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मीडियाखबर डॉट कॉम द्वारा आयोजित एस.पी.सिंह स्मृति समारोह में शिरकत करने के बाद हम मारवाह स्टूडियो,नोएडा से बाहर निकलकर ऑटो के इंतजार में खड़े थे. 16x12 इंच की करीब डेढ किलो की एस.पी.सिंह की तस्वीर लेकर इंतजार करते हमें बीस मिनट से ज्यादा हो गए थे. मेरा मन कर रहा था कि एस.पी.सिंह की तस्वीर आगे चलकर चौक पर लगा दूं और पेड़ों की टहनियां तोड़कर चारों तरफ से घेर दूं. पास पड़े इंटों के टुकड़े उठाकर काली सड़क पर लिखूं- एस.पी.सिंह चौक. मुझे नहीं पता कि ऐसा किए जाने पर किस धारा के अन्तर्गत मुझे सजा दी जाती और किस तरह के कानूनी पचड़ों में धंसना पड़ता. लेकिन

 यकीन मानिए, नोएडा फिल्म सिटी में सचमुच मुझे एक ऐसे चौक या स्मरण स्थल बनते हुए देखने का मन है जहां देशभर के न्यूज चैनलों के मीडियाकर्मी पूजा, माला चढ़ाने या मत्था टेकने नहीं बल्कि छाती कूटने जा सकें. वो ऑफिस से निकलने के बाद यहां आकर स्यापा कर सकें कि हाय आज मैंने राखी सावंत,पूनम पांडे के चक्कर में दांतेवाड़ा में मलेरिया के फैलने की खबर नहीं चलायी. ओह, हमने नीतिश सरकार की दुदुंभी बजाने के फेर में बिहार में बढ़ते भ्रष्टाचार की स्टोरी दबा दी. सॉरी एस पी हमने आपके बताए बेसिक जर्नलिज्म की शर्त को ताक पर रखकर प्राइम टाइम की बहस को लॉफ्टर चैलेंज में तब्दील कर दिया.

सवाल है कि एस.पी.सिंह स्मृति समारोह में जुटे चैनल दिग्गज इससे अलग क्या कर रहे थे ? शैलेश,कमर वहीद नकवी, पुण्य प्रसून वाजपेयी, राहुल देव,अल्का सक्सेना से लेकर दीपक चौरसिया और आशुतोष जैसे बॉस पत्रकार इससे अलग कर भी क्या रहे थे ? सवाल है कि न्यूज चैनलों की हालत पर स्यापा करने और छाती कूटने का अधिकार और मौका सिर्फ उन्हीं बॉस मीडियाकर्मियों तक सीमित क्यों रहे जो न्यूजरुम में पूरी तरह इसके खेवैया रहे और मीडिया सेमिनार के मंचों पर आकर पीड़ित और असहाय हो जाया करते हैं..तथाकथित लोकतंत्र का माहौल कायम रखनेवाले लोगों के साथ-साथ आम मीडियाकर्मियों के बीच छाती कूटने का लोकतांत्रिकरण क्यों न हो ? आखिर इन गिने-चुने सिद्धस्थ लोगों के अलावे बाकी मीडियाकर्मियों को भी गिल्ट के लिए मौके और अवसर क्यों न दिए जाएं जिससे कि वो हम टीवी दर्शक और सेमिनार श्रोताओं के बीच अपने पाप को उघाड़कर रख सकें, ईमानदारी से सब बयान करने के बाद कह सकें- हम मालिकों के हाथों मजबूर हैं. नोएडा फिल्म सिटी में एक चैनल की ऑफिस भले ही कम हो जाए लेकिन छाती कूटने के लिए एक "कॉन्फेशन सेंटर" का होना ज्यादा जरुरी है.

मैं जब मंचासीन इन दिग्गज वक्ताओं को सुन रहा था तो हैरानी हो रही थी कि ये तो देश के नेताओं से भी ज्यादा शातिर हैं जो कह रहे हैं कि टीवी के रिमोट का मालिक ऑडिएंस है, ऑडिएंस इज द किंग. ये बात शैलेशजी ने भी कही, नकवी साहब ने बात की शुरुआत ही इसी से की और राहुल देव ने. क्या हमें इतनी भी बेसिक समझ नहीं है कि जब आप ऑडिएंस को टीवी और रिमोट का मालिक बता रहे हो तो इसका मतलब है कि टीवी पर जो भी अचरा-कचरा चल रहा है, उसके लिए वो जिम्मेदार है ? सवाल है कि अपने बेहूदेपन और मालिक की बैलेंस शीट मजबूत करने की शर्त पर उन लाखों ऑडिएंस को कैसे जिम्मेदार ठहरा सकते हो जो भारी मशक्कत के बाद इसलिए टीवी खरीदती है, देखती है जिससे कि वो देश-दुनिया से जुड़ सके. कुछ जानकारी बढ़ा सके. राहुल देव ने जिस चालाकी से कहा कि टेलीविजन विमर्श का माध्यम नहीं है क्या उतनी ही ईमानदारी से ये स्वीकार कर सकते हैं कि फिर भी हमने ऐसा बनाने की कोशिश की और विफल रहे ? आप अपनी विफलता और मालिक की बदइच्छाओं की पूर्ति का ठिकरा उन लाखों पर कैसे फोड़ सकते हैं जिनके भीतर अभी भी जिद्दी यकीन है कि आप जैसे पढ़े-लिखे लोग कुछ तो उनके पक्ष में बात करेंगे, उनके भले के लिए कुछ दिखाएंगे. कमर वहीद नकवी, शैलेश और राहुल देव और आशुतोष जैसे अनुभवी टीवी पत्रकार जब ऑडिएंस को ही मालिक मानते हैं और दूसरी तरफ अपने असली मालिक जो कि इन्हें लाखों की तनख्वाह देते आए हैं के हाथों मजबूर होने की बात करते हैं तो समझ नहीं आता कि वो कितना बड़ा झूठ बोल रहे हैं ?

सवाल बहुत साफ है कि जब आप अपने देय मालिक के हाथों मजबूर हैं तो फिर ऑडिएंस को मालिक करार देकर किस साजिश को चुपचाप पचा जा रहे हैं. इस बात को समझना बहुत मु्श्किल नहीं है कि टीवी कोई सरकार चलानेवाली संस्था नहीं है जिसके लिए शामिल मीडियाकर्मियों को नेताओं की तरह झूठ बोलने की जरुरत पड़े. ये खालिस धंधा है और ये मानते हुए उनकी जबावदेही सिर्फ इस बात की होनी चाहिए कि एक ऑडिएंस अगर उपभोक्ता की शक्ल में तीन से चार सौ रुपये खर्च कर रहा है तो खबर की शक्ल में उन्हें सही माल दिए जाएं. अलग से सरोकार का मसीहा साबित करने की जरुरत नहीं है.

अच्छा ऑडिएंस को मालिक और टीवी कंटेंट के लिए जिम्मेदार मान लेने के पीछे का तर्क सिर्फ और सिर्फ टीआरपी है. शैलेशजी का कहना था कि टीआरपी को हम किसी भी तरह से नकार नहीं सकते. नकवी साहब ने भी यही बात दोहरायी. ऑडिएंस को मालिक या फिर टीवी का गुलाम माननेवाले लोग इस टीआरपी को इस रुप में प्रस्तावित करते हैं मानो ये कोई पवित्र गाय है और सारे विवाद इसे छोड़कर किए जाने चाहिए. लेकिन असल सवाल है कि टीआरपी के बिना पर आप जो ऑडिएंस को ही कंटेंट के लिए जिम्मेदार ठहराने का कुचक्र रचते हैं क्या कभी इस पर बात करने की जहमत उठायी कि ये टीआरपी के जो बक्से लगे होते हैं, उनका वर्ग चरित्र क्या होता है ? वो किस तबके की ऑडिएंस होती है, उनकी क्या हैसियत,जीवन-शैली और अभिरुचि होती है ? इसके लिए कुछ नहीं तो आशुतोष,नकवीजी या राहुल देव एक बार लोगों से सेमिनार में मौजूद करीब सवा सौ लोगों से हाथ उठाने कहते कि आपलोगों में से कितने लोग हैं जिनके घर में टीआरपी के बक्से लगे हैं तो अंदाजा लग जाता ?  मामला सिर्फ इतना भर नहीं है कि इन दिग्गजों ने टीवी कंटेंट में किस स्तर तक सुधार की कोशिशें की ? असल सवाल है कि पूरी टीवी इन्डस्ट्री केबल ऑपरेटर, टीआरपी महंत और डिस्ट्रीब्यूशन में जाकर फंस गया जिसके आगे पत्रकारिता एक संस्था तेजी से ध्वस्त होती चली गई, उसे बचाने की इनलोगों की ओर से कितनी कोशिशें की ? खासकर एस पी सिंह स्कूल से निकले दिग्गज जिन्होंने सिर्फ टीवी पत्रकार की हैसियत से नहीं बल्कि चैनल हेड से लेकर उन पदों पर काम किया जहां से कि फैसले लेने की ताकत पैदा होती है ? इन सवालों पर कब बात होगी और कौन करेगा ?

पढ़े-लिखे और मध्यवर्ग के लोगों के बीच अगर बक्से नहीं लगे हैं जिनमें से अधिकांश आर्थिक रुप से सम्पन्न भी हो सकते हैं, अगर उनके यहां बक्से नहीं लगे हैं तो फिर आप ये कैसे सोच सकते हैं कि गांव औऱ कस्बे में उन घरों में बक्से लगे होंगे, जहां कि बहुत कम पढी-लिखी ऑडिएंस जो आंख चीरकर ज्ञान,सूचना और मनोरंजन के लिए टीवी पर निर्भर है. ऐसे में सबसे पहले इस मुद्दे पर बात होनी चाहिए कि बक्से के जरिए जो टीआरपी की शक्ल में अपनी पसंद-नापसंद जाहिर करते हैं और जिनके घरों में बक्से नहीं है और सूचना और मनोरंजन चाहते हैं, उनके बीच के फर्क को समझने का क्या तरीका हो सकता है ? आप सोचिए न कि बक्साविहीन ऑडिएंस जिसकी संख्या करोड़ों में है और बक्से से लैश ऑडिएंस जिसकी संख्या कुछ हजार के भीतर ही होगी, उनके पसंद-नापसंद को पूरी 45-46 करोड़ की ऑडिएंस की पसंद बताना कितनी घिनौनी साजिश है?..और इस मोर्चे पर सारे दिग्गज पूरी तरह विफल और मालिक के आगे मजबूर हैं. ये आमलोगों की जरुरत को नजरअंदाज करके, उनकी आवाज को कुचलकर इस देश को चंद कार्पोरेट घरानों की इच्छाओं का खिलौना बना देने से कहां अलग है ? ये सच है कि इन तमाम दिग्गज मीडियाकर्मियों ने सफाई से ये बात स्वीकार करते हैं कि वे सुधार के मोर्चे पर विफल रहे हैं लेकिन क्या इतना भर कह देने से उन्हें बरी किया जा सकता है? सवाल तो तब भी है कि एस पी भी तो मालिक की ही चाकरी करते थे लेकिन आखिर उनके भीतर वो कौन सी क्षमता थी जिसने कि उन्हें कभी भी मालिकों के हाथों मजबूर नहीं होने दिया और आपकी कौन सी लाचारी है जहां आपकी सारी विफलता एक ईमानदार दिखते हुए शातिर जुमले में जाकर सिमट जाता है ?
आगे भी जारी...  
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रागिनी ! ओह डियर, उठो न. तुम गऊ ( गैंग्स ऑफ बासेपुर ) से आने के बाद इतनी उदास और मरी-मरी सी क्यों हो गई ? चलो-चलो, फटाफट नहाओ और लंच कर लो. फिर आज मल्कागंज भी तो चलना है. हम भी देखें कि रागिनी अपने नए कुर्ते में कैसी खिलती-दमकती है ?


रघु..रघुSssss. अरे पागल, तुम रो क्यों रही हो ? मैं अनुराग को नहीं छोडूंगी रघु, उससे बदला लूंगी. बदला लोगी ? पर किया क्या अनुराग ने तुम्हें, उसने एक बेहतरीन फिल्म ही तो बनायी है, हां गोलियों की आवाज और खून से लथपथ कटे-लटके भैंसे को देखकर कल तुम्हें चक्कर आने लगा था लेकिन आकर मैंने तुम्हें मसाज भी तो किया था घंटों,भूल गई..सिर्फ गोली और बमबारी की है, सिर्फ कटे भैंसे दिखाएं है ?
जानते हो रघु. जितनी तबाही कुरैशियों और पठानों ने आपसी रंजिश में धनबाद में नहीं मचायी होगी, उससे कई ज्यादा गुना बर्बादी इस अनुराग ने मचायी है. जिस धनबाद को लोग पढ़ने-लिखने और कल्चरली रिच टाउन मानते थे न, अब इसे गुंड़ों का शहर समझेंगे. एक बड़े सच को दिखाने के लिए ही सही पर इसने कल्चरली इसको बहुत डैमेज किया है. मेरे बचपन के शहर की धज्जी उड़ा दी रघु. मेरी सारी खूबसूरत स्म़तियों की चिद्दी-चिद्दी कर दी इस इंटल डायरेक्टर ने. वो जब लाल स्कूल ड्रेस में बच्चों को स्कूल जाते दिखा रहा था न तो लगा- अरे ये तो मैं हूं..लेकिन वो बच्चे गायब हो गए. क्या बासेपुर,धनबाद की एक भी लड़की कॉलेज नहीं जाती रघु ? तो फिर तहलका की अनुपमा ने क्यों राइटअप में लिखा कि वहां बहुत सारे डॉक्टर हैं,बहुत सारे इंजीनियर और वहीं रहते हैं. मैं एकटक देख रही थी पूरी फिल्म कि कभी तो इस धनबाद में मेरा देशभर में मशहूर डिनोबली पब्लिक स्कूल दिखेगा, क्या पता सरदार खान का कोई बेटा ही डीपीएस में दिख जाए लेकिन नहीं वो तो अपने बाप की सीन देखने के बाद अचानक से बड़ा हो गया. सीधा हथियार लाने ही चला गया. उसकी टीन एज कहां गयी रघु ? मैं आइएसएम की पैनमैन ऑडिटोरियम खोजती रही, क्या पता कोई वूमनिया सैटेनालिया में आयी हो लेकिन नहीं कहीं नहीं..


मैं अपनी दोस्त रेशमा को याद कर रही थी जिसने सलीम के पहली बार किस किए जाने पर चाउमीन खिलाया था..यहां तो वो परमिशन पर ऐसे अटक गयी कि इम्बैरेस कर दिया. इम्तियाज अली के चरित्र ने हम लड़कियों को खुली तिजोरी(जब बी मेट) कहा और इसमें खुद हमसे अपनी देह को घर कहलवाया. क्या हम लड़कियों का शरीर सिर्फ घर भर है क्या जिसके एक घुप्प अंधेर हिस्से में मर्दों का हवसपुर बसता है. नहीं न रघु. आखिर वजह तो बताओ कि जिस नजमा को दुनियाभर के मर्दों और हवलदारों के आगे चट्टान की तरह दिखाया, उसे अपने हवसी पति सरदार खान के आगे एक समझौतापरस्त औरत. एक ऐसी औरत जो अपनी गृहस्थी बचाने के लिए न केवल ढाई रुपये की रंडी की झांट जैसी गालियां देती है बल्कि अपने अय्याश पति को खिला-पिलाकर इतना पठ्ठा बनाना चाहती है कि गर वो किसी दूसरी औरत के साथ सोए तो उसकी जल्दी चू न जाए..और फिर उसके चूने में नाक किसकी कटेगी रघु ? उसी नजमा की जिसने दमभर खिलाया. क्या गृहस्थी अगर बचाना जरुरी है तो उसके लिए एक स्त्री ही आखिर दम तक समझौते करे और अय्याश मर्द नाड़ा खोलने-बांधने का उपक्रम रचता रहे ? नहीं, वो ऐसा नहीं करेगी, अनुराग के लाख चाहने पर भी नहीं. वो जिस कट्टे से मोहल्ले के बाकी ठरकियों पर वार करेगी, उसी कट्टे से अपने मर्द के सौ ग्राम का बटखरा भी कुट्टी-कुट्टी करके काटेगी जिसने समाज को बहुत भारी बना दिया है.
 
तुम कहोगे कि मैं हर फिल्म,हर किताब,हर कविता में फेमिनिज्म के एंगिल ढूंढने लगती हूं लेकिन बार-बार चूतिया और गांड के बीच हम किस तरह कुचली जा रही थीं,तुम्हें कहां होश था..तुम जब गांड में तार डालकर पतंग उड़ाने पर ठहाके लगा रहे थे न तो लगा तुम्हारे मुंह पर थूक दूं..तुमने पिछले सात दिनों में दोस्तों से बात करते हुए, फोन पर न जाने कितनी बार कहकर ले ली मैंने कहा होगा. क्या कहकर लेने से जितने ईमानदारी का मसीहा तुम मर्द बनते-बनाते दिख रहे हो, उससे तुम्हारे भीतर का घिनौनापन कम हो जा रहा है? कल तुम्हारा मर्दवाद चरम पर था रघु और सॉरी तुम जितने भी प्रोग्रेसिव बनने की कोशिश करो, हम पर बनी गालियां सुनकर तुम और तुम्हारे अनुराग कश्यप उतने ही सटिस्फाय और प्लेजर पाते हो जितना कि दुर्गा को हुमचते हुए वो कमीना सरदार खान. ये गैंग ऑफ वासेपुर नहीं, सॉग्स ऑफ हवसपुर थी रघु..कायदे से इस फिल्म की स्क्रिप्ट की कॉपराइट पर उस सादिक,इमरान,खालिद,जुबैर की होनी चाहिए जो दिनभर मैं सैंकड़ों बार चूतिया बोलता है लेकिन किसी शख्स को नहीं, टायर-ट्यूब को जो सही से सोलेशन लगाने पर भी नहीं चिपकता. उस सिलाई मशीन को जिसकी सुई एक ब्लाउज भी नहीं सिलती कि टूट जाती है. उस तराजू को भोंसड़ी के कहता है जिस पर तीन किलो से ज्यादा की लौकी चढ़ाओ तो कमाची झटक जाती है. हां, सो कॉल्ड रेडिकल अनुराग ने इतना जरुर किया है कि पहले जहां मर्द मादर-बहन की गालियां देते थे, अब वो फीमेल कैरेक्टर के लिए भी उतना ही स्पेस देता है. उसका मर्द चरित्र लाल हुए चादर को चूमता नहीं बल्कि स्त्री चरित्र साईकिल से गद्दे लाती है..वो मित्रो मरजानी बनने की कोशिश करती है लेकिन आत्मा को छू नहीं पाती.. इन सबके बावजूद तुम जैसे लाखों मर्दों को ये फिल्म अच्छी लग रही है,लगेगी क्योंकि तुम इसे सिर्फ और सिर्फ पॉलिटिकल एंगिल से देख रहे हो, कभी अस्मिता और सांस्कृतिक सवालों से जोड़कर देखोगे न तो जिस रिसर्च पर तुम फिदा हो रहे है, कई सारी चीजें दुराग्रह लगेगी जिसमें कुरैशी, पठान और आसनसोल की बंगालिन सब शामिल हैं.

तुम मर्दों में सौ ग्राम का अतिरिक्त अंग आ जाने पर इतना गुरुर क्यों है रघु. मैं आज दिन तक समझ नहीं पायी. इस सौ ग्राम का वजन इतना तो नहीं होता कि पूरी सभ्यता,पूरे साधन,पूरी संस्कृति पर वो भारी पड़ जाए..रागिनी,रागिनी..तुम ठीक कर रही हो..प्लीज रघु,मुझे चुप्प कराने के नाम पर टच करने के बहाने न निकालो. प्लीज मुझे अकेला छोड़ दो..मैुझे कुछ घंटे के लिए अकेले रहने दो. आज नए कुर्ते में नहीं चटखेगी तुम्हारी रागिनी. ठीक है,तुम्हें जो कहना है कहो रागिनी.

मैं सिर्फ इतना भर कहूंगा- तुम सारा गुस्सा अनुराग कश्यप और मुझ पर उतारने के बजाय इस सिरे से सोच सकती हो थोड़ी देर के लिए कि तुम्हारे पापा ने 15 साल तक तुम्हें उस शहर में रखा. तमाम सुविधाएं दी,दुनियाभर की आजादी भी. लेकिन क्यों फलां रास्ते, फलां गली में जाने से मना करते रहे..और वो भी सिर्फ इसलिए कि वहां मुसलमान रहते हैं. माफ करना रागिनी. तुम्हारे पापा ने तुम्हें ग्लोब,टाइगर्स आइ सीरिज और अब लैपटॉप भले ही दे दिए हों लेकिन उन मोहल्ले और गलियों में जाने की इजाजत कभी नहीं दी जहां हिन्दुस्तान का एक दूसरा ही सच धूप में सूख रहा है, बारिश में भींग रहा है और ठंड में ठिठुर रहा है. जिस पापा ने तुम पर लाखों खर्च करके वो समझ औऱ विजन तुम्हारे भीतर नहीं पैदा होने दिया, वो अनुराग ने 300 में देने की कोशिश की..फिर भी तुम उसे सामंती कहती हो, पट्रियारकल कहती हो. कहो,जितनी बार मन करता है कहने का कहो..तुम्हारी फेमिनिस्ट दुनिया में हम पुरुषों के लिए उतनी ही बड़ी बिडंबना है जितना कि बंद समाज में खुलकर वाली स्त्री के लिए चरित्रहीन करार दे दिया जाना...हम कुछ और नहीं कह सकते. बस एक बात प्लीज अपना गुस्सा इस लंच पर न उतारो. कल तुमने ही तो कहा था न कि अनुराग ने ये फिल्म हम दोनों के बीच दरार पैदा करने के लिए नहीं बनायी है...


फुटनोटः- लप्रेक यानि लघुप्रेम कथा जिसके जनक/प्रवर्तक एनडीटीवी इंडिया के रवीश कुमार हैं.
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अरुण प्रकाश से वो मेरी पहली और आखिरी मुलाकात थी. आज से करीब तीन साल पहले अजय ब्रह्मात्मज के साथ हम उनके घर गए. योजना ये थी कि अरुण प्रकाश से भेंट भी हो जाएगी और उनकी पसंदीदा फिल्म उनके साथ बैठकर देखेंगे और अगर वो बात करने की स्थिति में होंगे तो उस पर चर्चा भी करेंगे. हम उनके पास करीब 11 बजे गए और दिनभर उनके साथे रहे.


जब उनके यहां पहुंचे और उनकी हालत देखी तो लगा हमारे साथ सिनेमा क्या वो दस मिनट सहज ढंग से बात तक नहीं कर सकते. थोड़ी देर तक लीविंग रुम में बैठने और चाय पीने के बाद हम उनके बेडरुम में गए जहां एक टीवी लगी थी. वो मशीन से सांस लेने लगे. उसके बाद हमसे बातचीत शुरु की. डेढ़-दो घंटे बाद फिर मशीन चालू किया और फिर से कोई दवाई के साथ ऑक्सीजन लेने लगे. मैं ये सब बहुत ही विस्मय से देख रहा था. सांस लेने के बाद फिर वो इस पूरी प्रक्रिया को समझाने लगे. पहले कैसे सिलिंडर से सांस लेते थे लेकिन वो बहुत मंहगा पड़ता था तो फिर उनके बेटे ने ये मशीन ला दी और अब वो जरुरत के मुताबिक ऑक्सीजन ले पाते हैं. आज से तीन साल पहले ही उनकी हालत बहुत खराब थी और मैं उन्हें देख-देखकर अफसोस कर रहा था कि क्यूं आते ही हमने उन्हें कह दिया कि उनके साथ कोई पसंदीदा फिल्म देखने की योजना है और उस पर बात भी करेंगे. वो तो ये सुनते ही उत्साह से भर गए थे और अजयजी को कहा था- ये कौन सी भारी बात है ?

लेकिन उनकी हालत मुझसे देखी नहीं जा रही थी. वो बहुत ही तकलीफ में थे और यकीन मानिए मैंने जिंदगी में पहली बार किसी के जल्द ही गुजर जाने की कामना की थी. ये जानते हुए कि उनका भरा-पूरा परिवार है. लेकिन मेरे मन में बार-बार एक ही सवाल उठ रहा था कि ये भी जीना कोई जीना है क्या जिसमें इंसान सांस तक न ले सके. उनकी पत्नी उन्हें बार-बार कम बोलने की हिदायत दे रही थी लेकिन वो हमदोनों को देखकर इतने उत्साह में थे कि अपने को रोक नहीं पा रहे थे. और जैसे ही बोलना शुरु करते,जोर की ऐसी खांसी उठती कि फिर रुकने का नाम न लेती और फिर वो मास्क लगा लेते. हमें भीतर से बहुत ग्लानि हो रही थी कि क्यों इनसे बात करने के इरादे से आए. नमकीन से भरी प्लेट और चाय मेरे गले से नीचे किसी भी तरह से उतर नहीं रहा था. अजयजी का भी यही हाल था. मैं खुद भी बहुत लंबी बीमारी से उठा था और खाली पेट रह नहीं सकता था सो मन मारकर कुछ-कुछ खाता जा रहा था. मुझे याद है उन्होंने हमारे साथ फिल्म देखी थी. कौन सी मुझे उस बदहवास स्थिति में बिल्कुल भी याद नहीं. हां सिनेमा पर उन्होंने जो सारी बातें कही, वो टुकड़ों-टुकड़ों में याद है. वो सिनेमा पर लगातार बोलते जा रहे थे. अपने मुंबई प्रवास और संघर्ष की कहानी जिसमें मुझे वाकई बहुत दिलचस्पी बनी हुई थी. लेकिन बीच में जब अजयजी ने बताया कि ये टेलीविजन पर लिखता है और उस पर रिसर्च कर रहा है तो उन्होंने सिनेमा के बजाय टीवी और मीडिया पर बातचीत शुरु कर दी.

उनकी बातचीत से मुझे संतोष हुआ कि उन्हें टीवी की न केवल गहरी समझ है बल्कि वो इसे बहुत ही गंभीरता से लेते हैं. दिवंगत कमला प्रसाद के बाद वो मुझे दूसरे ऐसे गंभीर साहित्यकार/आलोचक मिले जो लगातार टीवी सीरियल देखते हैं. उन्होंने टीवी से जुड़े कुछ पाश्चात्य विद्वानों के काम की चर्चा की और कल्चरल स्टडीज के कुछ उन विद्वानों का नाम लिया जिन्हें कि मैं उन दिनों पढ़ भी रहा था. बीच-बीच में मैं भी कुछ-कुछ बोलता-बताता जा रहा था और वो उससे संतुष्ट भी नजर आ रहे थे. मुझे याद नहीं है कि उन्होंने हमदोनों से कितनी बार कहा होगा कि अच्छा किया आपलोग हमारे पास आए. अजयजी तो मुंबई रहते हैं,तुम मेरे पास आते रहना. तुम्हारा बहुत सारा टीचर हमसे पढ़ा-सीखा है,जाकर बताना आज अरुण प्रकाश से मिलना हुआ. एकाध लेखों को छोड़कर उनका लिखा मैंने कुछ भी नहीं पढ़ा था लेकिन बातचीत से उनके लिखे में क्या तासीर होगी,अंदाजा लगा पा रहा था. चलने के पहले तक की बातचीत सामान्य थी लेकिन जब हमलोगों ने कहा कि अब निकलते हैं तो उन्होंने कुछ उन पुराने प्रसंगों की चर्चा शुरु की जिन्हें सुनते हुए मैं महसूस कर रहा था कि ये शख्स अकेले जब बैठता होगा तो कैसे अपने पुराने दिनों और रुतबे को याद करके कसकता होगा..
अरे विनीत, साहित्य अकादमी का जमाना था..लाइन लगाए रहते थे लोग..अरुणजी ये लिखा है, वो देख लीजिए, यहां चल दीजिए...अब सब विजी है, व्यस्त हो गए..होने दो,समय किसका हुआ है ?

देर रात जब मैंने एफबी वॉल पर प्रियदर्शन की स्टेटस देखी और जिसे पढ़कर जाना कि अरुण प्रकाश हमारे बीच नहीं रहे तो उनका कसकता हुआ वो चेहरा याद हो आया और अब अपने साथी निरुपम की पिछले सप्ताह कही गई वो बात बार-बार टीस मार रही है- अरुण प्रकाश सालों से बीमार चल रहे हैं. उनकी हालत बहुत खराब है. किसी हिन्दीवाले को सुध है उनके बारे में जानने की ? नहीं. देखना न, एक दिन वो भी हमारे बीच से चले जाएंगे और तब यही हिन्दीवाले उन्हें महान,कालजयी,संत करार देंगे और विशेषांक निकालेंगे. हमारा हिन्दी समाज अपने रचनाकारों को लेकर कितना लापरवाह है इसका बस एक नमूना बस महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की वेबसाइट हिन्दी समय डॉट कॉम पर दिए अरुण प्रकाश के पते से ही लग जाता है.

मैं आज से तीन साल पहले उनके घर गया था तो वे मयूर विहार में रह रहे थे और मेरा ख्याल है कि वे अब भी वहीं रहा करते थे. लेकिन वहां दिलशाद गार्डन का पता दिया है. इसका मतलब है कि इस बीच विश्वविद्यालय ने उनसे कोई संपर्क नहीं किया और वही पुराने पते को वेबसाइट ढोए चला जा रही है जिसे कि अरुणजी ने कभी अपनी किताबों में दिया था. दूसरा कि अभी भी वेबसाइट पर लिखा है कि वे साहित्य अकादमी की पत्रिका समकालीन साहित्य का संपादन करते हैं. आप सवाल कर सकते हैं कि क्या इन वेबसाइटों पर लाखों रुपये ऐसी ही पुरानी जानकारियों को भरने पर खर्च किए जाते हैं ? अगर साहित्यकारों को लेकर अपडेट ऐसी वेबसाइट जिसके उपर करोड़ों रुपये खर्च किए जाते हों पर नहीं होंगे तो क्या इसके लिए अलग से अखबारी इश्तहार का इंतजार करें. हिन्दी या समय किसी हिन्दीवाले की क्या, हमारे ही शरीर में पिछले पांच सालों से हिन्दी फैलोशिप के पैसे से दूध-फल-सब्जी,अनाज, शब्द और समझ जाता रहा कभी अरुण प्रकाश या किसी दूसरे साहित्यकार को पलटकर देखने नहीं गए. पिछले तीन सालों से दिन में दो से तीन बार उनके घर के सामने से गुजरना हुआ फिर भी कभी नहीं. किसी और के बारे में क्या कहें ? मौकापरस्ती और कमीनापन ही हमारा मूल्य बन चुका है तो इसमें अरुण प्रकाश के यहां नहीं जाना या उनका मौजूदा पता अपडेट नहीं करना कौन सी बड़ी बात है.

पिछले कई दिनों से साथी निरुपम कह रहा है- यार,तुम्हारे इधर आना है हमें. सुदीप्ति भी अजमेर से आ गयी है. मैं अंदाजा लगा रहा था कि मेरी तरफ आने में उनलोगों का अरुण प्रकाश के यहां जाना भी शामिल होगा. वो किसी दिन तो अभी तक नहीं आया लेकिन अरुण प्रकाश इसी दिन हमारे बीच से चले गए. सब किसी दिन और इसी दिन के बीच झूलते हुए चले जाएंगे और हम सब अपने को सुदीप्ति और निरुपम की तरह अभागा करार देकर अफसोस करते रह जाएंगे. 
सुधार- रात के बारे में को रक्त के बारे में पढ़े. गौरीनाथ का शुक्रिया.
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हां पापा बोलिए न, आपने अभी मिस्ड कॉल दिया था. नहीं,वो गलती से दब गया होगा. अरे, वो मां बतियाना चाह रही थी,बोली लगाइए तो विनीत को. वो राजेश पूछ रहा था कि पैर का दर्द कैसा है, कम हुआ कि नहीं. इस तरह किसी न किसी का नाम और बहाने लेकर पापा रोज फोन करते हैं. भरी उदास दुपहरी में पापा का फोन आना,ज्यादातर मिस्ड कॉल अच्छा लगता है बल्कि दो बजे तक मिस्ड कॉल न आए तो मुझे बेचैनी से होने लगती है. ऐसा पापा के साथ मेरा पिछले दो साल का अफेयर चल रहा है. शुरु-शुरु में तो बहुत औपचारिक रहता था फोन पर लेकिन अगर रोज बातें होने लगे तो पापा कब तक सिर्फ पापा रह सकते हैं.

इन दोनों कैडबरी का एक विज्ञापन आ रहा है जिसमें बच्चे के डैडी उसके साथ होमवर्क भी करते हैं,खेलते भी हैं, फुल मस्ती करते और वो सबकुछ करते हैं जो रजनीकांत कर सकता है. करीब ढाई हजार किलोमीटर की दूरी के बीच पापा हमसे और हम पापा से जिस भी तरह की बातें कर सकते हैं, अब करते हैं. ऐसे में वो जैसे ही कहते हैं- मां बतियाना चाह रही है तो मैं पलटकर पूछता हूं- और पापा आप, आप नहीं बतियाना चाहते हैं ? :)


दो साल के इस अफेयर में पापा अभी तक ये "एक्सेप्ट" नहीं कर पा रहे हैं कि उनका रोज हमसे बात करने का मन होता है इसलिए फोन करते हैं. इसे हम एक बाप की आदिम इगो के बजाय एक गर्फफ्रैंड की शैतानी कहें तो क्या गलत होगा कि वो सबकुछ कहती है लेकिन वो ये मानने के लिए तैयार नहीं होती कि वो किसी लड़के से प्यार भी करती है. ऐसे में बाप और गर्लफ्रैंड एक-दूसरे के बहुत करीब जान पड़ते हैं. मां अब बहुत मजे लेने लगी है. बड़ा आजकल छोटका बेटा से हंसी-ठठ्ठा होता है, बुढ़ारी में अक्किल आया कि इहौ एगो बेटा है औ इससे भी बोलना-बतियाना चाहिए. पापा तब भी इस सच को नकारते हैं- पगला गई हो, उ तो राजेश बोला था पूछने कि पैर का दर्द कैसा है तो फोन कर दिए. क्या पापा, आप तो विनीत को फोन किए थे, बताया होगा कब आ रहा है टाटा, मेरी दीदी पूछती है ? नहीं हमसे कहां बात हुई. पापा साफ झूठ बोल जाते हैं.

पापा का रोज फोन करना और उसे किसी न किसी तरह नकारना उतना ही बड़ा सच है जैसे इस देश की लाखों लड़कियों का किसी की बेटी,किसी की बहन होने से कहीं ज्यादा मजबूती से किसी की गर्लफ्रैंड का होना और उसे नकारना. इस खुले समाज में भी उसका ऐसा स्वीकार करना. मैं अक्सर सोचता हूं कि आखिर पापा को दिक्कत क्या है ये बताने में कि मेरी उनसे रोज बात होती है? कहीं उन्हें इस बात का डर तो नहीं कि सरेआम दुनिया को पता चल जाएगा कि बाप के सीने में कोई दिल है जिसका पिछले कुछ सालों से तेजी धड़कना शुरु हो गया है,खासकर अपने बेटे के लिए. या फिर एक सनातन व्यवस्था के चरमरा जाने का खतरा व्यापता है उन्हें कि बाप का काम ही है बेटे के प्रति सख्ती बरतना, इतनी सख्ती कि जब डांटा जाए तो उसके अगले दो-तीन घंटे तक अलग से बाथरुम जाने की जरुरत न पड़े ?

शायद उन्हें इस बात की झिझक हमेशा रहती होगी कि जिस औरत के सामने हम उसके बच्चे को सालों से हड़काते रहे, अब उसी से हेल-मेल से फोन करेंगे तो बड़ा मजाक उड़ाएगी और कहेगी- हम कहते थे कि जो अपना बाल-बच्चा के दुत्कारता है, उ नरक भोगता है..अब देखो बुढ़ारी में नरक भोगने का डर सताने लगा तो कैसे मीठ्ठा-मीठ्ठा बतियाते हैं...लेकिन मुझे आप इस स्वार्थ से घिरे शख्स नहीं लगते. जिस इंसान ने जिंदगी में कभी अगरबत्ती तक न जलायी हो, दूकान की दीया-बत्ती हमेशा छोटू-राजू से जलवायी हो, उन्हें भला कौन सा नरक और स्वर्ग का चक्कर होगा. वो सचमुच मेरे साथ अफेयर में पड़ चुके हैं बुरी तरह..छोड़ों न, सीसीडी ले जाने कहती है, पीवीआर ले जाकर पैसे खर्च कराती है लेकिन प्यार भी तो करती है..मैं पापा से ठीक इसी तरह सोचकर प्यार करने लगा हूं. सम शॉर्ट ऑफ एक्सट्रीम क्रश.

अबकी बार मार्च में चार दिनों के लिए घर जाना हुआ. जमाने बाद घर गया था. लिहाजा तीनों दीदी अपने प्यारे-प्यारे बच्चों के साथ मुझसे मिलने आ गयी. घर में मेला सा लग गया. चार कमरे की फ्लैट में लगा बेड लगाने के बजाय लोहे की रैक खरीद ली जाए,चौड़ी बड़ी सी और उसी में गद्दे डाल दिए जाएं. संत जेवियर्स कॉलेज,रॉची के हॉस्टल में इसी तरह की व्यवस्था है. एक कमरे में नौ से बारह लोग इसी तरह रहते हैं. खैर, नौ बजते ही कहने लगते- तुम मेरे ही पलंग पर सो जाना. बहुत बड़ा है. मैं उस पलंग पर दिनभर में पचहत्तर बार बैठ चुका होता हूं और उसकी साइज मेरी आंखों में बुरी तरह धंस चुकी होती है फिर भी पापा बताते हैं बहुत जगह है, बहुत बड़ा है..रात में उनके साथ लेटता.

 आपको नींद आ रही है पापा. पापा को जबरदस्त नींद आ रही होती थी लेकिन अचानक से हुचककर बोलते- नहीं, ऐसे ही आंख बंद किए हैं. मैं कहता, मुझे भी नहीं आ रही है. फेसबुकिआने के वक्त भला कहां नींद आती. घर में मेहनतकश लोगों का जमावड़ा था. दो साल के क्षितिज से लेकर पापा तक की फिक्स रुटीन थी. सब दिनभर दूकान और चूल्हा-चाकी से थके होते. बिस्तर पर जाते ही नींद आ जाती. मैं रात में अकेले जहां और जिस भी कोने से भी फुफुर-फुसुर टॉय-ठांय की आवाज सुनता, सक्रिय हो जाता. कोई न कोई मिल ही जाते जिससे भसड़ शुरु की जा सकती थी. इस बार जो पापा रात की गप्पों से भड़के रहा करते, मेरे साथ देर रात तक बातें करते रह जाते. चलिए आपको मैं किसान सिनेमा,बिहार शरीफ पर एक पोस्ट सुनाता हूं औऱ मैं मोबाईल से ही शुरु हो जाता. सुबह होने पर दीदी लोग मजे लेने लगती. मां कहती- जेतना इससे चिढ़ते थे, उतना ही इ साध लिया है. मां भीतर से बहुत खुश हुआ करती पापा के इस व्यवहार से.

अबकी बार घर से आते वक्त पापा छोड़ने जाने के लिए पहले से ही तैनात थे. कुछ तो पुरुषोत्तम की जगह राजधानी ने भी उनके लिए सहूलियत बढ़ा दी थी. सुबह छ साढ़े छ बजे की जगह दिन की ट्रेन. सबों ने बारी-बारी से हाय-बाय किया. मां ने उसी सनातनी परंपरा का निर्वाह किया- सौ,पांच सौ के न जाने कितने मुड़े-तुड़े हल्दी बेसन लगे नोट..पापा और आगे तक आए.

 मीडिया, एकेडमिक्स, यूनिवर्सिटी की राजनीति और उठापटक पर अबकी बार उनसे बहुत कुछ शेयर किया था मैंने. छूटते वक्त उन्होंने जोर देकर कहा- जो करने गए हो, वही करो. एतना लंझाड़ छोड़कर निकले हो तो अपने मन से कम्परमाइज मत करना. किसी के कहने पर कुछ मत लिखो. तिवारीजी कह रहे थे कि आपका लड़का लिखता है त उसमें धार रहता. उसको कहिएगा कि इ बनाए रक्खे. पापा ने तिवारीजी को खासतौर से कोट किया ताकि हम पर कुछ ज्यादा ही असर हो. यहां तो हम गाहक सबको सर,सर करिए रहे हैं,तुम चमचई के फेर में मत पड़ना. अरे कुछ नहीं होगा तो हम तो है ही न. मुझे पहली बार लगा..पापा किसी गर्लफ्रैंड से बहुत आगे का फैसला ले चुके हैं, वो इस दो साल के अफेयर को सचमुच बहुत सीरियसली लेने लगे हैं.

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22 साल का तरुण. तरुण सहरावत, तहलका का फोटो पत्रकार. हम सबके बीच से चला गया,हमेशा के लिए. हमारे आदि पत्रकार, हम सबके आदर्श भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से भी बहुत पहले. सोचिए तो,पत्रकारिता के पेशे में 22 की उम्र क्या होती है ? इस उम्र में और अक्सर इससे ज्यादा ही में मोटी रकम झोंककर कोर्स करनेवाले मीडिया के हजारों छात्र इन्टर्नशिप के लिए इधर-उधर कूद-फांद मचाते रहते हैं. कायदे से दो स्टोरी किए बिना ही बरखा दत्त,राजदीप, अर्णव गोस्वामी जैसी एटीट्यूड पाल लेते हैं या फिर तथाकथित अनुभवी पत्रकारों की चमचई के शिकार हो जाते हैं.

कल आधी रात गए जब मैं तरुण की खींची तस्वीरों के बीच डूबता-उतरता जा रहा था और एफबी चैट बॉक्स पर एक के बाद एक ऐसे ही मीडिया कोर्स करनेवाले के सवाल आ रहे थे कि सर आइआइएमसी में जाने का सपना था, नहीं हुआ, अब आजतक वाले इन्सटीट्यूट में जाउं या विद्या भवन तो मन झन्ना गया. एक तरफ तरुण के गुजर जाने का सदमा था, इतनी छोटी सी उम्र में की गई उसकी बेहतरीन और खोए हुए अर्थ की पत्रकारिता थी और दूसरी तरफ चैटबॉक्स में उनलोगों के संदेश थे जिनका सपना पत्रकार बाद में या शायद कभी नहीं होता, उससे पहले किसी चमकीले संस्थान में प्रशिक्षु पत्रकार का गर्दन में पट्टा लगाने का ज्यादा होता है. मन में आया, उन सबों को तरुण के काम की लिंक फार्वड कर दूं लेकिन रुक गया. लगा नहीं कि वो पत्रकारिता के भीतर के जज्बात को समझ पाएंगे. तरुण ऐसे हजारों मीडिया छात्रों को जो स्क्रीन पर चंद दमकते चेहरे को देखकर इस चमकीले कोर्स में आते हैं, बता गया- जिस पीटीसी में कैमरामैन को बहुत ही चलताउ ढंग से याद करने का ख्याल तुम्हारे दिमाग में आता है, असल पत्रकारिता की जमीन उसके आस-पास ही होती है. उन सैंकड़ों दढ़ियल, चीनी के मरीज, पोलो और बिलियर्ड के शौकीन बॉसनुमा मीडियाकर्मियों को बहुत ही आहिस्ते से जवाब देकर चला गया जो हजारों "तरुण" को इन्टर्नशिप भर के लिए इतना थकाते रहे हैं कि वो इस पेशे में आने के पहले ही फ्रस्ट्रेट हो जाया करते हैं. जिन्हें अक्सर इस उम्र के पत्रकारों में कभी किक और संभावना नजर नहीं आती,तरुण बहुत ही जबरदस्त किक मारकर चला गया. पत्रकार के नाम पर जो बंधुआ बना लिए जाते हैं, उन्हें समझा गया- चाहे तुम कितना भी आगे-पीछे करते रह जाओ, मरने के बाद सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा काम रह जाएगा जैसे कि मेरा.

 मैं अपने भीतर से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की तस्वीर को थोड़ा पीछे खिसकाकर इस तरुण की तस्वीर पहले लगाना चाहता हूं. बिना इस बात की परवाह किए कि आचार्य रामचनद्र शुक्ल के श्रद्धालुओं पर इसका क्या असर होगा और पत्रकारिता के इतिहास में भला इससे क्या बनेगा-बिगड़ेगा.

मुझे अभी भी यकीन नहीं हो रहा कि जिस पत्रकार से कभी मिला नहीं, कभी बात नहीं हुई वो मुझे पिछले तीन दिनों से इस तरह बेचैन कर सकता है. मुझे नहीं पता कि जिन दर्जनों मीडियाकर्मियों को टीवी स्क्रीन पर रोज देखता हूं, उन्हें लेकर इस तरह की बेचैनी होगी भी कि नहीं. मैं पर्सनली नहीं जानता था तरुण को. बस उसकी खींची तस्वीरें देखी थी. लेकिन जब से प्रिंयका( प्रियंका दुबे, तहलका) की एफबी वॉल पर उसके बारे में पढ़ा जिसका आशय कुछ इस तरह से था कि तरुण तुम्हें हर हाल में लौटना होगा,ठीक होना होगा तो समझ नहीं आया क्या हो गया है उसे ? हालांकि इससे एकाध महीने पहले ही शोमा चौधरी ने अपनी राइटअप में विस्तार से बताया था कि तहलका के फोटो पत्रकार तरुण सहरावत और तुषा मित्तल स्टोरी के सिलसिले में अबूझमाड़, छत्तीसगढ़ गए थे और एक ही साथ कई बीमारी की चपेट मे आ गए. दुर्भाग्य से मैं वो स्टोरी पढ़ नहीं पाया था. तरुण की वॉल पर जब गया तो वहां सिर्फ और सिर्फ गेट वेल सून, जल्दी आओ तरुण, तुमने वादा किया था,कब आ रहे हो जैसे दर्जनों संदेशों से उसकी दीवार अटी पड़ी थी. उन संदेशों के बीच तरुण की तरफ से कोई जवाब नहीं था. मैं भीतर तक चला गया, मई तक, फिर अप्रैल के संदेशों तक. मुझे समझ नहीं आया. आखिर में प्रियंका दुबे के लिए संदेश भेजा- क्या हो गया तरुण को, सबलोग ऐसे क्यों लिख रहे हैं ? थोड़े समय बाद उसने उपर की लिंक के अलावे शोमा चौधरी की राइट अप की एक और लिंक भेजी.

शोमा चौधरी ने इस दूसरी राइट अप में तरुण के बारे में जिस तरह से लिखा बिना अपने आप आंखों में आंसू छलछला गए. मैंने उसके कुछ हिस्से का हिन्दी तर्जुमा करके एफबी पर लगाया. कुछ दिनों पहले वो खुद से सांस ले पा रहा था,ज्यादा तो नहीं पर थोड़ा-बहुत ही सही चलने लग गया था, चाय की चुस्की ले सकता था. ये सब विज्ञान का चमत्कार और उसकी खुद की इच्छाशक्ति थी. जब उसके भीतर थोड़ी ही चेतना आयी थी कि उसने सबसे पहले अपने कैमरे के बारे में पूछा..उसके बाद से फिर सबकुछ पहले की तरह..बेजान,उदास.. तहलका की प्रबंध संपादक ने तरुण के बारे में बताया था कि जिन दिनों तरुण तेजपाल को लगातार धमकियां मिलती रही थीं और तहलका के इतिहास में वे बहुत ही बुरे दिन थे, रणवीर भइया यानी तरुण के पिता उनकी बेटी को स्कूल ले जाते और लाते थे. वो उनकी गाड़ी ड्राइव करते थे. जब उनका बेटा तरुण और अरुण बड़ा हुआ तो उसे तहलका ने अपनी टीम में शामिल कर लिया. तरुण बतौर फोटो जर्नलिस्ट और अरुण आइटी डिपार्टमेंट में.
शोमा चौधरी की इस राइटअप से गुजरने के बाद से मन स्थिर नहीं रह सका. बेचैनी बढ़ती गयी. तब तक तहलका से जुड़े पत्रकार और लेखक उसके बारे में कुछ-कुछ संदेश लगाने लग गए थे. उन सबों को पढ़ते हुए उसकी एक छवि मेरे मन में बन गयी कि वो अपने स्वभाव में कैसा था..अगली सुबह अतुल चौरसिया ने अपनी वॉल पर लिखा- Tarun died a death he didn't deserve. completely shattered. फिर ये कि cremation time is 3PM today at lodhi colony crematorium. Please be there to give a last salute to a great soul. हम जैसे घर में बैठे लोग इसी सूचना के आधार पर मुक्तिधाम, लोदी रोड़ चले गए.

समय से पहले मुक्तिधाम पहुंचना शोक से पहले आध्यात्म से गुजरने की प्रक्रिया है. आप पहले पहुंचकर जब वहां लगी शेड के नीचे बैठते हैं और चारों तरफ जीवन,सत्य,मृत्यु को लेकर दोहे और सूक्तियां के बोर्ड से गुजरते हैं तो दिमाग में बस एक ही सवाल आता है- दुनियाभर की हाय-तोबा, शोर और कोलाहल किसके लिए. जितनी लकड़ियों में अपने बेडरुम के फर्नीचर तक नहीं बन सकेंगे, उससे भी बहुत कम लकड़ियों में हम यहां आकर राख हो जाएंगे. अगर आप साहित्य के विद्यार्थी हों और आपने लाख दूसरे कवियों, रचनाकारों को पढ़ा है लेकिन उस जगह पर बैठकर आपको सबसे ज्यादा कबीर याद आएंगे. संभव हो उस कबीर में हजारी प्रसाद द्विवेदी की स्थापना और डॉ धर्मवीर का धारदार तर्क शामिल न हो. वहां से निकलकर यूनिवर्सिटी जाने के रास्ते तक इसी गुत्थागुत्थी में कट गया- आखिर मुक्तिधाम जाते ही सबसे ज्यादा कबीर ही क्यों याद आते हैं-

                   हाड जरै ज्यों लाकड़ी,केस जरै ज्यों घास.
                   सब जग जलता देख, भया कबीर उदास.

पवन ( पवन के वर्मा ) से मुलाकात हुई. वो एक-एक करके बताने लग गया तरुण के बारे में वो सारी बातें जिसने उसे 22 साल की उम्र में ही एक संवेदनशील और जरुरी फोटो पत्रकार बनाया था. छत्तीसगढ़ की उन चालीस तस्वीरों पर तरुण का एक के बाद एक विवरण और उससे निकलकर आयी तहलका हिन्दी के लिए स्टोरी..मैं सबकुछ तरुण के जीवन के बीच का तिलिस्म की तरह सुनता जा रहा था. मुझे महमूद की दास्तानगोई याद आ रही थी. दास्तानगोई के बीच से जुडूम-जुडूम की आवाजें. लोग जुटने लगे थे. तहलका के पत्रकारों का जत्था. तरुण के घर के लोग और फिर आखिर में तरुण भी. उदासी विलाप में बदलने लगी थी. कितना रो रहे थे ये सारे पत्रकार. मैंने दिल्ली शहर में पत्रकारों को कभी रोते नहीं देखा और वो भी इस तरह, ऐसे मौके पर. जिसे भी देखा- गाड़ी,फ्लैट,ब्ऑयफ्रैंड/गर्लफ्रैंड/ रिलेशनशिप की खींचतान, डाह-निंदा और अहंकार के बीच उलझे हुए ही. जिनकी उंगलियां ब्लैकबेरी और मैक पर थिरकती नजर आती है..लेकिन आज सबके सब रो रहे थे. मुझसे रहा नहीं जा रहा था. मन कर रहा था उनमें से किसी को भी पकड़कर खूब रोउं. हम एक बिल्कुल ही अलग दुनिया में डूबते जा रहे थे. पार्क में खड़ी पजेरो,जायलो,होंडा सिटी टिन के बक्से नजर आने लगे थे जिसमें बैठते-उतरते लोग सपनों के कैद होते बिंब भर लग रहे थे.

आखिर में वो मनहूस समय भी आया जिसके लिए हम कभी तैयार नहीं होते. आग की लपटों के बीच से तरुण का अद्म्य साहस आसमान की ओर तेजी से बढ़ रहा था. चटखती लकड़ियों के बीच मुझे सिर्फ और सिर्फ एक ही शब्द सुनाई दे रहा था- जज्बा. आखिर वो जज्बा ही तो था जो लाइफस्टाइल की बीट कवर सा दिखनेवाले तरुण को एक जमीनी स्तर का पत्रकार बना गया था. मैं उससे जब भी मिलता, उसकी तमाम कमिटमेंट के बावजूद पूछता- तरुण, तुम्हें कभी लगा नहीं कि मॉडलिंग में जाउं ? उन लपटों के बीच से उड़ता राख मेरी सफेद टीशर्ट में चिपकती जा रही थी. मैं लोगों को रोता देख रहा था. चारों तरह काठ को जलता देख काठ बन जाने के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता था.. बाहर निकलकर रिंग रोड़ पर कदम बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे. हम नार्मल नहीं थे..लगा कुछ हो जाएगा. बड़ी मुश्किल से एक ऑटो तैयार हुआ डीयू कैंपस जाने के लिए. हम उसी कबीर की किंवदंतियां पर पर्चा सुनने जा रहे थे जो आज मुझे सबसे ज्यादा याद आ रहे थे.

पहुंचते-पहुंचते पर्चा पढ़ा जा चुका था. लोग सवाल-जवाब भी कर चुके थे. हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो.गोपेश्वर सिंह का अध्यक्षीय भाषण बाकी था. उन्होंने बोलना शुरु किया. हमारी कबीर पर अब तक की पढ़ी बातों से थोड़ा अलग और कहीं-कहीं प्रभावी भी.- सवाल है कि आलोचकों ने कबीर को जितना बड़ा क्रांतिकारी बना दिया है, पहले देखना होगा कि वो इसके हकदार है भी कि नहीं. कुछ समय बाद ऐसा होगा कि लगेगा कि कबीर ने पहले कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पढ़ा और फिर अपनी बातें कही. अगर उन्हें समाज बदलने का काम करना था तो क्या कोई संगठन बनाया ? आगे से किसी ने कहा कि लेकिन सर वो रचना के जरिए समाज बदलना चाह रहे थे. प्रोफेसर का बोलना जारी था लेकिन उनके वक्तव्य से मुझे मोर का पंख लगाए कबीर का ध्यान रत्तीभर भी नहीं आया. मुझे उस कबीर का ध्यान आ रहा था जिन्हें मैं तरुण की जलती चिताओं के किनारे बैठा देखा था. वो कबीर जो ओनजीसी के साइनबोर्ड क बीच भी अपनी मौजूदगी बनाए हुए थे. उनके बोलते रहने के बीच मुझे धुकधुकी लगी रही- कहीं मैं जोर से चिल्ला न दूं- सर, ये सब रहने दीजिए. मुझे सिर्फ इतना बताइए- मुक्तिधाम में सिर्फ और सिर्फ कबीर क्यों आते हैं, तुलसी,मीरा,सूर और यहां तक कि मुक्तिबोध भी क्यों नहीं ?

जिंदगी के उदास क्षणों के बीच सीएसडीएस-सराय की लाइब्रेरी और वहां के लोग हिम्मत देते हैं. एक संभावना की थेरेपी शायद जिससे हमें थोड़े समय के बाद सब अच्छा-अच्छा लगने लगता है. लेकिन आज अफसोस कि वे बेअसर रहे..हम वहां से उसी उदास मन से घर की तरफ लौट गए. तरुण फिर से बुरी तरह याद आने लगा था. ताले में चाबी जा नहीं रही थी..घर खोलते ही धप्प से जमीन पर बैठ गया. बैठा रहा, मुश्किल से लैपटॉप अपनी तरफ खींचा. घड़ी की सुई सरकती गई.. बारह, एक, दो..एक एफबी अपडेट किया- मैं इतनी गहरी रात के बीच सोना चाहता हूं तरुण. उतने ही शांत तरीके से,बेफिक्र,निश्चिंत होकर जितनी आज मैंने तुम्हें दिल्ली की उबलती गर्मी में सनसनाती धूप के बीच, रिंग रोड़ की चिल्ल-पों, धक्का-मुक्की के बीच सोते देखा था. बस,मुझे नींद आ जाए. इस बच्चे को जब गले में रेडियो लटकाए देखा तो लगा तुमने फोटो जर्नलिज्म में कितना बड़ा अर्थ पैदा किया. मैं इस तस्वीर को अपनी अगली किताब का कवर बनाउंगा. बिना तुमसे पूछे.जैसे आज सुबह बिना बताए तुम्हारी प्रोफाइल पिक चुरा ली थी....

तीन,चार.पांच..नींद नहीं आयी. मुझे अब भी हैरानी हो रही है. तरुण से तो मिला भी नहीं था मैं. फिर ऐसा क्यों हो गया मेरे साथ? क्या ये सब शोमा चौधरी,प्रियंका दुबे,अतुल चौरसिया,गौरव सोलंकी जैसे लोगों के लिखे का किया-धरा है ? मुझ पर सुबह होते क्रम की रात हावी है और मैं फिर से एफबी वॉल से गुजरता हूं.फिर वही शब्द जज्बा और जज्बात..और इन सबके बीच तरुण की मुस्कराहट जिसके बारे में इनलोगों ने लिखा है- उसकी एक मुस्कान के पीछे पूरी दुनिया सिमटकर आ जाती थी.
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आज सुबह-सुबह फेसबुक वॉल पर ओम थानवी ने डॉ. रामविलास शर्मा पर उदय प्रकाश की बनायी फिल्म की चर्चा की. साथ ही फिल्म में शामिल की गई डॉ.रामविलास शर्मा के जवानी के दिनों की तस्वीर अपनी टाइमलाइन में लगायी है. फिल्म की यूट्यूब लिंक हमलोगों से साझा करते हुए उन्होंने लिखा-
"दिन की कितनी खुशगवार शुरुआत! सुबह-सुबह डॉ रामविलास शर्मा पर उदय प्रकाश की फिल्म देखने को मिली: "कालजयी मनीषा". एक शानदार वृत्तचित्र. कुमार गन्धर्व और उनकी पत्नी वसुंधरा जी का गाया "अवधूता, युगन-युगन हम योगी.." जाने कितनी बार सुना है, उदय जी ने रामविलास जी के सन्दर्भ में प्रयोग कर भजन की भी नयी परतें खोली हैं. बस यही सोच रहा हूँ, रामविलास जी के जीते जी यह फिल्म बनी होती -- जैसे अज्ञेय, कुंवर नारायण, केदारनाथ सिंह, विजयदान देथा आदि पर बनती रही हैं -- तो क्या और अच्छा न होता! हिंदी अकादमी देर से जागी, इसके लिए भी बधाई. पर जीते जी क्यों नहीं? जबकि अकादमी ने अपना पहला शलाका सम्मान रामविलास जी को दिया और ग्यारह लाख का शताब्दी सम्मान भी. खैर. मेरे पिता जी कहा करते हैं: "आता है आने दो अपना है, जाता है जाने दो सपना है!" ...Take life as it comes... हिंदी की एक कालजयी (मगर जीते जी अपनी ही बिरादरी में दुत्कारी गयी) मनीषा पर बनी इस फिल्म का स्वागत कीजिए. देर आयद, दुरुस्त आयद! "

लिहाजा, हम सुबह की चाय,अखबार और चूल्हा-चौका छोड़कर इस फिल्म को देखने में ही लग गए. साहित्यिक आत्मा की इंटरनेट पर कृपा रही, बिना ज्यादा बफरिंग के हमने पूरी फिल्म देख ली. अंत में अपने संजीव, शशिकांत जैसे लोगों का नाम देखकर अच्छा लगा. पूरी फिल्म देखने के बाद जो फेसबुकी प्रतिक्रया रही-

डॉ. रामविलास शर्मा पर उदय प्रकाश की फिल्म देखकर लगा कि कुछ नए शाब्दिक प्रयोग और तकनीक की उपलब्धता के बूते चीजों और तथ्यों को खारिज करने की जो तत्परता हमारे बीच तेजी से पनप रही है, हमें उस पर दोबारा से ठहरकर सोचना चाहिए. उदय प्रकाश ने फिल्म में रामविलास शर्मा को जिस तरह से पोट्रे किया है, वो सिर्फ एक आलोचक और उसके रचनाकर्म का सम्मान नहीं है बल्कि अपने पूर्वज लेखकों के प्रति असहमति रखते हुए भी कैसे आत्मीय हुआ जा सकता है, उसका सांस्कृतिक पाठ भी है. स्वयं रामविलास शर्मा के छोटे भाई का उनके संबंध में कथन है- अंदर से जोर-जोर से निराला और बड़े भाई की आवाज आ रही थी. मैंने तभी सोचा. जो आदमी निरालाजी से इस तरह तरह से बहस कर सकता है, उसे दबाना आसान नहीं है. आमतौर पर हिन्दी समाज में असहमति शत्रुता का और सहमति चाटुकारिता का जो पर्याय बन गया है या फिर लंबे समय से बनता रहा है, रामविलास शर्मा के दौर में भी..उस संदर्भ में इन पंक्तियों को खासतौर पर देखा जाना चाहिए. उदय प्रकाश ने अपने पूर्वज लेखक डॉ रामविलास शर्मा को जिस आत्मीयता से याद किया है, उन्हें इस बात का शुक्रिया अदा किए बना हम छूट नहीं सकते कि हमें अपने लेखकों और उनके काम को याद करने के क्रम में उदारमना होना अनिवार्य है.

पूरी फिल्म में अपने समय के सबसे चर्चित और आमतौर पर हिन्दी के सभी मसलों पर बात करनेवाले आलोचक नामवर सिंह की कोई बाइट नहीं है जो कि कई लोगों को परेशान भी कर सकती है. कई लोगों को जो फिल्म में शामिल बाइट हैं उनसे खासा दिक्कत भी हो सकती है, अटपटा भी लग सकता है. इसका एक अर्थ ये भी लगाया जा सकता है कि हर साहित्यिककर्म और घटना पर उनको शामिल किया जाना शायद जरुरी नहीं है. फिर भी इस फिल्म को आकादमिक आयोजन जैसी कोई चीज मानकर उपस्थिति पुस्तिका में दर्ज नामों से मिलान करने से बचें तो हम जैसे लोग मौजूदा रचनाकारों पर कुछ इसी तरह का काम करने के लिए प्रेरित हो पाते हैं.
 
धूल-धक्कड़ में खेलते रामविलास शर्मा के बचपन और अकादमिक उपलब्धियों के बीच हम जैसे युवा फुटेज को बीच-बीच में रोककर अपनी छवि छिपकाने के लोभ से अपने को रोक नहीं पाए..हां हम कर सकते हैं उनके जैसा. उनसे अलग भी और वो भी किसी के बिना हाथ और साथ के.

और आखिरी बात. डॉ. रामविलास शर्मा के अध्ययन कक्ष में कोने में रखी टीवी देखकर बहुत अच्छा लगा. पीछे उनके काम और दृष्टि को लेकर विद्वानों ने कहा कि उन्होंने मार्क्सवाद का यांत्रिक ग्रहण और पाठ नहीं किया. टीवी देखकर मुझे लगा कि उनका जीवन उसी तरह से सहज था कि घड़ी,चश्मा,किताबों के बीच एक टीवी भी. उनकी तस्वीर और किताबों के अंबार के बीच इस अकेले टीवी के होने से मैं उन्हें अपने ज्यादा करीब पाता हूं.
शुक्रिया उदय प्रकाशजी और ओम थानवीजी,
हमारी रोज की सुबह ऐसी ही हो.

फिल्म की वीडियो देखने के लिए चटकाएं- http://www.youtube.com/watch?v=_FvX4o0rGys&list=UU83GDEE-RbhYKEYIk4SpNog&index=1&feature=plcp

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कल मुझे "दबंग दुनिया" अखबार की प्रति हाथ लगी. कंटेंट से गुजरने से पहले लेआउट देखकर ही लगा- ये अखबार दैनिक भास्कर और नई दुनिया का कॉकटेल है. अखबार ने भास्कर का लोगो ( पीले रंग का सूर्य) जिस दबंगई के साथ हूबूहू इस्तेमाल किया है, उससे साफ झलक गया है कि वो अखबार की लोकप्रियता और पहचान को भुनाने के साथ-साथ चाहता है जो कि बहुत ही घटिया हरकत है . दूसरी तरफ उसने फांट भी वही रखा है जो कि भास्कर की फांट है. बाकी का हिस्सा देखकर लगता है कि नई दुनिया की लोकप्रियता और लोगों की पकड़ के बीच अपनी सेंधमारी करना चाहता है. ऐसा करते हुए दबंग दुनिया ने एक बार भी नहीं सोचा कि जो वो कर रहा है उससे पाठकों के बीच किस तरह की छवि बनेगी ?

इस देश में वैसे तो डुप्लीकेट मार्केट का बहुत बड़ा बाजार है. इतना बड़ा बाजार कि कई मामलों में तो ऑरिजिनल ब्रांड से बिकनेवाली चीजों से कई गुना ज्यादा डुप्लीकेट माल की खरीद-बिक्री होती है. और दिलचस्प है कि ये सब खुलेआम होता है. आप सलून में चले जाइए, ओल्ड स्पाइस, डेनिम,जिलेट के बिल्कुल हूबहू रंग-रुप की चीजें मौजूद मिलेंगी. बस एकाध स्पेलिंग इधर-उधर की हुई. दिल्ली के गफ्फार मार्केट चले जाइए. नोकिया लिखा मोबाइल हजार-पन्द्रह सौ में. आप अगर इस देश में पसरे मार्केट में बौखना शुरु करें तो आपको लगेगा कि कहीं न कहींडुप्लीकेट होंडा सिटी, फरारी, सेकंड हैन्ड एयर इंडिया के हवाई जहाज भी मिलते होंगे. स्टेशन,बसों में जाइए. पेप्सी,कोक की ही शक्ल में कोलड्रिंक भरी मिलेगी जो कि लोकल रंग-रोगन कोलड्रिंक से भरी बोतलें होती है. बनियान खरीदने जाइए, रुपा औऱ लक्स के नाम पर उसके कई-कई डुप्लीकेट हैं. हर चार में से दो-तीन रिक्शेवाला आदिदास, नाइकी,रिबॉक के छापा टीशर्ट पहनता घूमता नजर आएगा जबकि उन बेचारों को शायद ही पता हो कि एक नाइकी की टीशर्ट की कीमत उसके महीने की कमाई से भी ज्यादा हो सकती है. ये डुप्लीकेट भी दो तरह के होते हैं- एक तो कि जिसे हम खुलेआम जानते हैं. मसलन 50 रुपये में रिबॉक की टीशर्ट नहीं मिल सकती. बावजूद इसके ऐसी टीशर्टों पर उसके नाम का इस्तेमाल उसकी लोकप्रियता की वजह से किया जाता है. लेकिन दूसरा कि ऑरिजिनल रेट से दो-तीन सौ रुपये कम में मिल जाते हैं. इस दावे के साथ कि माल तो ऑरिजिनल है लेकिन बाहर का है, सेल का है या फिर लॉट का है. देशभर में पसरे इस तरह की डुप्लीकेट चीजों के पीछे जो अंधी नकल होती है, उसे बनाने-बेचने से लेकर खरीदनेवाला भी जानता है. लेकिन मीडिया में इस तरह की नकलचेपी हो रही है, वो क्या दर्शाता है ?

सबसे पहले तो ये की तमाम तरह की धंधेबाजी,मुनाफा,कारोबार के बावजूद मीडिया में क्रिएटिविटी की गुंजाईश बची रहती है औऱ रहनी भी चाहिए. आखिर पर कारोबार भी तो इसी क्रिएटिविटी और अभिव्यिक्ति की कर रहे हो. एक ढंग से नाम नहीं चुन सकते, एक लोगो नहीं सोच सकते, डिजायन नहीं कर सकते तो फिर हम ये कैसे मान लें कि आप बिना कहीं से कॉपी-पेस्ट के पक्की खबर दोगे ? जैसे आपने भास्कर का लोगो मार लिया, उसकी खबर भी मारोगे. उसकी नहीं तो किसी अंग्रेजी अखबार की हिन्दी तर्जुमा करके ही चेप दोगे जो कि धडल्ले से हो ही रहा है. फेसबुक पर इस अखबार की तस्वीर लगाने पर जो टिप्पणियां आनी शुरु हुई, उसमें इस बात की प्रमुखता से चर्चा है कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इस अखबार की टीम भी वहीं से टूटकर गई है. टीम टूटकर गई है, इससे उत्पाद का क्या मतलब है ? कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर एक कंपनी छोड़कर दूसरी कंपनी में जाता है तो क्या वहां भी वह पुरानी ही कंपनी जैसी सॉफ्टवेयर बनाता है या फिर वो बनाता है जो नई कंपनी को जरुरत है? आपको एक नया अखबार निकालना है, अपने तरीके से पहचान बनानी है या फिर पहले से स्थापित अखबार का दुमछल्लो बनना है ? और फिर ये हालत सिर्फ किसी एक अखबार की नहीं है. एक न्यूज चैनल ने स्पीड न्यूज शुरु किया,बाकी के भी चैनल उसी काम में हाथ धोकर पीछे लग गए. कोई आधे घंटे में पचास तो कोई उतने ही समय में सौ. जैसे वो खबरें नहीं केले बेच रहे हों कि कौन ज्यादा से ज्यादा उसी रेट पर देता है ? मीडिया के इस तरीके से पहली ही बार में हमारी सख्त नाराजगी बनती है. लेकिन

ऐसा नहीं है कि अखबार को इस तरह की समझ नहीं है और जब वो भास्कर की लोगो और उसकी फांट को हूबहू चिपका रहा था तो उस वक्त ख्याल नहीं आया होगा कि पाठकों पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? उसने सबकुछ समझते हुए ऐसा किया क्योंकि अखबार भी बनियान,कोलड्रिंक, मोबाईल,कॉस्मेटिक से अलग कोई धंधा नहीं कर रहा. अखबार की दबंगई सिर्फ लोगो और फांट मारने तक नहीं है. उसकी असली दबंगई ( माफ कीजिएगा,दिल्ली में दबंग बनिए, वोट दीजिए अभियान के बावजूद मैं इसे नकारात्मक अर्थ में ही इस्तेमाल करुंगा. साथ ही मैं बिल्कुल नहीं चाहता कि हमारा पुलिस इंसपेक्टर चुबबुल पांडे जैसा छैला-मवाली हो ) अखबार के वितरण और लोगों तक पहुंचने में होती होगी. मुझे पक्का यकीन है कि हॉकर, अखबार बेचनेवाला ग्राहक के भास्कर मांगे जाने पर दबंग इंडिया पकड़ा देता होगा. शुरुआत में पाठकों के बीच ये भी भ्रम पैदा करने की कोशिश की गई होगी कि ये भास्कर ग्रुप का ही अखबार है. आम टाइम्स की जगह इमली इंडिया अखबार डालने का संस्कार अखबारवालों को सालों से है. वो दो अलग-अलग रंग-रुप और नाम के अखबार होने पर भी ऐसा करते आए हैं. इस अखबार का तो हुलिया ही हूबहू मिलता है. इस दबंगई का दूसरा स्तर एक तरह की चीटिंग में विकसित होती है.

जिस पैटर्न और सिस्टम से दैनिक भास्कर लोगों तक पहुंचता है, वही काम दबंग इंडिया कर रहा होगा.मसलन दिल्ली में जब नई दुनिया रातोंरात नेशनल दुनिया हो गया तो किसी से बिना पूछे कि हॉकर ने नेशनल दुनिया डालने शुरु कर दिए. बताया तक नहीं कि ये रात का करिश्मा आलोक मेहता जैसे तिनतसिए मीडियाकर्मी का नतीजा है. अखबार खरीदनेवालों का एक बड़ा वर्ग हड़बड़ी में रहनेवालों का है. बसों,ट्रेनों औऱ चलते-फिरते जो लोग अखबार खरीदते हैं, उस वक्त आप नई दुनिया मांगिए तो आपको बिना कुछ कहे हॉकर नेशनल दुनिया पकड़ा देता है. यही काम दबंग इंडिया के साथ भी हो रहा होगा. टिप्पणी में बताया गया कि दैनिक भास्कर से टूटकर जो लोग गए वहीं दबंग दुनिया निकाल रहे हैं. वैसे दबंग अधिकारी ब्रदर्स का क्षेत्रीय चैनल है जिसकी उत्तराखंड/ उत्तरप्रदेश में जबरदस्त लोकप्रियता है. शुक्रवार पत्रिका की जब टीम टूटकर इतवार में गई तो वो पत्रिका भी उसी तरह लोगों के पीछे पहुंचने लगे. लेकिन उन्हीं टूटे हुए लोगों ने इस तरह की भौंडी नकल नहीं की. सवाल लोगों के टूटकर जाने का नहीं है, सवाल नई जगह पर जाकर पुरानी स्थापित चीजों की बदौलत चीटिंग करने की है. इन टूटे हुए लोगों ने एक मिनट भी इस बात पर दिमाग नहीं लगाया होगा कि कैसे एक नया अखबार स्टैब्लिश किया जाए जिससे कि भास्कर के लोगों को रस्क हो कि वो यहां से जाकर कितना बेहतर और अलग कर रहे हैं. इससे ठीक उलट, उनलोगों ने पूरा दिमाग इस बात पर लगाया कि कैसे एक ऐसा अखबार निकाला जाए जो लोगों को कन्फ्यूज करे कि वो दैनिक भास्कर से अलग कोई चीज नहीं खरीद रहे हैं. मेरे ख्याल से इस अहं के साथ भास्कर के लोग दबंग दुनिया को बरी नहीं कर सकते कि तू इस खेल में बच्चा है, पहले अपनी औकात बढ़ा ले,तब बात करना.या फिर ये भी संभव है कि अगर अखबार ने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया तो दबंग इंडिया को तत्काल ये लोगो हटाने पड़ जाएंगे. लेकिन इस लोगों,लेआउट और फाउंट की नकल की बदौलत आप और हम समझ सकते हैं कि इसे लोगों के बीच पहुंचाने तक क्या-क्या धत्तकर्म किए जा रहे होंगे. निश्चित रुप से दैनिक भास्कर इस बात के लिए समर्थ है कि वो इसे हड़काए,हम जैसों को लिखने की जरुरत नहीं है लेकिन ये बताना जरुरी है कि आपने जो अपने अखबार का नाम रखा है वो साहस नहीं लंपटई,जड़ और चोर मिजाज की तरफ इशारा करता है.
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मोहल्ले भर की दीदी एक-दूसरे को कोहनी मारते हुए किसान सिनेमा ( बिहार शरीफ) में घुसती और हम जैसे उम्र में बहुत ही छोटा भाई चपरासी की तरह पीछे-पीछे. शादी के बाद पहली बार ससुराल आए जीजाजी के साथ सालियों का फिल्में दिखाने ले जाना कोई वैवाहिक कर्मकांड का हिस्सा तो नहीं था लेकिन मजाल है कि ये परंपरा किसी भी तरह से टूट जाए. मोहल्ले की किसी दीदी की शादी हुई और वो पहली बार मायका आई और उनके पति ( हालांकि अब ये पति टीवी फैशन में सोलमेट और फेमीनिज्म के पन्नों में बुरी तरह बिलेन हो चुका है) ने सालियों को सिनेमा नहीं दिखाया तो समझिए कि उसकी पर्सनालिटी में कहीं न कहीं खोट है. दामाद दिलदार है, खुले मिजाज का मिलनसार है, इसकी पहचान इस बात से होती थी कि ससुराल पहुंचने के घंटे-दो घंटे बाद अपनी सबसे छोटी साली जिसके कि अक्सर पीरियड भी शुरु नहीं होते से पूछे- सलोनी,जरा हिन्दुस्तान देखकर बताइए तो कि किस टॉकिज में कौन-कौन सिनेमा लगा है ? बस इतना पूछा नहीं कि मोहल्ले में ढोल-दुदंभी पिट गई- सदानंद बाबू के छोटका मेहमान दिलदार आदमी है, बड़ा करेजावाला है, आते ही सिनेमा जाने के बारे में कह रहा है. वैसे तो मोहल्ले की लड़कियों का सिनेमा देखना चाल-चरित्र का नाश हो जाने जैसा था लेकिन जीजाजी के साथ सिनेमा देखने जाना अपने आप में ऐसा सिनेमा था जैसे कि सेंसर बोर्ड के सर्टिफिकेट मिल जाने के बाद शील-अश्लील की बहस खत्म हो जाया करती है. सिनेमा को बदनाम विधा से मुक्त कराने में देश के लाखों जीजाओं का बड़ा हाथ रहा है. बहरहाल,

सलोनी हुलसकर हिन्दुस्तान ( पटना संस्करण) उठाकर लाती जिसमें कि पहले तो आधे से ज्यादा पटना के सिनेमाहॉल की चर्चा होती फिर नीचे दुबके हुए कॉलम में बिहार शरीफ के सिनेमाहॉल. सलोनी अपने जीजा को देखती कि वो सेब,बुंदिंया के फक्के मारने में लगे हैं, पूछती- जीजाजी,पढ़कर सुनाएं. जीजाजी बिना पीरियड शुरु हुए अपनी इस छोटी साली को बहन की तरह स्नेह करते. ये अलग बात है कि दीदी से एकांत में उसी तरह का घटिया मजाक करते जैसे कि अभी गली- मोहल्ले के लौंडे विद्या वालन की डर्टी पिक्चर देखने के बाद करते नजर आते हैं. लिहाजा वो पढ़ती- अंजता में खुदगर्ज, अनुराग में सुहाग, वंदना में करन-अर्जुन, नाज में आधी रात की मस्ती केवल व्यसकों के लिए. रहने दो,रहने दो. आधी रात की मस्ती सुनते ही पास बैठी कुछ दीदीयों के चेहरे सुर्ख लाल हो जाते. जीजाजी का कमीनापन चेहरे पर तैर जाता. बोलिए कौन सा देखिएगा ? चौतरफी जीजाजी को घेर रखी दीदीयां उन फिल्मों पर ज्यादा जोर देती जिसे मोहल्ले की चाचियां जाने से आमतौर पर मना कर देती. जैसे मेरी मां ही कहती- इ फिलिम नहीं देखेंगे रागिनी, सुने हैं बहुत चुम्मा-चाटी है इसमें. कोढिया असलमा सब होगा,जोर-जोर से सीटी मारेगा. मेरी मां की धारणा थी,सिनेमाहॉल में सीटी मारने और लफुआ हरकतें करनेवाले सब मुसलमान होते हैं क्योंकि हिन्दू लड़कें या तो शरीफ होते हैं या फिर गार्जियन का एतना कंट्रोल होता है कि ऐसा करते किसी ने जान लिया तो खाल उघार देंगे. जीजाजी के साथ ऐसी रिजेक्टेड फिल्में देखी जा सकती थी. क्या हुआ, चुम्मा-चाटी है तो साथ में तो जीजाजी हैं न. फिर दीदी भी तो जा रही है. मां-चाची के मना करने पर कोई मुंहफट दीदी तड़ाक से जवाब देती- रहने दो, नहीं जाते हैं. आएगा पढ़के विनीत तो शैलेन्द्रा के यहां से भीसीपी मंगाकर शिव महिमा देख लेंगे. घर के किसी मर्दाना जात ने टोका कि फैमिली के साथ देखनेवाला सिनेमा नहीं है तो पीछे से कोई सुना देती- तो हम कौन सा फिल्म देखने जा रहे हैं ? 

कुल मिलाकर जीजाजी के साथ वो फिल्में देखी जाती जिसमें थोड़ा-बहुत मसाला हो. ऐसे में मां-चाची जीजाजी के दो-चार घंटे की एक्टिविटी पर गौर करती. सबकुछ सही रहा तो हरी झंड़ी मिल जाती. जाने देते हैं, घर के मेहमान हैं, उन्नीस-बीस होगा तो साथ में हैं न और फिर जूली ( जो ब्याहकर आयी है) बउआ थोड़े हैं,समझती नहीं है कि मेहमान-पाहुन के साथ एतना-एतना जुआन-जवान बहिन के साथ जा रही है तो ध्यान रखे. बाकी तो हम जैसे चपरासी छोटे भाई होते ही जो थोड़ा भी इधर-उधर आने पर चट से मां को रिपोर्ट करते-  मां, इन्टरवल हुआ न तो जीजाजी सबको फंटा दे रहे थे औ लास्ट में सुषमा दीदी को दिए न त हाथ पकड़े ही रह गए. जीजाजी को बीच में बैठना होता,अमूमन एक तरह ब्याहकर आयी दीदी लेकिन दूसरी तरफ हम जैसों को जम बिठाया जाता तो जीजाजी का मूड उसी समय खराब हो जाता. आपकी बहिन को लेके भाग नहीं जाएंगे सालाजी, उठिए.बैठने दीजिए अल्का को यहां पर. हम अपना सा मुंह लेके हट जाते. अच्छा,हमें सभी दीदी की जासूसी करने के लिए तैनात नहीं किया जाता. हमें सिर्फ उस दीदी पर ज्यादा ध्यान देना होता जिसकी तुरंत शादी होनेवाली है, जिसकी कुंडली इधर-उधर कूद-फांद रही है. नहीं तो मोहल्ले की औरतों को दो मिनट भी गुलाफा ( अफवाहें ) उड़ाने में समय नहीं लगता- मेहमानजी के क्या है, मरद जात थोड़ा चंचल होता ही है लेकिन इ नटिनिया अल्कावा के नय सोचे के था कि सिनेमा जा रहे हैं त एतना सटके काहे बैठे, धतूरा पीस के खा ली थी क्या ? औ जूली के तो जब से बिआह हुआ है, जमीन पर गोड रहता ही नहीं है. पूरे सिनेमा देखने के दौरान हम मां-चाची के ब्यूरो होते जो अक्सर जीजाजी की नजरों में खटकते,कई बार दीदीयों के भी. मुझे तो जब अमिताभ मीडिया को जब-तब दुत्कारते हैं तो अपना बचपन याद आ जाता है.

सिनेमा देखकर लौटने के बाद दीदी लोगों पर नशा सा छा जाता. जो जीजाजी शहर के होते, लड़कियों के साथ पहले से फैमिलियर होते बेहिचक एक गोलगप्पा मुंह में डालकर खिलाते. कुछ दीदी मना कर देती लेकिन महसूस करती कि मन में खोट नहीं है तो खा लेती. इसी में किसी की सैंडल टूट जाती, जीजाजी रुककर मरम्मत करवा देते या नई खरीद देते. उसके बाद तो पूरे मोहल्ले में डंका. जाय दीजिए अर्चना के माय, शादी करने में हम भले ही बिक गए लेकिन दामाद मिला एकदम वृंदावन के बांके बिहारी. इस एक सिनेमा जाने में मोहल्ले भर के दामाद का चरित्र डिफाइन होता. तीन घंटे का एक सिनेमा और दो-ढ़ाई घंटे का फुचका-शीतल छाया की चाट से उनका आकलन होता.

अब तो बचपन का वो शहर बिहार शरीफ छूट गया. वहां गए दस साल से ज्यादा हो गए. दीदीयों का ब्याह अब भी होता है, जीजाजी पहलेवाली खेप से ज्यादा बिंदास होते होंगे, क्या पता पूरे मोहल्ले की बहनों को न ले जाकर सिर्फ अपनी साली को ले जाते होंगे, हम जैसा चपरासी भाई कहीं बैंग्लुरु, पुणे से एमबीए करने चला गया होगा..लेकिन बेहतर सिनेमा को क्या अब भी शहर के मेहमानजी ही जाकर पारिभाषित करते होंगे ? सौ साल के सिनेमा के इस साल पर मैं एक बार तो जरुर जाउंगा, शहर के उस बदले मंजर और सिनेमाहॉल देखने.

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