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टेलीविजन औऱ मीडिया में दिलचस्पी रखनेवाले लोगों के लिए 27 जुलाई को राज्य सभा में "देश के सांस्कृतिक मूल्यों के विरुद्ध विभिन्न चैनलों पर दिखाए जा रहे टीवी कार्यक्रमों में बढ़ती अश्लीलता और अशिष्टता" को लेकर होनेवाली चर्चा पर विचार करने की जरुरत है। भाजपा नेता औऱ टेलीविजन स्क्रीन पर अक्सर दिखनेवाले रविशंकर प्रसाद की ओर से टीआरपी के खेल को संसद के सामने रखने के बाद टेलीविजन,मनोरंजन,न्यूज चैनलों औऱ इन सबके बीच संस्कृति औऱ पारिवारिक मूल्यों के बचाए जाने की बात दूसरे सांसदों द्वारा जिस तरह से की गयी उससे साफ है कि वो टेलीविजन के मौजूदा रवैये से नाखुश हैं और आनेवाले समय में सरकार इसे गंभीरता से लेने जा रही है। हालांकि पूरी चर्चा में अधिकांश लोगों ने चैनलों पर नकेल कसने की बात से साफ इन्कार किया है वाबजूद इसके वो एक ऐसी मशीनरी डेवलप करना चाहते हैं जिससे कि टेलीविजन को बेलगाम होने से बचाया जा सके। इस पूरी चर्चा के बाद सूचना और प्रसारण मंत्री श्रीमती अंबिका सोनी ने अपनी तरफ से जो बात रखी है उससे इस बात का अंदाजा तो लगाया जा सकता है कि वो टेलीविजन को पूरी तरह सेल्फ रेगुलेशन के आधार पर चलने देने के पक्ष में नहीं है। लेकिन ये भी है कि अंबिका सोनी अपनी बात रखने के क्रम में जिस हमारी संस्कृति,हमारी परंपरा और पारिवारिक मूल्यों की बात करती है उसे फिर से देखना-समझना होगा औऱ इन सबके साथ अभिरुचि को भी शामिल करते हुए बातचीत को आगे बढ़ानी होगी। टेलीविजन को रेगुलेट करने के पहले संस्कृति औऱ परंपरा को लेकर जो भी आधार बने हैं,उससे हटकर हमें इनकी प्रैक्टिस को लेकर बात की जानी चाहिए और जरुरी है कि हम किताबी समझ से परे सीधे लोगों के बीच घुसकर संस्कृति,परंपरा और मूल्यों के बनने-बिगड़ने की बात पर अंतिम निर्णय के लिए तैयार हों। फिलहाल यहां अंबिका सोनी की बात को पेश कर रहा हूं। मकसद सिर्फ इतना भर है कि टेलीविजन को रेगुलेट करने के संबध में आपकी समझ क्या है प्रतिक्रिया के जरिए हमसे साझा करें-


सभा में सभी दलों के सदस्यों ने हमारे सामाजिक मूल्यों,हमारे पारिवारिक मूल्यों औऱ विशेषकर हमारे युवाओं के विकसित होते मन-मस्तिष्क पर आज के कुछ टेलीविजन कार्यक्रमों जो अत्यधिक हिंसा और अश्लीलता से भरे होते हैं,के पड़नेवाले कुप्रभाव के बारे में अपना दुख तथा अपनी गहरी चिंता व्यक्त की है। कभी-कभी हम सभी लोग सोचने लगते हैं कि टीवी चैनल,टीवी शो औऱ सिनेमा देखते रहने के कारण समाज में हिंसा बढ़ रही है। हम सभी लोग महसूस करते है कि यह एक अतिसंवेदनशील विषय है। प्रतिस्पर्धा से जुड़ी प्राथमिकताएं होती है।

एक तरफ अनुच्छेद 19 के अधीन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है,दूसरी तरफ सिविल सोसायटी,सांसदों,
गैर-सरकारी संगठनों,माता-पिताओं, कमजोर वर्ग की चिंताएं हैं जो उतने ही महत्वपूर्ण हैं औऱ न्यायालयों ने भी इस
मामले में निर्देश दिए हैं। लगभग हर किसी ने कुछ तंत्र बनाए जाने की जरुरत के बारे में कहा है,जो विश्वसनीय हो भले ही
वो स्व-नियामक क्यों न हो लेकिन निश्चय ही उसके पास निपटने और विभिन्न स्टेकहोल्डरों से अन्य बहुस सारे मुद्दों से
निपटने के लिए स्वतंत्रता हो।भारत संभवतः उन गिने-चुने देशों में से हैं जिसके यहां इस बारे में नियामक मौजूद नहीं है।
लेकिन पूरे विश्व में बहुत सारे देशों में इस प्रकार के नियामक मौजूद हैं। भारत में भी हमने पिछले कुछ वर्षों में कुछ तंत्र
विकसित किए हैं,हो सकता है ये प्रभावी न हों,लेकिन पर्यास किया गया है और हमें इसकी सराहना करनी चाहिए। यहां
नेशनल ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन(एनबीए) और इंडियन ब्राडकास्टर्स फेडरेशन(आइबीएफ) हैं।इन संगठनों ने भी अपनी संहिताएं
स्थापित की है। इन बीते वर्षों में इस बात को कहीं अधिक महसूस किया गया है कि प्रसारण विधेयक लाकर एक भारतीय प्रसारण नियामक प्राधिकरण जैसे तंत्र की स्थापना किया जाए।
अतः समिति को इन सभी बातों को देखना होगा। सरकार एक वर्ष पहले ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की निगरानी के लिए एक तंत्र को लायी है। हमने चैनलों की संख्या 150 से बढ़ाकर तीन सौ कर दिया है। यह मामला इतना संवेदनशील है कि पारिवारिक मूल्य,हमारी संस्कृति,हमारी सांस्कृतिक विभिन्नता,हमारी सामूहिक सांस्कृतिक परंपराओं को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए। हमारा मंत्रालय इस दृष्टिकोण से प्रयास करता है। शायद आपको यह हैरानी होगी कि पिछले तीन-चार वर्षों में हमने 278 नोटिस दिए,कुछ चैनल बंद कर दिए गए। मैं विशेष रुप से श्री रंविशंकर प्रसादजी को कहना चाहती हूं कि वह इस मंत्रालय में मंत्री रह चुके हैं औऱ हमसे ज्यादा जानकारी रखते हैं। उन्होंने टीआरपी का मुद्दा उठाया है और यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। टीआरपी एक प्रेरक शक्ति है। बीएआरसी इस मुद्दे पर गौर करना चाहती है। टीआरपी उन कारणों में से एक है कि
लोगों को समाचार चैनलों से खबर नहीं मिल पाती। जब हमें खबर नहीं मिलती तो हम खबर बनाने के लिए विवश हो जाते हैं। नियामक निकाय का सृजन अत्यंत आवश्यक है। यह स्व-नियामक निकाय एकमात्र हल है। मुझे सभा को बताते हुए खुशी हो रही है कि पिछले सात सप्ताह से मंत्रालय में मेरे साथी औऱ मैं एनबीए,एबीएफ और एएससीआईआई औऱ व्यक्तिगत स्टेकहोल्डरों तीन बैठक कर चुके हैं कि इस मामले में आगे कैसे बढ़ना है। हमने राज्य सरकारों के साथ चर्चा की है। अधिकतर राज्य सरकारों ने इस कदम के समर्थन में उत्तर दिया है।

चैनलों द्वारा सभ्य समाज से प्राप्त कुछ सुझावों को लागू किया जा रहा है। परन्तु यह कारगर नहीं है।'पेरेन्टल लॉक्स' ऐसी चीज है जिस पर लगातार जोर दिया जा रहा है। चैनलों द्वारा स्व-विनियामक तरीके से अधिक जोर डाला जा रहा है। ये सभी चिंताएं तभी सार्थक है जब हम स्व-विनियामक दिशा में प्रगति कर सकें। ऐसा चर्चा द्वारा ही किया जा सकता है। हमें चैनलों को देखना बंद करना चाहिए। टीआरपी का उल्लेख किया गया है। ट्राई ने यह मामला'बीएआरसी' को सौंपा था परन्तु 'बीएआरसी' सरकार के साथ कोई तालमेल नहीं चाहता है। 'टीआरपी' उद्योग औऱ घरानों के बीच निजी रुप से चलाया जानेवाला एक संगठन है। इसका विषय-वस्तु के साथ कोई संबंध नहीं है। विज्ञापनों की सृजनात्मकता को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। हमने टीआरपी के संबंध में 'ट्राई' से संपर्क किया,उन्होंने कुछ सुझाव दिए। सूचना औऱ प्रौद्योगिकी मंत्रालय की स्थायी समिति ने भी अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया है। 'टीआरपी' से दूरवर्ती क्षेत्रों की इच्छा का पता नहीं चलता।
यह सुझाव दिया गया है कि उल्लंघनों के संबंध में कोई प्रभावी स्वतंत्र विनियामक नियामक होना चाहिए। मैं किसी अन्य निकाय के मौजूद न होने के कारण स्व-विनियामक की सराहना करती हूं। वेबसाइट पर मसौदा विधेयक डाले जाने का अभिप्राय औऱ अधिक आदान प्राप्त करने और राष्ट्रीय बहस से था। इसे सर्वाधिक सर्वसम्मति प्राप्त होनी चाहिए। मुझे आशा है कि मुझे माननीय सदस्य कुछ और समय देंगे।

नोटः- इस चर्चा में श्याम बेनेगल,राजीव शुक्ला,वृंदा कारत,कलराज मिश्र सहित करीब 12-13 दूसरे सासंदों ने भी अपनी बात रखी। विस्तार से जानने के लिए हम नीचे डाल दे रहे हैं। सरकारी अनुवाद की वजह से आज की पोस्ट की हिन्दी थोड़ी कठिन औऱ रोजमर्रा भाषा से अलग है। पूरी बात समझने के लिए आपको अतिरिक्त मेहनत करनी होगी। इसलिए हम नीचें अंग्रेजी कंटेट के लिए भी लिंक डाल दे रहे हैं।

हिन्दी के लिए-http://164.100.47.5/newsynopsis1/hindisessionno/217/Synopsis%20_Hindi_%20Dt.%2027.7.2009.pdf
अंग्रेजी के लिए- http://164.100.47.5/newsynopsis1/hindisessionno/217/Synopsis%20_Hindi_%20Dt.%2027.7.2009.pdf
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ये अपने रवीश ने सूर्यग्रहण के चक्कर में अपना क्या हाल बना रखा है? बिखरे हुए बाल, चेहरा उड़ा हुआ, आंखें ऐसी कि बेमन से खोल-बंद कर रहे हों, पलकों के उठने-गिरने में जबरदस्ती करनी पड़ रही हो, ताक़त लगानी पड़ रही हो। बोलने का उनका मन ही नहीं हो रहा। कभी हंसते हैं, कभी टेलीविजन प्रोफेसर बन कर ग्रहण के नाम पर पाखंड फैलानेवालों को रगेदते हैं। कभी अपने संवाददाता मनीष को गर्माते हैं। मेरी मां इसे हुरकुच्चा (जबरदस्ती) मारकर बोलना कहती है। यही हाल उधर इलाहाबाद के तट पर खड़े आजतक के एंकर और संवाददाता प्रतीक त्रिवेदी का है। बता रहे हैं कि अभी यहां स्वर्ग महसूस कर रहा हूं। जी न्यूज का संवाददाता प्रमोद बौला-सा इधर-उधर ताकते हुए बोले जा रहा है। वो समझ ही नहीं पा रहा कि नींद पर लगाम लगाये कि जुबान पर। न्यूज 24 का संवाददाता कुरुक्षेत्र की भीड़ में घुसे जा रहा है, निकलने के लिए नहीं बल्कि लोगों के बीच और गहरे धंसने के लिए। स्टूडियो से एंकर अखिलेश आनंद ने बोल दिया है कि कुरुक्षेत्र में हजारों की संख्या में लोग इस नजारे को देखने के लिए जुटे हैं, सरोवर में स्नान करने आए हैं, अब संवाददाता इस जुबान को सच करने में जुटा है। आजतक पर सोनिया सिंह और श्वेता सिंह की जोड़ी लगातार हमें बताये जा रही है कि हम आपके लिए जमीन से 41 हजार फीट की ऊंचाई से तस्वीरें लाकर दिखा रहे हैं, हम वहां विमान से गये। एनडीटीवी लगातार दो मिनट तक नीतीश कुमार को नताश कुमार फ्लैश चलाता रहा। IBN7 ने अपने एक संवाददाता के आगे डॉक्टर लगा दिया।

सब चैनल अफरा-तफरी में। रात से ही कैमरा सेट लगा रहे हैं। सरोवर, छत, नदी और अटारी वहीं से वो लाइव कवरेज देंगे, रिपोर्टर पीटीसी देगा। सब परेशान, सब रात-रातभर के जगे हुए। आंखों के नीचे डार्कनेस लिए हुए। सूर्यग्रहण के चक्कर में न तो दिनभर ठीक से खाया-पिया और न ही पूरी नींद ली, बदहजमी और गैस से परेशान होने पर भी दिन-रात काम में लगे रहे। इस रतजग्गा के बीच जो कुछ भी दिखाए जा रहे हैं, दोस्तों उसे टीआरपी के लिए, सब बाजार के लिए जैसे फार्मूलाबद्ध जुमलों का इस्तेमाल करने से पहले जरा सोचिए। आलोचना के दायरे को बढ़ाइए, भाषाई स्तर पर कुछ नये प्रयोग कीजिए औऱ अपने पत्रकारों से पूछिए किसके लिए करते हैं, आप ये सब। मत कीजिए, हम बिना ये सब देखे ही जी लेंगे, आप हलकान मत होइए प्लीज। हम देर रात खस का शर्बत और मैगी ले रहे होते हैं औऱ आप ट्राइपॉड पर सिर रख कर सुस्ताते हैं, हमे ज़रा भी अच्छा नहीं लगता।

किसके लिए करते हैं ये सब, हमारे जैसे देश के उन हजारों दर्शकों के लिए, जो आपके हर काम को बस टीआरपी-टीआरपी का खेल कहकर दिन-रात कोसते रहते हैं। उन लाखों दर्शकों के लिए, जिनके यहां टेलीविज़न नहीं है और आपके डर को मारो गोली देखने से पहले ही ज्योतिषियों की दुकान जा पहुंचा है, पंडितों को लार टपकाने की खुराक दे आया है। हां, किसके लिए सूर्य ग्रहण देखने के स्पेशल चश्मा के बारे में बता रहे हो, जिसकी आंखों की रोशनी चली गयी, उसके लिए या फिर उसके लिए, जो नज़र का चश्मा बनाने के लिए तीन पाव की जगह आधा किलो दूध घर में मंगाना शुरू कर दिया है। उस बूढ़े दर्शक के लिए जिसका बेटा पांच महीने पहले बल्लीमारान से सस्ता फ्रेम लाने का वादा करके गया, सो अभी लौटा ही नहीं।

यकीन मानिए, देश का कोई भी संवेदनशील ऑडिएंस टेलीविजन पर अपने इन पत्रकारों की ये दशा देखकर गिल्टी फील किये बिना नहीं रह सकेगा। वो इनसे एक ही सवाल करेगा कि हमें लाइव कवरेज दिखाने के लिए आपको इतनी मशक्कत करने की क्या ज़रूरत पड़ गयी? हम आपकी नींद और चैन हराम हो जाने की शर्तों पर सबसे तेज नहीं होना चाहते। भाड़ में जाए सूर्य ग्रहण के वक्त हीरे-सा दिखनेवाला छल्ला। जाने दीजिए 123 साल बाद दिखे तो दिखे ये अजूबा दृश्य। इसके पहले भी कई अजूबा हुए, हम नहीं देख पाए तो क्या जिंदा नहीं हैं, क्या कोई असर पड़ रहा है हमारी सेहत को। हम नहीं चाहते कि ख़बरों की आपाधापी में दिल के साफ टीवी पत्रकार अब दिमाग से भी साफ हो जाएं। आपलोग खाइए, पीजिए, कोशिश कीजिए कि ऑफिस ऑवर की ही ख़बरें हमें दिखाएं। ये रतजग्गा करके ख़बर दिखाने की कोई ज़रूरत नहीं है। हमें आपके बच्चों की ‘पापा, चाचा और भइया’ का इंतजार करती हुई नींदाई आंखें देखी नहीं जातीं। एक किस पर दुनिया लुटा देनेवाली आपकी पत्नी का रात-रातभर तक टीवी रूम और संकरी बालकनी के बीच का चक्कर लगाते रहना देखा नहीं जाता। आपको शायद पता नहीं कि आपके परिवार वालों की कितनी आह हमें लगती है। हमें ज़बरदस्ती बददुआ मत दिलवाइए। मेरे घर में पापा-भइया अक्सर दूकान से बहुत लेट आते हैं। मां कई बार थक-थक कर सो जाती है। नींद में बड़बड़ाती है – चमोकन जैसन सट जाता है गाहक सब, तब ई लोग भी क्या करे, छोड़कर कैसे आ जाए। न जाने कितने मासूम ग्राहकों को, जिनके होने से हमारी रोजी-रोटी है, मां की बददुआएं मिलती है। क्या पता, आपकी पत्नी और मां भी कुछ ऐसा ही कहती हो कि जब देखनेवाले का मन ही नहीं ऊबता है, तो आदमी को बाल-बच्चा, घर-परिवार तो सब झोंकना ही पड़ेगा न उसके आगे। आप हमारे लिए मत अपना परिवार झोंकिए।

आपको सच बताऊं, रात-रातभर जागकर जो आप बनारस, तारेगना, गया, लखनऊ और दुनिया जहान की तस्वीरें दिखा रहे हैं न, उसको एक-दो दिन में ही हम बिसर जाएंगे। जब तक आपकी उबासी भी खत्म नहीं होगी कि गरियाने के मुहावरे ईजाद कर लिए जाएंगे। अच्छी बात है कि आप हमें सतर्क कर रहे हैं कि इससे डरिए मत, मुकाबला कीजिए या फलां-फलां दान कीजिए। हर ब्राह्मण को महर्षि व्यास मानिए लेकिन 52 घंटे तक टीवी देखने के बाद भी पता नहीं क्यों मैं भीतर से उस तरह से भरा-भरा महसूस नहीं कर रहा जो कभी साइंस की एक कक्षा में या उपाध्यायजी के श्लोकों की व्याख्या में किया करता रहा। हम जानना चाहते हैं। दूसरी बात जब आप कोसी बाढ़ को लेकर कवरेज करते रहे, तो कई बार मुझे कुछ रिपोर्टरों को देखते हुए लगा कि मैं उन्हें ब्रेक के वक्त पानी पिलाऊं जैसा कि हमने मीडिया करियर के दौरान जिनके लिए लगा, किया, जब आप मुंबई बम विस्फोट जैसी घटना के लिए कवरेज कर रहे होते हैं, तो नास्तिक होने के बावजूद भी लगातार आपकी हिफाजत के लिए कविता, संदेश और एसएमएस के तौर पर कुछ शब्द व्यक्त होते रहे। लेकिन आज आप जिस तरह से हलकान हो रहे हैं, मेरे मन में एक ही सवाल उठ रहा है, अपने ऊपर ही शक हो रहा है कि ऐसे मौके पर हम संवेदना क्यों नहीं रख पा रहे, सिर्फ ग्लानि-बोध पैदा हो रहा है भीतर से जो कि हमने आपको इस हालत में लाकर छोड़ दिया। हम नंदीग्राम और लालगढ़ के बनते छोटे-छोटे संस्करण के आगे आपकी इस मेहनत को क्यों नहीं पचा पा रहे हैं? ये ग्लानि कुछ उसी तरह की है, जैसे कोई मां सुहाग की निशानी बेचकर बेटे की ज़‍िद में साइकिल खरीदती है। ये वैसा ही अपराध बोध है, जब हम अपने पिता की खाली जेब का हाल जाने बिना स्कूल की फीस मांग बैठते हैं। हम लाइव होने के चक्कर में, पसंद-नापसंद के फंदे में जकड़ कर आपको बहाये लिये जा रहे हैं, आप बहे जा रहे हैं। आप हमारे भीतर न्यूज सेंस पैदा कीजिए ताकि आपको एक घटना को लेकर पॉलिएशन न करना पड़ जाए। एक ही स्टूडियों में पंडित, वैज्ञानिक, ज्योतिषाचार्य और धर्मगुरुओं को बिठाने की नौबत न पड़ जाए। कल तक हमने आपको कोसा है कि आप बकवास दिखाते हैं, कूड़ा दिखाते हैं, आज आप हमें कोसिए, ऑफिस से फारिग होते ही घर जाकर पत्नी और बच्चों को भी साथ कर लीजिए और हम जैसे ऑडिएंस को समवेत कोसिए, गरिआइए कि हमने आपका जीना हराम कर दिया है, हम सुविधाभोगी हो गये हैं जो कमरे में बैठकर, बटरस्कॉच खाते हुए एक ही साथ भारत, जापान और प्रशांत महासागर पर सूर्यग्रहण को लेकर पड़नेवाले असर के बारे में जानना चाहते हैं। आप हमें गरिआइए तो सही, देखिए कि हम कैसे नहीं सुधरते हैं
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राखी सावंत बला या अबला

Posted On 2:16 pm by विनीत कुमार | 9 comments


सौरभ द्विवेदी ने ये लेख नवभारत टाइम्स डॉट कॉम के लिए लिखा है जो कि वहां प्रकाशित है। देर रात टेलीविजन और रियलिटी शो को लेकर बातचीत के क्रम में उसने बताया कि उसने भी कुछ लिखा है और वो चाहता है कि मैं उसे पढ़ूं। टेलीविजन और मीडिया पर लगातार पढ़ते रहने के बीच मेरी कोशिश रहती है कि उसे अधिक से अधिक लोगों के साथ साझा करुं जिससे कि असहमति और कमेंट के तौर पर आपकी ओर से कुछ प्रतिक्रियाएं सामने आ सके,टेलीविजन पर जो कुछ भी मैं रिसर्च कर रहा हूं,उसकी समझ में इजाफा हो।
सौरभ द्विवेदी की कीबोर्ड की सबसे बड़ी खासियत है कि वो चाहे जिस किसी भी मसले पर लिख रहे हों,आर्डर और सप्लाय के फार्मूले पर लिखते रहने के वाबजूद भी भाषा,बहस और विमर्श की गुंजाइश को हद तक बचाने की जद्दोजहद बनी रहती है। शायद यही वजह है कि उन्हें राखी सावंत पर लिखते हुए भी नोम चॉमस्की याद आते हैं। आप खुद भी पढ़िए-


साभारः- नवभारत टाइम्स डॉट कॉम
आखिर क्या हैं राखी सावंत, आइटम गर्ल या मीडिया के जरिए भारतीयों के टीवी रूम का हिस्सा बन चुकी एक हकीकत।

कुछ भी बोल कर मनोरंजन करने वाली एक भदेस एक्ट्रिस या हमारे सौंदर्यशास्त्र का व्याकरण बिगाड़ने वाली एक बाला राखी का स्वयंवर नाम के रिऐलिटी टीवी शो के चलते चर्चा में छाई राखी सावंत एक ऐसी थिअरी हैं, जिन पर शो बिजनस के मौजूदा टूल्स काम नहीं करते। राखी नाम की इस थ्योरी की पड़ताल :

अमेरिका के मशहूर चिंतक नॉम चॉम्स्की और भारत की आइटम गर्ल राखी सावंत, इन दोनों में क्या रिश्ता हो सकता है। सावंत चॉम्स्की की एक थिअरी का विस्तार हैं, ऐसा विस्तार जिसके बारे में शायद खुद उन्होंने भी नहीं सोचा होगा। चॉम्स्की मैनूफैक्चरिंग कंसेंट नाम की किताब में कॉर्रपरट सेक्टर और स्टेट नाम की संस्थाओं के मीडिया पर नियंत्रण और असर की बात करते हैं। मगर राखी सावंत किसी संस्था का नाम नहीं। उनके चाहने वाले भी और आलोचक भी उन्हें प्रवृत्ति का दर्जा जरूर देते हैं। और राखी को बखूबी मालूम है कि मीडिया का इस्तेमाल कैसे किया जाता है। कब कैमरे के सामने बॉयफ्रेंड को थप्पड़ मारना है और कब टीवी स्टूडियो में खुद को भारतीय नारी साबित करने के लिए पूरे कपड़े पहनकर आना है। राखी का नाम टीआरपी का पर्याय है, लेकिन इलीट भारतीय तबका हो या ग्रेट इंडियन मिडल क्लास, उनके लिए राखी बकवास करने और बदन दिखाने वाली एक लड़की है, जिसे मीडिया ने सिर चढ़ा रखा है। कुल मिलाकर इतना साफ है कि राखी सावंत को आज पूरा देश न सिर्फ जानता है, बल्कि बजट और लालगढ़ जैसे तमाम जरूरी मुद्दों के बजाय देश उनके स्वयंवर पर चर्चा भी कर रहा है।

थिअरी को बनाने वाले कंपोनेंट
राखी सावंत की कारगुजारियों और रणनीतियों पर बात करने से पहले यह जानना जरूरी है कि उनको बनाने वाले तत्व क्या हैं। मराठी पिता और गुजराती मां की सबसे बड़ी बेटी राखी सत्तर के दशक में बनने वाली मनमोहन देसाई मार्का पारिवारिक मूल्यों वाले ड्रामे की स्क्रिप्ट की मेन लीड की तरह हैं। पिता पुलिस में एसीपी थे, लेकिन जब राखी 11 साल की थीं, तब उन्होंने अपनी पत्नी और तीनों बच्चों को छोड़ दिया। इसके बाद राखी ने भाई-बहन की परवरिश का जिम्मा संभाला और डांस को अपना पेशा बनाया। जागरण, पार्टियों आदि में डांस कर उन्होंने धीमे-धीमे अपनी पहचान बनाई। 2003 में सुनील दर्शन की फिल्म 'जोरू का गुलाम' में उन्हें पहला ब्रेक मिला। फिर आया रीमिक्स एलबम 'परदेसिया' जिसमें साइड कट वाली स्कर्ट पहने राखी कॉन्फ्रंस रूम की टेबल पर चढ़कर अपने बॉस को रिझाती नजर आईं। यहीं से उनके करियर का ग्राफ ऊपर चढ़ने लगा।

पॉप सिंगर मीका ने अपनी बर्थडे पार्टी पर जब जबरन राखी को किस किया, तो जैसे मीडिया में हंगामा मच गया। सेक्सी टॉप में संवरी राखी ने आंसू ढलकाते हुए खुद के भारतीय नारी होने की दुहाई दी और मीका को कसूरवार ठहराया। फिर आया रिऐलिटी टीवी शो 'बिग बॉस', जिसमें बिना मेकअप किए नजर आने वाली राखी ने अटेंशन पाने के लिए अपने कोरियोग्राफर अभिषेक अवस्थी के लिए प्यार का खुला इजहार किया और शो से बाहर होने के बाद एक बार फिर वाइल्ड कार्ड के जरिए एंट्री भी पाई। इस शो के जरिए राखी घर-घर में जाना-पहचाना नाम बन गईं।

फिर तो मीडिया और राखी के बीच की यारी चल निकली। कभी अपार्टमंट के बाहर कूड़े के सवाल पर हल्ला मचाती, तो कभी ब्रेस्ट इम्प्लांट सर्जरी की बात कबूलते हुए इसके पक्ष में दलील देती राखी जब-तब टीवी पर नजर आने लगीं। चेहरे पर ओढ़ी गई मासूमियत और मुंहफट अंदाज ने उन्हें टीआरपी दिलाने वाला सॉलिड मसाला बना दिया। इस दौरान राखी ने कुछ बातों का खास तौर पर ध्यान रखा। मसलन, स्वयंवर से लेकर पिछले तमाम इंटरव्यूज में खुद को भारतीय लड़की, मिडल क्लास फैमिली वाला और भगवान से डरने वाला बताना। अपने अंग्रेजी न जानने को कमजोरी की तरह बताकर मोरल एडवांटेज हासिल करना। अपनी फिगर का जलवा लगातार कायम रखना और सही समय पर बिंदास बोलकर सुर्खियां बटोरना।

मीडिया : कभी सौतन-कभी सहेली
राखी सावंत को एक फिनॉमिना बनाने में मीडिया का ही रोल है, यह कहने वाले तमाम लोग हैं। 24 घंटे की गलाकाट स्पर्धा में टीवी को चाहिए कुछ चेहरे, जिन्हें देखने और जानने में पब्लिक को इंटरेस्ट हो। इसके लिए मीडिया कभी टैलंट हंट करता है, तो कभी रिऐलिटी शो। इसी कतार में आते हैं विजुअल के मारे न्यूज चैनल। राखी ने इन मीडियम्स की जरूरत को भरपूर समझा और यह सुनिश्चित किया कि उनके हर बयान और कदम को कवरेज मिले। जूम टीवी के लिए तुषार कपूर जब राखी के शो में आए, तो उन्होंने शुरुआत में ही पूछ लिया कि राखी जी प्लीज मुझे कंट्रोवर्सी क्रिएट करने का हुनर सिखा दीजिए। इस पर राखी ने थोड़ा लजाते हुए जवाब दिया कि कोई भी काम करने से पहले देख लो कि कैमरे की निगाह कहां है। जाहिर है कि राखी को पब्लिकली यह कबूल करने में कोई दिक्कत नहीं कि वह कंट्रोवर्सी खड़ी करके लाइम लाइट में रहती हैं। मगर यहीं कहानी या कहें कि थिअरी में ट्विस्ट आ जाता है। ट्विस्ट अपने कहे को बदलने का। मसलन, कॉफी विद करण नाम के शो में राखी ने बार-बार कहा कि मैंने अपने परिवार को देखा है और इसीलिए मैं शादी नहीं करना चाहती। मैं अभिषेक से प्यार करती हूं, लेकिन उसके साथ शादी नहीं कर सकती। बच्चे नहीं पैदा कर सकती। और अब वही राखी बाकायदा टीवी पर अपना स्वयंवर रचने में व्यस्त हैं।

एक पल को राखी कहती हैं कि मीडिया में मेरे बारे में सच्चा-झूठा छपता रहता है, फिर अगले ही पल कहती हैं कि मैं बडे़ दिल वाली हूं, छोटी सी जिंदगी है, सबको माफ कर देती हूं। जाहिर है कि राखी भी जानती हैं कि उनकी कामयाबी का आधार भी मीडिया ही है और जिस दिन इसने उनमें रुचि लेनी बंद कर दी, उनका करियर खत्म हो जाएगा। मीडिया जानता है कि राखी का भदेस लहजा, कुछ भी बोल देने वाला मिजाज और एक्सपोजर लोगों में खीझ पैदा करे या प्यार, उनका हाथ चैनल बदलने के लिए रिमोट पर नहीं जाएगा और यह बिजनस का अल्टिमेट फंडा है।

ऐसा नहीं है कि मीडिया हमेशा राखी को हाथों-हाथ ही लेता है। तमाम चैनलों पर राखी को लेकर कार्टून स्ट्रिप आते हैं, तमाम कॉमेडियंस के लिए वह मजाक की विषयवस्तु हैं। लेकिन ये सारी कवायदें अंतत: राखी को एक ऐसी शख्सियत में तब्दील कर देती हैं, जो चाहे-अनचाहे हमारी बातचीत का हिस्सा बन चुकी है, हमारे कमनीय काया और परिष्कृत अंग्रेजी बोलने वाली ऐक्ट्रिसेस से निर्मित होते कामना संसार में जबरन घुस आई है। और यही जबरन घुसने का हठ राखी को हिट बना देता है।

ब्रैंड राखी कितना मजबूत
अगर राखी का नाम बिकने की गारंटी है, तो आखिरकार ऐड वर्ल्ड उनसे परहेज क्यों करता है। दरअसल राखी नाम के ब्रैंड की अपनी लिमिट भी हैं। उनकी इमिज के साथ एक किस्म की अनिश्चितता जुड़ी हुई है। इस वजह से कोई भी प्रॉडक्ट खुद को उनसे जोड़ने के पहले 10 बार सोचेगा। राखी की एक खास छवि है और आज के कंस्यूमर प्रॉडक्ट लॉन्च करने वाले उस छवि को अपने मुफीद नहीं पाते। मगर यही राखी अपने आप में एक ब्रैंड हैं और यह ब्रैंड एक दिन में नहीं बल्कि लगातार बना है। बिग बॉस के दौरान राखी ने ऐसी घरेलू लड़की की तरह खुद को पेश किया, जिसे पूरी दुनिया गलत समझती है। लड़कों के अंडरवियर धोए, उन्हें खाना खिलाया और दूसरों के फटे में टांग भी अड़ाई। शो के फौरन बाद राखी को मशहूर प्रड्यूसर-डाइरेक्टर करण जौहर का अपने शो 'कॉफी विद करण' के लिए बुलावा आ गया। पहली बार इस शो में बातचीत हिंदी में की गई। राखी को पता था कि ये उनके लिए वाकई बड़ा इवेंट है और इसे कैश कराने में उन्होंने कोई कोताही नहीं बरती। करण के सामने लजाई बैठी राखी ने कहा कि आज मैं खुद को प्रीटी, रानी और काजोल के बराबर मान रही हूं। अपनी हिंदी की दुहाई देते हुए करण से कहलवाया कि कोई बात नहीं राखी आखिर हम हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ही काम करते हैं। और फिर आया हाई पॉइंट जब अपने परिवार की बेरुखी का जिक्र करते हुए राखी शो में ही रो पड़ीं। हॉल्टर नेक वाले लो कट ब्लाउज और शिफॉन की साड़ी में सजी राखी एक ऐसी बेचारी लड़की का प्रतीक बन गईं, जिसे जब हंसी का पात्र समझते हैं मगर कोई नहीं सोचता कि बिना गॉडफादर के अपनी जगह बनाती इस लड़की ने कितनी तकलीफ सही।

अब गौर करें इस तथ्य पर कि राखी को सबसे ज्यादा लंबी अवधि की चर्चा दिलाने वाले राखी का स्वयंवर नाम के प्रोग्राम को एनडीटीवी इमेजिन नाम का टीवी चैनल प्रोड्यूस कर रहा है। करण जौहर इस चैनल के ब्रैंड एबैंसडर और सलाहकार हैं। जाहिर है कि राखी के आंसू बेकार नहीं गए। राखी जानती हैं कि तमाम कलाबाजियों के बावजूद अभी वह औसत भारतीय के लिए एक एम्पावर्ड आइकन नहीं मनोरंजन मुहैया कराने वाली शख्सियत ही हैं। इसीलिए स्वयंवर में वह इसकी भरपाई करने की कोशिशों में लगी हैं। यह ब्रैंड राखी का अगला चरण है। स्वयंवर के कॉन्सेप्ट पर बात करते हुए माता सीता को याद करती राखी, द्रौपदी को याद कर 16 के 16 लड़कों से शादी करने की बात करती राखी और एक प्रतिभागी द्वारा खुद को लक्ष्मी बाई और इंदिरा गांधी की अगली कड़ी बताए जाने पर नम्रता से आंखें नीचे किए राखी। यह ब्रैंड खुद को गर्ल नेक्स्ट डोर साबित करने पर तुला है, जिसे अपने होने का एहसास भी है और उसके मायनों का अंदाज भी। फिर भले ही मनोरंजन की क्वॉलिटी गिरने का रोना रोते लोग उन्हें सेक्स और गॉसिप के ब्यौरों से बरे अंग्रेजी नॉवेल लिखने वाली शोभा डे का भदेस संस्करण मानें।

टीआरपी के खेल की समझ
राखी सावंत को पता है कि जब तक वह बिकाऊ हैं, तभी तक बेरहम टीवी की दुनिया में उनकी पूछ है। तो जाहिर है कि इस पूछ को बनाए रखने के लिए राखी अपनी संभावनाओं को भी तौलती रहती होंगी। इसी समझ के तहत एक ऐसे शो को चुना गया जिसके बारे में टीवी चैनल कहता है कि वास्तविकता इससे ज्यादा वास्तविक कभी नहीं रही। उदयपुर के फतेहगढ़ साहब नाम के महल में राखी का स्वयंवर के लिए सेट लगे हैं, जहां देश भर से आई लाखों एंट्री में से चुने गए 16 प्रतिभागी खुद को राखी के लिए सबसे योग्य वर बताने में लगे हुए हैं। राखी को पता है कि कैमरे का फोकस वही हैं, इसलिए वह शो के दौरान नाटकीय क्षणों का सृजन करती रहती हैं। जब कोई ज्यादा करीब आए तो उसे झिड़क देना, जब कोई मायूस हो जाए, तो उसके साफ दिल की तारीफ कर देना और जब कुछ भी न करने को रह जाए, तो एंकर और दोस्त राम कपूर की तरफ कभी कातरता और कभी लाज के साथ निहारना।

सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या राखी शो के अंत में धूमधाम से अपने चुने हुए वर के साथ शादी करेंगी। अगर ऐसा हुआ तो शादी कब तक चलेगी। तलाक होगा तो कब और उस वक्त मीडिया को इसका कितना हिस्सा बनाया जाएगा। राखी के रुख को देखते हुए बहुत संभव है कि अंत में राखी चीखकर और आंसुओं से लबरेज होकर कहें कि ये सब लोग टीवी पर फेम पाने के लिए मेरे प्रति प्यार का झूठा दिखावा कर रहे हैं। कोई मुझसे प्यार नहीं करता। मैं अभागी प्यार के लिए जिंदगी भर तरसती रहूंगी और इसके साथ ही शो खत्म हो जाए। ऐसा होने पर आगे का सफर जारी रहेगा, टीवी और जनता के साथ, राखी नाम की मिथकीय हकीकत का। आखिर शादीशुदा राखी उतनी टीआरपी नहीं दे सकती, जितना दूल्हे की तलाश करती राखी।

मिडल क्लास का इगो फैक्टर
राखी को खारिज करने वालों की भी कमी नहीं। मगर फिर भी उन्होंने एक-एक करके जूम टीवी और एनडीटीवी इमैजिन जैसे इलीट चैनलों पर अपनी जगह बना ली। करण जौहर को इंटरव्यू दिया और आमिर खान का इंटरव्यू लिया। अगर सिर्फ डांस को पैमाना माना जाए, तो राखी के हुनर की उनके क्रिटीक भी तारीफ करते हैं। फिर भी राखी को खारिज क्यों किया जाता है, जबकि वह हमारे सामने अपनी सारी कमियों के साथ पेश आती हैं। दरअसल राखी का बोलना मिडल क्लास की दमित आकांक्षाओं की आवाज है। साधारण रंगत वाली लड़की मगर लोग कितना हाथों-हाथ लेते हैं। ठीक से बोलना भी नहीं आता, मगर जब बोलती है, तो सब सुनते हैं। मिडल क्लास अपनी मर्यादा और स्टेटस बनाने के फेर में जिन चीजों से बचता है, राखी ऐन उन्हीं चीजों के बलबूते खुद की शख्सियत को संवारने में लगी हैं। इस क्लास को पता है कि राखी कतई भारतीय नारी नहीं हैं, उसकी शर्म, उसका गुस्सा, सब कुछ नाटकीय है, मगर इन क्षणों से पार जाने को भी मिडल क्लास तैयार नहीं। बल्कि टीवी के सामने बैठकर वह अपने आहत इगो को सहलाता है, राखी को कोसता है, उसके फूहड़पने की नकल उतारता है।
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इन दिनों मोहल्लाlive पर खबरों में मिलावट पर बहस जारी है। खबरों में मिलावट इस साइट का गढ़ा हुआ शब्द नहीं है बल्कि मौजूदा मीडिया को विश्लेषित करने के लिए आउटलुक के संपादक नीलाभ मिश्र ने इसका प्रयोग 12 जुलाई को पत्रकार उदयन शर्मा की याद में आयोजित संगोष्ठी में किया। संगोष्ठी के बाद ये शब्द और नजरिया भीड़ में गुम न हो जाए जैसा कि आमतौर पर होता आया है,इसलिए मोहल्लाlive इसके अन्तर्गत मीडिया के अलग-अलग संस्थानों और माध्यमों से जुड़े लोगों की राय को लगातार प्रकाशित करने का काम कर रहा है। इस कड़ी में मैंने भी अपने विचार दिए हैं। आप भी एक नजर डालें और इस बहस को आगे बढ़ाएं-


12 जुलाई की शाम देश के मशहूर पत्रकार उदयन शर्मा की याद में आयोजित मीडिया संगोष्ठी में आउटलुक हिंदी के संपादक नीलाभ मिश्र ने जो बात कही है, वो हममें से कई लोगों को एकदम से नयी और बाकी पत्रकारों की समझ से बिल्कुल अलग लग रही है। ऐसा इसलिए भी है कि सोचने और करने के स्तर पर चाहे अधिकांश पत्रकार वही कर रहे हों, जिसे नीलाभ ने मीडिया के लिए अब तक प्रचलित शब्दों से अलग टर्मनलॉजी का इस्तेमाल करते हुए कहा है, लेकिन विचारने के स्तर पर नीलाभ जैसा क्लियर स्टैंड नहीं बना पाये हैं। पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग है, जो अभी तक इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि पत्रकारिता के नाम पर वो जो कुछ भी कर रहा है, दरअसल बाजार के बीच की बाकी गतिविधियों की तरह ही एक किस्म की गतिविधि है। वो दिन-रात पाठक और ऑडिएंस की चिंता शामिल करते हुए उसके नाम पर वो सब कुछ लिख रहा है, दिखा रहा है, जिससे कि आम पाठक और ऑडिएंस की समझ में इज़ाफा होने के बजाय बाज़ार, पूंजी और दमन करनेवाली मशीनरी के हाथ मज़बूत होते हैं, लेकिन अपने को इस तरह की गतिविधि में शामिल होने से साफ बचाना चाहता है। इसलिए वो अपनी जुबान से ये बात मानने को तैयार है कि मीडिया के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वो सब बकवास है, कूड़ा है, इसमें अधकचरापन है – खुद ऑफिस से निकलते हुए ये कहता है कि बंडलबाजी करते हुए एक दिन और बीत गया, लेकिन ये बात सुनने के लिए तैयार नहीं है कि वो ये सब कुछ मीडिया संस्थान के मालिकों की इच्छा और इशारे से कर रहा है… बाज़ार की शर्तों के आगे गुलाम होकर कर रहा है। इसलिए नीलाभ जब ये कहते हैं कि जिस तरह से दूध सहित बाकी उपभोक्ता वस्तुओं में मिलावट होने की स्थिति में उसके उत्पादकों के खिलाफ शिकायत की जाती है, तो ख़बरों के मामले में ऐसा क्यों नहीं – तो लगता है कि मीडिया को दुरुस्त करने की दिशा में एक नये पहलू को समझने की चिंता सामने आ रही है। ख़बरों को उत्पाद और पाठक को खालिस उपभोक्ता समझने से एकबारगी तो ऐसा लगता है कि मीडिया विमर्श का एक नया सिरा हाथ लग गया है और इसके जरिए मीडिया और दर्शकों-पाठकों के बीच अमन का राग गाया-बजाया जा सकता है। लेकिन, ठहर कर सोचिए तो नीलाभ जो बात कह रहे हैं, वो मीडिया में फैले कचरे को दूर करने से कहीं ज्यादा इस बात को घोषित करने की मुहिम ज्यादा है कि कुछ भी करने से पहले आप ये मानिए कि आप लोगों के बीच हाथ में कलम, की-बोर्ड और बाइक लिये जहां खड़े हैं, वो समाज सुधारकों की पवित्र भूमि होने के बजाय बाज़ार है, जहां कि मानवीय संवेदना, भावना और बड़े-बड़े मूल्यों के लागू होने के बजाय बाज़ार की शर्तें लागू होंगी।

नीलाभ ने मीडिया के कचरे को दूर करने के लिए, उसके अंदर घुल चुके मिलावटीपन को फिल्टर करने के लिए जो उपाय बताये हैं, ज़रूरी नहीं कि व्यवहार के स्तर पर वो उसी रूप में काम करेंगे, जैसा कि हर उपाय को सोचने के दौरान किये जाते हैं। हर कानून को बनाने के पहले शैतान से साधु बनने की प्रक्रिया एकदम से दिमाग़ में घूमने लग जाती है। मुझे लगता है कि नीलाभ के इन नये शब्दों के छिलके को अगर उतार दें, तो पूरी बहस एक बार फिर मीडिया मिशन या प्रोफेशन है, के दायरे में चक्कर काटने लगती है। हां, यहां हम उनकी बातों के मुरीद इसलिए बन गये हैं कि उन्होंने साहस के साथ ये मान लिया है कि पत्रकारिता मिशन के बजाय बाज़ार का हिस्सा है और हमें इसके बारे में उसी तरीके से सोचने चाहिए जिस तरह से बाज़ार को रेगुलेट करने की दिशा में सोचते हैं। हमें पाठकों पर नैतिकता, मानव मूल्य जैसे भारी-भरकम एहसान करने के बजाय एक उपभोक्ता के तौर पर न्याय करने की दिशा में सोचना होगा। ऐसा करते हुए नीलाभ मीडिया विमर्श करने आये बुद्धिजीवियों के दरवाजे़ को बदल देते हैं। अब तक दिन-रात बाजार के भीतर रह कर खाने-कमाने वाले लोग जैसे ही विमर्श के लिए आते हैं, तो वो उसी दरवाजे़ से न आकर साहित्य, नैतिक शिक्षा, समाजशास्त्र के दरवाजे़ से घुस कर आ जाते हैं। सब कुछ अच्छा-अच्छा बोल कर निकल जाते हैं। नीलाभ इन दरवाजों से आने के बजाय उसी दरवाजे़ से आने की बात करते हैं, जिससे कि उनका रोज़ का आना-जाना होता है। मीडिया विमर्श के लिए अलग से पूजाघर बनाने की ज़रूरत को सिरे से नकार देते हैं।

मुझे लगता है कि मौजूदा मीडिया, चाहे वो प्रिंट हो, इलेक्ट्रॉनिक हो और अब वेब, इन सबके ऊपर कानून और आयोग जैसे मसले के साथ जोड़कर देखने से पहले इस बात पर विचार करने की ज़रूरत ज्यादा है कि बुनियादी तौर पर इसकी प्रकृति क्या है, ख़बरों को जुटाने से लेकर पेश किये जाने तक का तरीका कैसा है, उसके पीछे की शर्तें किस रूप में काम करती हैं। इसे जाने-समझे औऱ विश्लेषित किये बिना आप चाहे जितने भी कानून बना दें, वो पेनकीलर (pain killer) का काम करेगा, कोई ठोस निदान संभव न हो सकेगा। अब देखिए न, अभी तक प्रिंट मीडिया ने देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों से संपादकीय पन्नों पर टेलीविजन और न्यूज़ चैनलों के विरोध में जम कर लिखवाया। भला हो लिखनेवाले का कि बिना वस्तुस्थिति को समझे ही टीवी और न्यूज़ चैनलों के खिलाफ़ लिखते रहे। कभी इसे सामाजिक संदर्भ से जोड़ कर ग़लत साबित किया, कभी इसके प्रभाव को लेकर नकारात्मक लिखा और रही-सही कसर ये कह कर निकालते रहे कि ये पूंजी के हाथों बिका हुआ माध्यम है, उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा देता है। नतीजा ये हुआ कि इनके लिखने का टेलीविजन देखनेवाले लोगों पर कितना असर हुआ, इसे तो छोड़ दीजिए लेकिन प्रिंट मीडिया को दूध का धुला साबित करने का एक महौल बनाया। ऐसा महौल कि टेलीविजन में काम करनेवाले सारे लोग अनपढ़ हैं, कम जानकार लोग हैं जबकि प्रिंट के लोग विश्लेषण की ताक़त रखतें हैं, भले ही वो दिनभर साइट से उठा-उठाकर जर्जर अनुवाद हमारे सामने ख़बर की शक्ल में रखते हों। ये तो 2009 के लोकसभा चुनाव का शुक्रिया अदा कीजिए, जिसने कि मज़बूत सरकार देने से ज़्यादा ये साबित कर दिया कि प्रिंट मीडिया बाज़ार के हाथों ज़्यादा बुरी तरह बिके हैं, ख़बरों के नाम पर मिलावटी का काम न्यूज़ चैनलों से ज्यादा यहां हुआ है। इसलिए पहला काम जो कि मुझे लगता है, माध्यमों के स्तर पर साधु और शैतान साबित करने का, जेनरेशन के आधार पर मसीहा और हैवान साबित करने का और प्रस्तुति के स्तर पर अवतार रूप और भांड रूप देने का जो काम चल रहा है, वो बंद होने चाहिए। पहले आप इसे समझिए कि आप जो कर रहे हैं वो कर क्या रहे हैं, किसके लिए कर रहे हैं, इसका असर क्या हो सकता है, आपके लिए कितना टिकाऊ है ऐसा करना। उसके बाद कानून और आयोग को लेकर बात कीजिए। इसे आप मैनेजमैंट का आरवाइ यानी रिस्पॉन्सीविलिटी योरसेल्फ कह सकते हैं।

अंतिम बात कि अगर आपको पूरे मीडिया में बाज़ार ही इतना ज़रूरी लगता है तो उसे ईमानदारीपूर्वक, स्थिर होकर सोचने की कोशिश कीजिए। आपको बाज़ार की वास्तविकता को समझने के नाम पर न तो उसका ग़ुलाम बनने की ज़रूरत है और न ही उसका भोंपा बनने की अनिवार्यता। ऐसा होने से एक धारणा पनपती है कि बिना मोटी पूंजी के मीडिया का चलना संभव ही नहीं है। अब देखिए कि जिन अख़बारों ने पैसे लेकर चुनावी ख़बरें छापी, उन्होंने कितने सस्ते में मीडिया का बट्टा लगा दिया। बाज़ार का एक शब्द है, ब्रांड इमेज। उसे समझ ही नहीं पाये। अब है कि मीडिया की ऐसी हर ख़बर झूठी मानी जाने लग जाएगी, जिनको लेकर परेशानी पैदा हो सकती है। वो तमाम लोग इसकी जम कर आलोचना करेंगे, मीडिया की उस आवाज़ को दबाने की कोशिश करेंगे जिसमें सच भी शामिल है। जाहिर हममें से कोई नहीं चाहते कि स्वार्थवश, क्षुद्रताओं की आड़ में जिस तरह की हरकतें जारी हैं उसे मीडिया आलोचना की कैटेगरी में शामिल कर लें और हम भी उसमें शामिल हो जाएं।

मेरे साथ ही की खेप में पूजा प्रसाद,विपिन चौधरी औऱ मृणाल वल्लरी के विचार को जानने के लिए क्लिक करें- बिकाउ मीडिया से पर्दा उठाने के लिए थैंक यू आम चुनाव
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कल शाम,पत्रकार स्व.उदयन शर्मा की याद में हुए कार्यक्रम में कपिल सिब्बल की ओर से दिए गए बयान के बाद से पत्रकारों के बीच जबरदस्त बौखलाहट औऱ मलाल है। कुर्बान अली के शब्दों में - आज हमारी हालत ये हो गयी है कपिल सिब्बल आता है और हमारे मुंह पर तमाचा मारते हुए ये कहकर निकल जाता है कि आप कुछ भी छापते रहिए हमें कोई फर्क नहीं पड़ता। हम शर्मिंदा होने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते।

कल की संगोष्ठी में कपिल सिब्बल और आशुतोष,IBN7 की ओर से अपनी बात रखने के बाद जिस तरह का बवाल मचा उसे देखते,पढ़ते हुए आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आज की मीडिया को लेकर लोगों के बीच किस हद तक की झल्लाहट है। लिहाजा आशुतोष को अपनी बात अधूरी छोड़कर ही वापस बैठ जाना पड़ा। सोचिए ये स्थिति तब है जबकि दर्शक दीर्घा में किसी न किसी रुप में मीडिया से जुड़े लोग मौजूद रहे। यही बात अगर आम टेलीविजन दर्शकों और अखबार के पाठकों के बीच होती तो क्या नौबत होती। यहां आकर नामचीन पत्रकारों को ये खुशफहमी छोड़नी होगी कि वो जहां भी जाएंगें लोग उनसे एक नजर देख लेने भर के लिए आएंगे। मीडिया के स्टूडेंट ऑटोग्राफ के लिए मिलने आएंगे,उनसे उनका इमेल आइडी मांगेगें। सच्चाई ये है कि समाज के बीच तेजी से एक ऐसा वर्ग पनप रहा है जो मीडिया से जुड़े लोगों से हिसाब मांगने के मूड में है,आमने-सामने टकराने की तैयारी में है।

सुनिए सुनिए,मेरी बात भी सुनिए कहता रहा दो-तीन चैनलों का नाम लेते वक्त लोग जिस तरह से दांत पीसते हैं,यकीन मानिए अगर उनसे जुड़े लोग मिल जाएं तो पता नहीं उनके साथ क्या करेंगे। मुझे याद है पिछले साल जब हमने सफर के साथ तीन दिनों का मीडिया वर्कशॉप कराया और टेलीविजन रिपोर्टिंग की वर्कशॉप के लिए सबसे तेज कहे जानेवाले चैनल के पत्रकार को बुलाया तो दिल्ली के अलग-अलग संस्थानों से आए बच्चों ने उनकी बात सुनने के बजाय एक-एक करके इतने सवाल दाग दिए कि वो सिर्फ सुनिए,सुनिए मेरी बात भी तो सुनिए। इसे एक हद तक की बदतमीजी भी कह सकते हैं औऱ बच्चे जो कुछ भी पूछ रहे थे उसे सवाल न कहकर आप भड़ास निकालना कह सकते हैं। अंत में बीच-बचाव करते हुए मुझे कहना पड़ा कि-आपलोगों को इनके साथ इस तरह की बदतमीजी करने का अधिकार नहीं है,ये तो बस चैनल के लिए काम करते हैं, अगर आपको वाकई इन सवालों के जबाब चाहिए तो आप चैनल हेड से समय लीजिए औऱ उनके सामने अपनी बात रखिए. लेकिन इन सब बातों के वाबजूद पल्ला झाड़ते हुए खम ठोककर मीडिया को गरियाने के साथ ही आउटपुट के स्तर पर क्या निकलकर आता है?

विश्वविद्यालय और मीडिया संस्थानों में जो लोग भी मीडिया पढ़ा रहे हैं उन्हें बच्चों की ओर से सवाल दागने का ये अंदाज शायद बहुत पसंद आए। अपनी पढ़ायी गयी चीजों को लेकर सुकून हो कि जो और जिस एप्रोच से उन्होंने बच्चों को पत्रकारिता पढ़ाया,वो ठीक उसी दिशा में बढ़ रहे हैं। वो इत्मिनान कर सकते हैं कि आनेवाले समय में ये बच्चे संतई पत्रकारिता करेंगे औऱ फिर से पत्रकारिता का स्वर्णिम युग आएगा। वर्कशॉप खत्म होने के बाद कुछ टीचरों ने कहा भी कि इन बच्चों के सामने क्या टिकेगें टीवीवाले? आज सही धोया इनको बच्चों ने। सच मानिए इस सीन को देखते हुए मेरे मन में बार-बार एक ही सवाल आया-तो फिर क्यों साल -दो- साल बाद ये बच्चे अपने मीडिया गुरुओं के बारे में कहते फिरते हैं-जिंदगी बर्बाद करते है भइया, मीडिया के नाम पर ऐसा पढ़ाया कि जिसकी इन्डस्ट्री में कोई जरुरत ही नहीं है। सब फालतू औऱ कोरे आदर्श से लदी-फदी बातें।

हर साल देशभर में करीब दो हजार भारतेन्दु औऱ गणेशशंकर विद्यार्थी जैसे लोगों लोगों की पत्रकारिता से प्रभावित होकर पत्रकारिता करने निकले बच्चे क्यों नहीं कुछ बदलाव कर पाते हैं। जाहिर है,संस्थान से बाहर आकर जिन परिस्थितियों औऱ शर्तों पर उन्हें काम करना पड़ता है,वो मीडिया गुरुओं की बातों से मेल नहीं खाती। वो न तो व्यावहारिक ही हुआ करती है औऱ न ही उनमें एप्रोच के स्तर पर समय के साथ-साथ बदलाव आने की गुंजाइश। नतीजा ये होता है कि संस्थान की पत्रकारिता औऱ गुरुओं के पत्रकारिता पाठ उसके लिए दो पाट बनते हैं जिनके बीच की स्थितियों के बीच वो लगातार डूबता-उतरता रहता है। मीडिया कोर्स के दौरान गुरु किसी भी रुप में बाजार, आर्थिक नीतियां औऱ दबाव औऱ विज्ञापन जैसे शब्द को स्टूडेंट के आसपास फटकने ही नहीं देते। अगर आ भी जाए तो उसके लिए पहले से ही बाजारवाद, अपसंस्कृति और उपभोक्तावाद जैसे शब्द पहले से तैयार रखते हैं जो कि उनके हिसाब से पत्रकारिता के अंदर जहर घोलने का काम करते हैं।

दूसरी तरफ पुराने पत्रकार जिन्होंने कि कभी बड़े घरानों से निकलनेवाले अखबारों औऱ पत्र-पत्रिकाओं के लिए कम पैसे में ही सही (उनके हिसाब से) लेकिन इत्मिनान की पत्रकारिता की है,सेमिनारों में उनका सारा जोर सिर्फ इस बात पर होता है कि वो आज के पत्रकारों खासकर टेलीविजन पत्रकारों को फूहड़,गैर-जिम्मेदार और पैसे के पीछे भागनेवाले पत्रकार साबित करने में होता है। अभी करीब पन्द्रह दिन पहले एस.पी.सिंह की याद में हुई संगोष्ठी में बुजुर्ग पत्रकार उमेश जोशी ने कहा कि - "उन्हें आज के पत्रकारों कहने में को पत्रकार कहने में शर्म शर्म आती है । एक-एक पत्रकार पचास लाख औऱ करोड़ रुपये की कोठी खरीद रहा है।" वो पानी पी-पीकर आज के पत्रकारों को गाली देते हैं। लेकिन सवाल ये है कि क्या इस तरह से गरियाने का आधार सिर्फ इसलिए बनता है कि आज का पत्रकार सम्पन्न हो रहा है। हमारे भीतर ऐसा कौन-सा माइंड सेट बन गया है कि हम पत्रकार औऱ साहित्यकार को सम्पन्न होना बर्दाश्त नहीं कर पाते। दूसरी बात कि अगर बुजुर्ग पत्रकारों से मेनस्ट्रीम की पत्रकारिता का नेतृत्व छिनता चला जा रहा है तो इसकी वजह उनका बुजुर्ग होना भर है या फिर बाजार की ताकतों को नहीं समझ पाने की उनकी कमजोरी है। मीडिया संस्थान अगर ये समझ पा रही है कि अगर मीडिया को चलाने के लिए बाजार को शामिल करना अनिवार्य है और उसके मिजाज से यंग जेनरेशन के ही पत्रकार काम लायक हो सकते हैं तो फिर बुजुर्ग पत्रकारों को लेकर कोई क्यों रिस्क उठाए।

दरअसल आज की संगोष्ठी औऱ इसके पहले की भी मीडिया संगोष्ठियों में टेलीविजन पत्रकारों को कोसने की जो रस्म अदायगी होती है,उसके पलटवार में जो टेलीविजन के पत्रकार उत्तेजित होते हैं, वो पुराने जेनरेशन और नए जेनरेशन के बीच की रस्साकशी है। वो पुराने जेनरेशन की ओर से मौजूदा जेनरेशन को नीचा औऱ पतित दिखाने और मौजूदा जेनरेशन की ओर से पुराने पत्रकारों को वस्तुस्थिति की समझ न होने की तोहमत जड़ने का लीला कीर्तन है। ये अपने-अपने स्तर पर खुद को जस्टिफाय करने की कोशिश है। लेकिन इससे भी बड़ा सच है कि आज की पत्रकारिता अगर बाजार के हाथों बिक गयी है,सारे नए पत्रकार उसकी कठपुतलियां बन गए हैं तो ये भी किसी न किसी रुप में बुजुर्ग पत्रकारों की ही हार है। अपनी हठधर्मिता की वजह से पत्रकारिता औऱ बाजार के बीच एक संतुलित संबंध नहीं बनाने का नतीजा है। औऱ फिर कौन जाने,ऐसी कोशिशें उन्होंने की भी होगी औऱ असफल हो जाने की स्थिति में बाकियों के साथ राग-मालकोश का रियाज करने में जुट गए हों।
दरअसल आज की संगोष्ठी औऱ इसके पहले की भी मीडिया संगोष्ठियों में टेलीविजन पत्रकारों को कोसने की जो रस्म अदायगी होती है,उसके पलटवार में जो टेलीविजन के पत्रकार उत्तेजित होते हैं, वो पुराने जेनरेशन और नए जेनरेशन के बीच की रस्साकशी है। वो पुराने जेनरेशन की ओर से मौजूदा जेनरेशन को नीचा औऱ पतित दिखाने और मौजूदा जेनरेशन की ओर से पुराने पत्रकारों को वस्तुस्थिति की समझ न होने की तोहमत जड़ने का लीला कीर्तन है। ये अपने-अपने स्तर पर खुद को जस्टिफाय करने की कोशिश है। लेकिन इससे भी बड़ा सच है कि आज की पत्रकारिता अगर बाजार के हाथों बिक गयी है,सारे नए पत्रकार उसकी कठपुतलियां बन गए हैं तो ये भी किसी न किसी रुप में बुजुर्ग पत्रकारों की ही हार है। अपनी हठधर्मिता की वजह से पत्रकारिता औऱ बाजार के बीच एक संतुलित संबंध नहीं बनाने का नतीजा है। औऱ फिर कौन जाने,ऐसी कोशिशें उन्होंने की भी होगी औऱ असफल हो जाने की स्थिति में बाकियों के साथ राग-मालकोश का रियाज करने में जुट गए हों।

बिकी हुई पत्रकारिता के बीच क्या बुजुर्ग पत्रकार कोई ऐसी मिसाल हमारे सामने रखते हों जिससे कि भारतेन्दु युग की पत्रकारिता की ट्रेनिंग लेकर निकला यूथ सीधे उनसे जुड़े। सिर्फ संपादकीय पन्नों पर लिखते रहने से बदलाव की गुंजाइश नहीं बन पाती। किसी ने किसी जमाने में रिस्क लेकर पत्रकारिता की लेकिन वर्तमान में प्रासंगिक बने रहने के लिए उन्हें नए-नए मिसाल बनाते रहने की जरुरत होती है। आज जरुरत इस बात की है कि बुजुर्ग पत्रकारों की ओऱ से वो सारे मंच तैयार किए जाएं जो बाजार की कठपुतली हुए बगैर पत्रकारिता कर सकें। तब देखिए कितने नए पत्रकार उनके साथ-साथ खड़े हो जाते हैं। लेकिन सच्चाई तो ये है कि सादगी के नाम पर पत्रिका का एक अंक निकाला नहीं कि मध्यप्रदेश और शास्त्री भवन के चक्कर लगाने लग गए।

अब बात रही कपिल सिब्बल के बयान और उस पर कुर्बान अली के बेचैन होने की तो मैं नहीं जानता कि कपिल सिब्बल ने इतना गैरजिम्मेदाराना बयान क्यों दिया? लेकिन दावे के साथ कह सकता हूं कि चाहे कपिल सिब्बल हों या फिर देश के कोई भी दूसरे नेता,उन्हें हमारे लिखे एक-एक शब्द का,बोली गयी एक-एक बात का फर्क पड़ता है। नहीं तो मामूली अखबारों और पत्रिकाओं जिसे कि आम बोलचाल की भाषा में अंडू-झंडू कहते हैं,उनके लोग उनकी कतरनें जुटाते फिरते। लाख कह लीजिए कि बाजार के हाथों मीडिया बिक चुकी है लेकिन लोग उसकी ताकत को अब भी समझते हैं। कपिल सिब्बल अभी हौसले में हैं,कुछ भी बोल सकते हैं लेकिन आप औऱ हम सच को समझते हैं। इसलिए कुर्बान अली जिस अंदाज में इस पर रिएक्ट कर रहे हैं उससे साफ जाहिर होता है कि वो नए जेनरेशन के पत्रकारों पर आरोप लगा रहे हैं कि आपने हमारा नाम डुबा दिया। उन्हें चाहिए कि कपिल सिब्बल की बात पर स्यापा करने के बजाय उनकी पॉलिटिक्स को समझें,ऐसा कहकर पत्रकारों का मनोबल तोड़ने का जो काम उन्होंने किया है,उसे मजबूत करें।

कार्यक्रम की पूरी रिपोर्ट जानने के लिए क्लिक करें- दिल्ली में पत्रकारों की गोष्ठी,टोका-टोकी के बीच टीवी पत्रकार आशुतोष ने भाषण बीच में छोड़ा
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फेसबुक के मामले में बात करते हुए देश के एक मशहूर टेलीविजन पत्रकार ने मुझसे कहा- मेरे ट्रेनी और इन्टर्न माइ फ्रैंड में करन जोहर को दोस्त बनाए हुए हैं। अब मैं ही उनसे महीने-दो महीने में बात करता हूं तो तुम सोचो कि करन जोहर से उसकी कितनी बात होती होगी..सब ऐसे ही हैं। होता ये है कि इंसान में इतनी सॉफ्टनेस तो होती ही है कि जब आप फ्रैंड रिक्वेस्ट भेजो तो वो एक्सेप्ट कर लेता है,उसका जाता ही क्या है,बस कन्फर्म पर क्लिक ही तो करनी होती है। नहीं तो फेसबुक की इस दोस्ती में रखा क्या है?

फेसबुक में नामचीन हस्तियों की ओर से अपनी फ्रैंड रिक्वेस्ट स्वीकार लिए जाने पर जो लोग इधर-उधर इतराते फिरते हैं, फुलकर कुप्पा हो जाते हैं,उनके उपर इससे शायद ही कोई बड़ा व्यंग्य हो। दोस्ती-यारी में यही बात हम अपने बीच इतराने वाले लोगों को कहते तो या तो मुंह फुला लेता,हमें दुनियाभर की दलीलें देता,खुन्नस खा जाता या फिर ये भी दावा करता कि ऐसे थोड़े ही देस्ती कर लिए हैं,पर्सनली जानते हैं हमको। फेसबुक क्या, जीके उऩके घर जाकर खाना भी खाए हैं हम। गोरगांव से जब भी यहां आते हैं तो हमको जरुर फोन करते हैं। इस मामले में आप कह सकते हैं कि नामचीन हस्तियों के साथ अपने नाम जुड़ने की छटपटाहट और उस दम पर अपनी औकात बताने की बेचैनी हमें फेसबुक पर उन लोगों से जुड़ने के लिए उकसाती है जो कि एक बार रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर लेने के बाद आपकी तरफ ताकते तक नहीं हैं। आप उन्हें ऑनलाइन देखते हैं,आपका मन करता है कि उन्हें छेड़ें,उनसे पूछे कि सर आप कैसे हैं। अभी दो शब्द टाइप करते हैं कि आपकी उंगलियां रुक जाती है-कहीं वो बुरा न मान जाएं,कहीं हमें हटा न दें,हमें चेप न समझ लें।
फेसबुक की दोस्ती को लेकर टेलीविजन पत्रकार ने जो कुछ भी कहा उस संबंध मैंने सिर्फ इतना ही कहा- इसलिए सर,मैं अपने फेसबुक पर केवल उन्हीं लोगों को शामिल करता हूं जिनको या तो मैं व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं,जिनसे मेरी पहले कई बार बात हो चुकी है,जो किसी मोड़ पर आकर भूल गए औऱ अब फिर से यहां मिल गए,ऐसे लोगों को रिक्वेस्ट भेजता हूं जो मेरी पहुंच के हैं और जिनसे मंडी हाउस,मीरी रोड या मुंबई चौपाटी पर बात हो सकती है। ऐसे किसी लोगों से फेसबुक पर नहीं जुड़ता जो नाम को लेकर बहुत बड़े हैं लेकिन जिनसे मेरा कोई सरोकार नहीं रहा है या फिर लिखने-पढ़ने और शेयरिंग के स्तर पर कोई कोई साबका नहीं पड़ सकता है।

सच पूछिए तो व्यक्तिगत स्तर पर फेसबुक मेरे लिए नए-नए दोस्त बनाने से कहीं ज्यादा पुराने दोस्तों को खोजने की जगह ज्यादा है। वो दोस्त जो एम.ए के दौरान हमेशा हमारे संभावित अफेयर के बीच मठ्ठा डालने का काम करता रहा, वो दोस्त जो डिवेट जीतने पर बीस प्रतिशत की कमीशन के लिए सिर पर सवार हो जाता,वो दोस्त जो कभी भी मेरे बारे में पूछनेवाली लड़कियों को सही-सही नहीं बताता कि मैं कहां हूं। ये अलग बात है कि मेरे पूछने पर कि वो कहां गयी,कहता पहले प्रॉमिस करो कि हंसराज वाली से मेरे बारे में बात करोगे। उन दोस्तों को खोजने के लिए फेसबुक का इस्तेमाल करता हूं जो चैनल की नौकरी करने के दौरान बॉस औऱ प्रोड्यूसरों की मां-बहन एक साथ सुनी। पैसे और लड़कियों के बीच इज्जत बचाने के लिए शाम के चार बजे(जबकि लंचटाइम खत्म हो जाता,वीडियोकॉन टॉवर के ठीक नीचे के ढाबे में साथ खाते। उन दोस्तों को याद करने के लिए जिनके साथ तीन स्क्रिप्ट लिखने के बाद पंडीजी की दूकान पर सुनियोजित तरीके से गरियाने पहुंचते। इस बीच साथ काम करनेवाली लड़की पूछती-कोई पूछेगा कि कहां गए हो तुम औऱ राणा तो क्या कहूंगी तो क्या कहूंगी। मैं कहता- कह देना भड़ास निकालने गया है। शुरुआती दौर में चैनलों में नौकरी करते हुए खाने-पीने और छुट्टी से भी सबसे ज्यादा किसी चीज की जरुरत होती है तो वो है भड़ास निकालने की। मैं तो दो-तीन स्टोरी के बाद पन्द्रह मिनट के लिए ही सही भड़ास न निकाल लूं तो आगे का काम ही नहीं होता। कई लोगों की जरुरत एक लत बन जाती है जिसे कि फ्रस्टू समझा जाने लग जाते है। आज मैं उस राणा और उस लड़की को खोजने के लिए फेसबुक पर आता हूं। वो लड़की जो वैसे दिनभर में तीन-चार बार बैग लेकर उठती तो मैं हर बार पूछता-घर जा रही हो क्या औऱ वो झल्ला जाती- नहीं,घर नहीं जा रही,यार तुम बहुत ही कमीने हो,जब जानते हो फिर भी पूछते हो,बड़े बेशर्म हो।

आज फेसबुक पर उस लड़की को खोजता हूं जो खुद होटल अशोका से मैंगो फेस्ट में आम खाकर आती और उसकी स्क्रिप्ट लिखते हुए,स्वाद को बताने के लिए हिन्दी में शब्द खोजने पड़ते,वो लड़की जो सेटिंग से बाय-बाय करती हुई अपने ब्ऑयफ्रैंड के साथ हाथ हिलाती हुई निकल जाती और कहती- विनीत जरा देख लियो। इस छोटी-सी जिंदगी में इतने सारे लोग,इतनी सारी यादें हैं कि उन सबको याद करने लग जाओ,उन्हें खोजने लग जाओ तो लगेगा कि फेसबुक तो बड़ी कमतर चीज है। काश कोई ऐसी चीज होती जिसके सर्च बॉक्स में जाते और नाम के साथ संदर्भ और यादों को लिखते,कुछ इस तरह- हिन्दू कॉलेज कैंटीन की याद,झंडेवालान में समोसे का खोंमचा औऱ तभी धड़धड़ाकर रिम्मी, जसलीन, प्रियंका, दीपा, राणा,शंभू,रंजन,नागिन,विजयालक्ष्मी,रावण, अबू सलेम सबों के लिंक,स्टेटस औऱ मेल आइडी निकल आते। लेकिन फेसबुक पर ऐसा कुछ नहीं होता। अब बताइए,अगर इस तरह की कल्पना करें तो फेसबुक है कोई बड़ी चीजे,नहीं न।

फिर भी फेसबुक पर लोग-बाग मार किए जा रहे हैं। जीमेल खोलो तो टोकरी के भाव मेल पड़े होते हैं। फलां हैज ऑलसो कमेंटेड ऑन फलां,एक्स हैज कमेंटेड ऑन योर स्टेटस। शुरु-शुरु में तो मैं खोलकर पढ़ता था कि देखें किस पर किसने क्या कमेंट किया है। लेकिन अब स्थिति दूसरी है। जिस फलां पर कमेंट किया है चलो उसे तो मैं जानता हूं लेकिन जिसने किया है,उससे मेरा कोई मतलब नहीं है। अब क्यों पढूं,ऐसे दर्जनों कमेंट को जिससे ये पता करना मुश्किल हो जाए कि अपनी किस पुरानी दोस्ती औऱ संदर्भ को याद करके दोनों कमेंट-कमेंट खेल रहे हैं। आपको बहुत बेकार लगेगा ऐसे में। कई बार होता है कि आप किसी से मिलने जाते हैं। आप आपका दोस्त औऱ एक औऱ आपका दोस्त। अब स्थिति ये बनती है कि वो दोनों आपस में हांके जा रहे हैं औऱ आपको है कि बातचीत का सिर-पैर ही समझ नहीं आ रहा। ऐसी स्थिति में लगेगा कि आसपास से सांस लेने के लिए हवा गुजरनी बंद हो गयी है। मेरी मां इसके लिए उठल्लू शब्द का प्रयोग करती है। इसे आप उल्लू भी समझ सकते हैं। आप सोचिए,ऐसे कमेंट औऱ मेल को पढ़-पढ़कर क्यों उल्लू या उठल्लू बनने जाए।

इन दिनों फेसबुक को जिस रुप में लिया जा रहा है वो तुम्हारे दिमाग में क्या चल रहा है बताने से ज्यादा,दोस्ती के नाम पर किसी के वॉल पर कुछ लिख आने से ज्यादा ब्लॉग के विकल्प के रुप में इसे पॉपुलर करने में है। समय की कमी,पोस्ट न लिखने का आलस फेसबुक को अधिक पॉपुलर बना रहे हैं। जिस किसी को भी चर्चा में बने रहने की,अपना नाम लोगों के दिमाग में डाले रखने की आदत बन गयी है वो इन दोनों वजहों के होने के बावजूद नाम को लेकर कॉन्शस तो रहेगा ही। फेसबुक से बेहतर और अब ट्विटर से आसान कोई दूसरा माध्यम नहीं है। पूरी पोस्ट नहीं लिखना चाहते,कोई बात नहीं जो क्रक्स है उसे ही दो लाइन में लिख दो। बाकी उस पर चर्चा शुरु हो जाएगी। किसी भी मसले को लेकर यहां महौल बनाए जा सकते हैं औऱ उसका बतौर रेफरेंस इस्तेमाल किया जा सकता है जैसा कि रवीश कुमार ने एनडीटीवी इंडिया की स्टोरी के लिए किया भी और फेसबुक के लोगों का शुक्रिया भी अदा किया। फेसबुक की इस दो लाइन में भी आपको ब्लॉग करने का सुख मिलेगा।

टीवी पत्रकार से बातचीत करने के बाद मैंने अपने फेसबुक दोस्तों की लिस्ट पर एक बार फिर से गौर किया। लगभग सबों को किसी न किसी रुप में बातचीत की। कुछ के लिए स्क्रैप भेजे। चार-पांच दिन तक इंतजार किया औऱ उधर से किसी तरह का कोई जबाब न मिलने की स्थिति में उन्हें डिलीट करता गया। आंकड़े कमजोर तो होते चले गए लेकिन भीतर से भरा-भरा महसूस कर रहा हूं कि अब फेसबुक पर जो भी लोग हैं,उन्हें मैं कह सकता हूं कि मैं उन्हें जानता हूं,मेरी उनसे बात होती रहती है और वो मेरे ऐसे दोस्त हैं जिनसे मैं अपने मन की बात कर सकता हूं। अक्लमंद आदमी कह सकता है कि- क्यों डिलीट कर दिया तुमने बहुत सारे लोगों के नाम को,कुछ नहीं तो तुम्हारे स्टेटस पर कमेंट करने के काम आते। देखकर अच्छा लगता कि इतने सारे लोगों ने कमेंट किए हैं। नहीं भई,मेरे पास अभी समय की कमी नहीं पड़ी है,मैं ब्लॉग लिखकर ही खुश हूं और मुझमे इतनी ताकत कहां है कि दोस्ती करने आए लोगों से कहूं- ले लीजिए न आप मेरी एक पॉलिसी,उसके लिए कलेजा चाहिए।...
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अब तक जिस मीडिया ने आसाराम को अपने जरिए लोगों के घर-घर तक पहुंचाने का काम किया,उनके संयम और प्रवचन की मार्केटिंग करते हुए,उनके नाम पर एक बड़ा बाजार पैदा करने में उनकी मदद की,आज वही मीडिया आसाराम की नजर में कुत्ता है। गुरु पूर्णिमा के मौके पर जब कि उनके हजारों भक्त गुरु वचन सुनने के लिए बेचैन होते रहे,संयमित जीवन औऱ जुबान रखने का पाठ सीखने आए,ऐसे मौके पर दुनियाभर के लोगों को संयम और संतुलन का पाठ पढ़ानेवाले आसाराम ने उनके सामने मीडिया को कुत्ता कहा। शायद वो समझ नहीं पा रहे हैं कि मीडिया के लिए वो जिस तरह की भाषा और जुबान का प्रयोग कर रहे हैं उसकी तासीर कैसी होगी और ये लोगों के बीच किस तरह का असर पैदा करेगा? उनके संयम औऱ संतई का जो लबादा जगह-जगह मसक रहा है उसके भीतर झांककर देखने की कोशिश में,मीडिया देश की ऑडिएंस के सामने किस एप्रोच के साथ पेश करेगा और ऑडिएंस उस पर किस तरह रिएक्ट करेगी,इसका अंदाजा शायद उन्हें नहीं है।


फेसबुक पर लिखी मेरी बात पर हरि जोशी ने कमेंट किया है कि -ऐसे बाबाओं को मालूम है कि उनके भक्त देख, सुन और समझ नहीं सकते। इस आधार पर मान लिया जा सकता है कि उनके खिलाफ जो भी चीजें निकलकर सामने आ रही है और आगे भी आने की संभावना बनी है और जो कुछ भी मीडिया के जरिए प्रसारित किया जा रहा है,उसका असर उनके भक्तों पर नहीं होगा। जैसा कि उनके भक्त लगातार कहते आ रहे हैं कि उनके पीछे मीडिया के लोग पड़ गए हैं और उन्हें फंसाने की जबरदस्ती कोशिश में लगे हैं। लेकिन अस्सी करोड़ से ज्यादा हिन्दू आबादी वाले इस देश में हर इंसान आसाराम का भक्त ही होगा,क्या ऐसी गारंटी कार्ड लेकर आसाराम की जुबान इतनी गैरजिम्मेदार होती चली जा रही है। क्या ऐसा वो उन शिष्यों के बूते कह रहे हैं जो कि अपनी दबंगई से न्यायिक फैसले को बाधित करने की कोशिश करेंगे,उन शिष्यों के भरोसे जहर उगल रहे हैं जो अपने हाथों से माला और छोला झटककर,अपनी सारी ताकत कैमरे को तोड़ने और चैनल के रिपोर्टरों को लहुलूहान करने में लगाते हैं,उनकी जुबान को बंद करने का कुचक्र रचते हैं। अगर वो ऐसा सोचते हैं जो कि व्यवहार के स्तर पर दिखता है तो संयम और दैवी आचरण का पाठ पढ़ते और पढ़ाते हुए देश के भीतर जो नस्ल तैयार हो रहा है,वो आसाराम की साधना पद्धति पर सवालिया निशान खड़ा करता है औऱ इसकी सफाई में बोलने के लिए कहीं कुछ नहीं बचता।

दूसरी बात, अगर इस गारंटी कार्ड को ध्यान में रखते हुए भी ये मान लें कि सब उनके भक्त और शिष्य ही हैं(जो कि नहीं होनेवाले लोगों पर तोहमत लगाना होगा)तो क्या लाइ डिटेक्टर में जिस तरह से तीन शिष्यों ने आश्रम में काला जादू होने की बात कही है,उन शिष्यों की संख्या में इजाफा होने में बहुत वक्त लगेगा। इस बात की संभावना कोई जादुई यथार्थ के तहत नहीं की जा रही है,हम किसी भी तरह से उस दिशा में नहीं जा रहे हैं कि आसाराम के शिष्यों को सद् बुद्धि मिलेगी और वो मानवीयता का पक्ष लेते हुए आश्राम के भीतर अगर कुछ गड़बड़ हो रहा है तो उसे हमारे सामने रखने का काम करेंगे। हम आसाराम सहित देश के दूसरे किसी भी तथाकथित संतों का विरोध इस स्तर पर नहीं कर रहे हैं कि उनका नैतिक रुप से पतन होता जा रहा है, वो जिस मानवीयता और संयम का पाठ पढ़ाते आ रहे हैं,जिस सादगी की शिक्षा देश औऱ दुनिया के लोगों को देते आ रहे हैं,व्यक्तिगत स्तर पर वो खुद बुरी तरह पिट चुके हैं। हम किसी तरह का कोई आरोप नहीं लगा रहे हैं कि बिना वातानुकूलित आसन के इऩसे सादगी का प्रवचन नहीं दिया जाता। ऐसा कहना किसी भी इंसान के लिए मानसिक रुप से कमजोर होने की स्थिति में कोसने भर का काम होगा औऱ फिलहाल देश की एक बड़ी आबादी इस स्थिति में नहीं आयी है। हम इन सबसे बिल्कुल अलग बात कर रहे हैं।


आसाराम औऱ देश के बाकी दर्जनों तथाकथित संतों और महामानवों को लेकर श्रद्धा,भक्ति,विरोध या हिकारत पैदा करने के पहले इस बात को समझ लेना जरुरी है कि इनकी जो कुछ भी छवि हमारे सामने है वो पूरी तरह स्वयं उनके द्वारा निर्मित छवि नहीं है। इसे आप ये भी कह लीजिए कि साधना,आध्यात्म और ज्ञान के स्तर पर प्रसारित और विकसित छवि नहीं है। ये शुद्ध रुप से बाजार द्वारा पैदा की गयी छवि है,धार्मिक कर्मकांडों को रिवाइव करने की कोशिशों में इन महामानवों को स्टैब्लिश किया गया है। इस क्रम में मीडिया की भूमिका इस अर्थ में है कि ये महामानव क्या बोलते हैं औऱ वो कितना व्यावहारिक है जानने से ज्यादा जरुरी होता है कि कौन किस चैनल पर आ रहे हैं। चैनल पर देख-देखकर लोगों ने इन्हें बहुत बड़ा संत मानना शुरु किया है। क्योंकि टेलीविजन देखते वक्त ऑडिएंस के सामने एक आम धारणा बनती है कि किसी भी इंसान को अगर चैनल आधे घंटे या एक घंटे के प्रवचन के लिए बुलाता है तोजाहिर है उसमें कुछ न कुछ खास बात होगी। ये टेलीविजन की ताकत ही है जो कि आम को खास में कन्वर्ट करने का माद्दा रखता है। इसके साथ ही होता ये है कि जैसे-जैसे चैनल पर इन तथाकथित महानुभावों के आने की फ्रीक्वेंसी बढ़ती है,यानी रोज आने लगते हैं,एक निश्चित दर्शक वर्ग तैयार होने लग जाता है। ये दर्शक वर्ग इन महामानवों और संतों को न केवल उनकी बोली गयी बातों के आधार पर उन्हें पसंद करता है बल्कि उनके बोलने के अंदाज,बॉडी लैंग्वेज,एसेंट और स्क्रीन पर देखते हुए हुए आंखों को जो चीजें सुहाती है,उस आधार पर उसे पसंद करना शुरु करती है। चैनल पर आना किसी भी संत के लिए ब्रांडिंग का काम करता है। धीरे-धीरे ये दर्शक उनके भक्तों में कन्वर्ट होना शुरु करते हैं,लोगों के बीच उनकी साख जमती है और उनका नेटवर्क फैलता चला जाता है।

अपनी साख के दम पर संत लाइव प्रवचन करने का काम शुरु करते हैं,जगह-जगह जाकर प्रवचन करना शुरु करते हैं। देश के हर शहर में दो-चार धन्ना सेठ मिल ही जाता है जो उनके लिए तमाम तरह की सुविधाओं का प्रबंध करता है। उसके बीच भी भाव यही होता है कि वो टीवी में आनेवाले संत के लिए इंतजाम कर रहा है। टीवी पर आने की ताकत संतों के साथ हमेशा जुड़ी रहती है। ये टीवी पर आने की ताकत ही है कि किसी संत या बाबा को सोशल कमंटेटर के तौर पर जाना-समझा जाने लगता है,हर मसले पर उनकी बाइट ली जाती है। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि संतों के साथ मीडिया कर्म कितना बड़े स्तर पर जुड़ता है। प्रवचन एक मैनेजमेंट का हिस्सा बनता है और मीडिया मैनेजमेंट उसकी एक जरुरी कड़ी। यहां तक आते-आते संत की छवि,उनकी प्रसिद्धि और सामाजिक दबदबा काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि वो मीडिया के साथ अपने को किस हद तक फ्रैंडली कर पाते हैं।

आज आसाराम को लेकर टीवी चैनल्स और मीडिया ने जो भी रवैया अपनाया है,उसका आधार सिर्फ इतना नहीं है कि उनके आश्रम से बच्चे गायब हुए,वो लगातार जमीन विवादों में फंसते गए हैं,उनके नाम पर कई तरह की अनियमितताएं पायी गयी है। बल्कि इस सबके पीछे ठोस आधार है कि आसाराम मीडिया मैनेजमेंट के स्तर पर लगातार विफल होते जा रहे हैं। मीडिया ने जितनी विशाल छवि निर्मित की है,उसे वो संभाल नहीं पा रहे हैं। इसलिए आज फजीहत में पड़े आसाराम के लिए कोई जनशैलाव उमड़ पड़ता है तो इसे इस रुप में भी समझा जा सकता है कि आसाराम ने अपना मीडिया मैंनेजमेंट दुरुस्त कर लिया है। अगर उनके विरोध में देश की जनता खड़ी होती है तो इसका एक अर्थ ये भी है कि मीडिया के स्तर पर वो लगातार पिछड़ रहे हैं,यहां श्रद्धा के उपर छवि हावी हो रही है और कोई भी नहीं चाहेगा कि अपनी श्रद्धा टेलीविजन के हिसाब से बताए गए दागदार संत के आगे उड़ेल दे
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यकीन मानिए,वो गे नहीं है

Posted On 10:24 am by विनीत कुमार | 4 comments


रात के खाने के बाद अक्सर वो किसी न किसी बहाने मेरे पास रुकने की कोशिश किया करता। कभी कहता-भैय्या,अब रात में कार्यालय कौन जाए तो कभी कहता- इकॉनमिक्स में कुछ समझना है तो कभी कहता-नीचे ही बिछाकर सो जाएंगे,आप अपने बेड पर ही सोइएगा।

दिनभर की पढ़ाई और कॉलेज की थकान के बाद उसका आना मुझे अच्छा ही लगता कि चलो कोई तो बोलने बतियाने के लिए मिल जाता है। लेकिन पता नहीं क्यों,दिनभर कोई मुझसे कितनी भी बातें क्यों न कर ले, देर रात तक कितनी गप्पें न लडा ले,अपने यहां किसी का रातभर के लिए रुकना मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता। मैं नहीं चाहता कि कोई रात में मेरे यहां रुके। लेकिन वो रात में मेरे यहां रुकना चाहता औऱ मैं उसे किसी न किसी तरह वापस कार्यालय भेजना चाहता।

उसने मैट्रिक की पढ़ाई अपने घर पर ही रहकर की औऱ आगे वो बिगड़ न जाए इसकी चिंता से उसके मां-बाप ने उसे कार्यालय में भेज दिया। वैसे कार्यालय में रहने का नियम होता है कि आपके उपर जब तक किसी तरह की जिम्मेदारी नहीं है,आप लंबे समय तक वहां रुक नहीं सकते। वो जिस समय कार्यालय में रहने आया उसके पास कोई जिम्मेदारी नहीं थी। वैसे भी वो विचारधारा के प्रसार के लिए नहीं बल्कि पढ़ने आया था। लेकिन धीरे-धीरे उसे किसी न किसी काम में लगाया जाने लगा। महीना दो महीना होते-होते वो कार्यालय के काम में इतनी बुरी तरह फंस गया कि कोई भी देखता तो कहता कि ये भी औरों की तरह सबकुछ छोड़-छाड़कर सपनों का भारत बनाने की तैयारी में है। वैसे देखा जाए तो ऑफिसीयली अभी भी उसे कुछ भी नहीं करना होता। सब काम के लिए लोग लगे होते लेकिन उसके शब्दों में कहें तो- भइया इससे लाख गुणा अच्छा होता कि हम कॉलोनी जाकर दो-चार बच्चों को ट्यूशन पढ़ा लेते या फिर फोटो मशीन की दुकान में पांच-छह घंटे काम कर लेते। दिनभर किसी न किसी के आगे-पीछे डोलते ही रहना पड़ता है।

एक रात मैंने लगभग झिड़कते हुए कहा- वो सब तो ठीक है कि तुम दिनभर की परेशानी मुझे बता जाते हो,वो भी ऐसी जगह की परेशानी जिसे कि मैं अपने स्तर से दूर नहीं कर सकता लेकिन ये रात में आकर क्यों रुकने की बात करते हो। सच कहूं दोस्त, बुरा मत मानना, तू दिनभर मेरे कमरे में रह ले लेकिन रात में मुझे किसी का रुकना जरा भी अच्छा नहीं लगता। मैं देर रात तक जागता हूं और अपने उपर समय देता हूं। रात में किसी के रुकने से खलल पड़ जाती है। इसके पहले भी मैं उसे कुछ न कुछ कह दिया करता औऱ वो डर लगता है जाने में...और भी कुछ न कुछ कहकर बात टाल जाता। आज वो फफक-फफककर रोने लग गया।

आपको क्या लगता है भइया कि हम शौक से रुकते हैं,अब हम क्या बताएं आपको। कार्यालय में विचारधारा को मजबूत करनेवाले एक महाशय हैं। लोग उनका सम्मान करते हैं। रोज रात उनके सिर में दर्द होता है। सिरदर्द न भी हो तो प्यास लग जाती है। हमें बुलाते हैं और कभी शीशी और कभी पानी लेकर उनके पास जाता हूं। कुछ देर इधर-उधर की बातें करते हैं और फिर कहते हैं- यहीं बिछाकर सो जाओ। मैं कहता हूं-नहीं,बाहर बरामदे में सोता हूं मैं। कभी आदेश के लहजे में,कभी थोड़ा डांटते हुए और कभी-कभी घिघिआने के अंदाज में ऐसा कहते हैं। शुरु-शुरु में तो मैं एक-दो बार सो गया। अभी सोए थोड़ी ही देर हुए कि देखा कि हमें सहला रहे हैं। पहले तो अच्छा लगा कि इस अंजान शहर में कोई हमें पिता का प्यार दे रहा है,मुझे लगा कि उस अंधेरे में ही उठकर उनका पैर छू लूं। लेकिन फिर वो मुझे अपनी तरफ खींचने लगे। उसके बाद...छी..रहने दीजिए भइया। हांफती हुई सांसों में मुझे पिता के स्नेह से ज्यादा सालों से गंधा रहे किसी हवशी का सडांध महसूस हुआ,मैं बाहर आ गया। मैं दिन में भी उनकी नजरों से बचने लग गया। उनके सामने पड़ना ही नहीं चाहता। कभी रोते हुए,कभी सिसकियां लेके हुए वो सबकुछ एक सांस में बोल गया।

अब लोग मुझे देखकर फुसफुसाते हैं। मेरी उम्र के लोग मुझे देखकर मुस्कराते हैं। कोई कहता है- उसे जानते हो,बहुत अच्छा मालिश करता है और फिर ठहाके लगाने लग जाता है। कहते हैं अब मुझे कोई बसंती और बिजुरिया की जरुरत नहीं है,मेरा काम ऐसे ही चल जाएगा।....

ऐसे समय में मुझे मैंला आंचल की लक्ष्मी दासी याद आती है। धीरज धरो सेवादास,बोलती हुई लक्ष्मी। कभी कठोर,कभी लाचार होकर रोती हुई लक्ष्मी। रात के सन्नाटे में रोज अपने को बचाने की जद्दोजहद से लड़ती हुई लक्ष्मी। चित्रलेखा याद आती है। दुनियाभर की बदनामी से मुक्त होने के लिए आश्रम का शरण लेनेवाली चित्रलेखा। उपन्यास और सिनेमा के चरित्रों के बीच जब-तब वो भी याद आता है लेकिन अफसोस कि वो कभी अकेले याद नहीं आता। लगता है कतार के कतार चले आ रहे है उसी की शक्ल में,उसी की तरह मासूमियत लिए...और भी कई,सैंकड़ों,हजारों। अच्छा बनने,सामाजिक बनने,बिगड़ जाने के डर से बुजुर्गों के बीच रहने। इस बात से अंजान की सेवादास की तरह लाखों लोगों के सिर पर हवश सवार है जो लक्ष्मी से दूर रहकर और भी ज्यादा खूंखार होते चले जाते हैं।
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हम तो बाहर जाने पर कहीं भी खाने से पहले देख लेते हैं कि होटल में किसका फोटो या मूर्ति लगाए हुए है। गणेश,लक्ष्मी या शिवजी का फोटो रहता है तो मन में तसल्ली हो जाती है कि-भले चाहें गंदा-संदा खाना दे लेकिन धरम तो बचा रह जाता है। नहीं तो गलती से खा लिए चांद-सितारा वाला लोगों के यहां तो सब दिन का किया कराया हो गया गुड़-गोबर

नवादा(बिहार) के सड़ियल औऱ धूल-धक्कड़ वाले बस स्टैंड पर प्यास लगने की स्थिति में भी सामने वाली दूकान पर जूस न पीने की स्थिति में भैय्या की परेशानी को देखते हुए हमारे साथ के एक रिश्तेदार ने ये बात कही। भैय्या जूस का आर्डर लगभग देने ही वाले थे,दाम पूछने के बाद पॉच ग्लास तैयार करने कहते कि इसके पहले उन्हें मस्जिद के पीछे चांद-सितारा वाली तस्वीर पर नजर पड़ गयी और रहने दो बोलकर बाहर निकल लिए। मेरी बड़ी इच्छा हुई कि जाकर एक नहीं दो गिलास उस दूकान से जूस पिउं लेकिन कई बार आप दुनिया के लिए क्रांति मचाते हुए भी घरेलू स्तर पर कितने निरीह हो जाते हैं,ये मुझे ऐसे ही मौके पर समझ में आता है। भैय्या को पता था कि यहां ये कुछ न कुछ जरुर तमाशा करेगा औऱ अपने को मानवीय और हमें सांप्रदायिक साबित करने में दिमाग लगाएगा,मैं थोड़ी ही देर बैठा था कि उन्होंने कहा- ओटो वाला बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ है, अब चलो जल्दी। रास्ते में कुछ वैष्णवी ज्ञान देने लगे।

जीजाजी के एक ही साथ चार बोतल किनले खरीद लेने से सबों की प्यास तो बुझ गयी थी,ओटो पर बात करने के अलावे कुछ किया ही नहीं जा सकता था इसलिए सारी बातें हिन्दू-मुस्लिम के होटलों औऱ खाने पीने की जगह पर आकर अटक गयी औऱ तब सब अपने-अपने हिसाब रहस्यों का उदघाटन करने लगे। कौन कितना समझदार( आप इसे कट्टर हिन्दू ही समझिए) है,साबित करने में जुट गए। मैं उन्हें नही जानता था कि वो हमारे कौन लगेंगे इसलिए कभी भैय्या तो कभी सर बोलता रहा। उन्होंने मुंह को थोड़ा ज्यादा बड़ा करते हुए(जब आप गूगल अर्थ पर क्लिक करते हैं तो लगेगा कि धरती खुलती चली जा रही है,वैसे ही) कहा- आपलोग जो फोटू देखकर हिन्दू-मुस्लमान होटलों की पहचान करते हैं न,कभी-कभी गच्चा खा जाइएगा। गए थे हम अबकी बार जम्मू। वहां क्या देखते हैं कि सब होटल में डेढ़-डेढ़,दो-दो फीट की काली, हनुमान, वैष्णो देवी का फोटो लगा हुआ है। घुस गए अंदर,अभी खाने का आर्डर देते कि देखे कि कोने में एक टुइंया( लोटे जैसा जिसमें पानी के लिए अलग से टोटी लगी रहती है) रखा हुआ है। हमको समझने में एक भी मिनट देर नहीं लगा कि गलत जगह आ गए हैं। तुरंत पत्नी को कोहनी से इशारा किए और बाहर हो लिए औऱ फिर तेजी से आगे बढ़ गए। अब जमाना गया कि आप फोटू से जान जाइएगा कि ये हिन्दू होटल है या मुस्लिम होटल। सब जान गया है कि लोग यही देखकर घुसता है। इसलिए बिजनेस के लिए भगवान बदल देने में उसको दू मिनट भी नहीं लगता है।

घर के लोगों या बाकी रिश्तेदारों के साथ बहुत की कम कहीं जाना होता है लेकिन जब कभी भी जाना होता है तो खाने को लेकर दोहरे स्तर की समस्या होती है। दिल्ली में रहते हुए,बाकी दोस्तों के साथ हम सिर्फ खाने-पीने की जगह खोजा करते हैं लेकिन रिश्तेदारों के साथ जाने पर पहले होटल नहीं हिन्दू होटल खोजना होता है। नॉनवेज मैं भई नहीं खाता लेकिन चाहे किसी भी होटल में वेज की व्यवस्था हो जाए तो खाने में दिक्कत नहीं होती। इसलिए दो-तीन बार करीम में जाकर मिक्स वेज खाया तो दोस्तों ने इसे गोयठा में घी सुखाना कहा। मेरे क्या किसी भी रुढ़ि और परंपरागत परिवारों के बीच रहनेवाले लोगों के लिए ये अनुभव नया नहीं है। खाने को लेकर धार्मिक कट्टरता अपने चरम पर होती है। लेकिन मैं इसकी ब्रांडिंग पर सोच रहा हूं। अपनी सर्किल कुछ इस तरह की है कि मैं अकेला हूं जो नॉनवेज नहीं खाता। जो लोग खाते हैं उनके बीच नॉनवेज को लेकर एक समझ है कि ये मुस्लिम रेस्तरां में ज्यादा बेहतर मिलता है। इसलिए वो उन्हीं दुकानों से लेना पसंद करते हैं। उनके लिए मुस्लिम रेस्तरां एक ब्रांड है लेकिन परिवारवालों के बीच घृणा,परहेज और नाम ले लेने पर उबकाई आ जाने की मजबूरी। मैं तो सोच-सोचकर परेशान हो गया कि इस जूसवाले को अगर दिनभर में अगर पचास गिलास जूस बेचने होंगे तो पचास मुसलमान ग्राहक ही आए,तभी बात बनेगी। अब इसके लिए बाजार में चहल-पहल और तेजी का क्या मतलब है। अपनी तरफ तो अभी भी कई चीजों की दुकानें खोलने की हिम्मत मुस्लिम समाज के लोग जुटा नहीं पाते। कई दुकानें तो मैंने बंद होते देखी है।

फिलहाल गंतव्य तक पहुंचने पर जो भायजी हमलोगों को लेने आए,उनसे भी इस बात की चर्चा की गयी। कहा कि आज तो बाल-बाल बचे। भैय्यी की तरफ इशारा करते हुए कि अगर ऐन मौके पर फोटू नहीं देख लेते तो सब गड़बड़ा जाता। भायजी थोड़े गंभीर हुए और सत्य का ज्ञान कराते हुए कहा- अब तो फोटू-फाटू बहुत पुरानी बात हो गयी है। आपलोग ऐसा किया कीजिए कि कहीं भी खाने जाइए औऱ आपको शक हो कि अपने समाज का होटल नहीं है तो फट से दुकानदार को बोलिए- हरि ओम। उसके बाद देखिए कि चेहरे पर क्या रिएक्शन होता है, उसी से ताड़ जाइए। एक-दो बार तो हरि ओम बोलते ही अस्सलाम बालेकुम बोल पड़ा औऱ हम खिसक गए। मेरे मन में एक सवाल आया कि पूछूं,अगर उसने राधे-राधे कह दिया तो फिर कैसे पहचानेंगे,कृष्ण भक्त को मुस्लिम प्रूफ करने का कोई लॉजिक बताइए भायजी।
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