला बिल्कुल सीधा-सीधा है कि इसका हर हाल में पालन किया जाना चाहिए। दिल्ली मेट्रो के भीतर किसी भी तरह की चीज का खाना-पीना मना है। मैंने एक संवेदनशील नजारे को याद करते हुए बताने की कोशिश की-एक चार साल का बच्चा भी मेट्रो के अंदर जब खाने के लिए मचलता है तो उसकी मां उसे ऐसा करने से रोक देती है। वो हाथ में ट्रॉपिकाना का डिब्बा पकड़े-पकड़े राजीव चौक से विधान सभा तक आ जाता है। मुझे याद है 15 दिन पहले दो लड़कियां ऑफिस से छूटने पर रुमाल से ढंककर सैंडविच खा रही थी तो आसपास के लोगों ने कितने कंमेंट किए थे,फब्तियां कसी थी। लेकिन परसों की फुटेज देखकर मुझे हैरानी हुई कि मेट्रो के अधिकारी झकझक मेट्रो की ड्रेस पहने,तिलक लगाए बेशर्मी से टांग फैलाकर मेट्रो में खा रहे हैं। ये कुतुबमीनार से गुड़गांव के लिए शुरु हुई मेट्रो का पहला दिन और पहली ट्रिप थी।

अब एक तरफ तो आप हवन और तिलक इसलिए करते हो कि सबकुछ अच्छा-अच्छा हो,शुभ हो,मेट्रो का और अधिक विस्तार हो और दूसरी तरफ अपने ही बनाए नियमों की सरेआम धज्जियां उड़ाते हो। मुझे अब भी हैरानी हो रही है कि जिस मेट्रो के भीतर सिर्फ ट्रेन के अधिकारी और पत्रकारों को घुसने की इजाजत थी,एक भी पत्रकार,चैनल या अखबार ने इस नजारे पर गौर क्यों नहीं किया? ऐसा लिखकर मैं कोई तीर मारने का काम नहीं कर रहा। लेकिन उनका कवर नहीं किया जाना,उस पर बात नहीं करना,ये जरुर साबित करता है कि ये रोजमर्रा का हिस्सा है। हर मेट्रो की शुरुआत के पहले हवन होना है,प्रसाद बंटना है और उसे लेकर अधिकारियों का अंदर बैठना औऱ खाना है। इस तरह नियमों की धज्जियां उडाना भी जब एक अभ्यस्त आदत बन जाती है तो हमें इस बात का एहसास तक नहीं होता कि इसमें कुछ गलत है,कुछ गड़बड़ियां है। मेट्रो अधिकारियों का ये रवैया जिसे कि आप जबरदस्ती रिचुअल्स का हिस्सा बना दे रहे हैं,वो दरअसल अपने ही  नियमों को ध्वस्त करने का मामला है,इस पर बात होनी चाहिए।

मैंने देश-विदेश की कई न्यूज एजेंसियों को खंगाला,लगभग सबों ने तिलक लगाकर,नारियल फोड़कर मेट्रो ट्रेन की शुरुआत को ओपनिंग शॉट के तौर पर इस्तेमाल किया है। देश के बाहर इस शॉट्स की क्या डीकोडिंग होती है,इसे समझने की जरुरत है। अधिकारियों के खाते हुए चैनल की फुटेज रॉ से फाइनल नहीं हो पायी है इसलिए माफी मांगते हुए इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता।.
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कुतुबमीनार से गुड़गांव तक मेट्रो के शुरु होने पर जो फुटेज हमें टीवी चैनलों पर दिखे,उसमें बैठे सबों के माथे पर तिलक लगे थे। ये तिलक कोई आम आदमी लगाकर नहीं बैठा था। खबरों के मुताबिक कल तो इस मेट्रो में किसी आम आदमी के बैठने की इजाजत भी नहीं थी। इसमें सिर्फ मेट्रो के अधिकारी,पत्रकार और समाज के प्रभावी लोग ही थे। तिलक भी वो घर से लगाकर नहीं आए थे। ये काम मेट्रो स्टेशन पर ही हुआ। फेसबुक पर मैंने लिखा-                                                                                                                                                                                    कुतुबमीनार से गुड़गांव तक शुरु हुई मेट्रो में बैठे सबों के माथे पर तिलक लगे थे। ट्रेन चलने के पहले हवन हुआ और फिर नारियल फोड़े गए। क्या सार्वजनिक कही जानेवाली मेट्रो या फिर ऐसे दूसरे कामों की शुरुआत टिपिकल हिन्दू रीति से होना जायज है,तब भी हम धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते रहें।


फुटेज में एक दूसरी बात भी दिखने को मिली। जब भी आप दिल्ली मेट्रो पर सवार होते हैं,निर्देशों की झड़ी लगा दी जाती है। इन निर्देशों में एक ये भी होता है कि मेट्रो के अंदर कुछ भी खाना-पीना मना है। कल फुटेज में हमने देखा कि लगभग सारे तिलक लगाए सीट पर बैठे लोग खा रहे हैं। जाहिर ये हवन का प्रसाद ही होगा। अब सवाल ये है कि क्या आम आदमी भी ट्रेन के भीतर प्रसाद के नाम पर कुछ बी खा-पी सकता है। अगर मेट्रो के पास इस बात की दलील है कि पूजा के दिन तो ऐसा होना स्वाभाविक है तो फिर अगर पहले ही दिन मेट्रो के अधिकारी इस नियम को तोड़ते हैं,अपने ही बनाए नियमों की धज्जियां उड़ाते हैं तो फिर आप किस अधिकार से इस बात की उम्मीद करते हैं कि लोग निर्देशों का हूबहू पालन करेंगे। हालांकि मेट्रो के भीतर बैठनेवाले लोगों में 12 रुपये 14 रुपये देकर इतनी तमीज जरुर आ जाती है कि वो अपने मन को रोके रखती है,खाते-पीते नहीं हैं। मैंने दर्जनों बार देखा है कि खाने के लिए मचलते बच्चे की मां ने उसे समझाने की कोशिश की है कि नहीं,ट्रेन में नहीं खाते,बाहर निकलने पर खाना। बच्चा ट्रॉपीकाना की पैकेट थामे राजीव चौक से विधान सभा तक बर्दाश्त कर लेता है।
फेसबुक पर लिखे स्टेटस को लेकर कई कमेंट आए जिसमें दो कमेंट को विशेष तौर पर शामिल करना जरुरी है। एक तो प्रशांत के पान का और दूसरा राकेश कुमार सिंह का कमेंट। प्रशांत ने एक नहीं दो-दो कमेंट किए। पहले व्यंग्य के अंदाज में और फिर मेरे प्रति थोड़े और बेरहम हुए। प्रशांत के पान ने पहले लिखा-

इसपे किसी का ध्यान ही  नहीं गया था...आपने सही कहा...इसकी शुरुआत हमे नमाज के साथ करनी चाहिए...क्योंकि नमाज पढ़ना धर्मनिरपेक्षता की निशानी है।
आगे प्रशांत और तल्ख हो गए-
खराब न तो हिन्दू में है और न मुसलमान में है...हर रीति-रिवाजों का मकसद एक ही होता है...खराबी तुम जैसे कमीने और संकीर्ण विचारोंवाले लोगों में होती है..जो सिर्फ लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए उलजूलूल बयान देते हैं।
राकेश कुमार सिंह ने कमेंट किया-
                                                                                                                                                                                                                                                                     न छेड़ें ऐसी बातें,अंदर तक आग लग जाता है.बड़े-बड़े प्रक्षेपास्त्रों की लांचिंग के वक्त भी नारियल ही फोड़ते हैं। देख नहीं रहे हो इनके आगे पीपल के पेड़ कैसे पनाह मांग रहे हैं। सबके नीचे रिजेक्टेड गणेश और हनुमान रखकर प्राचीन मंदिरों का निर्माण किस तरह हो रहा है। आड़ में हर तरह का दो नंबरी काम चल रहा है। फिर जब इच्छाधारी औऱ नित्यानंद निकलने लगता है तो इ सब बिलबिलाने लगते हैं। इनकी ऐसी की तैसी।....

 इस पूरे मसले पर सिर्फ दो सवालों पर गौर करें। पहली तो ये कि जब चारों तरफ तिलक लगाकर मेट्रो के अधिकारी हवन में शामिल होते हैं,उस समय अगर कोई मुस्लिम,इसाई या फिर दूसरी मान्यता का  अधिकारी होता है तो वो किस तरह का महसूस करता है? क्या ऐसी स्थिति में वो अपनी मौजूदगी का एहसास कर पाता है? क्या उसे नहीं लगता कि ये सबकुछ सिर्फ हिन्दू कौम के लिए है? उसके नजरिए से चीजों को देखने-समझने पर क्या निकलकर आता है? देखना तो होगा ही न।.

दूसरी बात कि मेट्रो,फैक्ट्री,सड़कें ये न सिर्फ सार्वजनिक होते हैं बल्कि इसका संबंध सीधे-सीधे बाजार से भी होता है। ऐसे में सवाल ये है कि क्या इस बाजार को आगे ले जाने में सिर्फ तिलक लगानेवाले समाज का ही योगदान होता है? बाकी का समाज का कोई योगदान नहीं होता। अगर सरकारी संस्थान हैं औऱ वहां की शुरुआत में नारियल फोड़े जाते हैं तो क्या उसमें इनके रिवन्यू का हिस्सा नहीं जाता? बाजार में मौजूद इस "बाकी के समाज" को सामाजिक तौर पर नजरअंदाज करना या फिर सिर्फ तिलक लगानेवाली कौम की रीतियों को शामिल करना किस हद तक सही है?
मुझे नहीं पता कि कल जिन पत्रकारों को नई-नवेली मेट्रो की सवारी कराई गयी,उन्होंने भी तिलक लगाए या नहीं,मेट्रो की सीट पर बैठकर प्रसाद खाया या नहीं लेकिन मेरी आंखें उस पीटूसी के इंतजार में जरुर फैली रही जो कह पाते- मेट्रो ने खुद उड़ाई अपने नियमों की धज्जियां.

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प्रतीकों के अंबार के बीच अभ्यस्त जीनेवाले समाज में कुछ प्रतीक ऐसे हैं, जिसे हथियाने के लिए लगातार आपाधापी मची रहती है। बाद में इन प्रतीकों के भीतर के अर्थ खत्म होते हैं, सीमित होते हैं, गायब हो जाते हैं या फिर इसके अर्थ के चेहरे बहुत ही खतरनाक और विद्रूप बनकर हमारे सामने उभरते हैं, इसकी चिंता नहीं हो पाती है। शायद यही वजह है कि जिस समय हम अपने क्लासरूम में प्रतिपादित कीजिए कि कबीर के राम तुलसी के राम से अलग हैं, सवाल के जवाब में राम को और अधिक तार्किक, संवेदनशील और मानवीय साबित करने की कोशिश में लगे रहे, ठीक उसी वक्त देश की एक राजनीतिक पार्टी उसी राम के आगे श्री लगाकर उसे अपने लिए उपयोगी बनाने में जुट गयी। शायद यही वजह है कि जिस वक्त स्लमडॉग को ग्लोबल बनाने के लिए जी-जान से जुटे थे, देशभर के संवाददाता धारावी की सीढ़‍ियों से ऊपर-नीचे होते हुए पीटूसी दे रहे थे, संपादकीय पन्नों पर आम आदमी के मरने-खपने की गिनती मिला रहे थे, ऐन उसी वक्त पर देश की एक दूसरी राजनीतिक पार्टी के कारनामे से कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखनेवाला आम आदमी का बच्चा झक-झक स्कूल ड्रेस में सूरज सा चमकने लग गया। साहित्य में जो आम आदमी खा ले मिठुआ गेहूं की रोटी है की बात करता है, तो टेलीविजन स्क्रीन पर का आम आदमी तेंदुलकर के सेंचुरी बनाने पर मिल्क केक बांटता है। सिनेमा का आम आदमी कैसा है, है भी या नहीं… इस पर कैसे बहस करें – ये भी एक टेढ़ा सवाल है। कुल मिलाकर कभी जिस राम के भीतर सबने अपने-अपने मतलब के अर्थ ठूंस दिये, आज वही काम आम आदमी को एक प्रतीक की शक्ल में तब्दील करके किया जा रहा है। संभवतः इसलिए मीडिया का आम आदमी साहित्य के आम आदमी से मेल नहीं खाता और इन सबका आम आदमी समाज के आम आदमी से मेल नहीं खाता। थिएटर का आम आदमी सिनेमा में जाकर एहसास की लड़ाई लड़ता नजर आता है। आम आदमी को लेकर बहस की शुरुआत नये सिरे से शुरु हुई है, बहसतलब 2 के दौरान।
18 जून को मोहल्ला लाइव, जनतंत्र और यात्रा बुक्स की साझा पेशकश के दौरान अभिव्यक्ति माध्यमों में आम आदमी में जिस बहस की शुरुआत हुई, उसके कई संस्करण अब वर्चुअल स्पेस की दुनिया में पसर रहे हैं। इस बहस में जो भी लोग शामिल हुए, वो वक्ताओं से या तो असहमत हैं या उनकी बातों को सिरे से खारिज करते हैं या फिर उन्हें लग रहा है कि इस तरह के आयोजन आम आदमी के सवाल को ईमानदारी से उठाने में बहुत मददगार साबित होंगे, इसे लेकर पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। हम भी जुबान रखते हैं की तर्ज पर सबों के विचार आने शुरु हो गये हैं। किसी को ये लग रहा है कि नामवर सिंह में अब वो बात नहीं रह गयी, वो अब बोलने के नाम पर स्ट्रैटिजकली बाइट देने भर का काम करते हैं। नामवर सिंह से राजेंद्र यादव का सवाल दरअसल एक-दूसरे की धुरा-कुश्ती का हिस्सा है, सवाल कम पुरानी खुन्नस निकालने का काम ज्‍यादा है, अनुराग कश्यप जब परिधि पर रहे तो आम आदमी के सवाल को दूसरे ढंग से देखा, अब कुछ और बोल रहे हैं। अजय ब्रह्मात्मज को इस बात की पूरी समझ है कि सामने कैसी ऑडिएंस बैठी है और क्या बोलने से मामला जम सकता है। त्रिपुरारी शर्मा के भीतर एक खास किस्म की सादगी है, जो इंडिया हैबिटैट के भीतर और बाहर भी लगातार सक्रिय रहता है।
इन तमाम वक्ताओं को लेकर लगातार असहमति और बहस जारी रहे, अच्छा रहेगा। लेकिन उन्होंने दरअसल कहा क्या, उससे हम हूबहू सुनकर लगातार टकरा सकें, अपनी बात के बीच उनकी बात को उसी शक्ल में रख सकें, फिलहाल उस नीयत से उनकी बात ऑडियो की शक्ल में सुनिए...
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पिछले दो-तीन सप्ताह से न्यूज24 की सेहत में लगातार सुधार हो रहा है। टीआरपी की चार्ट में तो वो उपर की ओर सरक ही रहा है,साथ ही टाइम स्पेंट के मामले में उसकी स्थिति पहले से बहुत बेहतर हुई है। इस सप्ताह उसने एनडीटीवी जो कि एक मिथक की तरह गंभीर ऑडिएंस के बीच स्थापित है उसे भी हुर्रा मारकर आगे बढ़ गया। IBN7 और ZEE NEWS को भी न्यूज24 का ये हुर्रा बर्दाश्त करना पड़ रहा है। टीआरपी रिपोर्ट कार्ड की इस खबर को मीडियाखबर ने एक पोजिटिव ख़बर की शक्ल देते हुए हुए एक पोस्ट प्रकाशित की- न्यूज़ 24 में जश्न का माहौल, टीआरपी चार्ट में एनडीटीवी इंडिया को पीछे छोड़ा
 इस रिपोर्ट में अगर ये भी शामिल होता कि किस तरह के कार्यक्रम टॉप-5 या टॉप-10 में रहे तो इसके कुछ और नतीजे निकाले जा सकते हैं। इस पोस्ट पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए हमने साफ लिखा कि हम न्यूज24 के इस जश्न में खलल नहीं डालना चाहते लेकिन हां इतना जरुर है कि उनकी खुशी भले ही बढ़ रही हो लेकिन हम जैसी ऑडिएंस लगातार निराश हो रही है। हम ऐसा करने किसी चैनल की आलोचना भी नहीं कर रहे,बल्कि न्यूज चैनल की उस स्थिति को समझने की कोशिश कर रहे हैं जहां एक फार्मूला सा बन गया है कि अगर जिंदा रहना है तो इंडिया टीवी हो जाओ। हम इस बहस को और आगे बढ़ाएंगे,फिलहाल हम वो कमेंट आपसे साझा करना चाहते हैं जिसे कि मीडियाख़बर ने एक पोस्ट की शक्ल में प्रकाशित किया। 


न्यूज24 के लोगों की बांछे खिल गयीं है लेकिन हम जैसी ऑडिएंस निराश हो गए हैं। हम न्यूज24 के लोगों के दुश्मन नहीं हैं। उन्हें रोता-बिलखता देख,एक बार भी एन्क्रीमेंट न होता देख,एक ही एंकर को घंटों रगड़ता देख मेरा भी मन रोता है लेकिन ये मेरी बहुत ही व्यक्तिगत फीलिंग हैं। एक ऑडिएंस की हैसियत अब स्थिति ये है कि अगर हमें इंडिया टीवी और न्यूज24 में चुनना हो तो हम इंडिया टीवी देखेंगे,आजतक औऱ न्यूज24 में चुनना हो तो आजतक देखेंगे,IBN7 और न्यूज24 में चुनना हो तो IBN7 चुनेंगे। अब हम न्यूज24 को एक अलग चैनल के तौर पर देखने नहीं जा रहे हैं क्योंकि ये दूसरे चैनलों का रंग पोतकर हमें भरमाता है,इसकी अपनी कोई अलग से पहचान नहीं रह गयी है।

जब ये चैनल लांच हुआ था तो पहली सुबह मैं मेट्रो की सीढ़ियों से उतरते हुए इसके किऑस्क देखे थे। चमचमाती जगह में अंदर दर्जनों ट्यूब लाइट के दम पर बोर्ड भी चमक रहा था जिस पर लिखा था-न्यूज इज बैक। हमें तब भी अंदाजा था कि पैसे के दम पर न्यूज बैक नहीं आ सकता लेकिन ये भी है कि बिना पैसे के चैनल भी नहीं चल सकता।

फिर हमनें टीम देखी- आजतक के एक - से - एक धुरंधर,टीआरपी की मशीन कहे जानेवाले सुप्रिय प्रसाद,सबसे ग्लैमरस एंकर श्वेता सिंह,पंडिजी के फोटोकॉपी कार्तिकेय शर्मा सबके सब पहुंचे। लगा कि इन सबके भीतर एस पी सिंह की आत्मा का थोड़ा भी हिस्सा वहां जाकर रह गया तो चैनल को चमका देंगे। चार-पांच महीने खूब प्रयोग हुए। एक से एक कार्यक्रम,एनडीटीवा का मिथक टूटा..फिर धीरे-धीरे लोगों में हताशा होने लगी,फ्रस्ट्रेशन की वजह से जो जहां से आए थे वहां वापस जाने के लिए हाथ-पैर मारने लगे औऱ ले देकर चैनल बैठने लग गया।..लेकिन हम जैसी ऑडिएंस ने चैनल को देखना नहीं छोड़ा।

न्यूज24 के भीतर जो जश्न का महौल है उसे हम बेमजा होने नहीं देना चाहते लेकिन हां बिजनेस तौर पर ये चैनल की जीत है,एथिक्स के तौर पर उसकी जबरदस्त हार। अंत में एक बार फिर यही साबित हुआ- अगर जिंदा रहना है तो इंडिया टीवी हो जाओ,न्यूज रुम में भूत बुलाओ।

इस जश्न के बीच हम जैसों के कमेंट का कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सवाल एथिक्स का नहीं खुद को जिंदा रखने का है और इसके लिए चैनल क्या कोई भी कुछ कर सकता है? हमें चैनल के पक्ष में कई तर्क नजर आ रहे हैं..ओफ्फ.
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न्यूज चैनल के टॉप लेबल के दो बॉस अविनाश पांडे(नेशनल सेल्स हेड) और गौतम शर्मा(रीजनल हेड नार्थ इंडिया) की करतूतों की जानकारी पिछले दिनों हमने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट "दागदार हुआ स्टार न्यूज, वहशी बॉस हुए बेनकाब" लिखकर दी थी।
हमने आपको बताया कि कैसे इन दोनों ने अपनी सहकर्मी सायमा सहर के उपर तरह-तरह से दबाव बनाए,उन्हें चैनल में काम करना मुश्किल कर दिया और ऐसे-ऐसे काम करने के लिए प्रेशर बनाए जिसकी न तो वो कभी अभ्यस्त रही है और न ही जिस काम के लिए उसकी समझ इजाजत देती है।

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फैसले की रात के न्यूज चैनल्स

Posted On 2:44 pm by विनीत कुमार | 5 comments


आजतक से लेकर एनडीटीवी,स्टार न्यूज,जी न्यूज,IBN7 सबके सब भोपाल गैस कांड में आए फैसले को लेकर खफा नजर आए। एक जमाने के बाद लगभग सभी चैनलों का सुर एक था जिसमें मझोले और छोटे कद के चैनल भी शामिल दिखे। बल्कि मझोले और छोटे चैनलों के सुर बड़े कार्पोरेट की शक्ल में दिखाई देनेवाले इन चैनलों से कहीं ज्यादा उंचे रहे। उनके लिए शायद ये साल की दूसरी बड़ी घटना रही होगी जहां कि
अपने को पक्षधरता और सरोकार की पत्रकारिता से जुड़े होने जैसी साबित करने का मौका मिला। जिन चैनलों को अभी जुम्मा-जुम्मा कुछ ही महीने या साल आए हुए हुए हैं वो भी दम मारकर भोपाल गैसकांड से जुड़ी ऐसी
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जहां-तहां इस्तेमाल किए गए जूठे कंडोम,बीयर की केन और बोतलें,पांच फुट के घेरे में बिछे अखबार और कई बार दिल्ली ट्रैफिक पुलिस और मोबाईल कंपनियों के नोचकर लाए गए बैनर से बने टैम्पररी बिस्तर कूड़े-कचरे का नहीं बल्कि किसी खेल के लगातार चलने का ईशारा करते हैं। आप इस सेटअप को देखते ही अंदाजा लगा सकते हैं कि यहां क्या चलता होगा? ये सारी चीजें हर दो-चार कदम की दूरी पर आपको मिलेंगे। वन-विभाग और एमसीडी की ओर से बैठने के लिए जो बेंचें लगायी गयी हैं, जिसे कि सीमेंट से जमाया तक गया है,उनमें से कईयों को उखाड़कर बिल्कुल अंदर झाड़ियों में टिका दिया गया है। इस बियावान रिज में जहां कि
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देशभर के एफ.एम गोल्ड के श्रोताओं एक हों,आकाशवाणी में नेपाली भाषा के साथ कबड्डी-कबड्डी उस समय बतायी जबकि मेनस्ट्रीम मीडिया के गलियारों में इसकी कायदे से या तो चर्चा ही नहीं थी और अगर उसकी सुगबुगाहट हुई भी तो कुछ मीडिया संस्थानों ने छापने के नाम पर ना-नुकुर किया। इसलिए अजीत सिंह की रिपोर्ट पढ़ते हुए भी आपको कई बार लगेगा कि कई लाईनें हमने पहले भी हूबहू पढ़ी है। अब धीरे-धीरे सारे अखबार और पत्रिकाएं इस खबर को गंभीरता से लेने लगे हैं। इस

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