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धार छूटती कि इसके पहले ही उल्टियां शुरू हो गई. हारकर मैंने जिप बंद की और तेजी से बाहर भागा. बाहर आकर सांस ली और सामान्य होने की कोशिश करने लगा. बाहर निकलकर बार-बार मैं यही सोचने लगा-
क्या चार घंटे के इस कार्यक्रम में नवभारत टाइम्स, एबीपी न्यूज, साधना न्यूज के किसी भी मीडियाकर्मी को शू-शू नहीं लगी होगी, वॉशरूम की जरुरत नहीं पड़ी होगी ? इन मीडिया संस्थानों के नाम इसलिए कि ये इस रूहानी एहसास करानेवाले कार्यक्रम के मीडिया पार्टनर और प्रायोजक थे. इनके नुमाइंदे मंच पर जाकर आयोजक की ओर से दी जानेवाली मोमेंटो ले रहे थे और बेहद ही खराब हिन्दी में अपने पक्ष में पढ़ी जानेवाले कसीदे सुनकर थै-थै होकर लौट रहे थे. इन मीडिया संस्थानों की होर्डिग्स इंसान से दुगनी कद के चारों तरफ लगे थे. वाशरूम को छोड़कर चारों तरफ धूपबत्ती, इत्र और गुलाब की खूशबू फैल रही थी. लेकिन उस चमकीली दुनिया के बीच ये वॉशरूम ऐसी अकेली जगह थी जहां आप घुसते ही उल्टियां करनी शुरू कर देंगे.

वैसे तो खुली जगह में पेशाब करना समाज के लिए बेहद अशोभनीय काम माना जाता है और है भी. लोग इसे रोकने के लिए देवी-देवताओं की मूर्तियां लगाने से लेकर खुलेआम मां-बहन की गालियां तक लिख देते हैं. रेड एफएम ने तो खुले में पेशाब करनेवाले को बैंड बजाने की सीरिज तक चलायी थी. लेकिन आप बताइए न कि दिल्ली के बेहद पॉश इलाके की वॉशरूम की जह ये हालत है तो कोई क्या करे ? आप तर्क दे सकते हैं कि ये संभव है कि कार्यक्रम में अचानक से इतने लोग आ गए होंगे तो इसकी ये हालत हो गई लेकिन दरवाजे देखकर आपको अंदाजा नहीं लग जा रहा है इसकी पहले से क्या हालत है और इसकी मेनटेनेंस को लेकर कितनी गंभीरता बरती जा रही है.

वैसे तो सीलमपुर, शहादरा की सड़कों से गुजरने पर आपके नाम पर बदबू से कहीं ज्यादा नफरत और नफासत से झकझक सफेद रूमाल चढ़ जाते हैं लेकिन यहां ? दिल्ली के लुटियन जोन और पॉश इलाके की वॉशरूम का ये हाल और उसी में लोग आ-जा रहे हैं. ये विकास का एक छोटा सा सच है जिसे ढंकने के लिए राजनीतिक पार्टियों की तरह ही चैनल और अखबारों के होर्डिंग्स लगते हैं और यकीन मानिए जितने पैसे इन पर खर्च होते हैं, उतने में ऐसे कितने वॉशरूम की सफाई, मरम्मत और नयी तक बन जाए.. लेकिन किसी मीडिया संस्थान को कहीं कुछ दिखाई नहीं देता.

मैंने कभी एक पोस्ट लिखी थी- इस देश को मंदिर की नहीं मूत्रालय की जरूरत है(http://mohallalive.com/2010/04/13/vineet-kumar-on-toilet-issue/) और उसके बाद लोगों ने जमकर गरिआना शुरू किया लेकिन इस नंगे सच के बीच घिरकर आप मुझसे सहमत होंगे. बाकी दिल्ली के इस बेहद पॉश इलाके की वॉशरूम में गांधीजी की तस्वीर तैर ही रही है, नकली नहीं है हुजूर, अपनी आंखों से देखा- असली है जिसे कि उठाकर बेसिन पर रखते ही लोग उठाकर ले गए जैसा कि आकर गार्ड ने बताया. आंख से देखी चीज की कोई रिपोर्टिंग नहीं है तो आपको लगता है जो हमें नहीं दिखता वो मीडिया को भी दिखता है ? आपने अतउल्ला खां और हर्षदीप कौर की रूहानी आवाज की तारीफ के बीच इस वॉशरूम की कोई खबर देखी हो तो बताइगा, प्लीज.
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कथाकार प्रेमपाल शर्मा को किताबोंवाले बाबा कहते हैं, ये बात मैं पहले नहीं जानता था. उनकी रचनाओं के बजाय जनसत्ता में छपे लेख और उनकी ही रचनाओं पर लिखी समीक्षा ही पढ़ी है.आज से कोई दस साल पहले एमए के दिनों में एक-दो बार बेहद ही औपचारिक मुलाकात हुई है. हमारे सीनियर( हालांकि उन्हें ये कहलाना बिल्कुल भी पसंद नहीं, दोस्त कहो ऐसी हिदायत देते, फिर भी) उमाशंकर सिंह से उनके बारे में चर्चा सुनी थी और एकाध बार उनके साथ रेलवे भवन में मिला भी. बातचीत में बेहद सहज और आत्मीय लगे मुझे. इन सबको जोड़-जाड़कर कह सकता हूं कि मैं उन्हें एक हद तक जानता हूं. लेकिन ये अपने गांवघर और लोगों के बीच किताबोंवाले बाबा के नाम से एक खास कारण से मशहूर हैं, इसकी जानकारी आज सुबह एफएम गोल्ड से मिली.

एआइआर एफएम गोल्ड ने बताया कि प्रेमपाल शर्मा को बचपन से किताबों का शौक था. छुटपन के दिनों में अपने पिताजी की किताबें, धार्मिक पुस्तकें जो कुछ भी घर में पड़ी होती थी, उन्हें पढ़ना शुरू किया. किताबों के प्रति लगाव गहराता गया. रेलवे में बतौर अधिकारी होने के बाद ये शौक और बढ़ता ही चला गया जो कि सिर्फ अपनी लाइब्रेरी बनाने और पुस्तकें लिखने तक सीमित नहीं रही बल्कि गांवघर में भी लाइब्रेरी बनाने का ख्याल आया. एफएम गोल्ड ने बताया कि प्रेमपाल शर्मा की बनायी लाइब्रेरी का असर ये है कि वहां नियमित आनेवाले छात्रों खासकर लड़कियों के परिणाम पहले के मुकाबले काफी बेहतर आने लगे. हममे से अधिकाश लोग जिस लाइब्रेरी गैरजरूरी मानने लगे हैं और वहां जाकर वक्त नहीं बिताते, प्रेमपाल शर्मा की इस लाइब्रेरी से कई छात्रों की जिंदगी बेहतर हो रही है.

एफएम गोल्ड पर जब मैं प्रेमपाल शर्मा के बारे में ये सब सुन रहा था तो दो बातें मेरे दिमाग में बार-बार आ रही थी- पहली तो ये कि क्या प्रेमपाल शर्मा या किसी भी हिन्दी के साहित्यकार पर कोई दूसरा निजी एफएम चैनल मुफ्त में ऐसी स्टोरी प्रसारित करेगा ? मुफ्त का आशय बिजनेस टाइअप से हैं जहां प्रेमपाल शर्मा जैसे किसी भी हिन्दी के साहित्यकार पर चैनल के अपने स्टीगर चिपकाने की शर्त न हो या फिर वहां किसी प्रकाशन संस्थान के साथ टाइअप करके न आया हो ? और दूसरा कि एक लेखक, एक साहित्यकार अपनी जिंदगी में जो लिखता है, उसका थोड़ा ही सही हिस्सा असल जिंदगी में जीना शुरू कर देता है तो उससे कितनों की जिंदगी बदल जाती है ? शब्दों के प्रति यकीन कितना गुना बढ़ जाता है ? तभी मुझे "एक्टिविस्ट राइटर" होने की जरूरत सही संदर्भ में दिखलाई पड़ती है.

 मेरे दिमाग में ये योजना सालों से चल रही है कि हमारे आसपास जो भी बड़े लेखक हैं, उनसे आग्रह करें कि आप उन किताबों को हमें दे दीजिए जो आपके लिए उतने महत्व के नहीं, बिना आपकी इच्छा के आपतक सेवार्थ लिखकर आ गए हैं. हम उन्हें जमा करेंगे और सही पाठक तक पहुंचाएंगे, उन पीढ़ी तक मूल पाठ पहुंचाएंगे जो अभी तो मुक्तिबोध, नागार्जुन, रेणु को "चुटका पुस्तक" के माध्यम से पड़ रहे हैं और उच्च शिक्षा की जो हालत है, जल्द ही पीपीटी( पावर प्वायंट प्रेजेंटेशन ) के माध्यम से अंधेरे में, अकाल और उसके बाद और मैला आंचल का गहन अध्ययन करेंगे. प्रेमपाल शर्मा पर सुबह-सुबह ये फीचर सुनकर खोई हुई चीज मिल जाने का एहसास हुआ और खत्म होती चीजों के सहेजने की ललक भी.. बस आखिर में मामला थोड़ा गड़बड़ा गया और पूरे फीचर को एक मिनट में कसैला कर दिया जब रेडियो प्रस्तोता ने कहा-

किताबों की बात तो बहुत हो गई, अब सुनिए ये गाना- किताबें बहुत सी पढ़ी होगी तुमने
मगर तुम्हें चेहरा भी पढ़ा है
पढ़ा है मेरी जां, नजर से पढ़ा है
बता मेरे चेहरे पे क्या-क्या लिखा है..



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ब्रांड राजनीति के औजार

Posted On 10:49 am by विनीत कुमार | 1 comments


मूलतः प्रकाशित- जनसत्ता, 6 अप्रैल 2014

आगामी लोकसभा चुनाव 2014 को लेकर किए जा रहे विज्ञापन, रैली एवं प्रचार की पूरी रणनीति किसी भी दूसरे व्यवसाय के लिए की जानेवाली मार्केटिंग एवं ब्रांड पोजिशनिंग की ही तरह है. यह रणनीति न केवल माध्यमों और लोकवृत्त के प्रचार संसाधनों पर कब्जा जमाने को लेकर है बल्कि इसके लिए उन्हीं विज्ञापन एवं मार्केटिंग एजेंसियों की मदद ली जा रही है जो कि साबुन, मोबाइल सेवा, कार या दूसरे उत्पाद के लिए व्यावयायिक रणनीति बनाने का काम करते हैं. मतदान आधारित राजनीति को राजनीति एवं छवि की मार्केटिंग मे तब्दील करने के पीछे यह स्पष्ट है कि जिसका विज्ञापन और माध्यमों पर कब्जा होगा, उसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के भीतर सरकार गठन करने का मौका मिलेगा. ऐसे में जरूरी है कि संवैधानिक प्रावधान के तहत मतदान के जरिए चुनाव लड़ने और जीतने से पहले माध्यम और विज्ञापन आधारित चुनाव जीत लिए जाएं. बाजार में कोई भी ब्रांड लोगों को इसी तरह उत्पाद के पहले उसकी छवि का उपभोग करने की मानसिकता तैयार करता है और उसके भीतर यह भरोसा पैदा करता है कि अगर उसने सचमुच इसका उपभोग करना शुरु किया तो वह संतुष्टि के चरम तक पहुंच सकता है.

ब्रांड मार्केटिंग की इस रणनीति के आधार पर कार्पोरेट और बिजनेस के लोकतंत्र में नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बनाए जा चुके हैं. अब जो कुछ दिनों बाद से जो चुनाव और मतदान प्रक्रिया शुरू होने जा रही है, वह नागरिक समाज के लिए चुनाव भले ही हो और उनके मतदान को अंतिम निर्णय के रूप में परिभाषित किया जा रहा हो लेकिन कार्पोरेट और बिजनेस के लोकतंत्र के लिए यह औपचारिकता और खानापूर्ति से ज्यादा कुछ भी नहीं है. ऐसा कहना इस चुनावी माहौल में एक रुपक का गढ़ लेना भर नहीं है बल्कि इसकी जमीन ठोस रूप से आंकड़े और उनके विश्लेषण पर तैयार की जा चुकी है.

 देश की अर्थव्यवस्था की नब्ज अगर शेयर सूचकांक से निर्धारित होती है जिसे कि राजनीतिक गलियारे में आगे चलकर विकास के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है तो पिछले 27 मार्च को जो उछाल आया और 22,307 (बीएसइ)) तक चला गया, इसके पीछे मौजूदा सरकार की कहीं भूमिका नहीं बतायी जा रही. इसकी व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना लगभग तय हो गया है और देश के निवेशक सहित विदेशी निवेशक इस बात को लेकर आश्वस्त हो रहे हैं कि अब अगले पांच साल तक सिर्प विकास आधारित कार्य होंगे और जाहिर है विकास का अर्थ अधिक से अधिक निवेश, संसाधनों की खपत और वस्तु एवं सेवाओं में मांग तो सरकार बनते-बनते ये सूचकांक आसमान छूने लग जाएगा. स्वाभाविक है कि शेयर सूचकांक को ही विकास का पर्याय मान लेने की स्थिति में नागरिक के बीच यह नैतिक दवाब पहले से ही बनाने का काम शुरू हो गया है कि अगर वे आनेवाले समय में इस सूचकांक को और उपर देखना चाहते हैं तो हर हाल में बीजेपी और नरेन्द्र मोदी के लिए ही वोट करना होगा. यह किसी भी उत्पाद की ब्रांड रणनीति से अलग नहीं है जहां क्रमशः चार चरण में पहला अभाव, हताशा एवं बेचैनी, दूसरा मौजूदा उपायों और उत्पादों के प्रति नकारात्मक भाव, तीसरा प्रस्तावित उत्पाद या ब्रांड को अंतिम विकल्प और चैथा उस उत्पाद के उपभोग के बाद आनंद और समस्या से मुक्ति अपने प्रति अनुकूल परिवेश की निर्मिति करता है. यह सब माध्यम के जरिए दर्शक/श्रोता को उपभोक्ता की शक्ल में तब्दील करने की प्रक्रिया में किया जाता है. 

नरेन्द्र मोदी को ब्रांड बनाने की प्रक्रिया में उन विज्ञापनों, रैली में कहे गए शब्द और उनकी ही शारीरिक भंगिमा पर गौर करें तो इन चारों चरण से मतदान आधारित राजनीति पॉलिटिकल मार्केटिंग में बदलने की कोशिश करती दिखाई देती है. भ्रष्टाचार का नरेन्द्र मोदी के प्रति बेहद ही सम्मानजनक संबोधन के साध वो आनेवाले हैं से लेकर क्योंकि मोदीजी को हम लानेवाले हैं की विज्ञापन श्रृंखला इसी प्रक्रिया का लगातार दोहराव है जहां नागरिक को पहले चक्र में दर्शक और श्रोता में बदलने की कोशिश होती है और जब वह इस स्तर पर जुड़ जाए तो उसे वापस नागरिक के रूप में परिवर्तित करके वोट के लिए अपील की जाए. विज्ञापन और माध्यमों के जरिए इस छवि निर्माण का दिलचस्प पहलू है कि पूरी राजनीति लोकवृत्त की सामाजिक संरचना, समस्याओं और मुद्दे से हटकर अतियथार्थ के उस धरातल पर जाकर टिकनी शुरू हो जाती है जहां प्रसारण ही सत्य और आक्रामक मौजूदगी ही लोकतंत्र के मूल्य के रूप में प्रस्तावित किए जाने लगते हैं जबकि ये सारी गतिविधियां पूरी तरह व्यावसायिक जमीन पर होती हैं जिसका कि सामाजिक प्रक्रिया से सीधे-सीधे कोई लेना-देना नहीं होता है. लेकिन इसे माध्यमों द्वारा दिखाया/बताया उसी रूप में जाता है जैसा कि राजनीति के मार्केटिंक का हिस्सा बनने के पूर्व से दिखाया जाता रहा है.

यह अकारण नहीं है कि जिस बिजनेस चैनल पर अर्थव्यस्था और व्यवसाय से जुड़ी छोटी-छोटी घटनाओं, नए उत्पाद एवं सेवाओं की चर्चा ब्रांड में तब्दील होने की प्रक्रिया के रूप में प्रसारित किया जाता रहा है, ऐसे दौर में कि एक राजनीतिक पार्टी और उसका प्रत्याशी अपनी पुरानी और लंबे समय तक स्थिर छवि को पूरी तरह ध्वस्त करके ( स्वाभाविक है जनसंपर्क कंपनी एवं मीडिया प्लानर की मदद से) नयी छवि निर्मित करने की कोशिश में आक्रामक तौर पर 360 डिग्री माध्यमों( माध्यम के जितने भी रूप हैं) पर मौजूद हो, इस काम के लिए करोड़ों रूपये के निवेश किए गए हों, उसकी चर्चा अर्थव्यवस्था, राजस्व और ब्रांड बनने की प्रक्रिया को लेकर न होकर उसी जाति, क्षेत्र, भाषा और सम्प्रदाय आधारित राजनीतिक विश्लेषण को लेकर किया जा रहा है जो काम समाचार चैनलों पर होते आए हैं. इतना ही नहीं, एक ही मीडिया संस्थान ने जो समाचार चैनल और बिजनेस चैनल की अलग-अलग लाइसेंस ले रखा है, दोनों पर एक ही सामग्री का प्रसारण करते हैं जिनमे बिजनेस की चर्चा नहीं है. उपभोक्ता चाहे तो सवाल कर सकते हैं कि अगर दोनों चैनलों पर एक ही सामग्री का प्रसारण किया जाना है तो बिजनेस चैनल के लिए अलग पैकेज की कीमत क्यों दी जाए और दूसरा कि अगर राजनीति भी बिजनेस का अनिवार्य हिस्सा है तो राजनीति के राजनीति मार्केटिंग में तब्दील हो जाने और प्रत्याशी के ब्रांड पोजिशनिंग की प्रक्रिया को क्यों प्रसारित नहीं किया जा रहा ? स्पष्ट है कि चुनावी अभियान जिस जमीन पर खड़े होकर चलाए जा रहे हैं, उस जमीन से दर्शक/श्रोताओं को पूरी तरह काटकर उन संदर्भों में शामिल करने की जबरदस्ती कोशिश की जा रही है जो व्यावसायिक एवं ब्रांड रणनीति के आगे अपने आप गौण होते चले गए हैं.


यह अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि छवि आधारित ब्रांड पोजिशनिंग की यह राजनीति( मार्केटिंग) नागरिक को  दर्शक/श्रोता में तब्दील करके ब्रांड उत्पाद की तरह ही किसी भी तरह का सवाल, चयन और असहमति दर्ज करने का हक छीन लेता है और आखिर में उपभोक्ता की जरूरत, फैशन. इच्छा और विवशता एक-दूसरे से गड्डमड्ड होती चली जाती है. राजनीति की जमीन का बदल जाना और उसके भीतर से पूरी प्रक्रिया को काटकर अलग कर देना बहस के नए संदर्भ की ओर ले जाता है जो कि चुनाव विश्लेषकों को एक हाथ में जाति, क्षेत्र और समुदाय की सूची रखने के साथ-साथ दूसरे हाथ में राजनीतिक दलों और माध्यमों की बैलेंस शीट रखने की मांग करता है. 
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