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हिंदी का मार्क्सवाद पर बात करते हुए युवा मार्क्सवादी आलोचक संजीव ने जब इसे जात्याभिमानी आलोचना नाम दिया तो राष्ट्रपति निवास (भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान) शिमला में मानो एक और ‘इतिहास’ दर्ज हो गया। संजीव ने मार्क्सवादी हिंदी आलोचना के बीच के अंतर्विरोधों को जिस विस्तार और तथ्यात्मक रूप से रखा उससे एकबारगी तो ताज्जुब जरूर हुआ कि स्वयं एक मार्क्सवादी इसके भीतर की गड़बड़ियों और मार्क्सवाद के नाम पर किये जानेवाले विचारात्मक और जातिवादी खेलों को कैसे हमारे सामने उघाड़ कर रख रहा है? इससे हिंदी साहित्य और समाज के बीच की जानेवाली साजिशों के नये सिरे से दर्शन होते हैं। दलित, जाति और वर्ण व्यवस्था को लेकर उठनेवाले सवालों को थोड़ा और विस्तार मिल जाता है।

पिछले दो दिनों से शिमला में हिंदी की आधुनिकता : एक पुनर्विचार (सितंबर 23 से 29) पर होनेवाली बहसों में ये बात बार-बार खुल कर सामने आ रही है कि आखिर दलित विमर्श हिंदी की मुख्यधारा का साहित्य क्यों नहीं बन पा रहा है? दलित के सवाल को एक गैरदलित उतनी तल्खी से क्यों नहीं उठाता? पत्रिकाओं को इस विमर्श के विस्तार के नाम पर अलग से विशेषांक क्यों निकाले जाते हैं? इसी दौरान शिमला में चल रही इस कार्यशाला में तुलसी, प्रेमचंद सहित हिंदी के उन तमाम नामचीन रचनाकारों और आलोचकों के नाम सामने आने लग जाते हैं, उनके प्रसंगों पर ज़ोरदार बहस होती है और उन्हें वर्ण-व्यवस्था का समर्थक और विरोधी मानने और न मानने के सबूत जुटाये जाते हैं। इन बहसों के बीच दिलचस्प बात है कि लगभग रोज विमल थोरात की ओर से नामवर सिंह के दलित विरोधी रवैयों को पुख्ता प्रमाण के तौर पर रखा जाता है। बहरहाल, नामवर सिंह बकौल विमल थोरात दलित साहित्य को इग्नू के पाठ्यक्रम में न आने देने के लिए एड़ी-चोटी एक कर देते हैं, इसे अपरिपक्व करार देते हैं, साहित्य के नाम पर ‘जूठन’ का नाम सुनते ही मैनेजर पांडेय जैसे आलोचक बौखलाहट में कुर्सी से गिर पड़ते हैं, निर्मला जैन जैसी तथाकथित प्रबुद्ध और वरिष्ठ आलोचक दलित विमर्श के साथ ही स्त्री विमर्श को बेमतलब करार देती हैं। थोरात ने इसी क्रम में अपना एक और संस्मरण सुनाते हुए कहा कि – ये वही मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह हैं, जिन्होंने एमफिल के दौरान निर्धारित बीस सीटों की फाइनल लिस्ट आ जाने के बावजूद दस लोगों को ही कोर्स में शामिल किया। 11 वां मेरा नंबर था और मैं लिस्ट से कत्ल कर दी गयी। आपको जानकर हैरानी होगी कि ये एकेडमिक कौंसिल का नहीं बल्कि जनपक्षधरता का समर्थन करनेवाले नामवर सिंह का फैसला था। तत्कालीन वीसी केआर नारायणन की ओर से छह महीने गुज़र जाने के बाद क्लास ज्वायन करने का लेटर जब हमें मिला, तो व्यक्तिगत स्तर पर शिक्षा से वंचित करने का नामवर सिंह का रवैया हमारे सामने साफ हो गया।

संजीव का पर्चा और विमल थोरात का संस्मरण सुनते हुए हमें यह सब केवल हिंदी साहित्य की दुनिया के कारनामे और साज़‍िशें नहीं लगतीं बल्कि साहित्य को परंपरा के विकास के आधार पर पढ़ने-पढ़ाने के अभ्यस्त होने की तरह ही हम इन कारनामों को भी एक लंबी परंपरा का ही विस्तार मानने की स्थिति में अपने को खड़ा पाते हैं।

संजीव ने अपने पर्चे में कई ऐसी स्थापनाएं रखीं, जिनके आलोक में इन नामवरों की एक भरी-पूरी परंपरा दिखाई देती है। उन्होंने तदभव में छपे बजरंग बिहारी के उस लेख की चर्चा की है, जिसमें तर्कपूर्ण ढंग से स्थापित किया गया है कि ब्राह्मणों की ओर से इस्लाम का विरोध इसलिए नहीं किया गया कि वो यहां आकर हमारी संस्कृति को भ्रष्ट कर रहे हैं बल्कि उन्होंने इसका विरोध बहुत ही निजी स्वार्थ को साधने के एंजेंडे के तहत किया। इस्लाम के आने के 200-300 सालों तक कहीं कोई विरोध नहीं हुआ लेकिन जैसे ही उनकी सुविधाओं में कटौती की जाने लगी, वे विरोध पर उतर आये। इतना ही नहीं, ब्राह्मणों ने दलितों के शिक्षित होने पर आपत्ति जतायी और बादशाह की ओर से आदेश जारी करवाया कि उनके लिए शिक्षा व्यव्स्था रोक दी जाए।

संजीव का कहना रहा कि इन सबके बावजूद मार्क्सवादी आलोचकों के लिए उस दौरान लिखा जानेवाला ‘भक्तिकाव्य महान है, तुलसी महान हैं’ और सिर्फ महान ही नहीं बल्कि हर नामचीन आलोचकों और कवियों के प्रिय कवि तुलसीदास हैं। यहां पर ठहर कर हम सोचें तो संजीव ने मार्क्सवादी हिंदी आलोचना की जो व्याख्या की, उसमें एक स्पष्ट नज़रिया सामने आता है कि हम अक्सर प्रदत्त संस्कारों के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश करते हैं इसलिए हम या तो तथ्यों को दबाते हैं या फिर उसे ज़बरदस्ती प्रगतिशील बताने की कोशिश करते हैं। तुलसीदास की व्याख्या करने के क्रम में रामविलास शर्मा सहित विश्वनाथ त्रिपाठी आदि की परंपरा वालों ने यही काम किया है। दूसरी ओर रांघेय राघव और शिवदान सिंह चौहान जैसे आलोचकों ने वास्तविक मार्क्सवादी आलोचना को विस्तार देने की कोशिश की तो उसे दबा दिया गया। उसका विस्तार आज हिंदी आलोचना में दिखाई नहीं देता। इतना ही नहीं, अपने दौर में रांघेय राघव को हाशिया पर धकेल दिया गया।

संजीव का मानना है कि हिंदी की पूरी मार्क्सवादी आलोचना, रामविलास शर्मा के अनुयायी के तौर पर आगे बढ़ी है। रामविलास शर्मा से आगे और अलग मार्क्सवादी आलोचना के विकास की संभावनाओं की तलाश नहीं की गयी। संजीव ने यहां तक कहा कि भले ही रामविलास शर्मा ने करीब 75 मौलिक किताबें लिख दी हों और जिसे सुन कर एक झटके में श्रद्धा पैदा होने की गुंजाइश बन जाती है लेकिन हिंदी जाति के नाम पर गौरव करने के जो औज़ार हिंदी समाज के पाठकों को उन्‍होंने थमाये, वो तार्किक नहीं हैं – इसे नवजागरण के संदर्भ में विशेष तौर पर देखा जा सकता है।

संजीव के पर्चे पर हस्तक्षेप करते हुए प्रमोद रंजन अरुण कमल की कविता दस जन की पंक्ति – फेंका है उन्होंने रोटी का टुकड़ा/और टूट पड़े गली के भूखे कुत्ते – की याद दिलाते हुए कहा कि सिर्फ रामविलास शर्मा आदि आलोचकों की ही नहीं बल्कि मौजूदा समय में रचनारत मार्क्सवादियों की प्रतिबद्धताओं की भी पड़ताल की जानी चाहिए। उन्होंने बताया कि अरुण कमल ने यह कविता यह कविता 1978 में उस समय लिखी जब उत्तर भारत में पहली बार समाज के कुछ पिछड़े सामाजिक समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी। ये गली के कुत्ते कौन हैं, आप समझ सकते हैं। इसी कविता में अरुण कमल की ही पंक्ति है – मारे गये दस जन/ मरेंगे और भी…/ बज रहा जोरों से ढोल/ बज रहा जोरों से ढोल/ ढोल… कौन हैं ये दस जन? मरेंगे और भी पर ध्यान देने पर पता चलता है कि वाग्जाल के भीतर यह दस जन नब्बे जनों के विरुद्ध एक रूपक है।

संजीव का पर्चा, विमल थोरात का मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह को लेकर सुनाये गये संदर्भ और संस्मरण और प्रमोद रंजन की ओर से अरुण कमल की याद दिलायी जानेवाली कविता सचमुच मार्क्सवादी हिंदी आलोचना और रचना के बीच पसरे अंतर्विरोंधों को पेश करती है।
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मशहूर कवयित्री औऱ लेखिका अनामिका का ये कथन कि इंटरनेट ने स्त्रियों के बीच के संदर्भकीलित चुप्पियां दूर करने का काम किया है। स्त्री-भाषा जो कि अपने मूल रुप में ही संवादधर्मी भाषा है,जो बोलती-बतियाती हुई विकसित हुई है,एक-दूसरे के घर आती-जाती हुई,बहनापे के तौर पर विकसित हुई है,इंटरनेट पर स्त्रियों द्वारा लेखन,स्त्री सवालों पर की जा रही रचनाएं उसकी इस भाषा-संभावना को और विस्तार देती है,स्त्री-मुक्ति और संवादधर्मिता के स्पेस के विस्तार में इंटरनेट की भूमिका को नये सिरे से परिभाषित करती है। हिन्दी के हिटलर,भाषिक बमबारियाःस्त्री का भाषा-घर विषय पर अपना पर्चा पढ़ते हुए अनामिका ने स्त्री-भाषा को पुरुषों की वर्चस्वकारी भाषा से अलगाने के क्रम में चोखेरबाली जैसे ब्लॉग, फेसबुक, एफ.एम.रेडियो ममा म्याउं 104.8 और इमेल को साहित्य के पार नयी भाषिक कनातों के तन जाने के रुप में विश्लेषित किया। अनामिका का मानना है कि किसी भी मनोवैज्ञानिक युद्ध में भाषा हथियार का काम करती है। जिसको भी हाशिये पर धकेल दिया जाता है,पता नहीं किस क्षतिपूर्ति सिद्धांत के तहत उसकी भाषा ओजपूर्ण हो जाती है,जिसका मुकाबला शास्त्रीय भाषा नहीं कर सकती। स्त्री-भाषा अपना विकास इसी रुप में कर पाती है। लेकिन स्त्री-भाषा, पुरुषों की भाषा की तरह हिंसक भाषा बनने के बजाय प्रतिपक्ष के बीच नैतिक विश्वास की तलाश करती है। इसलिए वो हमेशा झकझोरने वाली भाषा के तौर पर काम करती है,हमले करने और धराशायी करने के रुप में नहीं। हिन्दी में स्त्री-भाषा के इस रुप की तलाश के क्रम में अनामिका उन चार संदर्भों को रेखांकित करती है जहां से कि लेखन के स्तर पर स्त्री-भाषा के रुप विकसित होते हैं-

1.विद्याविनोदी परीक्षा की शुरुआत।यहां से चिठ्ठी-पतरी के लिखने के क्रम में स्त्रियों की भाषा बनती-बदलती है। 2.महादेवी वर्मा के चांद का संपादकीय 3.बिहार में जेपी आंदोलन के दौरान जेएनयू,डीयू,पटना यूनिवर्सिटी जैसे अभ्यारण्यों में स्त्रियों के आने के बाद भाषा का एक नया रुप दिखायी देता है। इसी समय यहां पढ़नेवाली लड़कियां मजाक में ही सही,पुरुषों के प्रेम-पत्र पर अश्लील शब्दों पर गोले लगाती हैं और नॉट क्वालिफॉयड का लेबल लगाती है। दरअसल एक तरह से वो पुरुष-भाषा के औचित्य-अनौचित्य पर सवालिया निशान पैदा करने का काम शुरु कर देती है। इस तरह के शिक्षण संस्थानों और उसके आस-पास के लॉज और हॉस्टलों में रहकर एक स्त्री जो भाषा पाती है,प्रयोग करती है और उसका विस्तार करती है उसकी अभिव्यक्ति हमें पचपन खंभें लाल दीवारें और मित्रो मरजानी जैसी हिन्दी रचनाओं की याद दिलाते हैं। अनामिका का मानना है कि इन सबके वाबजूद यहां तक आते-आते स्त्री भाषायी स्तर पर अकेली पड़ जाती है इसलिए स्त्री-भाषा के चौथे संदर्भ या पड़ाव के तौर पर इंटरनेट और ब्लॉग पर बननेवाली स्त्री-भाषा का जिक्र करती है। अनामिका पूरे पर्चे में गांव से लेकर हॉस्टल/लॉज के दबड़ेनुमा कमरे में बनने और बरती जानेवाली उस भाषा को प्रमुखता से पकड़ती हैं जो कि संवादधर्मिता की प्रवृत्ति को मजबूत करते हैं। इसलिए शब्दों,शैलियों और कहने के अंदाज के स्तर पर एक-दूसरे से अलग होने के वाबजूद वो एक-दूसरे के विकासक्रम का ही हिस्सा मानती है। इसी क्रम में भूमंडलीकरण के बाद के बलात् विस्थापन में फुटपाथओं पर चूल्हा-चौका जोड़नेवाली मजदूरनी आपस में जिस भाषा में बतियाती है या बच्चों को,जिस खिचड़ी भाषा में नयी उठान की लोककथाएं सुनाती है या लोकगीत,उसकी भी छव बिल्कुल निराली है।

इस प्रस्तुति के दौरान अनामिका की दो प्रमुख स्थापनाएं रहीं जिसे कि स्त्री-भाषा के दो प्रमुख अवदान के तौर पर विश्लेषित करती हैं- 1. जिस तरह अच्छी कविता इंद्रियों का पदानुक्रम नहीं मानती-दिल-दिमाग और देह को एक ही धरातल पर अवस्थित करती हुई तीनों को एक-दूसरे के घर आना-जाना कायम रखती है,स्त्री-भाषा पर्सनल-पॉलिटिकल,कॉस्मिक-कॉमनप्लेस,सेक्रेड-प्रोफेन,रैशनल-सुप्रारैशनल के बीच के पदानुक्रम तोड़ती हुई उद्देश्य स्थान-विधेय स्थान के बीच म्यूजिकल चेयर सा खेल आयोजित करती है जिससे कि बहिरौ सुनै मूक पुनि बोलै/अन्धरो को सबकुछ दरसाई का सही प्रजातांत्रिक महोत्सव घटित होता है।
2. स्त्री-भाषा ने आधुनिकता का कठमुल्लापन झाड़कर उसके तीन प्रेमियों का दायरा बड़ा कर दिया है-शुष्क तार्किकता का स्थानापन्न वहां सरस परा-तार्किता है,परातार्किकता जो बुद्धि को भाव से समृद्ध करती है। प्रस्तरकीलित धर्मनिरपेक्षता का स्थानापन्न वहां है इगैलिटेरियन किस्म का अध्यात्म,अध्यात्म,अध्यात्म जो कि मानव-मूल्यों को स्पेक्ट्रम ही है-और क्या? आधुनिकता के तीसरे प्रमेय,सतर्क वैयक्तियन का स्थानापन्न स्त्री-भाषा में है। सर्वसमावेशी हंसमुख दोस्त-दृष्टि जो यह अच्छी तरह समझती है कि मनुष्य की बनावट ही ऐसी है कि वह लगातार न सर्वजनीनता को समर्पित रह सकता है,न निरभ्र एकांत को। उसे पढ़ने-लिखने,सोचने-सोने और प्यार करने का एकांत चाहिए तो चिंतन और प्रेम के सारे निष्कर्ष साझा करने का सार्वजनिक स्पेस भी? एक सांस भीतर गयी नहीं कि उल्टे पांव वापस लौट आती है। लेकिन बाहर भी उससे बहुत देर ठहरा नहीं जाता,सारे अनुभव,बिम्ब,अनुभूतियां और संवाद समेटकर फिर से चली जाती है भीतर-गुनने,समझने,मनन करने। स्त्री-भाषा ये समझती है- इसलिए उसके यहां कोई मनाही नहीं। सब तरह के उच्छल भावों की खातिर उसके दरवाजे खुले हुए हैं। वह किसी से कुछ भी बतिया सकती है-संवादधर्मी है स्त्री-भाषा। पुरुषों की मुच्छड़ भाषाधर्मिता उसमें नहीं के बराबर है।
अनामिका के पर्चे के उपर कई तरह के सवाल उठाए गए। स्त्री-विमर्श से जुड़े संदर्भ को लेकर,पीछे लौटकर महादेवी वर्मा में इस विमर्श के संदर्भ खोजने को लेकर,जेपी आंदोलन और स्त्रियों के घर से बाहर आकर भाषा बरतने को लेकर लेकिन इन सबसे अलग जो सबसे अहम सवाल उठे वो ये कि क्या स्त्री-विमर्श की यही भाषा होगी जो अनामिका प्रयोग कर रही है? अभय कुमार दुबे स्त्री विमर्श की बिल्कुल नयी भाषा रचने के लिए अनामिका को बधाई देते हैं।


स्त्री-भाषा और विमर्श को लेकर अनामिका ने जो स्थापनाएं दी सोशल फेमिनिस्ट और कवयित्री सविता सिंह उससे सहमत नहीं है। उन्हें स्त्री विमर्श के लिए बार-बार इतिहास औऱ परंपरा की ओर लौटना अनिवार्य नहीं लगता,वो इस नास्टॉल्जिक और रोमैंटिक हो जाने से ज्यादा कुछ नहीं मानती। घरेलू आधुनिकता का प्रश्न पर अपना पर्चा पढ़ते हुए सविता सिंह ने इसे पॉलिटिकल इकॉनमी के तहत विश्लेषित करने की घोषणा की और इसलिए पर्चे के शुरुआत में इसकी सैद्धांतिकी की विस्तार से चर्चा करते हुए घरेलू आधुनिकता के सवाल और अपने यहां इसके मौजूदा संदर्भों का विश्लेषण किया।
सविता सिंह की मान्यता है कि ये सच है कि मार्क्स के यहां स्त्री के सवाल बहुत ही विकसित रुप में हैं लेकिन उनके यहां वर्ग इतना प्रमुख रहा है कि वो इसके विस्तार में नहीं जाते। सोशल फेमिनिस्ट की जिम्मेदारी यहीं पर आकर बढ़ती है। सविता सिंह इससे पहले भी दिल्ली में आयोजित एक संगोष्ठी में कात्यायनी की स्त्री-विमर्श की समझ पर असहमति जताते हुए घोषणा कर चुकी है कि स्त्री-विमर्श को समझने के लिए मार्क्सवाद के टूल्स पर्याप्त नहीं हैं। सविता सिंह बताती है कि मार्क्स के यहां घरेलू श्रम को बारीकी से समझने की कोशिश नहीं की गयी जबकि घरेलू श्रम,श्रम से बिल्कुल अलग चीज है। घरेलू श्रम को कभी भी प्रोडक्टिव लेवर के तौर पर विश्लेषित ही नहीं किया गया जबकि यह श्रम का वह स्वरुप है जो कि बाजार और फ्रैक्ट्री में उत्पादन करने के लिए मनुष्य को तैयार करती है। एक स्त्री दिनभर घर में काम करके,एक पुरुष को इस लायक बनाती है कि वो बाहर जाकर काम कर सके। लेकिन इस श्रम शक्ति का कोई मूल्य नहीं है, इसके साथ स्लेव लेबर का रवैया अपनाया जाता है। इस श्रम को बारीकी से समझने की जरुरत है. फ्रैक्टी जो कि लेबर पॉवर खरीदता है वो कैसे बनते हैं,इस पर विस्तार से चर्चा करनी जरुरी है।
सविता सिंह जब घरेलू श्रम की बात करती है तो उसे बाजार में बेचे जानेवाले श्रम से बिल्कुल अलग करती है। ये सचमुच ही बहुत पेंचीदा मामला है कि घरेलू स्तर पर स्त्री जो श्रम करती है उसके मूल्य का निर्धारण किस तरह से हो? एक तरीका तो ये बनता है कि वो जितने घंटे काम करती है उसे मॉनिटरी वैल्यू में बदलकर देखा जाए। लेकिन क्या सिर्फ ऐसा किए जाने से काम बन जाएगा। इस तरह का मूल्य निर्धारण किसी भी रुप में न्यायसंगत नहीं है। सविता सिंह का मानना है कि उपरी तौर पर पूंजीवादी समाज में यह भले ही लगने लगे कि घरेलू श्रम का बाजार के स्तर पर निर्धारण शुरु हो गया है लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह पहले के मुकाबले औऱ अधिक नृशंस होता चला जा रहा है। मशीन आने पर भी घरेलू स्तर पर स्त्री-श्रम कम नहीं होता। बहुत ही मोटे उदाहरण के तौर पर हम देखें तो हमें चार दिन के बदले दो दिन में धुले बेडशीट चाहिए,पहले से कहीं ज्यादा साफ। पढ़ी-लिखी स्त्री इसलिए भर चाहिए कि वो बच्चों को पाल सके,सास की दवाईयों के अंग्रेजी में नाम पढ़ सके। इससे ज्यादा एक स्वतंत्र छवि बनने की गुंजाईश बहुत एधिक दिखायी नहीं देती।

परिवार में इस घरेलू श्रम के उपर,प्यार,सौहार्द्र और लगाव जैसे शब्दों को डालकर उसके भीतर की विसंगतियों को लगातार ढंकने का काम किया गया। एक बेटी को प्रेम तब बिल्कुल भी नहीं मिलेगा जबकि वो घर का काम करने से इन्कार कर देती है। इसकी पूरी संभवना बनती है कि उसे प्रताड़ित किए जाएं। घरेलू हिंसा का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है। इस बात पर शीबा असलम फहमी ने अफगानिस्तान के उस उदाहरण को शामिल किया जहां अपने पति से साथ सेक्स नहीं करने पर स्त्री को रोटी नहीं दिए जाने की बात कही गयी।
सविता सिंह के हिसाब से पूंजीवाद कभी भी इस हॉउसहोल्ड को खत्म नहीं करना चाहता। वो कभी नहीं चाहता कि इस घरेलूपन की संरचना टूटे। क्योंकि ऐसा होने से उसे भारी नुकसान होगा। फर्ज कीजिए कि विवाह संतान उत्पत्ति के बजाय प्लेजर,शेयरिंग और साइकोसैटिस्फैक्शन का मामला बनता है तो इससे पूंजीवादी समाज में उत्पादन औऱ उपभोग पर बहुत ही बुरा असर पड़ेगा। इसलिए पूंजीवाद स्त्री श्रम और घरेलूपन को नए रुप में लगातार बदलने का काम करता है। वो स्त्रियों को घर पर ही काम मुहैया कराता है जिससे कि वो घरेलू जिम्मेवारियों को भी बेहतर ढंग से निभा सके। फैक्ट्री श्रम-शक्ति खरीदता है,पूंजीवाद श्रम-समय खरीदता है लेकिन अब एक तीसरा रुप उभरकर सामने आ रहा है जो कि अनुशासित तरीके से समय भी नहीं खरीदता है बल्कि सीधे-सीधे आउटपुट पर बात करता है जो कि उपरी तौर पर सुविधाजनक दिखाई देते हुए भी ज्यादा खतरनाक स्थिति पैदा करता है। इसलिए स्त्री-मुक्ति के सवाल में यह सबसे ज्यादा जरुरी है कि हाउसहोल्ड का डिस्ट्रक्शन हो,उसका छिन्न-भिन्न होना जरुरी है।
सविता सिंह के इस पर्चे पर आदित्य निगम की टिप्पणी रही कि उन्हें लग रहा है कि वो आज से तीस साल पहले के सेमिनार में बैठे हों क्योंकि सविता सिंह की पूरी बातचीत उसी दौर के स्त्री-विमर्श की बहसों के इर्द-गिर्द जाकर घूमती है,उसके बाद क्या हुआ इसे विस्तार से नहीं बताया। अभय कुमार दुबे का मानना रहा कि आधुनिक परिवार कहे जानेवाले परिवार में किस तरह की समस्याएं हैं,इस पर बात करनी चाहिए। उन परिवारों की चर्चा की जानी चाहिए जहां का पुरुष घोषित तौर पर स्त्री को खुली छूट देता है लेकिन वहां भी पाबंदी की महीन रेखाएं दिख जाती है,वो रेखाएं कौन सी है,इस पर बात होनी चाहिए।
इन सबों के सवाल में सविता सिंह बार-बार दोहराती है कि ग्लोबल कैपिटलिज्म में स्त्री के श्रम का प्रॉपर कॉमोडिफेकेशन नहीं हुआ है। मार्केट तो चाहता है कि सबकुछ का कॉमोडिफिकेशन हो,संबंधों का हो।इस कॉमोडिफिकेशन के बाद स्त्री-विमर्श के संदर्भ किस तरह से बनेंगे इसे भी बारीकी से समझने की जरुरत है।

नोटः- अनामिका और सविता सिंह के पर्चे के बाद आदित्य निगम ने राजनीतिक अभिव्यक्ति की भाषा और पंकज पुष्कर ने हिन्दी और ज्ञान की रचना पर अपने पर्चे पेश किए। हम इन दोनों पर्चों का सार यहां नहीं दे रहे हैं। इसे हम अलग से हिन्दी और भाषा के सवाल पर पेश किए जानेवाले दूसरे और लोगों के पर्चे की चर्चा करने के क्रम में पेश करेंगे।
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23 सितंबर से शिमला की गुलाबी ठंड के बीच बुद्धिजीवी समाज के बीच गर्माहट पैदा करने का दौर शुरु हो गया है। हिन्दी की आधुनिकताःएक पुनर्विचार पर विमर्श करने के लिए देशभर के बुद्धिजीवियों का जुटान यहां के शिमला उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला(Indian Institute of Advance Studies,Shimla) में हुआ है। सात दिनों तक चलनेवाले इस विमर्श में ये लोग अपनी-अपनी विशेषज्ञता और लेखन अभिरुचि के अनुसार हिन्दी,आधुनिकता,भाषा,अस्मिता और इनसे जुड़े सवालों पर अपनी बात रखेंगे। दिलचस्प है कि यहां वक्ताओं को अपनी बात रखने के लिए जहां 40 मिनट का समय दिया गया है,करीब उतना ही समय और उससे कहीं ज्यादा उनकी बातों से उठनेवाले सवालों और असहमतियों पर बहस करने के लिए श्रोताओं को भी समय दिया जा रहा है इसलिए सुननेवालों के बीच उम्मीद है कि वो दिल्ली की तरह पैसिव ऑडिएंस नहीं होंगे और उनकी भी सक्रियता लगातार बनी रहेगी। अभय कुमार दुबे के शब्दों में-राष्ट्रपति निवास के इस सेमिनार हॉल की छत इतनी उंची है कि किसी भी विचारधारा को,किसी भी मत से टकराने में कोई असुविधा नहीं होगी,ये विचारों का कारखाना है और हम सब यहां मिस्त्री हैं इसलिए जो चाहें,जैसे चाहें,स्वाभाविक तरीके से अपनी बात यहां रख सकते हैं। हम इस उम्मीद से यहां जमे हुए हैं कि दिल्ली की किचिर-पिचिर पेंचों और चुटुर-पुटुर बहसों से थोड़े दिनों के लिए बचते हुए बौद्धिक स्तर की उंचाइयों को देख-समझ सकें और अपनी काबिलियत के अनुसार कुछ साझा कर सकें।

हिन्दी की आधुनिताःएक पुनर्विचार पर सितंबर 23 से लेकर 29 तक चलनेवाले इस सात दिवसीय वर्कशॉप की शुरुआत भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,शिमला के नेशनल फैलो प्रोफेसर सी.एम.नईम के स्वागत भाषण के दौरान दिए गए इस वक्तव्य से हुई कि- ये हमारे लिए सीखने का बहुत ही महत्वपूर्ण क्षण है नहीं तो उर्दूवाले अपनी बात और बाकी लोग अपनी-अपनी बात तो कहते ही रहते हैं। उन्होंने इस पूरे सेमिनार को अधिक से अधिक संवादपरक बनाने की बात कही। विषय की प्रस्तावना को स्पष्ट करते हुए अभय कुमार दुबे ने कहा कि- ये सवाल सबके मन में उठ सकता है कि हिन्दी और आधुनिकता पर बात करने के बजाय हिन्दी की आधुनिकता पर बात क्यों? ऐसा नहीं है कि मैं कोई नई बात नहीं कह रहा हूं। दरअसल हिन्दी पर बात करते हुए हमें भाषा की भूमिका पर बात करना अनिवार्य है क्योंकि भाषा अब सिर्फ यथार्थ का निरुपण नहीं है बल्कि भाषा लगातार यथार्थ को गढ़ने का भी काम करती है। इसलिए इस बहस की शुरुआत का श्रेय सास्यूर को तो जरुर जाता है लेकिन उन्होंने पैरोल यानी बोली जानेवाली भाषा पर कम ही ध्यान देते हैं,उनका जोर लिखित भाषा की ओर ज्यादा रहा है। इसलिए जब हम हिन्दी की आधुनिकता की बात करते हैं तब ये लिखित भाषा से कहीं आगे जाकर माध्यमों और संप्रेषण की दूसरी भाषाओं को भी इसमें शामिल करने की गुंजाईश बनती है। दुबे ने इस क्रम में हिन्दी को लेकर कुछ स्थापनाओं को सामने रखा जिसे कि बाद में बीज वक्तव्य के दौरान प्रसिद्ध इतिहासकार औऱ स्तंभकार सुधीर चंद्र ने खारिज कर दिया। दुबे की मान्यता रही है कि हिन्दी का जन्म भारतीय आधुनिकता के गर्भ से हुआ है। इसके साथ ही हम यहां हिन्दी का मतलब उत्तर-औपनिवेशिक यथार्थ के ईर्द-गिर्द बनने वाली भाषा की चर्चा करेंगे। देशभर में चलनेवाले तमाम तरह के विमर्श जहां 19वीं शताब्दी में जाक फेंस जाते हैं,वहीं उत्तर-औपनिवेशिक परिवेश में हिन्दी का एक लोकतंत्र तेजी से बन रहा है।

अभय कुमार दुबे की बात से अपनी असहमति जताते हुए सुधीर चन्द्र ने आधुनिकता का द्वंद्व और हिन्दी पर अपना बीज वक्तव्य प्रस्तुत किया। उन्होंने अपनी बात की शुरुआत ही इस बिन्दु से की कि भाषा के मामले में मैं 19 वीं सदी पर खास तौर पर जोर देना चाहता हूं। उन्होंने हिन्दी और आधुनिकता इन दोनों शब्दों को पूरे वर्कशॉप का केन्द्रीय शब्द बताते हुए कहा कि जब भी हम हिन्दी शब्द का प्रयोग करते हैं,कोई नाम देते हैं तो इसका मतलब है कि हमारे जेहन में इसको लेकर के कोई तस्वीर बनती है,यही मामला आधुनिकता के साथ भी है। लेकिन इसकी शुरुआत को हम किसी एक तारीख से बांधकर बात नहीं कर सकते,हिन्दी का विकास एक प्रक्रिया के तहत हुआ है और हमें इसे इसी रुप में समझना चाहिए। ये अलग बात है कि ब्रज की हिन्दी,अवधी से अलग होगी उसी तरह एक दौर की हिन्दी दूसरे दौर की हिन्दी से अलग होगी। लेकिन ये परस्पर अन्तर्विरोध तो एक व्यक्ति के भीतर भी होता है तो क्या हम उसका भी विभाजन इसी रुप में कर देते हैं। इसलिए उत्तर-औपनिवेशिक हिन्दी के नाम से विश्लेषण करने से बेहतर है कि हम इस पूरी प्रक्रिया को समझें,बल्कि 19 वीं सदी को खास-तौर पर शामिल करें। अगर हम ऐसा नहीं करते हैं तो हम हिन्दी और आधुनिकता दोनों के बीच मौजूद संश्लिष्टता को खत्म कर देने की ओर बढ़ते हैं औऱ वैसे भी उत्तर-औपनिवेशिक में उत्तर कमजोर शब्द है,आधार तो औपनिवेशिक ही है।



सुधीर चंद्र के बीज वक्तव्य के बाद सेमिनार सत्र की शुरुआत होती है और दिनभर अलग-अलग संदर्भों में हिन्दी की आधुनिकता और दलित विमर्श के संदर्भ में बातचीत का दौर चलता है। सत्र के पहले वक्ता के तौर पर दलित साहित्य के प्रसिद्ध रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित लेखन की आधुनिकता और सांस्कृतिक विरासत पर अपनी बात रखते हैं। वाल्मीकि ने पूरे हिन्दी साहित्य में उन तमाम संदर्भों की विस्तार से चर्चा की जहां दलितों को हाशिए पर,उनका अपमान करते हुए साहित्य लिखने का काम किया गया। उन्होंने कहा कि- पिछले सत्तर वर्षों से हिन्दी के विद्वान आलोचक,शिक्षक इस कहानी को कलात्मक श्रेष्ठ,कालजयी कहानी कहते रहे हैं। लेकिन किसी ने कभी ये नहीं सोचा कि जब एक दलित इस कहानी को पढ़ता है तो उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? कहानी में चित्रित पात्र या स्थितियां किस प्रकार के यशार्थ को प्रस्तुत कर रही है। कहानी में पिरोय गए शब्द कुनबा,चमार,प्रसव पीड़ा का दृश्य कितना यथार्थवादी है और कितना कल्पना आधारित,शायद विद्वानों ने इन तथ्यों पर सोचने-समझने की जरुरत ही नहीं समझी। उन्होंने अकादमिक जगत के हिन्दी साहित्य और हिन्दी के विद्वानों पर आरोप लगाते हुए कहा कि जो बदलाव के साहित्य है उसे अकादमिक जगत में,कोर्स में शामिल नहीं किया जाता औऱ इधर इन विद्वानों की सोच में दलित के लिए किंचित मात्र भी संवेदना का कोई अंश नहीं रहा है।..जिस मुख्यधारा का हिस्सा ये विद्वान और साहित्यिक लोग हैं,कम से कम उस मुख्यधारा से स्वयं को जोड़ने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। हिन्दी के आलोचक,लेखक,बुद्धिजीवी,दलित साहित्य की आंतरिकता को समझने से पहले ही उस पर तलवार लेकर पिल पड़ते हैं। उसे अधकचरा,कमजोर शिल्पहीन जैसे आरोपों से सुसज्जित कर अपनी साहित्यिक श्रेष्ठता का दम्भ भरने लगते हैं। दलित लेखकों की बात को ठीक से सुने बगैर या बिना पढ़े वक्तव्य देने का रिवाज हिन्दी में स्थापित हो चुका है,इसकी चपेट में महान नाम भी आ चुके हैं जिन्हें हिन्दी जगत सिर आंखों पर बिठाये हुए है।
वाल्मीकि ने देश के भीतर कि उस बड़ी सच्चाई को हमारे सामने रखा कि दलित समाज एक वस्तु(comodity) के रुप में एक इस्तेमाल की चीज बनकर रह गया है। जब गिनती बढ़ाने के लिए सिर गिनने की जरुरत है तब दलित हिन्दू है। अन्यथा स्कूलों में सरकारी अनुदान से चलनेवाले मिड डे मील बनाने के लिए कोई दलित महिला नहीं रखी जाएग,बच्चे उसके हाथों का बना खाना नहीं खाएंगे। आधुनिकता और आजादी के दावों के बीच इस तरह की निर्मम स्थितियों की चर्चा करते हुए वाल्मीकि का लोगों ने जोरदार समर्थन किया लेकिन दलित साहित्य में स्त्रियों की मौजूदगी के सवाल में उनका ये बयान अचानक से अन्तर्विरोध पैदा कर गया। वाल्मीकि ने इस सवाल पर कहा कि दलितों में कोई लिंग नहीं होता,इस जबाब को विमल थोरात ने हायली पॉलिटिकल स्टेटमेंट बताया जबकि सभा में मौजूद लोगों भेद के नहीं किए जाने को भी भेद का ही एक कारण बताया।

दोपहर के भोजन के बाद दूसरे सत्र की शुरुआत युवा रचनाकार और दलित-विमर्श के जानकार अजय नावरिया के दलित लेखन की हाशियागत आधुनिकता और सांस्कृतिक राजनीति पर दिए गए विचार से होती है। अजय नावरिया ने आते ही स्पष्ट किया कि जिसे हम हाशियागत दलित लेखन कह रहे हैं,दरअसल वो हाशियाकृत है। वो हाशिए पर नहीं है बल्कि उसे ऐसा कर दिया गया है। इसलिए इसे मैं अपने वक्तव्य में हाशियाकृत कहना ही ज्यादा उचित समझता हूं। दलित साहित्य कहीं से भी हाशियागत नहीं है बल्कि ये कहीं ज्यादा लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्ष में है,कहीं ज्यादा आधुनिकता का पक्षधर है और पितृसत्ता के विरोध में है। दलित राजनीति और उसके चिंतन के सवाल पर नावरिया ने कहा कि दलित राजनीति से कहीं ज्यादा उम्र दलित चिंतन की है। संभव है कि स्वार्थवश लोग दलित राजनीति को उसके चिंतन से जोड़कर देख रहे हों लेकिन ऐसा करना उचित नहीं होगा। अजय नावरिया के फुटनोट सहित उस वक्तव्य पर अच्छी-खासी गर्माहट पैदा हुई जब उन्होंने राजा राम मोहन राय की सती प्रथा पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि राय ने स्त्रियों के पक्ष में जिस सती प्रथा का विरोध किया वही दलितों के मामले में बिल्कुल चुप रहे। इसका सीधा मतलब है कि वो उनके इस कदम को कोई व्यापक बदलाव का हिस्सा नहीं माना जा सकता। नावरिया की इस बात का समर्थन करते हुए कवयित्री और स्त्रीवादी लेखिका सविता सिंह ने इसे सीमित दायरे में उठाया गया कदम माना। नावरिया ने अपनी पूरी प्रस्तुति में बार-बार हमें बताने की कोशिश की कि अगर वो किसी भी धर्म के बारे में बात कर रहे हैं तो इससे कतई ये अंदाजा न लगाया जाए कि मैं धर्म का समर्थन कर रहा हूं बल्कि वो धर्म के बीच मौजूद वैज्ञानिकता की पहचान कर रहे हैं और उसके पक्ष की बात कर रहे हैं।


दलित नारीवादी के आयाम पर बात करते हुए दलित विमर्श की चर्चित लेखिका विमल थोरात ने सामान्य स्त्रियों की समस्याएं और दलित स्त्री की समस्याओं को अलगाते हुए कहा कि दलित स्त्री की समस्याओं को सामान्य स्त्री की समस्याओं के साथ घालमेल करके नहीं देखा जा सकता। सच्चाई तो ये है कि दलित स्त्री की समस्याओं की प्रकृति बिल्कुल अलग है। काम पाने के दौरान शोषण से लेकर परिवार के स्तर पर जिस तरह से उसके साथ भेदभाव होते हैं,दलित लड़की जब स्कूल पढ़ने जाती है तो उससे जबरदस्ती ट्वॉयलेट साफ कराए जाते हैं,इसे आप सामान्य स्त्रियों की समस्याओं के साथ जोड़कर नहीं देख सकते हैं। जिस तरह से दलित स्त्रियों का अपमान किया जाता है उसे अगर आप स्त्री-विमर्श के अन्तर्गत देखने-समझने की कोशिश करें तो आपको हैरानी होगी कि उनके स्वर तो कई स्तरों पर तो मौजूद नहीं है। यही कारण है कि आज दलित स्त्री अपने अधिकारों के लिए स्त्री-विमर्श से अपने को अलग करती है। दलित स्त्री को हम सामान्य स्त्री के कम्पार्टमेंट में नहीं डाल सकते। थोरात दलित स्त्री के शिक्षा दरों,उत्पादन के साधनों और भागीदारी के सवाल पर विस्तार से चर्चा करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि उनके बीच आज से 50 साल पहले की जद्दोजहद अब भी बरकरार है।
नोटः- पूरे सत्र के दौरान कई संदर्भों में,अलग-अलग लोगों की ओर से सवाल किए गए जिसका कि वक्ताओं ने विस्तार से जबाब भी दिया। मेरी इच्छा है कि हम इसका ऑडियो वर्जन हूबहू आपके सामने रखें लेकिन फिलहाल यहां इंटरनेट की गति इतनी धीमी है कि हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। सात दिनों तक चलनेवाले सेमिनार की विस्तृत रिपोर्ट हम आपको देते रहेंगे। आप अपनी प्रतिक्रियाएं हमें भेजते रहें। रिपोर्ट की लंबाई को बर्दाश्त करेंगे औऱ इसके अतिरिक्त कोई सुझाव हो तो देते रहें। फिलहाल गहमागहमी विमर्श का दौर शुरु होनेवाला है। देखिए न,लिखने के चक्कर में अभी तक ब्रश तक नहीं किया।
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हिंदी पर सोचने के लिए हिंदी के बरक्स से शुरुआत नहीं होनी चाहिए। हिंदी पर जितनी बहसें हैं उसमें किससे आक्रांत है, शुरू वहां से होनी चाहिए। माने एक भाषा को खतरा है – इस मनोवृत्ति से सोचना शुरू करते हैं तो एक किस्म का पेरोनोइ, पेरोनोइड किस्म का अनुभव रहता है और हम सहज मनोवृत्ति से, सहज मन से समझ ही नहीं पाते कि हम क्या हैं? हिंदी भाषा और हिंदी जनक्षेत्र – इन दोनों को मैं साथ-साथ लेकर चलता हूं, ऑब्लिक करके चलता हूं। मेरे लिए ये दोनों अलग-अलग नहीं है। मैंने पहले ही ये कहने की कोशिश की है कि हिंदी का कोई बरक्स नहीं है, किसी भी भाषा का कोई बरक्स नहीं है। अगर है भी तो पड़ोस। भाषा का पड़ोस होता है, बरक्स नहीं। बरक्स एक कल्चरल डिस्कोर्स है जो आ जाती है। यानी मैं इक्सक्लूसिविटी चाहता हूं, अतिविशिष्टता चाहता हूं, ऐसी भाषा चाहता हूं, उसे रक्त से ऐसी शुद्ध, रक्त से ऐसी शुद्ध कर देना चाहता हूं, उसमें कोई और रक्त न मिले तो निश्चित रूप से ये अलग ही ढंग का डिस्कोर्स है जो भाषा का तो नहीं है। कबीर का जो कथन है, उस हिसाब से भाषा बहता नीर है। नीर बहेगा तो उसमें पता नहीं क्या-क्या मिलेगा। हाल ही में प्रसून जोशी के वक्तव्य को शामिल किया – जो भाषा अड़ गयी, वो सड़ गयी। इसलिए न तो अंग्रेजी हिंदी के बरक्स है और न ही उर्दू हिंदी के बरक्स है। ये हिंदी के विलोम नहीं हैं। पॉपुलर लेक्चर सीरीज, डीयू के तहत वर्तमान हिंदी की समस्याएं (संदर्भ : मास मीडिया और पॉपुलर कल्चर) पर अपने विचार जाहिर करते हुए मीडिया विशेषज्ञ और हिंदी विभाग (डीयू) के अध्यक्ष प्रोफेसर सुधीश पचौरी ने बातचीत की शुरुआत इसी बिंदु से की।

प्रोफेसर पचौरी भाषा के नाम पर शुद्धतावादी आग्रह और भाषा को महज संस्कृति के दायरे में रख कर देखने के पक्ष में नज़र नहीं आये। यही वजह है कि उन्होंने हिंदी में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग को चिंता के बजाय सुविधा और विस्तार का मामला बताया। भारतीय जनगणना सर्वे की ओर से भाषा सर्वेक्षण की रिपोर्ट को शामिल करते हुए उन्होंने साफ किया कि हिंदी का विस्तार पहले के मुकाबले कई गुना ज्यादा है इसलिए हिंदी को लेकर चिंतित होने की कहीं कोई जरूरत नहीं है।

हिंदी समाज में हिंदी की दशा पर जब भी चर्चा होती है, तो उसे साहित्य की सीखचों के बीच रख कर विश्लेषित करने का काम किया जाता है। प्रोफेसर पचौरी ने इसे कन्ज्यूमरिज्म और कारपोरेट जगत के बीच के भाषाई प्रयोग की नीतियों पर बात करते हुए बताया कि अब हिंदी का मसला सिर्फ इस बात से जुड़ा नहीं है कि उसमें कितनी साहित्यिक रचनाएं हो रही हैं बल्कि इससे भी है कि हिंदी के ऊपर कारपोरेट मोटी रकम लगाकर विज्ञापन कर रहा है। आज से करीब 15 साल पहले आये गंगा साबुन का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि गोदरेज की ओर से लांच किया गया ये साबुन सप्ताह भर के भीतर बाजार में बुरी तरह पिट गया। ये गोदरेज कंपनी की रिपोर्ट है। गंगा का मतलब शुद्धता से है। गंगा साबुन मैल धोने का काम करती है लेकिन अगर गंगा साबुन मैल धोएगा तो फिर गंगा क्या करेगी। एक नाम, एक शब्द को लेकर साबुन बुरी तरह पिट गया। दूसरी तरफ आप देखिए कि लाइफबॉय के विज्ञापन पर अगर करोड़ों रुपये खर्च किये जाते हैं तो उसके साथ रोज दस लाख साबुन की बट्टियां बेचने का टार्गेट होता है। अगर हिंदी की ये दो लाइन के विज्ञापन को देखकर कन्ज्यूमर उससे जुड़ नहीं पाता तो करोड़ों का नुकसान होगा। इसलिए हिंदी भाषा के जरिये सिर्फ संप्रेषण का काम नहीं हो रहा है बल्कि इसके पीछे एक भारी इन्वेस्टमेंट और बिजनेस का रिस्क जुड़ा हुआ है। हिंदी को लेकर जिस भाषा विस्तार और भौगोलिक क्षेत्र की बात करते हैं प्रोफेसर पचौरी ने उसे कन्ज्यूमर रिच(consumer reach) यानी उपभोक्ता की पहुंच के तौर पर विश्लेषित किया। उदाहरण देते हुए बताया कि अगर कोई विज्ञापन हिंदी में बनते हैं, तो उसकी पहुंच करीब पैंतालीस करोड़ की जनता तक है जबकि दूसरी भाषाओं में पांच से दस करोड़ तक। इसलिए कारपोरेट और बाजार के लिए इस भाषा का प्रयोग लागत से जुड़ा है। इसे आप एसएमएस और बाकी तमाम तरह के शार्ट होती जा रही भाषा के तौर पर भी देख सकते हैं।

प्रिंट की भाषा एक तरह से नेशनलिज्म की बाउंड्री तय करती है। उसका एक खास तरह का रूप होता है जबकि टेलीविजन भाषा के इस रूप को ध्वस्त करता है। टेलीविजन एक हद तक भाषाई कॉम्प्लेक्स को भी तोड़ने का काम करता है। लेकिन अब दिक्कत कहां है? दिक्कत इस बात से है कि सिनेमा, मनोरंजन और नाच-गानों के बीच तो हिंदी का खूब विस्तार हो रहा है। इसमें हमें लगातार एक संभावना दिख रही है लेकिन ये नॉलेज की भाषा नहीं बन पा रही है, इसके भीतर डिस्कोर्स नहीं हो रहे हैं। हिंदी को लेकर हमें यहां से सोचने की जरूरत है। इसलिए यहां आकर हमें सोचना होगा कि हम हिंदी के जरिये नॉलेज प्रोड्यूस करें और इस मामले में अनुवाद के जरिये भी ज्ञान के विकास को कोई हीन चीज नहीं मानता। हमें चाहे जैसे भी हो हिंदी को भावना और रस पैदा करने वाली भाषा से थोड़ा आगे जाकर ज्ञान पैदा करनेवाली भाषा के तौर पर बरतने का काम करना चाहिए। रस पैदा करने का काम हमने बहुत कर लिया। इस संदर्भ में उन्होंने टेलीविजन और मास मीडिया से कई उदाहरण दिये।

लैक्चर के अंत में उन्होंने कहा कि हिंदी को लेकर किसी भी तरह से, किसी भी रूप में हीन मानने और समझने की जरूरत नहीं है। अगर हमारे भीतर हीनता आती है, तो ये हिंदी की वजह से नहीं बल्कि इसकी कोई और ही वजह है, जिसकी हमें तलाश की जानी चाहिए।

बातचीत के बाद ऑडिएंस की ओर से कई सवाल पूछे गये, जिसका विस्तार से उन्होंने जवाब दिया। पूरी बातचीत और सवाल-जवाब सुनने के लिए आप नीचे मौजूद लिंक को चटकाएं-

वर्तमान हिन्दी की समस्याएं(संदर्भःमास मीडिया और पॉपुलर कल्चर)
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हां जी सर कल्चर के खिलाफ लिखते हुए,जो हो रहा है उसे होने दो के प्रतिरोध में अपनी बेबाक राय देते हुए आज गाहे बगाहे ने 385 पोस्टों के साथ दो साल पूरे कर लिए। मुझे अच्छी तरह याद है आज से दो साल पहले 17 सितंबर की सुबह मैंने इस ब्लॉग की शुरुआत की।..और दिनों से बिल्कुल अलग तरह की सुबह। एक साल से लगातार मैं अपनी जुराब कैब या मेट्रो में बैठने पर पहनता, शर्ट के बटन घर की सीढ़ियों से उतरते हुए लगाता,सुबह साढ़े चार बजे उठने के वाबजूद भी ऑफिस पहुंचने पर लेट करार दे दिया जाता। बहुत ही व्यस्त और दिनभर घिसनेवाली दिनचर्या होती। इस बीच कहीं कोई सोशल लाइफ नहीं,किसी भी दोस्त या रिश्तेदार के फोन आने पर मैं थोड़ी देर में कॉल बैक करता हूं,कहना जैसे एक मुहावरा-सा बन गया। ऑफिस के फोन छोड़ बाकी कहीं से भी कोई फोन आने पर आपसे बाद में बात करता हूं कहना एक आदत सी बनती चली गयी। उस दिन को याद करता हूं तो ताज्जुब होता है कि कैसे इतनी मेहनत कर लेता,सुबह से लेकर रात के बारह-एक बजे तक नॉनस्टॉप स्टोरी लिखने,पैकेज कटाने,पचासों बार सीढ़ियों से चढ़ने-उतरने का काम। कैसे कर लिया मैंने एक साल तक ये सब कुछ। अब तो कोई एक बार से दो बार उपर-नीचे करा दे तो खुन्नस आ जाती है। बहरहाल,

ब्लॉग बनाने की सुबह बिल्कुल अलग किस्म की सुबह थी। हमें सुबह उठने की कोई जरुरत नहीं थी। लेकिन आदत के मुताबिक थोड़ी देर से ही छ बजे के करीब उट गया। दो घंटे तो इधर-उधर करके गुजार दिए लेकिन फिर समझ नहीं आया क्या करें? मीडिया के लिए काम करते हुए एक दिन मैंने यूजीसी की साइट देखी और पता चला कि मेरा यूजीसी जेआरएफ हो गया है। पहले के 15 दिन तो मैंने बहुत ही दुविधा में गुजारे। मुझे क्या करना चाहिए,मीडिया की नौकरी छोड़कर वापस रिसर्च की दुनिया में लौटना चाहिए या फिर मीडिया में ही बने रहना चाहिए। मीडिया में काम बहुत करने होते,पत्थर की तरह अपनी घिसाई हो रही थी लेकिन मीडिया की दुनिया छोड़ना मेरे लिए आसान नहीं था। मैंने शुरु से ही अपने को एक मीडियाक्रमी के तौर पर काम करने की कल्पना की। थोड़ी देर के लिए ही, कभी-कभी तो लगता कि बहुत मेहनत करनी पड़ती है लेकिन फिर ये सोचकर मन रम जाता कि कितनों को ऐसा मौका मिलता है कि कोर्स खत्म होने के दो दिन बाद ही,कम पैसे में ही सही नौकरी मिल जाए।.. इस दुविधा के बीच बाद में कुछ लोगों के सुझाव औऱ कुछ अपनी व्यक्तिगत समस्याओं की वजह से वापस अकादमिक क्षेत्र में जाने का मन बनाया। मार्निंग शिफ्ट के लिए मेरा दोस्त पहले ही जा चुका था। मैं अंत में इंटरनेट की शरण में गया। त्रिवेणी सभागार के एक कार्यक्रम में मिलने पर अविनाश ने मुझे बताया था कि आप कभी मोहल्ला देखें। उस समय मोहल्ला की बड़ी धूम थी। मैंने एकदम से मोहल्ला क्लिक किया,कुछ पोस्ट पढ़े और फिर खुद का अपना ब्लॉग बनाने में भिड़ गया। एक घंटे के भीतर मोटे तौर पर एक ब्लॉग बनकर तैयार था। जल्दीबाजी में मैंने एक पोस्ट लगायी और अपने कुछ करीबी दोस्तों को ब्लॉग का लिंक एसएमएस किया। दोस्तों ने ब्लॉग की सराहना की और फिर देखा कि मसीजीवी जिनसे कि पहले मेरा कोई परिचय नहीं था और राकेश सिंह जिन्हें मैं पहले जानता था,उन दोनों के शाम तक कमेंट भी आ गए हैं।

मैं लगभग रोज लिखता रहा। ये एक ऐसा दौर था जब काम के स्तर पर पूरी तरह बेराजगार था। ये अलग बात है कि जिस दिन से मैंने नौकरी छोड़ी,उसी दिन से ही फैलोशिप के पैसे जोड़कर मिलने की बात से पैसे को लेकर इत्मिनान हो गया। लेकिन सत्रह-अठारह घंटे की व्यस्तता के बीच अचानक ब्रेक आ जाने से ब्लॉगिंग करने के अलावे मेरे पास कोई दूसरा ठोस काम नहीं था। मेरी सारी किताबें डीयू हॉस्टल में दोस्तों की अलमारियों में पैक थी। पिछले सात महीने में मैंने कोर्स और हिन्दी साहित्य से जुड़ी एक भी किताबें नहीं पढ़ी थी। दस दिन के भीतर मैंने देखा कि लोगों ने रिस्पांस देने शुरु कर दिए हैं। मुझे भी मजा आने लगा। फिर मैंने मीडिया के अलावे कई दूसरे मसलों पर भी लिखना शुरु किया। जमकर लिखने लगा और फिर लिखने लगा तो लिखने लगा।
मेरे ब्लॉग की पंचलाइन है- जब हां जी सर,हां जी सर कल्चर में दम घुटने लगे और मन करे कहने का-कर लो जो करना है। इस एक लाइन को लेकर कई झमेले हुए जो कि अब भी जारी है। शुरुआती दौर में दोस्तों सहित मुझे पढ़नेवाले लोगों ने इसे महज फैशन के तौर पर लिया। वैसे भी जिस समय मैंने ब्लॉगिंग करनी शुरु की उस समय लोग अपने ब्लॉग का नाम और उसका परिचय कुछ इस तरह से दे रहे थे कि समझिए वो अपने मौजूदा हालत से बुरी तरह उबे हुए हैं और अब वो अपने को जिद्दी,अक्खड़,बिंदास,बेलौस और बेफ्रिक साबित करने पर आमादा हैं। लिंक भेजते हुए मोहल्ला के अविनाश को मैंने लिखा कि मैं हिन्दी और मीडिया समाज के बीच होनेवाली हलचलों के बारे में अलग तरीके से लिखना चाहता हूं। अविनाश ने कहा-अलग क्या लिखेंगे,हिन्दी की कुछ क्षणिकाएं ही पेश कर दीजिए तो बेहतर होगा। लेकिन मैं अपनी इस पंचलाइन को लेकर भीतर ही भीतर बहुत सीरियस रहा। मेरी लगातार कोशिश बनी रही कि मैं सचमुच उन मसलों पर लिखूं जो हां जी सर,हां जी सर कल्चर को बढ़ावा देते हैं।
नतीजा ये हुआ कि मैं धीरे-धीरे कई तरह के विवादों में उलझता चला गया। जनसत्ता पर लिखे जाने की शिकायत मेरे विभाग तक गयी,भड़ास पर लिखने पर उखाड़ लोगे क्या जैसे शब्द सुनने पड़े,कनकलता प्रकरण में.ये कौन लौंड़ा है,जरा मिलवइयो तो,निपटाना पड़ेगा उसे भी का संदेश मिला। साहित्य के मसलों पर लिखने पर पोस्ट के प्रिंटआउट निकालकर लोगों ने अपने बाबाओं को पेश किए,नमक मिर्ज लगाकर मेरे बारे में काफी कुछ कहा गया। नतीजा ये हुआ कि ऐसे बाबा ब्लॉगिंग की परिभाषा बदलने लग गए और ब्लॉगिंग को चैटिंग जैसी ही कोई घटिया और बाहियात चीज के तौर पर प्रचारित करने लगे। मीडिया के मसले पर लिखने पर,बेकार में टांग क्यों फंसाते हो,रिसर्च कर रहे हो चुपचाप रिसर्च करो जैसी चेतावनी भी मिली।
दूसरी तरफ लोगों का लगातार प्रोत्साहन मिला। थोड़ा संभलकर लिखने के साथ ही कई दोस्तों और मीडिया के बुजर्ग लोगों ने मेरे लिखे की लगातार तारीफ करके मेरा हौसला बढ़ाया। आज इसी का परिणाम है कि जिस मसले पर मैं(खासकर मीडिया से जुड़े)लिखता हूं,उनसे संबद्ध लोग सीधे मुझसे सम्पर्क करते हैं। कई बार खुश होकर,कई बार नाराज होकर लेकिन इस बात की सराहना करते हुए कि आप अच्छा काम कर रहे हैं। मीडिया में नौकरी करने के मुकाबले लिखने की वजह से लोग मुझे जानते हैं। दो साल की ब्लॉगिंग ने मुझे नयी पहचान दी है,आपलोगों ने लगातार प्यार दिया है। मेरी बातों को सीरियसली पढ़ने-समझने के लिए अपना समय दिया है। यही वजह है कि कई बार जब मैं विवादों से घिर जाता हूं,चारों तरफ से लोगों के सुझाव आने लग जाते हैं कि फिलहाल लिखना छोड़ दो, तब भी मैं लिखने से अपने को रोक नहीं पाता। इसे आप मेंटल डिस्ऑर्डर कहें या फिर कोई लत,आज मेरे लिए लिखने से ज्यादा चुनौती का काम है नहीं लिखना। आप हंसेंग लेकिन इस लगातार लिखने के काम ने मेरे भीतर एक भरोसा पैदा किया है कि मैं कहीं भी रहूं,कमा खा लूंगा।
इस मौके पर मैं अपने सारे ब्लॉगर साथियों,दोस्तों और अभिभावक के तौर पर मुझे लगातार सुझाव और नैतिक समर्थन देते आए लोगों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं। भाषा को लेकर मेरा थोड़ा मुंहफट अंदाज है जिसे मैं लगातार दुरुस्त करने की कोशिश में हूं। दोस्तों की राय का ख्याल है मुझे कि मैं बातों-बातों में बेकार ही लोगों की नजर पर आ रहा हूं,ऐसे मुद्दों पर लिखना छोड़ दूं। शायद उनकी ये राय मुझे मानी नहीं जाएगी,जब तक लिख रहा हूं,इसी अंदाज में लिखूंगा...हां जी सर कल्चर के खिलाफ। लिखने के लिए मैं कभी नहीं लिख सकता। अभी तक तो ठीक है,जिस दिन लगने लगेगा कि मैं ऐसा नहीं कर सकता,उस दिन मैं अपने ब्लॉग बंद कर देने की खुली घोषणा करुंगा। ब्लॉगिंग करने और टाइमपास करने करने के बीच के फर्क को मैं हमेशा बनाए रखना चाहता हूं। पढ़ने-लिखने के स्तर पर जिस दिन समझौते करने पड़ गए,उस दिन सबकुछ छोड़-छाड़कर चीकू बेचना,बल्ली मरान में धूप चश्मा बेचना ज्यादा पसंद करुंगा।
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आज की हिन्दी कई रुपों में,कई खेमों में,कई धंधों और तिकड़मों में बंटी हुई हिन्दी है। इसलिए आज प्रायोजित तरीके से हिन्दी का रोना रोने के पहले ये समझ लेना जरुरी है हम किस हिन्दी के नाम पर विलाप कर रहे हैं। एफ.एम.चैनलों की हिन्दी पर शोध करने के दौरान मैंने इसे समझने की कोशिश भर की और बाद में अलग-अलग संदर्भों में इसके विस्तार में गया। इस बंटी हुई,बिखरी हुई,अपने-अपने मतलब के लिए मशगूल हिन्दी को बिना-जाने समझे अगर आप हिन्दी की दुर्दशा पर सरेआम कलेजा पीटना शुरु कर दें तो जो लोग बाजार के बीच रहकर हिन्दी के बूते फल-फूल रहे हैं, सिनेमा,मीडिया,इंटरनेट और दूसरे माध्यमों के बीच हिन्दी का इस्तेमाल करते हुए कमा-खा रहे हैं,वो आपको पागल करार देने में जरा भी वक्त नहीं लगाएंगे। दूसरी तरफ अगर कोई मनोरंजन और महज मसखरई की दुनिया में तेजी से पैर पसारती हिन्दी को ही हिन्दी का विस्तार मान रहा है तो उन्हें सोचालय की हिन्दी(साहित्य और अकादमिक संस्थानों से जुड़े लोग)के लोगों से आज क्या सनातनी तौर पर हमेशा ही लताड़ खाने के लिए तैयार रहना होगा। उनके लिहाज से ये लोग हिन्दी के विस्तार के नाम पर टेंटें कर रहे हैं और ज्यादा कुछ नहीं। जबकि आज मोहल्लाlive पर विभा रानी ने हिन्दी को लेकर जो कुछ लिखा है उसके हिसाब से सोचालय के लोग हिन्दी के नाम पर जबरदस्ती टेंटे कर रहे हैं। हिन्दी की पूरी बहस इसकी ऑथिरिटी को लेकर है। सब अपने-अपने तरीके से इसकी हालत और शर्तों को तय करना चाहते हैं यही कारण है कि कभी हिन्दी के नाम पर मर्सिया पढ़ना जरुरी लगता है तो कभी हिन्दी को लेकर आंकडें देखते ही,हिन्दी चैनलों से दस हजार करोड़ सलाना कमाई की बात सुनकर हिडिप्पा और हिप्प हिप्प हुर्रे करने का मन करने लग जाता है। किसी के लिए हिन्दी में होना ईंद है तो किसी के लिए मुहर्रम। साल 2007 में मुझे सीएसडीएस-सराय के खर्चे पर निजी समाचार चैनलों की भाषा पर रिसर्च करने का मौका मिला। शोध के लिए मैंने जो रुप-रेखा(synopsis) तैयार की वो विस्तृत और बहुत ज्यादा समय लेनेवाला साबित हुआ इसलिए अपने शोध-निर्देशक रवि सुंदरम की सलाह पर मैंने इसे सिर्फ एक चैनल आजतक तक केंद्रित रखा। उस समय मैं आजतक से सीधे तौर पर जुड़ा था इसलिए मुझे रिसर्च करने में सहूलियत हुई और कई ऐसी चीजों को आब्जर्व किया जिसे लेकर मीडिया लेखन की दुनिया में आमतौर पर सिर्फ अटकलों से ही काम चलाया जाता रहा है। इस महीने सितंबर 23 से 29 तक इंडियन इन्सटीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज,शिमला हिन्दी की आधुनिकता पर सेमिनार का आयोजन करने जा रहा है। अभय कुमार दुबे के शब्दों में सात दिनों तक हिन्दी की आधुनिकता के उपर सात दिनों तक जमकर बहस-बुहस होगी,अब तक सिर्फ हिन्दी में आधुनिकता पर बात हुई है। वक्ता के तौर पर मुझे टेलीविजन की हिन्दी पर बात करने के लिए बुलाया गया है। अपनी उस प्रस्तुति में मैं सराय के काम को ही आगे बढ़ाते हुए अपनी बात रखने जा रहा हूं। लेकिन यह किसी एक चैनल पर केंद्रित होने के बजाय टेलीविजन के अलग-अलग चैनलों औऱ कार्यक्रमों पर आधारित होगा। कार्यक्रम खत्म होते ही कही गयी बातों की लिखित प्रति लगाउंगा। फिलहाल समाचार चैनल की भाषा पर सराय के लिए किए गए काम का एक टुकड़ा बतौर हिन्दी दिवस के नाम पर पेश है-

आम तौर पर समाचार चैनलों की भाषा पर जो भी बहसें हुई हैं,उनमें दो तरह के लोग शमिल हैं। एक वे जो अकादमिक संस्थानों से जुड़े हैं,जिनके हिसाब से चैनलों ने भाषा को भर्ष्ट किया है,अपने ढंग से तोड़ा-मरोड़ा है,व्याकरणिक शर्तों की परवाह नहीं की है। दूसरे वे लोग हैं जो सीधे-सीधे सहै कि चैनल की भामाचार चैनलों से जुड़े हैं जिनके मुताबिक चैनलों के लिए भाषा की शुद्धता और नियमों की अनिवार्यता से ज्यादा महत्वपूर्ण है सहज संप्रेषण यानी(आम आदमी/दर्शकों) के हिसाब से भाषा प्रयोग। इन दोनों स्थितियों पर गौर किए जाएं तो चैनलों की भाषा को लेकर कोई विश्लेषण पद्धति या प्रक्रिया का विकास नहीं हुआ है बल्कि अपने-अपने पक्ष में तर्क खड़े करने की कोशिश भर है।
ऐसा इसलिए हुआ है कि अकादमिक क्षेत्र से जुड़े लोग भाषा की शुद्धता,नियम एवं उसकी शर्तों को पकड़कर चलना चाहते हैं और जब समाचार चैनलों की भाषा पर बात करते हैं तो उन जोर होता है कि चैनल भी भाषा प्रयोग इसी के हिसाब से करे। एक तरह से चैनल की कौन-सी भाषा,किस रुप में प्रयोग करे,अकादमिक क्षेत्र के लोग तय करना चाहते हैं।

यह संभव है कि भाषा के प्रति समझदारी पैदा करने में अकादमिक संस्थानों का बड़ा योगदान रहा हो,इन संस्थानों ने लोगों को भाषा-प्रयोग से लेकर इसके महत्व के बारे में जानकारी दी हो और आज अगर ये संस्थान टेलीविजन औऱ समाचार चैनलों का भाषा-प्रयोग अपने हिसाब से करना चाहते हैं तो इसकी वजह भी यही है कि जब समाज को भाषा पढ़ाने-समझाने का जिम्मा है तो टेलीविजन अपने मुताबिक उनसे अलग भाषा-प्रयोग क्यों करे या उनकी शर्तों के हिसाब से क्यों न करे।
लेकिन अकादमिक स्तर का यह तर्क समाचार चैनलों के व्यावहारिक तर्क से बहुत पीछे छूट जाता है क्योंकि समाचार चैनल जब भी भाषा प्रयोग करते हैं तो उसके पीछे सिर्फ सहज संप्रेषण का मसला नहीं होता बल्कि उसके पीछे एक दबाब की रणनीति काम कर रही होती है। दबाब की यह रणनीति समय,बाजार एवं व्यावसायिक शर्तों को लेकर अपने को हमेशा बनाए एवं बचाए रखने की होती है। यानी टेलीविजन में भाषा-प्रयोग का एक बड़ा आधार है है खुद को बचाए रखने एवं सबसे आगे ले जाने की कोशिश। इसलिए समाचार चैनल भाषा प्रयोग करते समय अपने को ऑथिरिटी मानकर नहीं चलते,ये अलग बात है कि आम जनता आज टेलीविजन की प्रस्तुति एवं भाषा को ऑथिरिटी मानती है और उस हिसाब से उनका भाषा-व्यवहार भी एक हद तक बदलता है जबकि एकादमिक संस्थान शुरु से ही भाषा के मामले में अपने को ऑथिरिटी मानती आयी है। यहां दिलचस्प नजारा है कि आज समाचार चैनलों ने लगातार अपने ढंग से जो भाषा-प्रयोग शुरु किया है,ऐसे में अकादमिक संस्थानों की ऑथिरिटी ध्वस्त हुई है। इस लिहाज से हम बात करें तो समाचार चैनलों को लेकर जो भी बहसें होती रही हैं उनमें अपने-अपने पक्ष में बात करने का सीधा मतलब है कि भाषा को आखिर कौन तय करेगा? इस पर बहस हो और दूसरा कि समाचार चैनल अपनी भाषा-स्ट्रैटजी तय करते समय आम आदमी की भाषा की जो बात करते हैं,वह आम आदमी की भाषा कौन सी है या फिर टेलीविजन में सचमुच आम आदमी की कोई भाषा होती है। इसके साथ ही एक बड़ा सवाल और कि समाचार चैनल आज मीडिया कर्म से अधिक प्रबंधन का काम हो गया है जिसमें समाचार निर्माण की पूरी प्रक्रिया, वस्तु निर्माण की प्रक्रिया की तरह,उनकी शब्दावलियों के बीच रहकर होने लगे हैं,वस्तु के लिए जो पैकेजिंग और वितरण है वह समाचार के लिए भी है,ऐसे में भाषा किस रुप में काम करती है,इस पर बात हो।

मूलतः मीडियानगर 03 नेटवर्क संस्कृति 2007 में प्रकाशित
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वाइस ऑफ इंडिया के ब्लैकआउट होने के बाद अंदर की खबर सार्वजनिक करने और अपने हक की लड़ाई में हम जैसे लोगों का नैतिक समर्थन जुटाने के इरादे से इस चैनल के मीडियाकर्मियों ने long live voi नाम से एक ब्लॉग बनाया जिसे कि बाद में समझौते के आसार देखकर बंद कर दिया। अभी क्लिक किया तो ये फिर से एक्टिव है। इस ब्लॉग ने कई ऐसी बातें प्रकाशित की जिससे हमें यहां बैठे-बैठे ही चैनल के भीतर की कई सारी गड़बड़ियों और इसके खोखले होते जाने का अंदाजा लगने लगा। लेकिन ब्लॉग पर आयी दो बातों ने मुझे सबसे ज्यादा परेशान किया। एक तो ये कि यहां न्यूज रुम में आरती की थालियां घुमायी जाती है और दूसरा कि ब्लैकआउट और कई महीनों से पैसे न मिलने की स्थिति में मीडियाकर्मियों को अपने बच्चों की स्कूल फीस देनी भारी पड़ रही है,खर्चे में कटौती लाने के लिए वो अपनी पत्नी को मायके भेज दे रहे हैं।

मेरी अपनी समझ है कि देश का चाहे जो भी न्यूज चैनल हो उसे हर हाल में सेकुलर होना चाहिए। इस बात का अंदाजा हमें है कि जिन मान्यताओं और विश्वासों से हमारा कभी कोई सरोकार नहीं रहा है,हमारे जैसे कई लोग अगर वहां मौजूद रहे होंगे जिन्हें कि ये सब कुछ कमजोरी में अपनाया जानेवाला पाखंड लगता हो वो काम करते वक्त कैसे असहज महसूस करते होंगे। नैतिक रुप से किसी भी संस्थान को ये अधिकार नहीं है कि वो अपनी मर्जी की मान्यताओं और धार्मिक विश्वासों को अपने यहां काम कर रहे लोगों पर थोपने की कोशिश करे। मैंने लेखन के स्तर पर इस रवैये का विरोध किया और इसके साथ ही चैनल के सीइओ अमित सिन्हा के उस वक्तव्य का भी जिसे कि एक न्यूज पोर्टल ने उनके इंटरव्यू प्रकाशित करने के दौरान किया- वो साईं के भक्त हैं और उन्हें पूरा भरोसा है,सब ठीक हो जाएगा।..आज ये चैनल बंद है, सैंकड़ोंमीडियाकर्मी सड़कों पर आ गए हैं,उनकी जिम्मेवारी लेनेवाला कोई नहीं है।.. मैंने तब भी कहा कि चैनल धार्मिक विशेवासों के बूते नहीं,मार्केट स्ट्रैटजी के दम पर चलते हैं और अमित सिन्हा को चाहिए कि वो एक भावुक भक्त के बजाय एक प्रोफेशनल की तरह सोचें औऱ काम करें। मेरी इस बात पर चैनल के ही एक एंकर-प्रोड्यूसर को इतनी मिर्ची लगी कि उन्होंने संजय देशवाल,एक फर्जी नाम से हम पर बहुत ही बेहुदे और अपमानजनक तरीके से कमेंट किया। हम पर आरोप लगाए कि हमें कुछ भी पता नहीं है,हम लिखने के नाम पर बकवास कर रहे हैं,इस मामले में हमें कुछ भी बोलने की औकात नहीं है। आज उनकी महानता स्वीकार करते हुए हम अपील करते हैं कि रोजी-रोजगार छिन जानेवाले सैकड़ों मीडियाकर्मियों को लेकर आपके पास जो जानकारी है,संभव हो तो उनके पक्ष में या फिर हमेशा की तरह अपने मालिक के पक्ष में कुछ तो करें। ये अलग बात है कि अगले ही दिन उन्होंने करीब पन्द्रह मिनट तक मुझसे फोन पर बात की और अलग-अलग तरीके से अपने को जस्टीफाय करने की कोशिश की कि यार हमें मालिक के पक्ष का तो ध्यान रखना ही होता है न। बात भी सही है कि अगर रोटी की जुगाड़ मालिक के रहमो करम पर हो रही है तो वो हमारा पक्ष क्यों लेंगे या फिर उन मीडियाकर्मियों का पक्ष क्यों लेंगे जिन्हें अगले महीने बैंकवाले नोचने आएंगे,सुबह से खटनेवाली उनकी पत्नी के दोपहर थोड़ी देर तक सुस्ताने के समय ही कॉल वैल बजा-बजाकर उसका जीन हराम कर देंगे। ये मालिक के प्रति वफादारी ही तो है कि तथ्यों को ताक पर रखकर हम जैसे लोगों को दमभर लताड़ो,हमें सार्वजनिक तौर पर जलील करने की कोशिश करो और रात होते ही थोड़ी -बहतु बची जमीर जब अंदर से धक्का देने लगे तो फोन करके जस्टिफाय करने लगो,अपने को मजबूर बताओ....अब तक दर्जनों लोगों को फाड़ देने,निपटा देने का रेफरेंस दो।

आपको ये सब पढ़-सुनकर हैरानी हो रही होगी न कि ग्लोबल स्तर पर खबरों को बांचने वाला मीडियाकर्मी कितना व्यक्तिगत स्तर पर आकर सोचता है,व्यवहार करता है जहां चार सौ से भी ज्यादा अपने सहकर्मियों के दर्द के आगे उसे अपने मालिक के प्रति वफादार और प्रतिबद्ध बने रहना ज्यादा जरुरी हो जाता है। आप यहीं से सोच सकते हैं कि चैनलों की बाढ़ और बिग मीडिया के बीच मीडियाकर्मियों का कद कितना छोटा होता चला गया है,कितने बौने हो गए वो कि मालिक की एक घुड़की के आगे कहीं भी समा जाएं।

मीडिया कंटेंट पर जब भी मैं मीडिया से जुड़े लोगों से बात करता हूं उनका एक ही तर्क होता है वो टीआरपी के आगे नहीं जा सकते। उनके पास बाकायदा कई ऐसे रेफरेंस होते हैं जो ये साबित करते हैं कि टीआरपी के आगे गए तो मारे जाओगे। उन्हें हर हाल में इसी खांचे के भीतर रहकर सोचना होगा। इस बात को मैं भी मानता हूं कि टीआरपी का ये चक्कर हमेशा खबरों को बकवास की तरफ नहीं ले जाता,उसमें एक हद तक सरोकार नहीं भी सही तो खबर को खबर बने रहने की गुंजाइश रहती है। दर्जनों ऐसे मीडिया समीक्षक हैं जो टीआरपी के इस खेल को लेकर चैनलों को कोसने का काम करते हैं लेकिन इस टीआरपी को अगर आप देखें और मीडिया संस्थानों के बीच जो कुछ भी चल रहा है वो दरअसल मालिकों के रहनुमा हो जाने का एक प्रोफेशन जुमले से ज्यादा कुछ भी नहीं है। ईमानदारी से अगर टीआरपी ही चैनल के चलने और बने रहने का पैटर्न हो तो मुझे नहीं लगता कि ऐसी परेशानियां हो जो कि आज किसी के चैनल के बंद हो जाने,सैकड़ों मीडियाकर्मियों के बेरोजगार हो जाने और किसी चैनल के चलाए जानेवाली कंपनी पर छापा पड़ने की घटना के तौर पर सामने आ रहे हैं। दिक्कत सिर्फ टीआरपी के खेल से नहीं है और न ही विज्ञापन बटोरने की कलाबाजियों को लेकर है। पूरी मीडिया इंडस्ट्री के भीतर दिक्कत इन सबसे अलग और सबसे ज्यादा खतरनाक है।

ये मीडिया इन्डस्ट्री का अब तक का शायद सबसे खतरनाक दौर है। ये इन्डस्ट्री के कुछेक लेकिन प्रभावशाली मीडियाकर्मियों के एक का दो,दो का चार बनानेवाले पूंजीपतियों को सब्जबाग दिखाने का खतरनाक दौर है। अगर कोई मीडियाकर्मी इस दम से कहता है कि आप पैसे तो लगाइए,हम सब देख लेगें तो आप अंदाजा लगाइए कि वो चैनल को बनाए रखने में किस-किस स्तर पर मैनेज करने का काम करेगा। पूंजीपति और मीडियाकर्मी के बीच जो एक तीसरी जमात तेजी से पनप रही है वो है उन गिद्ध मीडियाकर्मियों की जिनका चरित्र पूंजीपतियों का है सामाजिक स्तर की पहचान मीडियाकर्मी की है। सामाजिक तौर पर वो मीडियाकर्मी हैं जबकि प्रोफेशनली वो मालिकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। समय के हिसाब से अगर सारे मीडियाकर्मियों की तरक्की होती रही तो एक दिन सब के सब इसी जमात के हिस्से होंगे। ईंट,पत्थर और सीमेंट से जोड़कर दबड़ेनुमा फ्लैट जिसे कि बाजार सपनों का आशियाना कहता है,बनाकर बेचनेवाले लोग जब इस प्रोफेशन में पैसे लगाते हैं तो आपको समझने में परेशानी नहीं होती कि मीडिया कितना तेजी से धंधे में तब्दील हो रहा है। आपको विश्वास न हो तो चले जाइए किसी चैनल के न्यूज रुम या असाइनमेंट डेस्क पर। वहां आपको जो शब्द सुनाई देंगे,खबरों के साथ जो लेबल लगे मिलेंगे उससे आपको समझ आ जाएगा कि मीडिया की तस्वीर असल में क्या बन रही है। मैं बाकी के मीडिया समीक्षकों की तरह इसे भारतेन्दु युग की पत्रकारिता से जोड़कर नहीं देखता,मैं मानकर चल रहा हूं कि इसे प्रोफेशन ही होना चाहिए। इसलिए बात-बात में इसके पीछे सरोकारों की उम्मीद नहीं करता। टाटा स्काई के तीन सौ रुपये देता हूं,मुझे खबर मिले,मनोरंजन हो जाए,बस हो गया अपना काम। लेकिन कहानी सिर्फ खबरों को दिखाने,छुपाने,बदलने और बकवास करने की नहीं,मीडिया के भीतर उन आवाजों के लगातार दम तोड़ देने की है जिसमें गलत के आगे प्रतिरोध की ताकत होती है,बेहतर करने की गुंजाईश होती है। मीडियाकर्मियों की ये जमात उस आवाज को,उस उम्मीद को लगातार ध्वस्त करने का काम कर रहे हैं।

यहां आकर बस इतना कहना चाहता हूं कि- महानुभावों, आपने टीआरपी के नाम पर जो गंध फैलाया है। मीडिया को पहले मिशन से प्रोफेशन,फिर प्रोफेशन से धंधे की दहलीज पर ला पटका है,उसके बीच एक बार अपने को परखकर देखिए। आप मत दीजिए सरोकारों की खबरें,विदर्भ के मरते किसानों की खबरें। आप टीआरपी की ही कंठी-माला पहने रहिए लेकिन कम से कम अपने मालिकों के तो बने रहिए। सब्जबाग दिखाते हैं तो अपने भीतर कूबत पैदा कीजिए कि टीआरपी की इस दौड़ में आगे जाएं,चाहे जहां से भी हो,चैनल को मुनाफे पर ले जाएं। कोई एक तरह से दुरुस्त तो हों। आप मेरे नहीं रहे और न मैं ऐसा होने की अपील करता हूं लेकिन अपने मालिक के तो हों ताकि हमें भी अपने उपर ग्लानि हो कि हम बेकार इन्हें गाली देते हैं,ये तो ठीक ही मुनाफा बना रहे हैं। अगर ये मुनाफा नहीं दिखाएंगे तो चार-पांच सौ इनसे जुड़े मीडियाकर्मियों की रोटी छिन जाएगी। वैसे भी सफल होने की स्थिति में गड़बड़ियां फैलाने की स्थिति में भी आप नजरअंदाज कर दिए जाएंगे। कंधार प्रकरण के मॉडल पर हम चार-पांच सौ पत्रकारों के आगे देश की चालीस करोड़ ऑडिएंस के सरोकारों को ताक पर रखने को तैयार हैं,आप कुछ तो कीजिए।...लेकिन ये कब तक चलेगा कि आपके मालिक मुनाफा न देने पर आपको धोखेबाज समझते रहें और इधर एक ही साथ चार-पांच सौ मीडियाकर्मियों के बेरोजगार हो जाने पर भी किसी भी चैनल या अखबार में एक लाइन तक न लिखी जाए। आप तो अंत में परेशान होकर किसी और चैनल में,किसी और उंचे पदों पर चले जाएंगे लेकिन औसत दर्जे पर काम करनेवाले मीडियाकर्मियों की सांसे जो अटकती है उसके प्रति कौन अकाउंटेबल होगा..जरा सोचिए।
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पोस्ट की टाइटल पढ़ते ही आप मेरे नाम से मन ही मन गालियां भुनभुनाने लगें इसके पहले ही सफाई दे दूं कि इस तरह के घटिया विचार(समाज की ओर से लिया गया पदबंध)मेरे मन में आजतक कभी नहीं आया। पिछले डेढ़ घंटे से रेड एफएम 93.5 पर एक कॉन्टेस्ट चल रहा है जिसमें जॉकी की ओर से लगातार सवाल किया जा रहा है-क्या आपने किसी टीचर को प्रपोज किया है,अगर हां तो हमें फलां नंबर पर कॉल करके बताएं। मेरे हाथों में साबुन लगे हैं,कपड़े धोने जैसा बोरिंग काम कर रहा हूं,इसलिए रेडियो बजा रहा हूं। बिना रेडियो बजाए मैं कपड़े धो नहीं सकता। लेकिन दिक्कत है कि बार-बार मैं चैनल बदल नहीं सकता इसलिए शुरु से जो बज रहा है उसे बजने दे रहा हूं। कई लड़कों ने इस कॉन्टेस्ट में भाग लिया है। कुछ लड़कियां भी अपने अनुभव बता रही है,रेडियो जॉकी को अपना नाम बताए बिना सारी बातें बता दे रही है। एक लड़के ने बताया- एक दिन मैंने एक टीचर को कहा- मैम मुझे सिर में बहुत जोर से दर्द हो रहा है। मैम ने मेरे सिर गोद में ले लिए और सहलाने लगी। मैंने पांच मिनट बाद कहा-मैम आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं,आइ लव यू मैम। जॉकी ने उधर से सवाल किया- तब तो बहुत जूते पड़ेगे होंगे बेटे। लड़का हंसता है और फिर गाना बजने लग जाता है। जॉकी फिर से अपील करता है-आप हमें बताइए,क्या कभी आपने किसी टीचर को प्रपोज किया है।...ये है आज हैप्पी टीचर्स डे के मौके पर टीचर और स्टूडेंट के बीच बनते-बदलते नए संबंधों की तलाश,सर्वे या खोजबीन। मैंने यहां जान-बूझकर गुरु-शिष्य शब्द का प्रयोग नहीं किया,इससे संदर्भ पूरी तरह से बदल जाते हैं।

अब मैंने कपड़े धो लिए हैं। एक-एक करके अलगनी पर उसे फैला रहा हूं। अब मैंने रेड एफएम की जगह रेडियो सिटी 91.1 लगा दिया है। यहां है रेडियो जॉकी फबेहा। उसने हम ऑडिएंस के सामने शायरी की एक लाइन छोड़ दी है और हमें मिसरे पर मिसरा फेंकते रहने को कहा है। शायरी की लाइन है- उस टीचर की आंखों में है कैद है मेरा दिल। एक गाना बजता है- साथिया..मद्धि-मद्धिम तेरी भीगी हंसी। फबेहा सतर्क करती है- आप इसे ऐसे गाइए-टीचर,मद्धम,मद्धम तेरी.. रेडियो सिटी टीचर से अपने दिल की बात कह डालने के टिप्स बता रहा है।

अब मैंने सारे कपड़े अलगनी पर डाल दिए हैं,क्लिप भी लगा दिए हैं। अब कमरे के अंदर हूं। कुछ खाने का मन कर रहा है लेकिन इसके पहले रेडियो सिटी बदलकर ममा म्यओं 104.8 सुनना चाहता हूं। यहां टीचर अपना एक्सपीरियंस बता रही हैं। बच्चे कैसे पहले से कई गुना स्मार्ट हो गए हैं,ऐसे बहाने बनाते हैं कि आप चाहेंगे कि आपको भी ऐसे ही बच्चे मिलें। मैं कुछ दिनों के लिए बाहर चली गयी थी। वापस आयी तो पूछा-तुमलोग स्कूल क्यों नहीं आ रहे थे? उनका जबाब था- मैम आपके बिना हमारा बिल्कुल भी मन नहीं लग रहा था। फिर एक रोमैंटिक-सा गाना बजता है। अब मैंने चैनल बदलने के बजाए रेडियो की बैंड को ऐंठना शुरु कर दिया है जहां टीचर्स डे के नाम पर एक ही रंग-ढंग की बातें और कॉन्टेस्ट जारी है। चोर बजारी दो नयनों की के बाद ब्रेक और फिर एक सिग्नेचर..हैप्पी टीचर्स डे।

अब मैं पूरी तरह से इत्मिनान हो गया हूं। एक बॉल में स्प्राउट, प्लेट में दो मोनैको बिस्किट और सेब के चार टुकड़े मैंने तैयार कर लिए हैं। तकिए से झुककर अब मैं इसे भकोसने के मूड में हूं। कुछ पुरानी यादों और बातों के साथ। पहली बार में तो मुझे टीचर्स डे के नाम पर एफ एम चैनलों का ये रवैया बिल्कुल अटपटा नहीं लगता है। बहुत नैचुरल बात है यार,इसमें नया क्या है? यकीन नहीं होता तो एक बार मैं हूं न में कैमेस्ट्री की टीचर बनी लाल साड़ी में सुष्मिता को देख लो और उसके पीछे फुद्दू बने स्टूडेंट शाहरुख को। नहीं तो एक बार यूट्यूब पर जान तेरे नाम का ये गाना ही देख लो- माना की कॉलेज में पढ़ना चाहिए..रोमांस का भी एक पीरियड होना चाहिए,गाना देख लीजिए।। फिर अपने साथ भी तो कुछ इसी तरह का मामला बन गया था एक बार-
बेरोजगारी के उपर विजी होने और काम मिल जाने का पैबंद लगाने के चक्कर में मैंने दो साल लक्ष्मीनगर के एक इन्स्टीट्यूट में हिन्दी और कम्युनिकेशन स्किल की क्लासें ली हैं। बीएड और डाइट की तैयारी कर रहे बच्चों को मुझे रोज दो से तीन क्लासें देनी होती। पूरी 60-65 स्टूडेंट के बीच मात्र 3 से 4 लड़के होते। मेरे लिए यहां पढ़ाना बड़ा ही अलग किस्म का अनुभव रहा है। आप कह लीजिए कि यहां पढ़ाकर एक हद तक मैंने अपने को अपडेट किया है। खैर,एक लड़की अक्सर क्लास के बाद कुछ न कुछ पूछने आ जाती। सीढ़ियों से उतरते के क्रम में मैं उसे जितना बता पाता,बता देता। मैंने इस बात पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया लेकिन चार-पांच दिनों बाद मैंने महसूस किया किया कि कुलीग और कुछ स्टूडेंट के बीच कहानियां बननी शुरु हो गयी है। रोज की तरह एक दिन वो क्लास शुरु होने के पहले मोबाईल नंबर मांगा। मैंने कहा-चलो देता हूं। क्लास में आते ही ब्लैकबोर्ड पर मैंने मोबाइल नंबर लिखा और कहा जिस किसी को भी कभी किसी चीज की जरुरत हो बेहिचक फोन करना। इस किसी चीज में भावुकतावश मैंने किताब,स्टडी मटीरियल की भी बातें जोड़ दी थी। क्लास खत्म होते ही वो लड़की तेजी से निकली और डपटते हुए अंदाज में कहा- सर, इट्स नॉट फेयर,आपको नंबर इस तरह पब्लिकली नहीं देने चाहिए। आपको पता नहीं है कि ये लड़कियां आपका कितना भेजा खाएगी। आपने मुझे चीट किया है। े ठीक नहीं है सर। उसके बाद उसने क्लास के बाहर आकर पूछना बंद कर दिया। मैने भी नोटिस नहीं ली। फिर मेरे क्लास में आना भी बंद कर दिया। अंतिम क्लास के एक दिन पहले उसकी एक दोस्त ने मुझे कहा-आपने उसे हर्ट किया है सर। आपको इस तरह से ब्लैकबोर्ड पर अपना नंबर नहीं लिखना चाहिए था। नंबर तो वो आपसे इसलिए मांग रही थी कि वो कोर्स के अलावे भी अपने मन की बात शेयर कर सके। मैं अवाक् था। मैंने कहा-अरे,मुझसे पढ़ाई के अलावे ऐसी कौन सी बातें शेयर करना चाह रही थी। उसकी दोस्त का जबाब था-आप डीयू से पढ़े,आप इतने भी अंजान नहीं हो,आप फ्लर्ट कर रहे हो।

शहरों में पढ़े रहे बच्चों के बीच स्टूडेंट औऱ टीचर का संबंध कस्बाई स्कूलों के टीचर-स्कूल संबंधों से बिल्कुल अलग है। गांव के स्कूलों पर कोई कमेंट नहीं कर सकता,कुछ नहीं जानता इस बारे में। लेकिन इतना जरुर कह सकता हूं कि स्टूडेंट के बीच छोटी-छोटी बातों को लेकर जिस तरह के इगो क्लैश करते हैं,एकाकीपन का एहसास होता है,अपने को किताबों और क्लासरुम के बीच इतना घिरा और फंसा पाता है कि उसके मन की कई चीजें कहीं भी निकलकर नहीं आने पाती। तारे जमीं की पूरी थीसिस इसी पर है। ऐसे में स्टूडेंट,टीचर को एक सिम्पैथी बॉक्स की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं जिसके भीतर अपने मन की बात,भावुकता,लड़कपन के सारे भाव उड़ेल देना चाहते हैं। ये भाव जाहिर तौर पर अफेयर और प्रपोज करने से अलग हैं। मुझे तो उस कोचिंग में अगले साल भी पढ़ाना था इसलिए मैंने इस भाव को नजरअंदाज करके किनाराकशी कर गया। हम उदात्त नहीं हो पाए। शायद यही वजह है कि हमारे और स्टूडेंट के बीच पलनेवाले भाव महज शेयरिंग की जरुरत के तौर पर नहीं बल्कि एफएम पर अफेयर और प्रपोज के तौर पर उभरकर सामने आ गए हैं। हम जैसे लोग एक हद तक इसके दोषी हैं जो दामन बचाने के चक्कर में लोगों के सोचने के मिजाज को बदल नहीं पाए और देखिए न,कैसे एकाएक इचक दाना,बिचक दाना,दाने उपर दाना अपने लिए आउटडेटेड हो गयी,हफीज मास्टर जैसे लाखों टीचर को आज कोई याद करनेवाला नहीं है। शब्दों का संस्कार देनेवाले पाठक सर अब याद नहीं आते। इतना तो छोड़िए..रट-रटकर क्यों टैंकर फुल,आंखे बंद तो डिब्बा गुल वाला टीचर भी प्रपोज करने की बात के बीच मजा किरकिरा करनेवाला लग जाता है। टीचर के बारे में जितना भी कहा जाए कम है लेकिन सब एफएम गोल्ड,रैनवो और लोकसभा टीवी चैनल के भरोसे छोड़कर सिर्फ इतना भर याद दिलाने की कोशिश-आपने कभी किसी टीचर को प्रपोज किया है,कैसा लगता है सुनकर और कैसा महसूस करते हैं जब बच्चे अपनी टीचर को लेकर सिर्फ इसी दिशा में सोचते हैं और हुमककर एफ एम चैनलों पर जबाब देते हैं?
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