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मनचला नहीं, वो तो मासूम छोरा है

Posted On 7:53 am by विनीत कुमार |


सुरक्षा के नाम पर देश के किसी भी हिस्से या इलाके को पुलिस छावनी में तब्दील करने में प्रशासन को बहुत अधिक वक्त नहीं लगता। उसके लिए यह डेली रुटीन का काम है। वैसे भी इतने बड़े देश में आए दिन कुछ न कुछ होता ही रहता है जहां कि छावनी बनाने की जरुरत पड़ जाती है।
डीयू में इन दिनों एडमीशन को लेकर भारी भीड़ चल रही है, क्या लड़के,क्या लड़किया। भीड़ इतनी कि दिन के समय पैदल चलना भी आसान नहीं होता। देशभर के लोग एडमीशन के लिए यहां आते हैं। नौजवानों की इतनी बड़ी भीड़ आपको देश के किसी दूसरे विश्वविद्यालय में नहीं दिखेगी। इसलिए यह जरुरी है कि यहां सुरक्षा व्यवस्था बहुत चौकस रहे और इसके लिए यह भी जरुरी है कि पूरे कैंपस को छावनी में बदल दिया जाए। शाम के समय अगर इधर से गुजरना हो तो आपको स्टूडेंट से ज्यादा खाकी बर्दीवाले दिख जाएंगे।
इतनी भारी लड़को की भीड़ के बीच लड़कियों को यह भरोसा दिलाना जरुरी है कि आपके साथ कानून है, पुलिस है। आपके साथ कुछ गलत नहीं होगा,पुलिस-प्रशासन की ओर से बैनर और होर्डिंगों की संख्या बढ़ती जा रही है। पुलिस बड़े तफसील से बताती है कि अपने को बचाने के लिए, आपके साथ छेड़खानी की कोई घटना न हो जाए इसके लिए क्या-क्या करना चाहिए। आपको यहां आकर किस तरह से सतर्क रहने की जरुरत है। साथ में चारो तरफ बिखरी लेडिज पुलिस उनके बीच भरोसा पैदा करने के लिए तैनात होती है।
पुलिस की सुरक्षा औ उसके विज्ञापनों को देखते ही आपको अंदाजा लग जाएगा कि यहां एडमीशन फार्म भरने आया हर लड़का, स्टूडेंट होने के पहले एक मनचला है,संभावित रेपिस्ट है औऱ किसी भी लड़की के साथ गलत कर सकता है। इसलिए सुरक्षा के नाम पर पुलिस उन लड़कों को मां-बहन की गालियां भी दे देती है तो चुपचाप सुन लेनी चाहिए क्योंकि यह सब देश की लड़कियां की सुरक्षा के लिहाज से ही किया जा रहा है।
इतनी भारी सुरक्षा के बीच किसी को भी एहसास हो जाएगा कि यहां कोई पुरुष क्या, पुरुष नाम का कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता। सुरक्षित महौल से ज्यादा भरोसे का वातावरण बनाया जाता है। विज्ञापन, मीडिया और छावनी के जरिए। लेकिन, इन सबके बावजूद यह सच है कि पुलिस के रहते छेड़छाड़ की घटनाएं कम होती हैं लेकिन ऐसा भी नहीं है कि घटनाएं होंगी ही नहीं, इसकी गारंटी पुलिस अभी तक नहीं दे सकती। इतना सबकुछ के बावजूद पुलिस की इस सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लगती है और छेड़खानी की घटनाएं होती हैं। ऐसा क्यों।
इसकी एक बड़ी वजह है कि आमतौर पर हर भीड़भाड़ वाले इलाके के लिए पुलिस की नजर नें हर लड़का मनचला है,लड़कियों को छेड़ने की नीयत से टहलनेवाला है लेकिन अगर सचमुच में किसी लड़की को कोई छेड़ देता है तब वो मनचला नहीं, नादान छोरा हो जाता है। जिसे यह सब पता ही नहीं होता कि जो कुछ भी वह कर रहा है,वो कानूनी तौर पर गलत है और इसके लिए उसे सजा भी हो सकती है।

उसे तो दिन-दुनिया के बारे में ठीक से पता तक नहीं। अभी जवानी का जोश है, मौज-मौज में कुछ कर बैठा। पुलिस को यह साबित करने में कि जो कुछ भी हुआ है वह छेड़खानी का मामला न होकर एक मामूली घटना है, जरा भी वक्त नहीं लगता। इसलिए उसे उपर-उपर चलताउ ढंग से रफा-दफा करने में बहुत मुश्किल नहीं होती। कल की जनसत्ता ने तो बतौर लिखा कि छेड़खानी के मामले में दोषी को दिनभर थाने में बिठाकर रखने के बाद छोड़ दिया जाता है। यानि उस वह सजा नहीं दी जाती जिसे वो अने विज्ञापनों में प्रचारित करती है, जिसे लिखकर आनेवाली लड़कियों को आश्वस्त करती है।


दिनभर की चिकचिक के बीच छेड़खानी का यह मामला पुलिस के लिए मनोरंजन का साधन है जिसे उसके भीतर रस पैदा होता है। लेडिज पुलिस के रहते बीच-बीच में दखल देकर यह पूछने में कि अच्छा बता, छोरे ने छेड़खानी के नाम पर क्या-क्या किया, मजा आता है। वह उस पूरी घटना में छोटी किताबों के साहित्य का मजा लेना चाहता है, उसे मन ही मन फिल्माना चाहता है। उसके लिए यह सब चूहल का विषय है। इसलिए ऐसे समय में उसे उस लड़के पर न तो गुस्सा आता है और न ही लड़की के प्रति हमदर्दी ही जगती है। उसे सिर्फ और सिर्फ सुख मिलता है।


फुर्सत के समय अपने कूलिग से गप्प मारने का एक दिलचस्प औऱ अश्लील( तब तो वो अश्लील बना देता है) प्रसंग होता है। उसे छोरे से प्यार सा हो जाता है। देखने से कतई वो छोरा नहीं लग रहा था कि उसने कोई गलती की होगी, बल्कि मुझे तो वो लड़की ही ४२० लग रही थी। जिसके साथ छेड़खानी होती है वो तनकर खड़ी होती है, सबकुछ बताती है। भाई उसके मुंह से तो जुबान ही नहीं फूटती, मने तो कइयों को देखे हैं।


ऐसे में पोस्टर के शब्द कि- छेड़खानी से बचिए और उसके होने के आंकड़े मजबूत होते हैं तो गलत क्या है।


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