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BUZZ पर अभी ये लाइन लिखता ही हूं कि सचिन के महिमा गान के आगे टेलीविजन पर रेल बजट गया तेल लेने कि देखता हूं कि IBN7 का नजारा ही बदला हुआ है। बजट के सेट पर बैठे देश के बौद्धिक और आक्रामक अंदाज के मीडियाकर्मी आशुतोष डंके की चोट पर कहते नजर आते हैं कि आखिर ममता बनर्जी ने रेल बजट में ऐसा क्या कह दिया कि उसे घंटे भर तक दिखाया जाए। ये पुरानी सोच/तरीका है कि बजट पर या ऐसे प्रधानमंत्री को घंटों दिखाते रहो। आशुतोष को लग रहा होगा कि उन्होंने आज टेलीविजन इतिहास में ऐसा कहकर क्रांति मचा दी हो और अब तक ऐसी बात कह दी है कि इसके पहले न तो किसी ने कल्पना की होगी और न किसी ने कहने की हिम्मत की होगी। वैसे भी जिस रेल मंत्रालय के आगे रोजाना सैकड़ों पत्रकार कोटा टिकटों के लिए मारामारी करते फिरते हैं, उसी मंत्रालय की मुखिया ममता बनर्जी के खिलाफ में बोलना, उसे बाइपास कर देना कोई हंसी-ठठा का खेल तो है नहीं। इस हिसाब से तो आशुतोष ने जरूर क्रांति मचा दी है। लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है, उन्होंने ये लाइन राजदीप सरदेसाई के वक्तव्य से मार ली है। ये राजदीप का डायलॉग रहा है कि जरूरी नहीं कि हर बुलेटिन प्रधानमंत्री से ही खुले, जिसकी चर्चा नलिन मेहता ने अपनी किताब इंडिया ऑन टेलीविजन में की है। आशुतोष को क्रेडिट बस इतना भर है कि एक स्केल नीचा करके उसमें रेलमंत्री को फिट कर दिया।

बहरहाल आशुतोष की बातों को हम जैसे जो भी लोग गौर से सुनते हैं, हर बात उनके सोचने के तरीके की दाद देते है। ये अलग बात है कि हममें से कुछ छिटक कर तरस भी खाते हैं कि इतनी बड़ी जिम्मेदारी वाली जगह पर पहुंच कर भी क्या अल्ल-बल्ल सोचते और बोलते हैं। इस कड़ी में कल तो हद ही हो गयी – उनका ये कहना कि रेल बजट में ऐसा क्या कह दिया ममता बनर्जी ने? अब उनको कौन समझाये कि आपकी टीआरपी भले ही तीन घंटे तक सचिन गाथा चलाने से आ जाए लेकिन इससे देश के आम आदमी की प्राथमिकता बदल नहीं जाएगी, प्रभु। संभव है कि आप सचिन के दोहरे शतक से जितने ज्यादा खुश हैं, उससे कई गुना खुश ये गरीब लोग होंगे। आज अगर इस मौज में पाउच और पउआ भी पी लें तो होश आने पर जरूर जानना चाहेंगे कि बलिया, भटिंडा, सहारनपुर, बनारस, दादर के लिए रेलमंत्री ने कौन-कौन सी ट्रेन दी, यात्री-सुविधा के नाम पर कौन-कौन सी घोषणाएं की? माफ कीजिएगा, तमाम तरह के मल्टीनेशनल ब्रांडों और भौतिक सुविधाओं के बीच जीनेवाला ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास अभी भले ही सचिन के गुरुर में चूर हो रहा हो लेकिन उसके ऐसा करने से उसकी जरूरतें बदल नहीं जातीं। आपने जो कहा, आपको अंदाजा नहीं कि उसके कितने बड़े अर्थ हैं? आपने ऐसा कहकर अपने को तो जरूर जस्‍टीफाय कर लिया, हम दर्शकों को अपनी प्रायॉरिटी भी समझा दी – लेकिन ऐसा कहकर आज अपने को बेपर्द जरूर कर लिया।

ऐसा नहीं है कि ढाई घंटे से अगर हम जैसा टेलीविजन का कट्टर दर्शक भी, जो कि खुलेआम कहता है कि जो भी दिखाओगे देखेंगे, आज पहली बार न्यूज चैनल्स देखते हुए बुरी तरह पक जाता है, अंदर से अघा जाता है कि बहुत हो गया, अब और नहीं तो खुद न्यूज चैनल के लोग पक नहीं गए होंगे। इसकी एक मिसाल खुद आशुतोष के सहयोगी संदीप चौधरी के ही बयान को लीजिए, जो ये कहते है कि पिछले ढाई घंटे से देख रहा हूं कि न्यूजरूम में सिर्फ सचिन को लेकर खबरें हो रही हैं, बातें हो रही है। क्या इस ढाई-तीन घंटे में देश में कोई दूसरी घटनाएं नहीं हुईं। ठीक है इतिहास रचा है तो दस मिनट दिखाओ, बीस मिनट दिखाओ, पचास मिनट दिखाओ… पौने तीन घंटे तक सचिन? आशुतोष ने जिस तरह से रेल बजट के महत्व को नकारा, उसके जबाब में संदीप चौधरी का मानना रहा कि क्या रेल बजट में सचमुच ऐसी कोई बात नहीं है कि उसे दस मिनट भी दिखाया जाए। मेरी पोस्ट को पढ़कर इस चैनल के लोग मेरी मासूमियत का उपहास उड़ाएं, उससे पहले ही ये साफ कर देना होगा कि ये सब उन्‍होंने पहले से ही तय कर लिया होगा। तभी तो हम ऑडिएंस को अटपटा लगे कि बजट के सेट पर वो सचिन की बात कर रहे हैं – इससे पहले ही एंकर ने घोषणा कर दी कि बजट के सेट पर सचिन और क्रिकेट की बात, क्या ये इतना जरूरी मसला है? ये दरअसल वही मसला है, जैसे हम जैसी ऑडिएंस जो कि पिछले ढाई घंटे से एक ही चीज देखकर पक गये, वैसे ही चैनल के ये लोग एक ही एंगिल पकड़कर दिखाने से ऊब गये तो कुछ अलग करने की सोची। लेकिन नयेपन और बेहूदेपन का फर्क तो एक औसत दर्जे का आदमी भी समझता ही है।


इसमें कोई दो राय नहीं है कि आज का ये दिन क्रिकेट के इतिहास में ऐतिहासिक दिन है। आशुतोष के जुमले का इस्तेमाल करूं, तो पिछले चालीस साल में जो नहीं हुआ आज हो गया, जबकि बजट में वही सारी पुरानी बातें। अब प्रधानमंत्री के गर्व का एहसास और बधाई देने के बाद संभव हो कि इसे आज की तारीख को गजट में शामिल कर नेशनल डे के तौर पर घोषित कर दिया जाए। वैसे भी इस देश को दो ही चीजें सुपर पावर साबित कर सकती हैं – एक जीडीपी और दूसरा क्रिकेट। लेकिन टेलीविजन के इतिहास में आज के दिन को ऐतिहासिक कुछ दूसरे अर्थों में करार दिया जाना चाहिए। एक तो ये कि मुझे नहीं लगता कि अभी से लेकर आनेवाले 12-14 घंटों तक किसी एक खिलाड़ी को लेकर जितने कवरेज होंगे, पैकेज बनेंगे और बुलेटिन पढ़े जाएंगे, अब तक किसी को लेकर किया गया होगा। दूसरा कि हिंदी टेलीविजन के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ होगा कि देश के राष्ट्रीय महत्व की सबसे बड़ी खबर से बुलेटिन खुलने के बजाय एक खेल की खबर से खुली होगी। छिटपुट तौर पर ऐसा अकस्‍मात जरूर हुआ होगा लेकिन जिस रेल बजट को कवर करने की तैयारी चैनल दस दिन पहले से शुरू कर देते हैं, आपाधापी मची रहती है, स्पेशल टीम गठित किये जाते हैं, उन सबको धता बताकर एक खेल इन सबके ऊपर हावी हो जाता है। आशुतोष ने तो जरूर घोषणा की लेकिन उसके साथ बाकी चैनलों ने भी यही किया। इससे न्यूज चैनलों के रुझान के साथ-साथ लोगों का रुझान भी समझा जा सकता है? क्या वाकई सचिन के आगे रेल तेल लेने चला गया। मीडिया संस्थानों में जो मास्टर साहब लोग खबरों की सीक्वेंस और घूम-फिरकर राष्ट्रीय और राजनीतिक खबरों को प्रायॉरिटी देने की कोशिश करते हैं, मुझे लगता है कि उन्हें अपने पाठ जल्द से जल्द बदलने चाहिए।

टेलीविजन ने आज देश की कई बड़ी और जरुरी खबरों के बीच सचिन को लेकर जो एकतरफा महौल रचने का काम किया है, ऐसे में अगर लिखने और विमर्श करने के स्तर पर हम जैसे सचिन के फैन को जरूर संदेह की नजर से देखा जाएगा। हमें लताड़ा जाएगा। हमें फ्रस्ट्रेट और कुंठित करार दिया जाएगा। तब हम निहत्थे होंगे। हमारे पास तब कोई ऐसा साधन नहीं होगा, जिससे हम साबित कर सकें कि सचिन, आपको पता नहीं कि हमने आपकी खातिर बगीचे के पूरे भिंडी के पौधे को सटासट अपनी देह पर बाबूजी के हाथों टूटने दिया। हमने आपके लिए कई एग्जाम्स खराब किये, हम आपके लिए कई बार लोगों से लड़ भिड़े। किसी के प्रति प्रतिबद्धता न साबित करने की ये असहाय किंतु खतरनाक स्थिति है कि जो कुछ भी है वो मन में है, दिल में है, प्रतिक्रिया के स्तर पर अकेले कमरे में बजायी गयी चंद तालियां हैं या फिर मेसटेबुल पर खुशी में एकाध रोटी ज्यादा भर खा लेना है। लेकिन कहीं ये उससे भी खतरनाक स्थिति तो नहीं जो कि देश की जनता की सचिन के प्रति प्रतिबद्धता के नाम पर लगातार तीन घंटे से टेलीविजन चैनलों पर जो दिखाया गया या दिखाया जा रहा है? यहां बात सचिन की हो रही है तो संभव है कि उनके प्रति अतिशय लगाव की वजह से आप इस बात को बंडलबाजी करार दें लेकिन अतिरेक में जीनेवाले इस भारतीय समाज में खेल के साथ-साथ राजनीति, विकास, धर्म, परंपरा सहित दूसरी बाकी चीजों को भी इसी फार्मूले के तहत देखा-समझा और जिया जाता है और फिर हम धार्मिक और राजनीतिक कट्टरता का समाज रचते चले जाते हैं। ये इसी तरह की मुश्किल का विस्तार है, जहां एक मुस्लिम को इस देश का प्रतिबद्ध नागरिक साबित करने में होती है, उसे धार्मिक तौर पर निरपेक्ष साबित करने में होती है। एक दलित को मुख्यधारा की मान्यताओं के बीच अपने अधिकार रेखांकित करने में होती है। टेलीविजन फैनकल्चर के बीच प्रतिबद्धता का ये उन्माद कैसे पैदा करता है और अतिरेक में जीनेवाले इस समाज को और सुलगाता है, इसकी मिसाल आज से ज्यादा शायद ही किसी दिन मिल पाये। उसके बाद इस उन्माद और अतिरेक के वातावरण में कैसे अपने-अपने मतलब की चीजें स्टैब्लिश की जाती है, इसे समझने के लिहाज से भी आज के टेलीविजन की ये खबर मिसाल के तौर पर काम में आएगी।

सचिन के इस दोहरे शतक को लेकर उसके देवता होने की बात एक खबर की शक्ल में बदलती जाती है। सबसे पहले आजतक ने उसे क्रिकेट का भगवान करार दिया। इसी नाम से स्पेशल स्टोरी चलायी। अब ये भगवान शब्द चल निकला। इस सिंड्रोम से एनडीटीवी भी अपने को बचा न पाया। एंकर ने अपने बुलाये एक्सपर्ट से सचिन के भगवान होनेवाली बात पूछ ली। चैनल के स्तर को ध्यान में रखकर एक्सपर्ट ने जबाब दिया – इसे आप एक बेहतर इंसान के तौर पर कहिए, अलग से भगवान कहने की जरूरत नहीं है, इंसान को इंसान ही रहने दीजिए न। हां ये जरूर है कि उसकी मां को लेकर विचार कीजिए, क्या खिलाकर ऐसा बेटा पैदा किया? अब चूंकि एक्सपर्ट ने चैनल के स्तर को समझा, इसलिए जरूरी था कि वो बाकी चैनलों की तरह फोकना (बलून लगा बाजा) बजाने के बजाय कुछ अलग कहते – इसलिए कहा कि सचिन से सिर्फ खेलने की ही बात नहीं बल्कि उनसे डिसीप्लीन, किसी भी तरह का घमंड नहीं होने जैसी बातें सीखनी चाहिए। बात तो सब करेगा, लेकिन सुबह पांच बजे दौड़ने कहिए तो कोई तैयार नहीं, ये सीखना होगा। यहां भगवान वाला सिंड्रोम थोड़ा पिचकता नजर आया। लेकिन इंडिया टीवी के रहते ये भला कैसे पिचकता? इंडिया टीवी की स्पेशल स्टोरी रही – 200 का देवता। इस चैनल ने सचिन को देवता करार देने के साथ ही 200 संख्या को भी स्टैब्लिश करने की कोशिश की। न्यूज चैनलों में तारीखों और संख्या को स्टैब्लिश करने की बहुत मारामारी मची रहती है। ये भी 9/11 से उधार लिया पैटर्न है। हेडर में बार-बार आता है – 5 मिनट, 5 इंच का देवता। पीछे से जोधा-अखबर का गाना, अजीबो शान शहंशाह… इस चैनल की छवि है कि ये दुनिया की किसी भी खबर में देवी-देवता, रहस्यमयी शक्तियों को तलाश लेती है। इन खबरों को देखनेवाली ऑडिएंस निर्धारित है। ऐसे में अगर सिर्फ सचिन की खबर को दिखाया जाता, तो बात नहीं बनती इसलिए उसे इंडिया टीवी से संस्कारित किया जाना जरूरी हो जाता है।

न्यूज 24 के लिए इस खबर को दिखाने के साथ ही बाकी चैनलों से अपनी औकात अलग भी बतानी होती है। इसलिए वो स्क्रीन को डबल विंडो काटती है। एक तरफ मैच के दौरान सचिन के शॉट्स और दूसरी तरफ चैनल की मालकिन का थकेला सचिन के साथ का इंटरव्यू। अब एकबारगी देखने से ऐसा लगता है कि सचिन मैदान छोड़कर इस चैनल की तरफ भागे हों। चैनल की कोशिश यहां ज्यादा से ज्यादा तड़का मारने की हो जाती है। पहला लक्षण हमें इस चैनल पर दिखा और बाद में फिर बाकी चैनलों पर भी। न्यूज 24 ने पुराने फुटेज बटोरे और रियलिटी शो के उस एपिसोड को स्टोरी के साथ चेंपा, जिसमें कि सचिन के साथ बाकी के क्रिकेट खिलाड़ी मौजूद थे। हेडर लगाते हैं – सचिन को बॉलीवुड का सलाम। यहां भी फुटेज को लेकर धोखा। ये उसी तरह से है कि भइया गंगा का सोता फूटा है, नये-पुराने जो भी बर्तन मिले, डाल दो। अजमेर में सचिन के नाम चादर चढ़ाये जाने की खबर से चैनल ये स्टैब्लिश करता है कि इस खुशी में देश के मुस्लिम भी शामिल हैं। जी न्यूज का आदेश है – काम छोड़ो, मास्टर को देखो।

IBN7 इस खबर से टीआरपी दूहने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहता। पता कर लिया कि सचिन लता मंगेशकर को मां कहते हैं। तभी जब प्रतिद्वंद्वी चैनल ने सचिन की सास से बाइट लेनी शुरू की, तो इसने लता मंगेशकर को पकड़ा। बार-बार वही सवाल कि आप फोन करके क्या बोलेंगे, आपके बीच किस तरह का लगाव है। अब हालत ये है कि लता मंगेशकर ये कहने के अलावे कि मैं चाहूंगी वो सौ साल तक खेलें, ईश्वर उसे लंबी उम्र दे, कुछ बोलती ही नहीं। यही मौका होता है, जब कोई विवाद पैदा हो सकते हैं। आशुतोष और संदीप चौधरी पूरा दम लगा देते हैं लेकिन उनके सवाल बदलते जाते हैं लेकिन लता के जबाब वही दो-तीन। अब एंकर अपनी तरफ से पास फेंकते हैं – क्या अभी आप ये गाएंगी – सूरज है तू मेरा चंदा है तू। लता का जबाब – अभी तो मैं कुछ भी नहीं गा पाऊंगी।

इस बीच लगभग सारे चैनलों पर सचिन को लेकर किसने क्या कहा फ्लैश होते हैं, पीएम साहब का वक्तव्य स्कॉल में फिक्स हो गया है। तभी दौर शुरू होता है कि सचिन को आज कुछ नया नाम दिया जाय। मास्टर ब्लॉस्टर तो पुराना हो गया आज के दिन। इसकी पहल इंडिया टीवी की तरफ से होती है – सचिन टूहंड्रेडडुलकर। हां, आज से सचिन का यही नाम। पहली बार लगा कि एनडीटीवी इंडिया ने सीधे इंडिया टीवी की नकल मारी है और उसने नाम दिया – सेंचुरकर… न्यूज24 पर खान विवाद सवार है, इसलिए माइ नेम इज सचिन।

टेलीविजन चैनलों पर सचिन को लेकर खबर अब कुछ भी नहीं है। क्योंकि खबर एक विस्फोट की तरह हुई, जिसकी आवाज देश के बच्चे-बच्चे ने सुनी। लेकिन चैनलों का इसे गींजना-मथना जारी है। अब हर कोई दूर की कौड़ी लाने में जुटा है। टेलीविजन स्क्रीन पर आंख गड़ाये रहने पर मुझे चैनल चाहे जो भी हो लग रहा है – हर कोई टेप सेक्शन की तरफ भाग रहा है, न्यूज रूम की तरफ आपाधापी मचाये हुए है और लग रहा है कि शायद ये टेलीविजन के इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा होगा कि राजनीति, खेल, मनोरंजन, सिनेमा और बिजनेस सबके सब बीट के मीडियाकर्मी एक ही मुद्दे पर खबर बना रहे होंगे। चुपचाप बैठे क्राइम बीट के लोग सोच रहे होंगे – क्या आज किसी दलित महिला के साथ शोषण नहीं हुआ होगा, किसी बच्ची की जान नहीं ली गयी होगी, किसी पुलिसवाले ने किसी को नंगा नहीं किया होगा… किया होगा न… तो, तो क्या सचिन के आगे कुछ नहीं चलेगा, चुप्प। टेलीविजन पर देश का लोकतंत्र ऐसे ही सिकुड़ता है। दूरदर्शन के जमाने में
इंदिरा के आगे और अब सैकड़ों चैनलों के जमाने में सचिन, शाहरुख और कैटरीना के आगे।

मूलतः प्रकाशितः- मोहल्लाLIVE
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मेरे पैदा होने के पहले ही मोहल्लेभर की चाचियों-दादियों ने मेरी मां की पेट का मुआयना कर लिया था। मां का पेट ढोल जितना बड़ा नहीं हुआ था,आठवां महीना होने के बाद भी। इसलिए सबों ने मिलकर घोषणा कर दी कि लड़की ही होगी। मां कहती कि होगी तो होगी,काहे लड़की अदमी का बच्ची नय होती है। मेरे पापा दो भाई हैं-एक पापा औऱ एक उनसे बड़े भाई यानी चाचा। हमलोगों की कभी नहीं बनी इनसे जिसकी जड़ में तात्कालिक रुप से मेरा पैदा होना भी है। मेरे पैदा होने के बाद से ही कटुता ज्यादा बढ़ी थी उस समय।...तो मामला सौ फीसदी तय था कि अबकी बार लड़की ही होगी।

मैं कमजोर पैदा होता हूं। किताबों की दुनिया में अंतिम संस्करण आमतौर पर पहले के बाकी संस्करणों से ज्यादा दुरुस्त होता है। लेकिन मां के बाकी बच्चों के हिसाब से मैं परिवार का अंतिम संस्करण बाकी भाई-बहनों से ज्यादा कमजोर और उपर से दूध न पचने की बीमारी लिए पैदा हुआ।। बहरहाल,चाचाजी जो कि मां के जेठ हुए,पहले से तय मिजाज से देखने आए कि लड़की ही हुई होगी। कमरे के बाहर मेरी मरियल सी रोने की आवाज ने उनके विश्वास को और भी पक्का कर दिया। अंदर आकर मां से पूछते हैं- क्या हुआ,मां ने कहा लड़का। उन्हें रत्तीभर भी भरोसा नहीं हुआ। मां बार-बार बताती है कि तब हम तुमको उघारकर दिखा दिए थे,चाचा का मन कसैला हो गया था कि लड़का हुआ है। बाहर आकर उन्होंने वक्तव्य दिया- हां तो गोतिया(भाई-भाई के संबंध को बिहार-झारखंड में यही कहते हैं)का पलड़ा कैसे नहीं बराबर होता। मतलब कि चाचा के तीन लड़के हुए और मां को अब तक दो ही औ तीसरा मैं आकर मां के समीकरण को दुरुस्त कर गया। मां अब भी कहा करती है कि तू तो गोतिया का पल्ड़ा बराबर करने के लिए पैदा हुआ है। संभवतः यही कारण रहा कि मेरे बाकी के भाई-बहनों को चाचा और उनके परिवार के लोग बर्दाश्त भी कर लेते लेकिन मुझे देखते ही खुन्नस खा जाते। बचपन से ही बोलचाल न होने पर भी कभी पढ़ाई,कभी संस्कार और कभी संगति का हवाला देकर मुझे धर दबोचते।

मेरे पैदा होने होने पर पापा को बिजनेस में भारी नुकसान हुआ। अतिक्रमण में दुकान भी शायद टूट गयी। सोचता हूं मेरी जगह अगर कोई लड़की पैदा होती तो उसे किस तरह कुलक्ष्णी बोलकर तबाह किया जाता। पापा को कई बार ऐसा लगा भी कि मेरे पैदा होने पर ये सब हुआ क्योंकि जब भी हमारे परिवार के इतिहास की व्याख्या मौखिक स्तर पर होती तो मेरे जन्म को संक्रमण काल के तौर पर रेखांकित किया जाता। उस समय कि व्याख्या कुछ इस तरह से की जाती कि अगर इसके पैदा होने के समय फलां-फलां नहीं हुआ होता तो झारखंड में रिलायंस के जितने मोबाईल टावर है वहां पापा का टावर लगा होता। मेरी मां अक्सर कहा करती है कि- इ बुतरु जेतना बात-झाडू सुना है,उ कभी भी लड़का होने का सुख नहीं है। जब तक नजर के सामने रहा,लात-बात खाकर बड़ा हुआ और मैट्रिक से ही घर से बाहर। इसलिए परिवार में एक दलित की तरह मां मेरे लिए हर मुद्दे पर रिजर्वेशन की मांग करती रहती है। सबने कपड़े लिए तो उसके हिस्से का खरीदकर रख दो,आएगा तो दे देंगे। यकीन मानिए,दीवाली के लडडू पूरे-पूरे महीने तक रखती है। उसे पता होता है कि मैं नहीं आ रहा फिर भी। मैं दिनोंदिन जितना नास्तिक होता जा रहा हूं मां हनुमान,गणेश और दुर्गा की तस्वीरें उतनी ही बढ़ाती जा रही है। बहरहाल,

पब्लिक स्कूल में पढ़ने पर क्लास के सारे बच्चे अपने जन्मदिन के मौके पर चॉकलेट और टॉफियां बांटा करते। रईसजादा हुआ तो किशमी टॉफी बार नहीं तो उस जमाने में मार्टन और मेलोडी से बाजार अटे-पड़े थे। साहित्यिक टाइप की पत्रिकाओं में इनके विज्ञापन आते। मैं सबके जन्मदिन की टॉफी खाता। मां से पूछता कि मां तुम मुझे एग्जैक्ट तारीख बताओ न अपने जन्मदिन की। मां भकुआ जाती। कहती कौन-सा फरागत(खुशहाली) में पैदा हुए थए जो कि हम तारीख याद रखते। यही आश्विन-कातिक का महीना होगा। इन दो हिन्दी महीनों के बीच हम कभी भी पैदा होने की गुंजाईश से शांत हो जाते। जन्मदिन के चॉकलेट तो हमने कभी नहीं बांटे,मां सत्यनारायण स्वामी की कथा कराती तो उस दिन हम सबकों अपने यहां बुला लेते। मेरे अधिकांश मुस्लिम दोस्त प्रसाद खाने में हिचकते तो मां उन्हें सब साबुत ही दिया करती और कहती सादिक ये परसाद से बाहर का फल है। फिर नुक्का-चोरी( एलीट तबके ले लोग आंखमिचौनी कहते हैं) खेलकर मस्त हो जाते।

इसी क्रम में मैं बोर्ड की परीक्षा देने के मुहाने तक आ गया। अधिकांश के मां-बाप के पास कुर्जी हॉस्पीटल पटना से लेकर होली फैमिली तक के वर्थ सर्टिफिकेट थे। मुझे अपना जन्मदिन तक याद नहीं। क्लास टीचर ने अपनी मर्जी से भर दिया 23 फरवरी। मैंने उन्हें कहा भी कि सर मां आश्विन-कार्तिक के आसपास जन्मदिन बताती है,आप उसी के आसपास की तारीख डालिए न। उन्होंने हमें चुप करा दिया और पचहतर तर्क दे डाले। इस जन्मदिन में मां बेदखल हो गयी थी जिसका कि हमें अफसोस हुआ। उसके बाद से एक बार जब मैट्रिक की सर्टिफिकेट में 23 फरवरी जन्मदिन तय हो गया तो वही चलता आ रहा है। जब हमने फेसबुक से लेकर बाकी जगह अकाउंट बनाए तो यही डाला। मैंने इसे बदला नहीं।

यकीन मानिए पिछले 26-27 साल में मुझे कभी नहीं लगा कि लोग मुझे इतना प्यार करते हैं,मानते हैं और मुझे नोटिस लेते हैं। परसों से ही जन्मदिन देने का सिलसिला जारी है। हर बधाई देनेवाले को लग रहा है कि वो सबसे पहले बधाई दे। रांची से प्रभात गोपाल झा ने सुबह ही बधाई दी और इस उम्मीद से कि वो सबसे पहले बधाई दे रहे हैं। भिलाई से बी.एस.पाबला का फोन आया औऱ कहा कि हमने आपके जन्मदिन पर पोस्ट डाली है। धनबाद से लवली मेल कर रही है। चेन्नई में बैठे प्रशांत प्रियदर्शी को नसीहत दे रही है कि मेरे जन्मदिन की तरह विनीत को विश करना मत भूल जाना। चेन्नई से प्रशांत प्रियदर्शी फोन करके बता रहे हैं कि महाराज पार्टी देने का इतना ही शौक है तो जन्मदिन का बहाना क्यों? फेसबुक पर दर्जन भर से ज्यादा लोग विश कर चुके हैं। यूएस में बैठी अक्ष्या वर्चुअल गिफ्ट भेज रही है। यकीन मानिए कि शुभकामनाओं से लाद दिया इस साल लोगों ने मुझे। मैं फोन पर ही कुछ-कुछ को तर्क देता हूं कि आज सचमुच का जन्मदिन नहीं है मेरा। लेकिन उनके उत्साह के आगे मेरा ऐसा कहना मुझे अपनी ही नजर में छोटा किए दे रहा है। मैं पाबलाजी से हंसकर कहता हूं चलिए साल में दो बार हो या जन्मदिन।

संत जेवियर्स में पढञने की वजह से मेरा कॉन्फीडेंस लेवल हाई हो चला था। मैं किसी भी मसले पर किसी से बात करने में संकोच नहीं करता। इसी क्रम में एक बार मैंने अपने चाचा से जिनका कि परिवार के लोगों से बहुत ही कम बातचीत हुआ करती,पूछ बैठा- अच्छा ये बताइए कि आपको पता है कि मैंने कब गोतिया का पल्ड़ा बराबर किया था। उन्होंने कहा मतलब? मैंने कहा कि मतलब ये कि मैं किस दिन पैदा हुआ। मां से मुझे जानकारी मिली थी कि उनके पास सात पीढ़ी की वंशावली है। बड़ा होने पर मैंने समझा कि अगर मेरा पैदा होने उनके लिए वाकई तकलीफदेह है तो उन्हें ये तारीख याद रहनी चाहिए। उन्होंने कहा- 17 अगस्त। यहां तक कि उन्होंने समय भी बता दिया। मुझे मेरा अपना जन्मदिन मिल गया था।

अब मैं सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ते हुए दोस्तों को ट्रीट देता और दिनभर मस्ती करता। दिलचस्प बात ये है कि मैंने ग्रेजुएशन की पूरी पढ़ाई फादिर कामिल बुल्के शोध संस्थान,रांची में बैठकर की है। मैं वहां का नियमित सदस्य था। तो 17 अगस्त को रांची के साहित्यकार,पत्रकार और बुद्धिजीवी वहां जुटते। मेरे लिए नहीं,उस दिन बाबा बुल्के की पुण्यतिथि होती। लोग बाबा को याद करते,थोड़ा मातमी महौल होता लेकिन ये कार्यक्रम खत्म होते ही मैं सबको चॉकलेट बांटता। लोग शुभकामनाएं देते। मेरे साथ की लड़कियां कमेंट करती- अच्छा दिन पैदा हुए हो,ऐसा लगता है कि ये पूरा शहर तुम्हारे जन्मदिन के लिए ही जमा होता है,कितने लोग विस कर देते हैं तुम्हें। फिर कावेरी या चुरुवाला के यहां लंच और दिनभर मस्ती।...दिल्ली में इस तरह 17 अगस्त को बहुत ही सीमित लोगों के बीच दिनभर की मस्ती के साथ जन्मदिन मनाने का सिलसिला जारी है।.
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तब आशा किरण होम से मिली धमकी..

Posted On 9:28 am by विनीत कुमार | 6 comments



BUZZ पर मैंने जब आजतक की स्टोरी 'मौत का पिंजरा' के बारे में लिखा जो कि आशा किरण होम में लगातार मर रहे बच्चों को लेकर है तो ओमान में मास मीडिया और विज्ञापन पढ़ा रहे एसिस्टेंट प्रोफेसर संजय सिंह ने आशा किरण को लेकर अपने निजी अनुभव बताएं। उन्होंने जो कुछ भी बताया उसे सार्वजनिक करना जरुरी है। उन्होंने लिखा-

बंधु तुमने आशा किरण का नाम लेकर मेरी याद ताजा कर दी। मैं 1999 में cry,दिल्ली के एक प्रोजकेट में मीडिया कन्स्लटेंट था तब आशा किरण से पहली बार वास्ता पड़ा। इसका मुख्य काम गरीब बच्चों को आशियाना मुहैया कराना है। एक ऐसी ही बच्ची मंगोलपुरी की जो चाइल्ड सेक्सुअल एवियूज की शिकार शिकार थी,उसको लेकर जब मैं तिहाड़ जेल स्थित आशा किरण होम पहुंचा तो वहां की तत्कालीन डायरेक्टर साहिबा मैडम ने बच्ची को लेने से मना कर दिया। बोला कि टीवी है,पहले ईलाज कराकर लाओ। खैर मैं अपने एक सहयोगी प्रोजक्ट कॉर्डिनेटर के साथ जयपुर गोल्डन,रोहिणी हॉस्पीटल में उसका ईलाज कराया। फिर जब बच्ची ठीक हो गयी और फिर से उसे लेकर वहां पहुंचा तो मैडम साहिबा ने फिर से साफ मना कर दिया। तब हमें मीडिया की शरण में जाना पड़ा औऱ मदद मिली इसी शम्स ताहिर खान के चैनल आजतक से। वहां एक किरणदीप रिपोर्टर काम करती थी जिन्होंने इस स्टोरी को कवर किया था। साथ ही the hindustan times की रिपोर्टर सोनी सांगवान ने पहले पेज पर इस घटना को छापकर,इस मामले को औऱ चर्चा में ला दिया। बात विधान सभा तक भी पहुंची, मुझे होम के कर्मियो द्वारा धमकी भी मिली। उन दिनों मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के मानसरोवर हॉस्टल में रहता था। खैर इन तमाम दिक्कतों के बावजूद भी मैं उस 13 साल की बच्ची को होम तक पहुंचाने में कामयाब रहा। लेकिन सरकार द्वारा चलायी जा रहे इस होम की हालत और व्यवस्था देखकर तब भी उतना ही खराब लगा था जितना आज फिर उसके बारे में जामकर।

संजय सिंह ने जो अनुभव हमसे साझा किया उससे साफ है कि आशा किरण होम में बच्चों की मौत की बनती लगातार घटना सिर्फ साधनों की कमी और अव्यवस्था का नतीजा नहीं है। इसके भीतर एक बड़ा खेल शामिल है और संभव है कि उनमें कई लोग के हाथ सने हों। नहीं तो जिस होम को बेहतर बनाने के लिए वहां के लोग नियुक्त हैं और बाहरी लोगों के प्रयास से भी जिसे बेहतर करने की कोशिशें की जा रही हो,ऐसे में धमकी देने की घटना क्यों होती है? पिछले बुधवार को आजतक पर इस खबर के दिखाए जाने के क्रम में नेताओं की बाइट आनी शुरु हो गयी। बाकी तमाम तरह की घटनाओं की तरह ही इस पर बयानबाजी शुरु हो गयी लेकिन इस होम के भीतर जो रैकेट चल रहे हैं जो कि बयान से इसकी आशंका बनती है,उस दिशा में क्या काम किए जा रहे हैं,इस पर भी बात होनी चाहिए। 18 फरवरी को देशभर के तमाम अखबारों ने इस मु्द्दे को प्रमुखता से उठाया। उनकी खबरों में बदहाली की बातों के साथ ये भी शामिल है कि वहां बाकी सुविधाओं के साथ-साथ सेवाकर्मियों और कर्मचारियों की संख्या से लेकर उनकी पगार( 3000 से बढ़ाकर 6000 आया के लिए) बढ़ाने की बात की गयी है। लेकिन इन सबके वाबजूद असल सवाल है कि ये संस्थान बच्चों को लेकर कितना मानवीय है या रह गया है?

अखबारों ने आशा किरण होम को लेकर जो खबरें छापी है वो इस सवाल को कितनी शिद्दत से उठा रहे हैं, नेताओं की बयानबाजी किस तरह की आ रही है? आपके अध्ययन के लिए कुछ लिक्स-

THE TIMES OF INDIA
THE INDIAN EXPRESS
DNA
HINDUSTAN
TIMES

THE HINDU
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आजतक पर 'मोत का पिंजरा' स्टोरी देखकर मैं अपने को रोक नहीं पाया। मैंने तुरंत शम्स ताहिर खान को एसएमएस किया- ये जबरदस्त स्टोरी है सर,इसमें सरोकार है,मैं रिकार्ड कर रहा हूं। एसएमएस करने के मिनट भर बाद ही उनका फोन आया और उनकी पहली ही लाईन-सच कहूं,मन बहुत कचोटता है। टेलीविजन पर ऐसी स्टोरी की गुंजाईश बहुत ही कम रह गयी है। बहुत मुश्किल है यहां ये सब करना।

शम्स जब ऐसा बोल रहे थे तो मुझे लगा कि उनके भीतर से आशा किरण होम में हर दो दिन में मर रहे बच्चे का दर्द और टेलीविजन के भीतर इस तरह की मर रही खबरों का दर्द दोनों एक साथ निकल रहे हों। ऐसा लगा कि एक संवेदनशील इंसान और सरोकारी टेलीविजन पत्रकार की चिंता घुलकर एक एब्सर्ड स्थिति की तरफ इशारा कर रहे हों। फोन पर मैं भी भावुक-सा हो जाता हूं और कहता हूं- आप बिल्कुल सही कह रहे हैं सर। मन ही मन सोचता हूं कि इस स्टोरी का प्रोमो पिछले एक घंटे से देख रहा हूं और इस बीच दीपिका पादुकोणे की लालपरी बनने की कथा से लेकर जावेद अख्तर-आमिर खान विवाद,खान ही सुपर है..और भी दुनियाभर की स्टोरी इस चैनल पर देखता रहा। मैं आगे कहा- ऐसी स्टोरी पर लगातार नजर बनाए हुए हूं सर,मैं इनकी लगातार रिकार्डिंग कर रहा हूं। आगे चलकर इस पर कुछ करुंगा। कुछ गंभीर तरीके से लिखने की कोशिश करुंगा। उन्होंने कहा- आप जरुर लिखिए,लिखने के क्रम में कभी भी किसी तरह की जरुरत हो,आप बताइएगा..हमारी बात यही पर खत्म होती है।

उस समय तो मन यही किया कि तत्काल एक पोस्ट लिख डालूं। आखिर वेब दुनिया में सक्रिय लोगों को भी पता तो चले कि आशा किरण होम है क्या और वहां हो क्या रहा है? शम्स ताहिर ने जो स्टोरी दिखायी है,बच्चों को पनाह देनेवाला एक सरकारी संस्थान/आवास कैसे मुर्दाघर में तब्दील होता जा रहा है,कैसे दो महीने में करीब 24 बच्चों की मौत हो गयी है,कैसे वहां बच्चों की जिंदगी का सिर्फ एक ही मकसद रह गया है..बच्चों की मौत पर आंसू बहाना और फिर जब आंसू थम जाए तो दूसरे की मौत का इंतजार करना? 200 सीटों पर 700 बच्चों की जिंदगी का असल मतलब क्या होता है,ये उस समाज-सरकार को भी तो पता चले जो कि जीटीपी की ग्रोथ पर ताल ठोके जा रहा है।

मैं बुरी तरह परेशान हो जाता हूं,आशा किरण होम में लगभग लाबारिश हालत में जी रहे बच्चों के एक-एक विजुअल्स और उस पर शम्स ताहिर की व्याख्या हमें भीतर से बुरी तरह झंकझोरती है। कुल सात कमरे में सात सौ बच्चों की जिंदगी सिमटी हुई है। हड्डी गला देनेवाली ठंड में भी इनमें से किसी कमरे की खिड़कियों में कांच नहीं लगे है,टूटे और बिखरे पड़े हैं। तभी कैमरा एक ऐसे बच्चे की तरफ जूम इन होता है जो कि सामान रखे जानेवाले सेल्फ में सिकुड़ा हुआ है।

शम्स की लाइन है-इसमें बस एक जाली लगाने की जरुरत है-ये पूरा का पूरा एक पिंजरा है।..तो ऐसी है आशा किरण होम में रहनेवाले बच्चों की जिंदगी। खिड़कियों की ग्रिल से झांकते ये डिस्एबल बच्चे जब स्क्रीन पर हमसे नजर मिलाते हैं तो शरीर के एक-एक हिस्से के चिपचिपा जाने का आभास होता है। लगता है कहीं से कुछ रिस रहा है या फिर इन बच्चों ने थूक,कफ,मवाद में से किसी एक चीज को हमारी तरफ फेंका है। ये बच्चे मानसिक तौर पर असहाय हैं इसलिए ये क्या करते हैं,इन्हें खुद भी पता नहीं। साफ-सफाई के लिए जो कर्मचारी रखे गए हैं उन्हें इनसे घृणा होती है और वो इन्हें हाथ तक नहीं लगाते।..और यही से,इसी गंदगी के बीच इन बच्चों की मौत की भूमिका तैयार होती जाती है।

मैं विज्ञापन को छोड़कर पूरे साढे सोलह मिनट की स्टोरी की वीडियो रिकार्डिंग करता हूं,उसे फाइनल करता हूं और लैपटॉप पर कुछ स्टिल फोटो रात में ही काटकर रख लेता हूं ताकि अभी न लिख पाने की स्थिति में सुबह पोस्ट करने में आसानी हो। इसके साथ ही ये भी ख्याल आता है कि क्यों न स्टोरी का पूरा ऑडियो वर्जन अपलोड कर दिया जाए ताकि लोग इसे भी सुन सके। एक तो पूरी स्थितियों को सही तरीके से समझने के लिए और दूसरा कि कैसे एक टेलीविजन पत्रकार कार्पोरेट मीडिया के बीच सरोकारों को जिंदा रखने की जद्दोजहद कर रहा है,इस क्रम में एक स्वाभाविक भाषा को भी बचाने की कोशिश में लगा है जो कि हाइपर होने के बजाय स्वाभाविक किस्म की संवेदना पैदा करने की ताकत रखती है,इन सबको जाना-समझा जा सकेगा। मैं तीन-चार बार कोशिश करता हूं लेकिन वो ऑडियो अपलोड़ नहीं हो पाता है। हारकर मैं छोड़ देता हूं। इस कोशिश और झल्लाहट में,टेलीविजन के भीतर मरती संभावनाओं के बीच मौत का पिंजरा जैसी स्टोरी के आने और इधर-उधर की बातों पर सोचते रात के ढ़ाई बजे जाते हैं।.

सुबह देर से मेरी आंखें खुलती है। उठने की कोशिश करता हूं कि अचानक से सिवरिंग,पूरे शरीर और सिर में ऐसा दर्द शायद ही कभी हुआ हो। अपने जानते नार्मल होने की कोशिश करता हूं लेकिन दो छींक आने के बाद सब नाकाम। दोपहर तक दुनियाभर की कोशिशें करता हूं कि सामान्य हालत हो जाए लेकिन नहीं तो नहीं। पोस्ट न लिखे जाने का दुख होता है। हारकर किसी तरह 'BUZZ' पर सिर्फ इतना लिख पाता हूं-आजतक पर मौत का पिंजरा स्टोरी देखकर मुझसे रहा नहीं गया। ...ये स्टोरी आशा किरण होम में लगातार मर रहे बच्चों पर है।

BUZZ पर मेरा लिखा देखकर ओमान में विज्ञापन और बिजनेस मीडिया पढ़ा रहे एसिस्टेंट प्रोफेसर संजय सिंह ने लंबा कमेंट किया। उसमें उन्होंने साफ तौर पर बताया कि आशा किरण होम में जो कुछ भी हो रहा है वो एक गहरी साजिश का नतीजा है। आज से पांच-छ साल पहले हुए अपने अनुभव को हमसे साझा करते हुए कहा कि कैसे जब उन्होंने इस दिशा में काम करने की कोशिश की तो उन्हें धमकियां मिलने लगी और तब आजतक और हिन्दुस्तान टाइम्स की रिपोर्टर ने उनकी मदद की। संजय सिंह ने जो अनुभव हमसे साझा किया है वो शम्स ताहिर की स्टोरी एंगिल को और भी मजबूत करता है कि यहां सुधार के नाम पर नेताओं की बयानबाजी होती है और लोग अपने-अपने मतलब की सेंकने में लगे होते हैं। सच्चाई यही है कि एक सरकारी आश्रय में जिंदा लाश में तब्दील होते जा रहे बच्चों की चिंता किसी को नहीं है।

संजय सिंह के अनुभव और आशा किरण होम पर विस्तार से रिपोर्ट अगली पोस्ट में-
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जिस लाइन को सुनते ही बाजार,कार्पोरेट और अब यहां तक कि मीडिया के मुंह में भी पानी भर आते हैं,वहीं एनडीटीवी इंडिया के मशहूर पत्रकार पंकज पचौरी इस लाइन को सुनकर परेशान हो उठते हैं। उन्हें इस बात का अंदेशा है कि आनेवाला समय बहुत ही खतरनाक होगा। ये सेल्फफिशनेस का समय होगा, इसमें शामिल लोग माइसेल्फ कल्चर में जीना शुरु कर देंगे और इस देश को अपनी जागीर समझने लग जाएंगे। बाजार जिस लाइन से खुश है,उसकी तहों को और मोटी करने में लगा है,पंकज पचौरी उस लाइन को चिंतिंत होने की अवस्था में भी अपने ढंग से परिभाषत करने की कोशिश करते हैं। ये लाइन है- इस देश में युवाओं यानी 15 से 35 साल के उम्र के लोगों की संख्या 35 करोड़ है।

ये देश की वो जमात है जिसे कि अक्सर 'कल का भविष्य' रुपक के तहत परिभाषित किया जाता रहा। लेकिन इस रुपक के भीतर के अर्थ कितनी तेजी से बदलता जा रहे हैं,शायद ये हमारी पकड़ में ठीक तरीके से नहीं आने पा रहा। संभवतः पचौरी की चिंता इसी बात को लेकर है। उनके हिसाब से आज जो अर्थ पकड़ में आ रहा है वो ये कि ये बाजार और कार्पोरेट के लिए भविष्य तो जरुर हो सकते हैं लेकिन देश और समाज के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं। ऐसा इसलिए है कि आज इस 25 करोड़ की आबादी के सपने बदल गए हैं। एक आजाद देश में जीनेवाले इस जमात के सपने अब वो नहीं रह गए जो कि इससे ठीक पहलेवाली पीढ़ी के युवाओं की रही है। इनके सपने पूरी तरह कन्ज्यूमर कल्चर के इर्द-गिर्द जाकर सिमट गयी है। ये सपने 24 साल में किसी कंपनी के सीइओ बनने की है,नई से नई मोबाइल और मोटरसाइकिल खरीदने की है। इनके सपनों में समाज और देश अगर कहीं शामिल है तो बस इतना भर कि टीशर्ट पर तिरंगे का स्टीगर लगाकर आइपीएल देखने चला जाए। इनके रोल मॉडल शाहरुख खान हैं जिनसे अच्छी डिप्लोमेसी सीखी जा सकती है। इनके ख्वाब जल्दी से जल्दी सबकुछ पा लेने की है और ये सबकुछ भी परिभाषित है। लेकिन जरुरी नहीं कि सभी के सभी इन 35 करोड़ युवाओं की आंखों में धीरुभाई अंबानी के ही सपने पलने लगे।..इस आगे भी बहुत कुछ है,इससे इतर भी बहुत कुछ है।

पंकज पचौरी ने 35 करोड़ की आबादी वाली इस जमात के बारे में जो कुछ भी कहा,ये उनके किसी टेलीविजन कार्यक्रम का हिस्सा नहीं है।..और न ही ये वो बातें हैं जो कि वो अक्सर चैनल पर पैनल के बाकी लोगों की बातों को मिलाकर निष्कर्ष के तौर पर अंतिम चंक में कहा करते हैं। उन्होंने ये सारी बातें पेंगुइन और यात्रा प्रकाशन की ओर से आयोजित कार्यक्रम "जाग उठे ख़्बाव कई" में साहिर लुधियानवी को याद करते हुए कही। बल्कि हम ऐसा कहें कि उन्होंने ये सारी बातें साहिर लुधियानवी की प्रासंगिकता को रेखांकित करने के क्रम में कही तो ज्यादा बेहतर होगा। इसलिए मुझे लगता है कि पंकज पचौरी की बातों का स्वतंत्र विश्लेषण करने के बजाय इस कार्यक्रम से जोड़ते हुए बात करें तो ज्यादा बेहतर होगा।

पेंगुइन और यात्रा प्रकाशन ने हाल ही में साहिर लुधियानवी की नज्मों और गीतों का संचयन "जाग उठे ख़्बाव कई" नाम से प्रकाशित किया है। संचयन-संपादन का काम मुरलीमनोहर प्रसाद,कांतिमोहन 'सोज' और रेखा अवस्थी का है। किताब को लेकर एक छोटी सी भूमिका गुलजार ने लिखी है। पेंगुइन और यात्रा प्रकाशन की ओर से इस किताब के अलावे पांच और किताबों का हाल भी प्रकाशन किया गया जिसकी चर्चा आगे के संदर्भों से जोड़ते हुए हम करेंगे। यहां बस इतना कि इन कुल छह किताबों के चुनिंदा अंशों के पाठ और उनसे जुड़े लेखकों की राय को जानने-बताने के लिए प्रकाशन ने 'जाग उठे ख़्वाब कई'नाम से एक कार्यक्रम का आयोजन इंडिया हैबिट सेंटर(दिल्ली) के गुलमोहर सभागार में किया। अब यहां पर हमें साफ कर देना होगा कि हमारे लिए जाग उठे ख़्वाब कई सिर्फ साहिर लुधियानवी की रचनाओं के एक संचयन का नाम न होकर एक ऐसा कार्यक्रम/मोका हो गया जिसके जरिए हम अपनी विरासत को फिर से याद कर सकें। उन शख्सियतों के बारे में गहराई से जान-समझ सकें जिन्होंने कला,संगीत,गायन और अभिनय की दुनिया में मुकाम हासिल किया। जिनके गीतों के बोल अब भी हमारी जुबानों पर जिंदा हो आते हैं,जिनके शब्दों की छुअन हमारे रोएं को सिहरा जाती है और जिनकी तहजीब का कुछ हिस्सा सब कुछ बर्बाद हो जाने के वाबजूद भी हमारी रगो में किसी न किसी द्रव्य और अणु की शक्ल में दौड़ा करते हैं। हम कल की शाम इन अणुओं में दुगुनी गति भरने गए थे। बिंदास होकर मैं अपनी भाषा में कहूं तो हम अपनी जिंदगी की एक शाम अपने ही ख़्बावों को जानने-समझने के लिए गंवाने गए थे। इस एक शाम को गंवाकर उससे कई गुना ज्यादा बटोर लेने के लोभ में गए थे। हम ख़्वाबों पर सुनने के लिए ख़्वाबों की पूरी गठरी लेकर गए थे। इसलिए हमने साहिर के साथ जिन दूसरी पांच किताबों की चर्चा की गई,पंकज पचौरी सहित और जिन पांच लोगों ने अपनी बातें कहीं उन सबमें ख़्वाब के मायने तलाशने लग गए। कहीं-कहीं पर ये ख़्वाब हिन्दी में सोचे जाने पर सपने होते चले गए हैं। ऐसे में मैं आगे जो कुछ भी लिखता हूं वो इनके पूरी होने की खुशी और अधूरी रह जाने की झल्लाहट है। इसलिए ये कोई निष्पक्ष किस्म की रपट होने से कहीं ज्यादा निजी क्षुद्रताओं और लोभ में पड़े एक ख्वाहिशमंद की चिक-चिक भर है। बहरहाल

पंकज पचौरी ने आते ही जब कहा कि उन्होंने साहिर लुधियानवी की रचनाओं की किताब आज से ठीक 25 साल पहले पढ़ी थी तो उनके प्रति हमारे मंसूबे पहले से कई गुना ज्यादा बढ़ गए। हम सेंट्रल सेक्रेटेरियट से गुजरनेवाले हर ऑटोवाले को कोस रहे थे कि ये सब जाने से मना कर रहा है-पंकज पचौरी का कहा पक्का छुड़वाएगा। यहां उनकी ये लाइन सुनकर गद्-गद् हो गया। लेकिन उसके बाद उन्होंने साहिर की नज्मों को पढ़ते हुए जो-जो बातें कहनी शुरु की उससे दिल धीरे-धीरे बैठने लग गया। एकाध मिनट तो हमें भी मामले को समझने में लगा। 35 करोड़ का ये आंकड़ा पूरा का पूरा मेटाफर है इसे जानने में थोड़ा तो वक्त चाहिए। आज के यूथ को लेकर उन्होंने जो बातें कहीं उसके किसी-किसी हिस्से से हम भी इत्तफाक रखते हैं. लेकिन जब हम इतना समझ गए कि पाश की निगाह में यदि सबसे खतरनाक होता है-सपनों का मर जाना तो यहां कहने का लब्बोलुवाव है कि-सबसे खतरनाक होता है,खंडित सपनों का जिंदा रह जाना। ये खंडित सपने जो कि सिर्फ और सिर्फ भौतिक वस्तुओं तक आकर सेंट्रिक हो जाते हैं। उसके बाद मुझे नहीं लगता कि इन बातों को ही उन्हें पूरे वक्त तक खींचते चले जाना चाहिए था। इन्हीं युवाओं में से एक हिस्सा ऐसा है जो बाबूजी की पैबंद लगी लुंगी को परे हटाकर चांद मार्का लुंगी पहनाता है। माई की गिरवी/रेहन पर के जेवरों को गुड़गांव और नोएड़ा में ओवरटाइम करके छुड़ाता है। औने-पौने दाम पर बिकी खेत को खरीदने की जद्दोजहद करता है। इस 35 करोड़ का एक बड़ा हिस्सा है जो अपने से ठीक पहलीवाली पीढ़ी के कर्जे और दमित इच्छाओं को पाटने और पूरी करने में लगा है। चार दोस्त मिलकर अपने-अपने बटुए झाड़कर इस साहिर लुधियानवी की किताब को दिल्ली बुकफेयर में खरीदनेवाले इसी जमात के टुकड़े हैं। इसलिए पंकज पचौरी जब साहिर की पंक्तियों को पढ़ते जा रहे थे तो हमारे बीच ये उम्मीद बंध रही थी कि इसके साथ अब वो जो कुछ भी बोलेंगे उसमें पिछले 25 साल से लेकर अब तक के अन्तराल के बीच,बदलते हालातऔर शर्तों के बीच साहिर लुधियानवी की जो समझ है वो हमारे सामने निकलकर आएगा।..लेकिन मुझे अंत तक ये समझ नहीं आया कि अगर साहिर की व्याख्या,विश्लेषण और उनकी प्रासंगिकता को महज पिछले दस दिनों की घटनाओं और आनेवाले 15 दिनों( बजट) की घटनाओं तक जाकर बंध जाती है तो फिर इनके 25 साल पहले पढ़े गए साहिर के अनुभव और अंतराल की समझ को कहां से जानें। यकीन मानिए,हम तब बेचैन हो उठे कि वो हमें इस अंतराल की समझ को साझा करें। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।

इसकी क्या वजह हो सकती है,इसके विश्लेषण की गहराईयों में न भी जाएं तो एक-दो मोटी बातें जरुर समझ आ जाती है। यह भी कहिए कि समझ के साथ-साथ चिंता भी बढ़ती है। पहली बात तो ये कि क्या साहिर सहित दूसरे किसी भी रचनाकारों का विश्लेषण महज तात्कालिकता के दबाव में किया जाना उचित है? क्या उसमें अनुभवों का दौर शामिल किया जाना जरुरी नहीं है? जिस पॉपुलर संस्कृति का हम लगातार विरोध करते आए हैं,ये अलग बात है कि उसे बिना अपनाए हमारी जी भी नहीं भरता,आज हर बात को,हर कला और सांस्कृतिक रुपों को उसी के खांचे में विश्लेषित करने के लिए क्यों बेताब हुए जा रहे हैं? साहिर लुधियानवी को लेकर पंकज पचौरी ने जो कुछ भी बातें कही,संभव है कि वो प्रकाशक और किताब के पक्ष में जाती हो..उनके ये कहने से कि इस किताब को हर यूनिवर्सिटी बल्कि कोचिंग इन्स्टीट्यूट में होना चाहिए से प्रसार की एक नयी गुंजाईश बनती हो लेकिन विमर्श की दुनिया में इस तरह की स्टीरियोटाइप की चर्चा का क्या योगदान है,इस पर गंभीरता से विचार किया जाना जरुरी है। ये मामला जीन बौद्रिआं के कैपिटल C के तहत के विश्लेषण का हिस्सा न होते हुए भी स्टीरियोटाइप की समीक्षा और तुरत-फुरत की बयानबाजी के जरिए विमर्श की दुनिया को नॉनसीरियस बनाना जरुर है। इस पर आगे भी बात होनी चाहिए।

दूसरी बात कि टेलीविजन से जुड़े लोगों के लिए दुनिया का हर कोना आखिर न्यूज रुम ही क्यों है? कुछ दिनों पहले मैंने जैग़म की किताब 'दोजख़'पर बोलते हुए IBN7 के आशुतोष को सुना। एक से डेढ़ मिनट के बाद वो उसी तीन से चार चंक में मामले को निबटानेवाले अंदाज में आ गए। पंकज पचौरी के साथ भी यही मामला दिखा। हम टेलीविजन में ये कुछ ऐसे चेहरे हैं जिनकी जानकारी पर हमें फक्र होता है। जिनके लिए हम विरोधियों से लड़ पड़ते हैं। लेकिन इन्हें ये बात शिद्दत से महसूस करनी होगी कि विमर्श की एक अपनी रिवायत है और सुननेवाली ऑडिएंस जल्दीबाजी में निष्कर्ष निकालनेवाली नहीं होती। टेलीविजन से अलग उनकी बातों को गंभीरता से लेती है और गुनने का पूरा वक्त होता है। इसलिए उनकी कही गयी बातें बाइट की शक्ल में न आकर विचार की शक्ल में आए तो आगे शोध और अकादमिक जगत में भला हो सकेगा। विमर्श की दुनिया हड़बड़ी नहीं पेशेंस की मांग करती है। इन्हें वनलाइनर पॉपुलर फिलॉस्फर होने से बचना चाहिए। इसलिए हम ये कहें कि कल शाम पंकज पचौरी से हम युवाओं के सच को अगर जान पाए तो उससे भी बड़ा सच ये है कि हम उनके इस रवैये से आहत भी हुए।

दूसरी किताब "नौटंकी की मलिका गुलाब बाई" पर बात करने के लिए किताब की लेखिका दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा ने अच्छा प्रयोग किया। उन्होंने गुलाब बाई पर कोई पर्चा पढ़ने के बजाय स्लाइड के जरिए उन दुर्लभ चित्रों के जरिए उनसे जुड़ी बातों को बताती गयी जो कि हमें इतिहास से होकर गुजरने का एहसास करा गयी। चित्रों के साथ वो जो कुछ भी बोल रही थीं,साइज में वो अखबार के कैप्शन से ज्यादा भर तो न था लेकिन चित्रों की मुद्राओं के साथ वो बहुत ही फिट बैठ जा रहा था। इस पूरी किताब में क्या है,इसे आप पढ़कर ही समझें तो अच्छा है। लेकिन इसके जिन चुनिंदा अंशों का पाठ हेमा सिंह ने किया उससे हम युवाओं के वो ख्बाव एक बार फिर से परिभाषित होते जान पड़ते हैं। ये अंश हमें फिर से अपने ख़्बावों पर विचार करने के लिए विवश करते हैं-

गुलाब बाई के अंदर का कलाकार मन उदास रहता है।..बच्चे की किलकारी वो सुनती है लेकिन उसमें दर्शकों से मिली तालियों का संतोष न मिल पाता।..चंदर सेठ के यहां उसे किसी भी चीज की कमी न थी लेकिन गुलाब बाई ने मन की मन ठान लिया कि वो जिंदगी भर नौटंकी करेगी।(स्मृति पर आधारित लाइनें)
हममें से कितने लोग अपने-अपने क्षेत्र को अपने लिए,अपने जीवन का अंतिम सत्य के तौर पर परिभाषित कर पाते हैं? देश की कितनी लड़कियां शादी के बाद पति से अलग अपनी पहचान बनाने में अपने को लगा पाती है? सैकड़ों में एक भी मिल जाए तो अधिक है,अलबत्ता ये जरुर है कि निन्यानवें पति की पहचान के आगे अपनी पहचान डुबो देती है। हममें से कितने कलाकार के बीच शार्टकट से कहीं ज्यादा दर्शकों की तालियों की तड़प बरकरार है? इस अर्थ में ये किताब गुलाब बाई के प्रति दिलचस्पी रखने से कहीं ज्यादा हर उस शख्स के बीच जरुरत पैदा करता है जिसके बीच अपने काम के लिए एक कर्मचारी से अधिक एक कलाकार मन के जिंदा होने की मांग करता है। जो अपने काम को अंतिम परिणति के तौर पर परिभाषित कर सके।

इसे आप मेरी ओर से की गयी घोषणा का दबाव न समझें लेकिन ये सही है कि हमनें कुल छहों किताबों और वक्ताओं को ख़्वाबों को देखने और पुनःपरिभाषित करने के तौर पर समझा है। इस क्रम में "कुंदनःसहगल का जीवन और संगीत" के लेखक शरद दत्त का बयान मानीखेज है। शरद दत्त के इस किताब लिखने की प्रेरणा और अनुभवों को लेकर विस्तार में न भी जाएं तो भी फिलहाल किताबों और शोध प्रबंधों के लिखे जाने को लेकर जो गड़बड़ झाला चल रहा है उसका कच्चा-चिठ्ठा वो खोलकर रख देते हैं। शरद बताते हैं कि सहगल साहब के बारे में ये बात मशहूर रही है कि वो पीके गाया करते थे,लोग कहा करते कि वो दिन में ही पी लिया करते थे। लेकिन हमने पता लगाया तो एक बार उन्होंने बीयर पी थी और वो आउट हो गए,तब से नहीं पिया और दूसरी बात की वो डाइबिटीज के मरीज थे जिनके लिए शराब जानलेवा है।..यही बात उनकी मौत को लेकर अलग-अलग किस्म की बयानों से है। शरद की बातों का मतलब ये है कि उन्होंने कुल आठ साल इस किताब को लिखने में लगाया।...और हम? अब जरुरी नहीं कि हर बेहतर किताबें आठ साल पर ही लिखी जाए लेकिन सवाल है कि ऐतिहासिक तथ्यों को लेकर हम कितने सीरियस तरीके से काम कर पाते हैं? तथ्यों को लेकर हम कितने सीरियस हैं? अभी एक अखबारी रिपोर्ट है कि हिन्दी के किसी महानुभाव ने एम.फिल् की पूरी थीसिस में यूजीसी नेट के लिए छपी प्रतियोगिता गाईड को बतौर रेफरेंसेज के तौर पर इस्तेमाल किया। इसलिए जाग उठे ख़्वाब कई ये कार्यक्रम,जान गए ख़्वाब कई के तौर पर भी समझ आने लगा।

साहिर लुधियानवी की किताब"जाग उठे ख्वाब कई" बात करते हुए किताब के संपादक-संचयक मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह ने कहा कि मुझे लगता है कि साहिर अकेले ऐसे रचानकार हैं जिसे अपने अतीत से नफरत है,वो अपने इतिहास को भूलना चाहता है। वो अपने परिवार को भूलना चाहता है क्योंकि उसने समाज के खिलाफ काम किया,शासकों की खुशामदी की। वो अपने पीछे के वंश को भुला देना चाहते हैं। इस मायने में वो बहुत ही ईमानदार रचनाकार रहे हैं. वंश को भुलाने की इस बात पर कार्यक्रम के संचालक एस.एस.निरुपम(संपादक,पेंग्विन हिन्दी) ने अनुराग कश्यप नाम को खूबसूरती से इस्तेमाल करते हुए कहा कि लेकिन साहिर ने पीछे के वंश को भुलाते हुए भी आगे के वंश बीज जरुर डाल दिए। शायद यही वजह है कि अनुराग कश्यप जैसे लोग लिखते हैं कि-साहिर के गानों ने मुझे दिशा दी है। अपनी आवाज मैंने उनके गीतों में पायी थी। असल सवाल यही है कि हममे से कितने लोग ऐसे परिवारों को भुला देने की बात तो दूर,कोशिशभर करते नजर आते हैं? सच बात तो ये है कि इस देश में अधिकांश प्रतिभाओं के फूल को अगर पल्लवित होना है तो उसके लिए वंश-बेल से ही खाद-पानी मुहैया कराए जाएंगे। नहीं तो प्रतिभाओं को झड़बेर की तरह झड़ते देर नहीं लगती।

शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां की जिंदगी पर "सुर की बारादरी"नाम से यतीन्द्र मिश्र ने किताब लिखी है। ये दरअसल उस्ताद से यतीन्द्र की हुई बातचीतों और मुलाकातों की किताबी शक्ल है जिसे आप संस्मरण और जीवनी लेखन के आसपास की विधा मान सकते हैं। किताबों पर विस्तार में बात न करते हुए यहां हम फिर उस्ताद बिस्मिल्ला खां के उस प्रसंग को उठा रहे हैं जो कि हमारे ख़्वाबों को पुनर्परिभाषित करने के काम आ सके। बकौल यतीन्द्र मिश्र-

तब उस्तादजी को 'भारत रत्न'भी मिल चुका था। पूरी तरह स्थापित और दुनिया में उनका नाम था। एक बार एक उनकी शिष्या ने कहा कि- उस्तादजी,अब आपको तो भारतरत्न भी मिल चुका है और दुनियाभर के लोग आते रहते हैं आपसे मिलने के लिए। फिर भी आप फटी तहमद पहना करते हैं,अच्छा नहीं लगता। उस्तादजी ने बड़े ही लाड़ से जबाब दिया- अरे,बेटी भारतरत्न इ लुंगिया को थोड़े ही न मिला है। लुंगिया का क्या है,आज फटी है,कल सिल जाएगा। दुआ करो कि ये सुर न फटी मिले।..ये है हमारे ख़्वाबों का जमीनी स्तर का विश्लेषण जिसे कि उपर पंकज पचौरी कन्ज्यूमरिज्म और जीडीपी के आंकड़ों के जरिए हमें समझा रहे थे।

"नौशादः ज़र्रा जो आफताब बना",नौशाद पर ये किताब चौधरी जिया इमाम ने लिखी है। संचालक के निर्देश से घबराकर की दो-तीन वाक्यों में इमाम साहब ने अपनी बात रखें,इमाम साहब ने दो शेर पढ़े। जिस पर्चे पर वो शेर मैंने नोट किया वो मेट्रो की धक्का-मुक्की में हमारी पहुंच से बाहर चला गया,अफसोस हम लिख नहीं पा रहे। लेकिन किताब के परिचय में प्रेस रिलीज से मिली ये लाइनें चस्पा दे रहा हूं-
यह कहानी है लखनऊ के उस जर्रे की,जिसने बता दिया कि जर्रे आफताब कैसे बना करते हैं। हमने सिर्फ कहानियों में पढ़ा और सुना है ध्रुव के बारे में,जो एक दिन सितारा बन गया और आज भी आकाश में अटल-अडिग टिमटिमाता है। शायद उसी से प्रेरणा लेकर नौशाद साहब ने भी दिखा दिया कि कैसे होते हैं वे जर्रे,जो आफ़ताब बनने की ताकत रखते हैं और अपनी रौशनी से पूरी दुनिया को मुनव्वर कर देते हैं।

इन छहों किताबों को लेकर लेखकों और जानकारों ने जो परिचय दिए हैं और जो बातें कही है उससे एक दावा तो जरुर बनता है कि इसके जरिए न केवल इन शख्सियतों से एक मुक्कमल पहचान बन सकेगी बल्कि अपने जमाने के ख़्वाबों जो कि एक हद तक उपभोगक्तावाद के गडढों में जाकर सिकुड़ गयी है,उससे निकलकर दूसरी तरफ का विस्तार भी मिल सकेगा। ये सारी किताबें युवाओं के ख्वाबों को विश्लेषित करने के लिहाज से अनिवार्य हैं। लेकिन बहस का ये सिरा अब भी बचा रह जाता है कि इन लीजेंड और क्लासिक रचनाकारों/कलाकारों को स्टीरियोटाइप की चर्चाओं में समेट लिया जाना कितना असहनीय है? इनलोगों पर नए सिरे से चर्चा की शुरुआत होने के वाबजूद भी कहीं ने कहीं से एक टीस जरुर उठती है कि क्या ये इसी काबिल शख्स हैं? पेंग्विन और यात्रा प्रकाशन की इस पहल की सराहना करते हुए भी हम उम्मीद करते हैं कि वो बहस की इस गंभीरता को समझेंगे। आनेवाले समय में इसे गंभीर विमर्श तक ले जाएंगे और इस दिशा में इससे प्रेरित होकर हिन्दी के दूसरे प्रकाशक भी बेहतर पहल करेंगे। ऐसी शख्सियतों पर बहुत सारी बातें,लेखन,विमर्श और शोध की जरुरत बनी हुई है।

नोट- गुलाब बाई का प्रसिद्ध और दुर्लभ रिकार्ड गीत 'नदी नारे न जाओ सईयां'का तकनीकी झंझटों की वजह से प्रकाशक के वायदे के वाबजूद हम बेहतर तरीके से आनंद न उठा सके,इसलिए इसकी चर्चा अलग से फिर कभी। मशहूर सूफी गायक मदन गोपाल सिंह समय की किल्लत और गले की तकलीफ की वजह से पूरे फार्म में नहीं आ पाए लेकिन आपको जब भी मौका मिले,उन्हें लाइव कन्सर्ट में जरुर सुनें। अलग किस्म का अनुभव होगा। इस जाग उठे ख़्वाब कई में हमने( मैं और मिहिर सहित बाकी कई लोगों ने) पेस्ट्री और स्नैक्स को देखकर जो ख़्वाब जगे थे उसका दमन किया। सिर्फ चाय/ब्लैक टी से काम चलाया।..मजबूरी में ही सही, थोड़ी देर के लिए भौतिकतावाद से उपर उठ गए।
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अगर आप दो दिनों से जीमेल खोल रहे हैं तो देख पा रहे होंगे कि इनबॉक्स के ठीक नीचे एक छुटपन में खेले गए चार रंगों वाला गेंद आ रहा होता है। इस पर क्लिक करते हुए ये फटा हुआ गेंद हो जाता है जिससे हवा नहीं शब्द और अभिव्यक्ति निकलते हैं। ये गेंद दरअसल फेसबुक और ट्विटर के अखाड़े में उतरकर इसकी बाट लगाने की तैयारी में है।

इन दोनों सोशल साइटों से गूगल को अच्छा-खासा नुकसान होता आया है। हिन्दुस्तान में ट्विटर तो कम लेकिन फेसबुक की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी है। मोबाईल कंपनियों ने तो बाकायदा इसके लिए विज्ञापन करने शुरु कर दिए हैं। अपने विज्ञापनों में तमाम सुविधाओं के साथ मोबाईल स्क्रीन पर फेसबुक को भी शामिल करते हैं। व्यक्तिगत तौर पर भी महसूस करें तो फेसबुक के आने से गूगल की सोशल साइट ऑर्कुट पर हम जैसे लोगों की गतिविधियां पहले के मुकाबले बहुत ही कम रह गयी है। इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि शुरु से फेसबुक की ब्रांड इमेज एक इलीट क्लास की सोशल साइट के तौर पर बनी जबकि ऑर्कुट कहने से ही टाइमपास या खलिहर लोगों की साइट होने का आभास होता रहा। इसे लेकर एक देसी मुहावरा भी चल निकला- इस देश में दो लोगों की संख्या बहुत परेशान करती है-एक आर्कुट लोगों की और दूसरा चिरकुट लोगों की। आर्कुट की ब्रांड इमेज का नुकसान बाद में आनेवाली सोशल साइटों के आने से साफ तौर पर दिखने लगा। यानी साइबर स्पेस की दुनिया में गूगल के लिए ये एक कोना ऐसा बनने लग गया जहां कि उसे किसी ने शिकस्त देने का काम किया। लेकिन गूगल अपने को हारा हुआ मान ले,भला ये कैसे संभव है?

इसलिए उसने 'BUZZ'नाम से एक ऐसी सेवा शुरु की जिसमें कि फेसबुक और ट्विटर दोनों का मजा मिल सके। मुहावरे की भाषा में कहें तो एक दोने में तेरह स्वाद। अब देखिए। जीमेल पर स्टेटस तो हमलोग पहले भी लिखते आए हैं। मैं जब शुरु-शुरु साइवर की दुनिया से जुड़ा और जीमेल फ्रैंडली हुआ तो देखा कि लोग स्टेटस के नाम पर किसी महान रचनाकार, चिंतक,कलाकार या हस्तियों के कथन डाला करते थे। जिसे पढ़ते हुए आपको बंदे के सरोकार का एहसास हो। आपको अंदाजा लग जाए कि उसकी पढ़ने-लिखने की रुचि किस तरह की है? बाद में लोगों ने इसे अपने ब्लॉग की हिट्स बढ़ाने के तौर पर इस्तेमाल करना शुरु किया। हम जैसे लोग आज भी इसके लिए बदस्तूर लगे हुए हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कि व्यक्तिगत रचनाओं से उपर उठकर दूसरे की रचनाओं और साइटों के लिंक डाले रहते हैं। एक तीसरी स्थिति ये भी है जिसका कि मैं सबसे ज्यादा इस्तेमाल करता हूं वो ये कि जितनी देर ऑनलाइन रहता हूं उतनी देर मूड और स्थिति के हिसाब से स्टेटस बदल देता हूं। मसलन पढ़ते हुए लिखता हूं- मत छेड़ो प्लीज। इसी बीच बारिश होने लग गयी तो- कॉफी पीने आ जाओ न प्लीज। वो मना करती है,मैं तो चला खाने,उसने कहा,जल्दी क्या है? इस तरह से जब भी मैं लिखता हूं तो साथ में जो लोग ऑनलाइन होते हैं अक्सर पोक करके पूछते हैं-किसके बारे में लिखा है,किसने मना कर दिया,कौन कहता/कहती है जल्दी क्या है जैसे सवाल करते हैं? कई बार रहा नहीं जाता तो फोन करके पूछते हैं,अरे किसे कॉफी पर बुला रहे हो? लेकिन ये सबकुछ 'इन्टरपर्सनल टॉक'का हिस्सा बनकर रह जाता। इसमें बाकी के लोग शेयर नहीं कर पाते। बड़ी ही व्यक्तिगत किस्म की बात बनकर रह जाती है ये सारी चीजें। फेसबुक और ट्विटर यहीं पर अपनी धाक जमाता चला गया है।

मुझे लगता है कि गूगल ने इन सारी बातों को गंभीरता से समझा है और खासकर इन दोनों सोशल साइटों को बाट लगाने के मूड में आ गया। 'BUZZ' इसी का नतीजा है। अब देखिए,आप जीमेल पर काम करते रहिए। आप देखेंगे कि आपके लिखे स्टेटस पर कमेंट्स आ गए। हिन्दी समाज की बुनियादी विशेषता आपके स्टेटस से जुड़ती चली जाएगी कि बात निकली है तो दूर तलक जाएगी टाइप की। इसमें फेसबुक की तरह अलग से ब्राउसर खोलने की भी जरुरत नहीं। ये साइवेर स्पेस की हमारी कई तरह की गतिविधियों को एक जगह पर एसेम्बल कर देता है। अभी तो जुम्मा-जुम्मा तीन-चार ही दिन हुए हैं,मुझे लगता है कि आनेवाले समय में इसमें और भी कई सुविधाएं जुड़ जाएगी।..और फेसबुक औऱ ट्विटर तरीके से आमलोगों के बीच पॉपुलर हो इसके पहले ही 'BUZZ'अपने पैर पसार लेगा।

इन तमाम तरह की अटकलों को लेकर हमारी चैट लिस्ट में जो लोग शामिल हैं उनके बीच विमर्श का दौर शुरु हो गया है। दिलीप मंडल के हिसाब से फेसबुक को ये गूगल का जवाब है। बढ़िया तो है, लेकिन किसी एक प्लेयर का इतना ताकतवर होना खतरनाक भी हो सकता है। मजेदार रहेगी ये भिड़ंत। वहीं अविनाश का सवाल है कि-कोई भी ऐसी नयी चीज़ आती है,तो लोग कविताएं पढ़ाना क्‍यों शुरू कर देते हैं? इस पर सुशांत झा की राय है कि-हमारे तमाम कवि आलोचकों के वार से लहूलुहान हो चुके हैं...मजे की बात ये है कि आलोचकों के गिरोह को इंटरनेट ऑपरेट करना नहीं आता...इसलिए कविता यहां आ गई है।

'BUZZ'को लेकर राय देने का सिलसिला जारी है। अभी मामला वही है- जितने मुंह उतनी बातें। कुछ और कमेंट आने दीजिए,कुछ और लोगों को इस विमर्श में शामिल होने दें तब विस्तार से इसकी चर्चा की जाएगी। फिलहाल इस बज को आप भी आजमाइए और बजबजाते हुए इस समाज में कुछ बचाने के लिए ये काम आएगा इस पर विचार कीजिए।..
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खिलखिलाते मासूमों को सोने के अंडे देनेवाली मुर्गी में तब्दील कर दिए जाने की टेलीविजन चैनलों की इस कवायद को लेकर अब सरकार सीरियस नजर आ रही है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग(national comission for protection of child right)का मानना है कि रियलिटी शो में हिस्सा लेनेवाले बच्चों पर इतना अधिक दवाब होता है कि उनका बचपन खत्म हो जाता है। हमें इसे बचाने की जरुरत है। इस मामले में एनसीपीआर की सदस्य संध्या बजाज का मानना है कि- जब राष्ट्रीय बाल आयोग ने ये देखा कि सिंजनी केस हुआ और वैसे भी टीवी को मॉनिटर किया हमने,कंटेंट्स देखे तो हमने पाया कि वहां जजेज किसी भी तरह का कमेंट करते हैं और बच्चे जो हैं वो डिमॉरलाइज होते हैं। उन पर ऑलरेडी इतना एस्ट्रेस होता है और उसके साथ-साथ वो और डिप्रेस हो जाते हैं।

टेलीविजन इतिहास में 8 साल की कोलकाता की सिंजनी का मामला वो दिलचस्प मोड़ है जहां से सरकार सहित स्वयंसेवी संस्थाओं ने टेलीविजन में काम कर रहे बच्चों के बारे में सीरियसली सोचना शुरु किया। ये अलग बात है कि इस बीच बाल दिवस और दूसरे उत्सव के मौके पर इनसे जुड़ी ग्लैमरस खबरें आती रही। ये खबरें बाल कलाकारों के प्रति चिंता पैदा करने से कहीं ज्यादा इनके ग्लैमर,आकर्षण और उपलब्धियों पर ही फोकस होते रहे हैं। ऐसे मौके पर एक तरफ बाल मजदूरों की बात की जाती तो दूसरी तरफ बाल दिवस की शाम लिटिल चैम्पस, हंसी के हंसगुल्लों और बूगी-बूगी के बाल कलाकारों से सज जाते। इन कार्यक्रमों का ग्लैमर इतना अधिक हुआ करता कि दोपहर में बाल अधिकारों को लेकर दिखाई गयी स्टोरी फीकी पड़ जाती। दूसरी बात कि बाल अधिकार और श्रम पर दिनभर बनायी और दिखायी गयी स्टोरी में वो बच्चे शामिल होते जिनका कि इस ग्लैमर की दुनिया से कोई लेना-देना नहीं होता। दोनों अपने-अपने स्तर पर बचपन को खो रहे होते हैं लेकिन टीवी शो के बच्चों के केस इस श्रम और अधिकार के तहत शामिल नहीं किए जाते। यहां आकर आप समझ सकते हैं कि आज सरकार के कानून बनाए जाने के बाद न्यूज चैनल,चाहे मनोरंजन चैनलों पर कितनी भी दहाड़ लगाए लेकिन उसने खुद कभी भी इस ग्लैमर के बीच के दर्द को हमारे सामने लाने की कोशिश नहीं की है। बहरहाल

सरकार ने टीवी शो और बाल कलाकारों को लेकर नियम बनाए हैं कि-
- 8 साल से कम उम्र के बच्चे अब रियलिटी शोज में हिस्सा नहीं ले सकते।

- बच्चे की जो भी कमाई हो उसे नकद की जगह फिक्स डिपोजिट और एजुकेशनल बांड में डाला जाएगा। ये रकम उसे तभी मिलेंगे जब वो 18 साल का होगा।

- नए कायदो के मुताबिक बच्चे एक दिन में 4 घंटे से ज्यादा शूटिंग नहीं कर सकते।


सरकार ने टेलीविजन के बाल कलाकारों के अधिकारों और उसके जीवन की सुरक्षा को लेकर जो नियम बनाए हैं वो अपनी जगह तो एक हद तक ठीक है लेकिन असल सवाल है कि उन नियमों का पालन किस हद तक हो पाता है? ये एक गंभीर सवाल इसलिए भी है कि इन नियमों को तोड़ने में जितने अधिक टीवी चैनल के लोग शामिल होंगे,उससे कहीं भी कम शो में शामिल बच्चों के मां-बाप नहीं होंगे। एक नियम के बन जाने भर से इनकी स्थिति में सुधार होगें इससे कहीं ज्यादा इस बात पर सोचने की जरुरत है कि प्रैक्टिस में जो चीजें हैं उसे किस तरह से दुरुस्त किए जाएं। इसलिए ये मसला जितना अधिक कानून का है उससे कहीं ज्यादा सोशल इंजीनियरिंग का।

ये ऐसे नियम हैं जिसकी सख्ती से लागू करने की बात पर विचार करें तो टीवी चैनलों के साथ-साथ बच्चों के मां-बाप को भी असुविधा हो सकती है। मसलन सबों के मां-बाप इस बात को कितनी आसानी से पचा पाएंगे कि उनके बच्चों को मिलनेवाले पैसे के लिए उन्हें 10-12 साल तक इंतजार करना पड़ेगा। एक औसत मध्यवर्गीय समाज के मां-बाप के लिए अपने बच्चों का टेलीविजन स्क्रीन पर आना स्टेटस सिंबल है। लेकिन इस स्टेटस सिंबल के बाद का दूसरा बड़ा लोभ है कि इसके जरिए उन्हें मोटे पैसे मिलते हैं। इसलिए बहुत हद तक संभव है कि कागजी तौर पर ये मां-बाप टीवी चैनलों से सरकारी नियमों के थोड़े हिस्से को मान लें लेकिन बाकी हिस्से को आपसी निगोशिएशन के तहत निबटा लेंगे। तय की गयी रकम वो नहीं होगी जो कि बच्चों के फीक्सड डिपोजिट और एजुकेशनल बांड में डाले जाएंगे। करार ये होगा कि इतने पैसे इस खाते में डाले जाएंगे और इतने पैसे नकदी आपके हाथ में। टेलीविजन इन्डस्ट्री के बीच की बाकी की घपलेबाजी के बीच एक नए किस्म की घपलेबाजी पनपेगी जिसमें हारकर बच्चों के साथ ही खिलवाड़ होना है।ये भी संभव है कि इस निगोसिएशन में किसी के मां-बाप चैनलों की ओर से ठगे भी जाएं। ऐसे में देखना होगा कि ये मां-बाप चैनलों के विरोध में आवाज उठा पाते हैं भी या नहीं। इसके साथ ही दिन-रात ग्लैमर के गलियारों में दौड़ लगा रहे न्यूज चैनलों से जुड़े लोग इस तरह की खबरों को सार्वजनिक कर पाते भी हैं या नहीं। ऐसे में जरुरी है कि सरकार की ओर से जब भी ऐसे नियम बनाए जाते हैं जो कि एक हद तक सब्जेक्टिव मामला उसके लिए फॉलो अप कमेटी का गठन किया जाए जो कि नियमों के साथ-साथ टेलीविजन की व्यावहारिक समझ रखते हुए काम करने लायक हों।
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इस देश में दो प्रतिशत भी पत्रकार सही तरीके से आवाज उठाने लग जाएं,ईमानदारी से अपने काम करने लग जाएं तो मीडिया की तस्वीर बदल जाएगी। मेधा पाटकर के ऐसा कहने का सीधा मतलब है कि इस देश में ईमानदार पत्रकारों की संख्या नहीं के बराबर रह गयी है। मेधा पाटेकर की इस बात से जानी-मानी टेलीविजन पत्रकार और मीडिया शिक्षक वर्तिका नंदा सहमत नहीं है। उनका मानना है कि इस देश में दस प्रतिशत से भी ज्यादा पत्रकार ईमानदार हैं। ये अलग बात है कि स्थितियां ऐसी है कि अब उऩकी सुनी नहीं जाती। इस मसले पर मीडिया के चर्चित शिक्षक और कॉलमनिस्ट आनंद प्रधान का साफ मानना है कि अब बात ईमानदार पत्रकार के होने या नहीं होने का नहीं है। अब मीडिया हाउस में स्थिति ही ऐसी नहीं रह गयी है कि किसी पत्रकार के बीच ये विकल्प रह गए हैं कि वो चाहे तो ईमानदारी से अपना काम करे या फिर बेईमानी में शामिल हो जाए। पूरा का पूरा अखबार ही ऐसा हो गया है कि उसे हर-हाल में तिकड़मों में शामिल होना होगा। उसकी योग्यता ही इसी बात से तय होती है कि वो मालिक के मुनाफे के लिए काम कर पा रहा है या नहीं। मीडिया संस्थानों के भीतर एक विकल्पहीन दुनिया है और उसी के भीतर पत्रकार काम कर रहे हैं। इस पूरे मामले को वरिष्ठ पत्रकार और संपादक अरविंद मोहन एक बहुत ही कॉम्प्लेक्स सिचुएशन मानते हैं और उनके हिसाब से इतना आसान नहीं है कि इसे कोई एक सिरे से दुरुस्त किया जा सके। इसके लिए एक लम्बी लड़ाई लड़ने की जरुरत होगी। कल्लोल पत्रिका के संपादक और स्वतंत्र पत्रकार चैतन्य प्रकाश इस लड़ाई को दोतरफे स्तर की सक्रियता से जोड़कर देखते हैं। एक तो ये कि आज का पत्रकार अपने स्तर पर बहुत ही निरीह हो गया है,उसकी आवाज सुनी नहीं जाती,हमें इसके लिए काम करने होंगे और दूसरा कि मीडिया के भीतर संवेदना का स्वर खत्म होता जा रहा है। हमें इसे फिर से लाना होगा।

इन सारे वक्ताओं ने मीडिया,पत्रकारिता,विज्ञापन,कंटेंट के भीतर की गड़बड़ियों और उम्मीदों को लेकर जो भी बातें कही वो दरअसल विश्व पुस्तक मेला,दिल्ली में(4 फरवरी) वाणी प्रकाशन की ओर से आयोजित "पेड न्यूजःकितना घातक" एक संवाद का हिस्सा है। पेड खबरों को लेकर पहले प्रभाष जोशी और अब पी.साईनाथ के 'दि हिन्दू' में लगातार लिखे जाने के बाद से मीडिया विमर्श की दुनिया में पैसे देकर खबर छापने या दिखाए जाने को लेकर गंभीर बहसें शुरु हो गयी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में पेड न्यूज के खिलाफ राजदीप सरदेसाई ने मुहिम छेड़ रखी है। ये अलग बात है कि CNN IBN पर 'सेव इंडिया'(shave india) का अभियान इसलिए चला कि उसका प्रायोजक GILLETTE जैसी कंपनी रही।

बहरहाल,शुरुआती दौर की इन बहसों से पैसे देकर खबरें छापने और दिखाए जाने पर अभी कोई बहुत साकारात्मक असर नहीं हुआ है। अव्वल तो अखबारों में अंदाजा भी लग जाता रहा है कि कौन सी खबर पैसे लेकर छापी गयी है,उसके उपर पेड न्यूज के लेबल लगने चाहिए लेकिन न्यूज चैनलों के मामले में अभी तक इसे साफ तौर से पकड़ पाना मुश्किल है। राजनीति से जुड़ी खबरों में ये भले ही आभास हो जाए लेकिन खासतौर से मनोरंजन से जुड़ी खबरों में इसका घालमेल जिस तेजी से होता है उस पर बात किया जाना बाकी है। लोकसभा चुनावों में वाकायदा अखबारों के पैकेज खरीदकर प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने का जो खेल शुरु हुआ वो लगातार बहसों और विरोध के वाबजूद भी महाराष्ट्र में पैसे के दम पर अशोक चाह्वाण को 'सम्राट अशोक'साबित करने में अखबारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। झारखंड के चुनाव में हम पेड न्यूज के कारनामें पहले ही देख चुके हैं।


पेड न्यूज की जो पूरी प्रक्रिया है वो मार्केटिंग और क्लाइंट के बीच की प्रक्रिया है। इसके बीच जो कंटेंट का सवाल है वो इन दोनों की ओर से अपने-अपने हित में प्रभावित करते हैं। ऐसे में इस पर चलायी जानेवाली बहसों का असर इस बात से होगा कि ये मार्केंटिक और क्लाइंट के बीच की अपनी दखल को कितनी मजबूती दे पाते हैं? सिर्फ मीडियाकर्मियों और संपादन के स्तर की नैतिकताओं से काम नहीं बननेवाला है। इस बात पर जोर देना और सीरियसली समझना इसलिए भी जरुरी है कि संवाद में शामिल चाहे जिस भी वक्ता ने अपनी बात रखी उसमें ये बात साफ तौर से निकलकर आयी कि पत्रकारिता के भीतर जो कुछ भी गिरावटें आ रही हैं चाहे वो कंटेंट को लेकर हो या फिर एथिक्स को लेकर उसके मूल में मालिक के हितों की रक्षा करने का दवाब ही है। इसके एक दो उदाहरण जो कि वक्ताओं की ओर से दिए है,उसे शामिल करना जरुरी होगा।

आनंद प्रधान ने अंबानी बंधुओं के विवाद को खबर नहीं बनाए जाने की घटना का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि किसी भी अखबार ने इस खबर को प्रमुखता नहीं दी और अंत में उन्हें खुद विज्ञापन देकर ये बतलाना पड़ा कि मामला क्या है? वर्तिका नंदा ने कहा कि कॉमनवेल्थ को लेकर जो भी खबरें दिखाई जा रही है वो उपर के कुछेक अधिकारियों को लेकर बातें कर दी जाती है। ये खबरें राजनीतिक स्तर पर जाकर रह जाती है। लेकिन इस बात की कहीं कोई चर्चा नहीं है कि अगर आनन-फानन में स्टेडियम और दूसरी चीजें बना भी दी गयीं तो सुरक्षा की दृष्टि से ये कितने भरोसमंद होंगे,इसे सामने नहीं लाया जा रहा। अगर कोई खबर पेड है तो उसे पाठकों को बताया जाना जरुरी है,ऐसा नहीं करने पर उनके साथ धोखा है। मीडिया उसी के भरोसे को लेकर काम करने का अधिकार पाता है। अमृता राय ने खबरों को लेकर उस बड़े घपलेबाजी को देखने-समझने की बात कही जहां कार्पोरेट की खबरें हमारे सामने आने ही नहीं पाती। हम तक उन खबरों को जान ही नहीं पाते जब तक कि कार्पोरेट हाउस खुद आकर घोषणा न कर दे कि हम दिवालिया हो गए है। इसमें ऐसा नहीं है कि पत्रकार इन खबरों को जानते नहीं है लेकिन असल मसला है कि उसे छापा और दिखाया नही जाता। ऐसा करने से विज्ञापन को लेकर दिक्कतें होगी और मालिकों का नुकसान होगा।

इस तरह इस संवाद से ये बात निकलकर आयी कि ऐसा होने से खबरों के चरित्र को लेकर किस स्तर का बदलाव आया है। पैसे देकर खबरें छापने,पूरी तरह विज्ञापन के अधीन होकर काम करने से खोजी पत्रकारिता का कोई मतलब नहीं रह गया है। खबरें कुछ ही घटनाओं और गतिविधियों को लेकर सेंट्रिक हो गयी है। आनंद प्रधान के शब्दों में ये पेड न्यूज का ही असर है कि स्टिंग ऑपरेशन दो-चार कमजोर मंत्रियों तक जाकर खत्म हो जाते हैं। बाकियों पर कोई असर नहीं होता। उत्तर प्रदेश चुनाव में मिले अपने अनुभव का जिक्र करते हुए कहा कि पत्रकार खुलेआम उन नेताओं की रैलियों और सभाओं को कवर करने से मना कर देते हैं,एक लाइन नहीं लिखते जिसने कि अखबार के पैकेज नहीं लिए हैं। आनंद प्रधान की इस बात को चैतन्य प्रकाश माननीय सरोकारों से जोड़कर देखते हैं। उनके हिसाब से खोजी पत्रकारिता एक प्रतीकात्मक बनकर रह गयी है। ऐसा होने से न सिर्फ राजनीति में बल्कि आम लोगों के हितों से पत्रकारिता बहुत दूर चली गयी है। पत्रकारिता के भीतर संवेदनशीलता और मानवीय पहलुओं का तेजी से लोप होता चला जा रहा है। बात भी सही है कि जब मुनाफे को ध्यान में रखते हुए नेताओं और असरदार लोगों तक की कवरेज नहीं होती तो फिर आम आदमी के प्रति संवेदनशील होने की गुंजाईश कहां बचती है? चैतन्य प्रकाश के हिसाब से आम आदमी जहां इस तरह की पत्रकारिता से जहां डिस्कनेक्ट कर दिया गया है वही अमृता राय इसे आम आदमी को रिजेक्ट कर दिया जाना मानती है। कुल मिलाकर कहानी वही है जो कि किसानों को लेकर हो रहा है,मजदूरों को लेकर हो रहा है,संसाधनों में गरीब तबके की हिस्सेदारी को लेकर जिस तरह के गैर मानवीय रवैये अपनाए जा रहे हैं,मेधा पाटेकर के अनुभव से वो सबकुछ अब मीडिया में भी शामिल है। यानी देश के बाकी संसाधनों की तरह खबरों पर भी आम आदमी का कोई अधिकार,हिस्सेदारी और दखल नहीं रह गयी है। ये भी पूंजी और कॉर्पोरेट की तरह अपना असर पैदा कर रहे हैं। मेधा पाटेकर इसकी बड़ी वजह मीडिया संस्थानों के विकेन्द्रित होने को मानती है।

आश्चर्य और अफसोस जाहिर करते हुए मेधा पाटेकर का मानना है कि उपरी तौर पर ऐसा देखने में लगता है कि मीडिया संस्थानों का तेजी से विस्तार हो रहा है। आए दिन नए अखबार औऱ चैनल खुल रहे हैं। इससे एकबारगी ऐसा लगता है कि किसी न किसी के जरिए आमलोगों की आवाज सुनी जाएगी लेकिन दरअसल ये मीडिया का विकेन्द्रीकरण न होकर इसका लगातार केन्द्रीकृत होता जाना है। पाटेकर की इस बात से संवाद का रुख खबरों के चरित्र से आगे बढ़कर मालिकाना हक की ओर विस्तार पाता है और इसमें एक बार फिर सारे वक्ता शामिल होते हैं। अमृता राय इस संवाद में सूत्रधार की भूमिका में होती हैं औऱ वही इस पूरे विमर्श को एक-दूसरे की बातों से जोड़ते हुए आगे बढ़ाती है। उनके इसी सूत्रधार की भूमिका से ये बात निकलकर सामने आती है कि तो आखिर उपाय क्या है,जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे। मेधा पाटेकर मीडिया के केन्द्रीकृत हो जाने की बात कर रही हैं उससे ये साफ है कि दुनियाभर के मीडिया हाउसों,चैनलों और अखबारों के खुल जाने के वाबजूद भी चारित्रिक स्तर पर उनमें कोई बदलाव नहीं आता। इसका साफ मतलब है कि वो मीडिया के भीतर मुनाफे के खेल औऱ मजबूती दे रहे होते हैं। अरविंद मोहन ने इसी बात तथ्यों के आधार पर विश्लेषित करते हुए बताया कि- देश में जो भी मीडिया है उस पर मात्र चौदह घरानों का मालिकाना हक है। इतना ही नहीं जिस घराने का अखबार है उसका रेडियो भी है,टेलीविजन भी,वेबसाइट औऱ पोर्टल भी है। वही घराना फिल्मों के वितरण का भी काम कर रहा है। मतलब ये कि इस बात को लेकर कोई एथिक्स और प्रावधान नहीं है कि एक घराने को आखिर कितने माध्यमों का लाइसेंस दिया जाए? आनंद प्रधान ने इसे नाजायज और रोके जाने की दिशा में कार्यवाही करने की बात की। उन्होंने बहुत ही साफ शब्दों मे कहा कि ऐसा हो कि जो देश कै नंबर वन चैनल है उऩ्हें रेडियो चकाने के लाइसेंस न दिए जाएं। एक अखबार कितनी पत्रिकाएं चलाएगा,ये सबकुछ तय हो। यानी कि ये जरुरी है कि विकेन्द्रीकरण का काम माध्यमों को लेकर विकेन्द्रीकृत किए जाने से हो। ऐसा होने से छोटे-छोटे समूहों के भी माध्यमों के पनपने की गुंजाइश बन सकती है। कुछ लोग आपस में जुड़कर,अपने एफर्ट से मीडिया चाहे वो प्रिंट हो,पत्रिका हो या फिर रेडियो हो,इसकी न केवल शुरुआत कर सकते हैं बल्कि वो इन बड़े घरानों के हाथों कुचले नहीं जाएंगे। विमर्श का ये सिरा आगे जाकर वैकल्पिक मीडिया की जरुरतों पर जाकर खुलता है।..और जो बात मेनस्ट्रीम की मीडिया की गड़बड़ियों और उसे दुरुस्त करने से शुरु होती है उसी क्रम में इस बात पर भी चर्चा होती है कि वैकल्पिक मीडिया को मजबूती दी जाए।

चैतन्य प्रकाश की बातचीत का बड़ा हिस्सा इस बात पर ही केन्द्रित रहा कि जब भी हम वैकल्पिक मीडिया की बात करते हैं तो सिर्फ अखबार और पत्रकाओं तक आकर सीमित क्यों हो जाते हैं? हम चैनलों औऱ बाकी दूसरे माध्यमों की बात क्यों नहीं करते? हमें अपने प्रयास से इसे भी खड़ा करना होगा। इसी बात को आनंद प्रधान ने कॉर्पोरेट मीडिया से अलग की मीडिया के विस्तार की बात कही और मेधा पाटेकर को संबोधित करते हुए कहा कि आप तमाम तरह के सामाजिक मसलों पर आंदोलन चली रही हैं,ये अच्छा होगा कि आप मीडिया को लेकर भी इस तरह के सक्रिय अभियान चलाए। आपने भोपाल में पहले ऐसा किया है। इसे औऱ आगे ले जाने की जरुरत है। अभी भी बदलाव को लेकर जो भी आंदोलन औऱ सक्रियता चल रही है उसमें मीडिया को पूरी तरह शामिल नहीं किया गया है। मीडिया को कैसे दुरुस्त किया जाए इसके लिए भी सामाजिक संगठनों को आगे आना होगा। लेकिन वहीं वर्तिका नंदा ने वैकल्पिक मीडिया के नाम पर जो कुछ भी चल रहा है,उसके भीतर के सच को भी सामने लाया। उन्हीं के शब्दों में विश्वविद्यालय औऱ संस्थानों में जो कम्युनिटी रेडियो है उसकी हालत देश के दलितों जैसी है। टेलीविजन की ट्रेनिंग के तहत तो एंकर बनने के सपने बच्चों की आंखों में पहलने दिए जाते हैं लेकिन रेडियो यूनिट धूल खाती रहती है। उसे बस प्रदर्शनी के दौरान चमकाया जाता है। मीडिया का सिलेबस 12 साल पुराना है जबकि मीडिया रोज बदल रहा है। वर्तिका नंदा के कहने का मतलब साफ है कि संस्थान वैकल्पिक मीडिया खड़े करने में नामकाम रहे हैं और जो संसाधन इस दिशा में लगाए गए हैं वो बर्बाद चला जा रहा है।

लेकिन उनके हिसाब से उम्मीद अब भी है। उन्होंने वेकल्पिक मीडिया के इस सवाल को ब्लॉग के भीतर की संभावना से जोड़कर देखने की बात कही। उन्होंने ये स्वीकार करते हुए कहा कि आज पत्रकारों की आदत में ये शामिल है कि वो महत्वपूर्ण वेबसाइटों औऱ ब्लॉगों को डेलीरुटीन के तहत पढ़ते हैं। मैं मीडिया हाउसों की गड़बड़ियों के लेकर अगर लिखती हूं तो वो अखबारों में नहीं छपेगा लेकिन हमारे पास माध्यम है। हम सबके पास आज ब्लॉग औऱ वेबसाइट की दुनिया है जहां से कि हम अपनी बात लोगों तक पहुंचा सकते हैं। इसलिए मैं मौजूदा हालातों को लेकर बहुत निराश नहीं हूं। आज 25 लाख लोग इंटरनेट पर जाकर देख-पढ़ रहे हैं,कल इसकी संख्या में इजाफा होगा। यहां पर आकर पूरी बातचीत इस मुद्दे पर आकर ठहरती है कि अगर आप लेखन के जरिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं तो उसकी गुंजाइश पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। मेनस्ट्रीम मीडिया में भले ही आपकी बात नहीं सुनी जाती हो लेकिन आप ये का अपने स्तर पर कर सकते हैं। अरविंद मोहन के शब्दों में स्वयंभू हो सकते हैं। इस असरदार बातों के साथ थोड़ी दिक्कत ये हुई कि अंतिम दौर तक आकर ये संवाद एक हद तक कोरी नैतिकता के लादे जाने से बैठी ऑडिएंस पर भारी पड़ने लग गया

नैतिकता का वो हिस्सा जो कि सुनने में तो बहुत ही अच्छा लगता है लेकिन व्यवहार के स्तर पर इसे शामिल किया जाना उतना ही कठिन है। खासकर चैतन्य प्रकाश औऱ बाद में पुष्पराज की उठायी गयी बातों को सुनते हुए हमने जो महसूस किया। उनके हिसाब से पत्रकारिता को हमें मानव सेवा और सामाजिक कर्म से जोड़कर देखना होगा। यहां तक तो बात समझ आती है। लेकिन एक मीडिया स्टूडेंट की ओर से करियर की संभवना पर की गयी बात कि हमे अगर भरपेट खाने को भी मिल जाए तो हम पत्रकारिता करने के लिए तैयार रहेंगे और इसके जवाब में मेधा पाटेकर की सलाह कि आप हमारे साथ आइए हम आपको भरपेट खाना भी देंगे और सोने की जगह भी। छात्रों के मीडिया को करियर से जोड़कर देखे जाने की बात पर चैतन्य प्रकाश की राय कि हमें वेतनभोगी पत्रकार से उपर उठकर सोचना होगा।

पुष्पराज को मुझसे कही गयी बात कि मैं आपको,आपके फ्रस्ट्रेशन की बधाई नहीं दूंगा। मीडिया पूरी तरह से नैतिक कर्म है और हमें समाज सेवा समझकर इसे करना चाहिए। मीडिया को सरर्वाइवल औऱ करियर के सवाल से जोड़कर देखना क्यों गलत है? हर सफल आदमी नियमें गढ़ने की फिराक में क्यों है? मीडिया स्टूडेंट के भीतर वो समझ क्यों नहीं पैदा की जा रही जो कि उन्हें विश्वसनीय लगे। छ साल सात साल का अनुभव लिए पत्रकार स्टूडेंट को मीडिया एक्सपीरिएंस के बजाय फ्रस्ट्रेशन क्यों शेयर करता है? संस्थानों के अध्यापक वो पाठ क्यों पढ़ाते हैं कि वो आगे मीडिया में जाने के बजाय कुछ और कोर्स करने लग जाता है? मेरी बात पुष्पराज के लिए मेरी बात फ्रस्ट्रेशन इसलिए है कि मैं मीडिया को एक प्रोफेशन की तरह समझना और विश्लेषित करना चाहता हूं। मैंने वहां पत्रकारों के उस दर्द पर बात करनी चाही जहां एक चैनल के बंद हो जाने पर ढाई सौ मीडियाकर्मी सड़क पर आ गाए। वो कर्ज से लदे हैं इसलिए पिछले दरवाजे से घर आते हैं। उसकी पत्नी पानी में आटे घोलकर बच्चे को दूध बोलकर पिलाती है। मुझे संवाद का अंतिम हिस्सा इसलिए कमजोर,यूटोपियाग्रस्त सोच और अव्यावहारिक लगा क्योंकि यहां तक आते-आते पत्रकारिता को एक ईमानदार पेशे के बजाय नितांत संतकर्म साबित करने की पूरजोर कोशिशें की गयी।..वैसे पूरी बात को समेटते हुए अमृता राय ने वैलेंस बनाने की कोशिश की।
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स्त्री के उभारों को जूम इन करते और उसके स्तनों पर कर्सर के नुकीले तीर को धंसाते हुए मैंने कई पैकेज बनते देखे हैं। इन पैकेजों में कोशिश होती है कि इसे कुछ इस तरह से पेश किया जाए कि उसमें सिनेमाई असर पैदा हो और जिसे देखते ही ऑडिएंस उत्तेजित हो जाए। वैसे भी इस तरह के कारनामे के लिए न्यूज चैनल लगातार बदनाम होते रहे हैं। संभवतः इसी जार्गन को देखते हुए 'रण' फिल्म में चरित्र आनंद प्रकाश त्रिवेदी(राजपाल यादव)का संवाद है कि-फिल्म तो हम भी बनाते हैं लेकिन उसे हम न्यूज कहते हैं और आप जो बनाना चाहती है उसे फिल्म कहते हैं। बिना कोई गंभीर रिसर्च किए बगैर भी न्यूज चैनल को गरिआने के लिए इस फिल्म ने एक आम दर्शक को बहुत सारे प्वाइन्ट्स दे दिए हैं।

लेकिन ये कहानी और रण जैसी फिल्म सिर्फ चैनलों तक ठहरकर जाए तो बात नहीं बनती है। अखबारों और पत्रिकाओं के भीतर जो मार-काट मची है,उसे आम ऑडिएंस को बताने के लिए रण,पार्ट-2 जैसा कुछ बनाया जाना जरुरी है। ये या तो इस फिल्म के एक्सटेंशन के तौर पर बननी चाहिए या फिर स्वतंत्र रुप से। आशुतोष(मैनेजिंग एडीटर,ibn7)की उस बात पर कान दिए बगैर कि किसी एक अमिताभ बच्चन के आने या फिल्म बनाने से मीडिया को फर्क नहीं पड़नेवाला है। न्यूज चैनलों ने अगर गंध मचाया है तो मेरी अपनी समझ है कि अखबारों ने कम गंध नहीं मचा रखा है। अगर फिल्में आइना दिखाने और आम जनता को रु-ब-रु कराने के लिए ही बनायी जानी है तो फिर इस कड़ी में प्रिंट मीडिया को भी शामिल किया जाना चाहिए। न्यूज चैनलों के बीच की खामियों को दिखाए जाने से प्रिंट मीडिया के दूध के धुले होने की सर्टिफिकेट नहीं मिल जाती। वो भी गंध मचाने का काम करते हैं,उसके भीतर भी सफल होने के लिए आसान और चालू नुस्खे अपनाने की बेचैनी है। उसने भी घटियापन को अपना रखा है। रण ने सिर्फ राजनीतिक सिरे को पकड़ा है,अभी भी मीडिया कल्चर को गंभीरता से पकड़ने की जरुरत है।

नवभारत टाइम्स की वेबसाइट पर इस फार्मूले को किस तरह से इस्तेमाल किया जाता है,हिट्स और रीडरशिप बढ़ाने के लिए किस तरह से सेक्स शब्दों को शामिल किया जाता है,तस्वीरें डाली जाती हैं,आप सब जानते हैं। वेबसाइट की आड में प्रिंट मीडिया हाउसेस क्या कर रहे हैं,क्या कंटेंट देकर पत्रकारिता कर रहे हैं इस पर बात किया जाना जरुरी है? बाजार-बाजार की मजबूरी बताकर हीडेन किस्म की पोर्नो जर्नलिज्म की भूमिका रच रहे हैं या फिर अपनी कुंठाओं को पाठकों तक लाकर पटक रहे हैं? फिलहाल दैनिक भास्कर की साइट की एक खबर और उसकी ट्रीटमेंट पर गौर करें-

दैनिक भास्कर(2 फरवरी) के मुताबिक खबर है कि- एक बर्थडे पार्टी में जाते समय एमी ने ऐसी ड्रेस पहनी कि बस देखने वाले फटी आंखों से देखते रह गए। अखबार की साइट ने इसके लिए शीर्षक दिया- फिर छलका एमी का 'यौवन'। यौवन का सिंग्ल इन्वर्टेड कॉमा में रखा गया जिसे कि तस्वरे देखकर आप समझ जाएंगे कि ऐसा क्यों हैं? अखबार के लिहाज से ये शब्द एमी की अवस्था को बताने के लिए नहीं बल्कि उसके उभार को बताने के लिए है। आगे खुद साइट ही इसकी पुष्टि करता है- सेक्सी सिंगर एमी ने अपनी वार्ड रोब से ऐसी ड्रेस निकाली जिसने एक कंधे को नग्न ही छोड़ दिया था। अब इस ड्रेस से एमी के स्तन कैसे बाहर न छलक पड़ते तस्वीर देखकर ये अंदाज तो लगाया ही जा सकता है।

दैनिक भास्कर की साइट ने इस खबर में एमी की कुल चार तस्वीरें लगायी है। इन चार तस्वीरों को लगाने का मकसद साफ है कि एमी के उभार को स्टैब्लिश किया जा सके। लेकिन अंतिम तस्वीर में एक उभार के ठीक नीचे लाल रंग का एक दिल बनाया गया है। साइट के एंगिल से सोचें तो ऐसा ब्लर करने के लिए किया गया है ताकि आगे का हिस्सा न दिखे। लेकिन तस्वीर का जो असर है वो कुछ और ही है। इसे देखते हुए हमें दैनिक भास्कर की पत्रकारिता के भीतर की कुंठा की झलक मिल जाती है। वो ऐसा करके क्या बता चाहते हैं इसे आप अपने स्तर से समझ सकते हैं।

न्यूज चैनलों में भी मीडिया एथिक्स के तहत चेहरे,शारीरिक अंगों को ब्लर कर देने का प्रावधान है। मैंने खुद भी कई स्टोरी के रॉ टेप देखकर स्क्रिप्ट लिखी है और ऑनएयर के लिए ब्लर करके पैकेज कटवाए हैं लेकिन मैंने कभी नहीं देखा कि इसे ब्लर किए जाने के बाद इससे और अश्लील स्थिति पैदा करने की कोशिश की जाती हो। दर्जनों न्यूज चैनलों में मैंने ब्लर तस्वीरें देखी लेकिन दैनिक भास्कर की इस साइट जैसा बेहूदापन नहीं दिखा। ऐसी तस्वीरें वाकई पाठकों की डिमांड है या फिर डेस्क पर बैठे पत्रकार के कुंठित मन की अभिव्यक्ति है,ये एक नए किस्म का सवाल है। अखबारों में ऐसी तस्वीरों पर पूरे मनोयोग से काम करते हुए पेजमेकर पत्रकार साथियों को देखता हूं तो उनकी सीरियसनेस को देखकर हैरान रह जाता हूं। फिल्क्रम या गूगल इमेज से तस्वीरें उठाकर फोटोशॉप पर वो जो एडिट करते हैं तो लगता है कि किसी खास तकनीक से उन्होंने सिने-तारिकाओं के उभार पर से कर्सर के दम पर कपड़े उघाड़ दिए हैं। ऑरिजनल से वो तस्वीरें बिल्कुल जुदा और उत्तेजक हो जाती है।

अखबारों में छपी बारिश में भीगती(भले ही वो मजबूरी में हो),परीक्षा और एडमीशन के फार्म भरती लड़कियों की तस्वीरों पर आप गौर करें,सबों की स्तनों के बीच की गहराइयों को पकड़नेवाली तस्वीरें। कैंपस में लड़कियों के झुकने के इंतजार में गर्दन उचकाए दर्जनों स्टिल फोटोग्राफर। ये किसकी कुंठा है- पाठक की या फिर मीडियाकर्मियों की। अगर पाठकों की है तो मीडियाकर्मी कुंठा के सप्लायर हुए तो फिर पत्रकार कहलाने के लिए क्यों मरे जा रहे हो भाई? और अगर उनकी है तो फिर दिमागी स्तर की सडांध फैलानेवाले इन गलीजों का क्या करें,सोचना होगा।. ..
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