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रे विनीत, ये बिग बॉस की अश्लीलता पर क्या हंगामा मचा हुआ है? मैंने मोहल्ला लाइव पर लिखी तुम्हारी पोस्ट पढ़ी। सुनो मैं चाहता हूं कि तुम टेलीविजन, रियलिटी शो और संस्कृति को लेकर एक शोधपरक लेख वसुधा के लिए लिखो। कब तक भेज रहे हो?

मैंने कहा, जरूर लिखता हूं सर, दस दिन तो लग ही जाएंगे कम से कम। अभी इस पर काम कर रहा हूं, तो कोशिश करूंगा कि इतने समय में कर दूं।
कर दो जल्दी से, दिसंबर का अंक तो निकल गया, अगले अंक के लिए लिखो तुम विस्तार से।
कमला प्रसाद मुझे जब भी फोन करते तो पहली लाइन यही होती, मेरी बड़ी इच्छा रहती है कि तुम वसुधा के लिए नियमित लिखा करो। लेकिन तुमने कह दिया था कि पीएचडी के काम में लगा हूं, इसलिए मैं तंग करना नहीं चाहता। खैर, अगर समय हो तो इस मुद्दे पर लिख दो।
मैंने वसुधा के लिए सास-बहू सीरियलों में बनती स्त्री छवि या फिर यूथ जेनरेशन की समझ पर बनी फिल्‍म रंग दे बसंती जैसे लेख उनके इसी परेशान न करने की बात और खैर समय मिले तो लिख देना के बीच लिखा। वसुधा हिंदी की गंभीर पत्रिका है, इसलिए मैं यहां लिखने के लिए एक तो बहुत समय लेता और दूसरा कि लिखते हुए भीतर से हमेशा एक खास किस्म का भय होता कि पता नहीं इसे पाठक किस रूप में लेंगे? बहरहाल…
दस दिनों बाद उन्होंने दोबारा मुझे फोन किया, हो गया विनीत लेख? मैं फोन पर सहज तरीके से बात करने की स्थिति में नहीं था। बड़ी मुश्किल से जवाब दिया, नहीं सर, कहां हो पाया।
क्यों क्या हो गया?
मैंने अपनी पूरी हालत जैसे-तैसे बतायी। उनका भी उसी वक्त कोई ऑपरेशन हुआ था या फिर पिछले दिनों फोर्टिस, दिल्ली में जो कराया था, उसी में कुछ उलझनें आ गयी थीं। मेरी हालत पर पलटकर कहा, ओह, तुम्हारी हालत तो मुझसे भी खराब है। कोई है कि नहीं साथ में? मैं हॉस्पीटल से छूटकर दो दिन पहले ही आया था। मैं कुछ बोलने के बजाय फफककर रोने लग गया था। आज महसूस करता हूं कि मैंने कितना बड़ा अपराध किया था। एक बुजुर्ग और बीमार साहित्यकार के आगे मुझे इस तरह रोना नहीं चाहिए था।
उन्होंने कहा था, देखो न, गजब का संयोग है, हमदोनों एक ही तरह से बिस्तर पर लेटे हैं। खैर, तुम चिंता न करो। जवान आदमी हो, एकदम ठीक हो जाओगे। लेख का क्या है, फिर कभी। दुरुस्त रहोगे तो तुमसे कई लेख लिखवा लेंगे। अपना ध्यान रखा करो। कोई बात हो तो बताना।
मैं आत्मपीड़न का ऐसा शिकार आदमी कि पलटकर पूछा तक नहीं कि आपको क्या हो गया? अव्वल मेरी आवाज भी तो नहीं निकल रही थी। जनवरी की ठंड में उनसे मेरी ये आखिरी बातचीत थी। दिल्ली की ठिठुरती ठंड और थोड़ी निष्ठुरता से पिंड छुड़ाने के लिए मैंने घर फोन कर दिया था और भइया आकर मुझे अपने घर लेकर चले गये थे। घर से आने के बाद हम सामान्य होने होने के लिए आये दिन नयी-नयी चीजें आजमा रहे थे कि इसी बीच कल सुबह खबर मिली कि कमला प्रसाद नहीं रहे। मैं उन्हें अंतिम बार देखने से अपने को रोक नहीं सका और जैसे-तैसे अजय भवन, दिल्ली की तरफ भागा। लेकिन मेडिकल शर्तों की वजह से उन्हें अंतिम बार देखना न हो सका। ताबूत में रखा उनका पार्थिव शरीर सिकुड़कर कितना छोटा हो गया था? सुरक्षित रखने के लिहाज से उसकी पैकिंग कर दी गयी थी और मैं बस वही देखकर वापस आ गया था।
कमला प्रसाद से मेरा जुड़ाव साहित्य और आलोचना के स्तर पर बिल्कुल भी न था और न ही पार्टी और साहित्यिक मंचों के स्तर पर ही कोई नाता था। उनसे मेरा बहुत ही भावुक, आत्मीय और कुछ-कुछ एक बुजुर्ग दोस्त की तरह था, जो विचार के स्तर पर मुझसे कहीं ज्यादा छरहरे थे। जिनके साथ घूमते हुए मैं बड़े आराम से कह देता था – रुकिए सर, मुझे बंगाली मार्केट में गोलगप्पे खा लेने दीजिए। उन्होंने पहली बार मुझे तब फोन किया था, जब मैंने चैनल की नौकरी छोड़कर नया-नया लिखना शुरू ही किया था। नया ज्ञानोदय में टेलीविजन पर लिखा मेरा पहला लेख था – टेलीविजन विरोधी समीक्षा और रियलिटी शो। भोपाल से ही फोन करके कहा – मैं कमला प्रसाद बोल रहा हूं, तुम्हारा लेख पढ़ा।
वह हिंदी के पहले आलोचक थे, जिन्होंने कहा था कि लेख को शुरू से अंत तक पढ़ा है। मुझे हैरानी भी हुई थी कि इन्होंने टेलीविजन पर इस तरह क्यों मेरे लेख को पढ़ा? आगे कहा कि जल्द ही दिल्ली आना होगा। आने पर मुलाकात होगी।
कुछ दिनों बाद सचमुच वो दिल्ली आये और फोन करके कहा, इंडिया इंटरनेशनल के पास ठहरा हूं, सुबह का नाश्ता साथ करेंगे। कल आ जाना। सच पूछिए तो मैं उनसे मिलना नहीं चाहता था। लगता था कि एक और साहित्यकार टेलीविजन को दमभर कोसेगा। मेरे लिखे पर बिफर जाएगा और कहेगा कि सब बकवास है, सब कूड़ा है।
इसके एक दिन पहले रात में विमल कुमार मेरे इस लेख पर अपनी असहमति और अच्छी-खासी बहस दर्ज कर चुके थे। मैं कुछ कहता, इसके पहले ही उन्होंने कहा कि आ जाओ, मैं चाहता हूं कि अबकी बार तुम वसुधा के लिए लिखो। सास-बहू सीरियलों में जो कुछ चल रहा है और उससे जो स्त्रियों की छवि बन रही है, उस पर गंभीरता से कुछ करो। मैं न चाहते हुए भी चला गया। नया ज्ञानोदय में आगे इसी पर लिखना था, बात हो चुकी थी।
चाय-नाश्ते के बाद वो टेलीविजन पर बात करने लग गये। मुझे हिंदी के वरिष्ठ आलोचकों और अध्‍येताओं में वो पहले ऐसे शख्स मिले, जिन्हें सुनते हुए महसूस कर रहा था कि वो इस पर देखकर बात कर रहे हैं। उनके रोजमर्रा के कामों में टेलीविजन देखना शामिल है। नहीं तो अब तक जितने मिले, उनमें से अधिकांश ने बिना देखे, इस पर एक आदिम राय बना रखी है और उस पर पूंजीवादी माध्यम, जो कि सत्तर के दशक की बहस से निकली हुई समझ है, लेबल चस्‍पां कर दिया है। वो छोटी बहू पर बात कर रहे थे, तो बाकायदा उनके चरित्र याद थे। स्टार प्लस के सीरियलों पर बात कर रहे थे, तो उनके चरित्रों के साथ साहित्यिक पात्रों को याद कर रहे थे। बीच-बीच में ये जोड़ना नहीं भूलते कि पोती के चक्कर में देखता हूं। लेकिन साथ में ये भी कहा कि जीटीवी और कलर्स के कुछ सीरियल मुझे खासतौर से पसंद हैं। ये उनकी साहित्यिक और सामाजिक छवि से बिल्कुल अलग रूप था कि वो टेलीविजन को एक सांस्कृतिक पाठ की तरह देख रहे थे। उस पर रस लेकर बात कर रहे थे और मेरी बात में सीधे तौर पर शामिल हो रहे थे। टेलीविजन के प्रति उनका यह लगाव ही था कि मैं आगे उनके करीब गया। नहीं तो बुलाकर उसे कोसने का काम करते तो शायद उनसे मेरी अंतरंगता नहीं होती।
उस मुलाकात के बाद फोन पर बातचीत का सिलसिला जारी रहा। घूम-फिरकर टीवी पर बात आ ही जाती। मैं उन्हें फोन पर ही एमटीवी रोडीज में कौन गया, कौन बचा है, स्प्लीटविलॉज शो क्या है और आजकल इमैजिन के सीरियल क्यों बकवास हो गये हैं, बताता रहता। अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ को उन्हें अच्छा सीरियल बताया था और कहा कि हमारे कुछ जाननेवाले लोग भी काम कर रहे हैं। हम उन्हें टेलीविजन कार्यक्रमों के बारे में कुछ इस तरह बताते कि जैसे ये सब सिर्फ दिल्ली में ही प्रसारित होते हों, भोपाल में नहीं। वो मेरी बातों को ध्यान से सुनते और अंत में कहते – जब इतना सब देखा-सुना है ही, तो एक लेख भेजो न वसुधा के लिए इस पर। हर बार तो लेख लिखना संभव नहीं हो पाता। फिर वो खुद ही कहते – तुम्हारी पीएचडी अभी अधूरी है न, उसे पूरी कर लो। अंतिम बार की बातचीत में तो ये भी शामिल था कि तुम्हारी किताब अभी तक अधूरी रह गयी न। खैर ठीक हो जाने पर उसे पूरी कर लेना, बहुत रोचक काम कर रहे हो।
जब से कमला प्रसाद के पार्थिव शरीर को देखकर लौटा हूं, दिनभर बेचैन रहा। रात का भी एक बड़ा हिस्सा गुजर गया। हमें साहित्यकार, आलोचक, मार्क्सवाद की विचारधारा का झंड़ा बुलंद करनेवाले कमला प्रसाद के गुजर जाने से कहीं ज्यादा हम जैसे युवाओं और उसके काम पर भरोसा रखनेवाले कमला प्रसाद के अचानक चले जाने से ज्यादा तकलीफ हो रही है। लग रहा है, हमारे समर्थन में एक वोट कट गया। हम सब अपने स्वार्थ के तहत ही तो किसी के महत्व को समझ पाते हैं न। हिंदी समाज में जाइए तो मीडिया, ब्लॉगिंग और न्यू मीडिया जिसे लेकर मैं काम कर रहा हूं और सक्रिय हूं, एक से एक नयी नस्ल के हिंदी प्रेमियों में हिकारत का भाव है, वो इसे दो कौड़ी की चीज समझते हैं, जिनमें कई बार उनका फ्रस्ट्रेशन भी जहां-तहां से मसककर सामने आ जाता है। इन नस्लों के भीतर गांव का सठिआया एक बुजुर्ग बैठा है, जो इनके युवा होने के बावजूद भी जब-तब कुढ़ता रहता है। कमला प्रसाद के भीतर इससे ठीक उलट एक ऐसा युवा मन सक्रिय था, जो कि नयी चीजों, विचारों और समझ का सम्मान करता था, उनका हौसला बढ़ाता था। हम जैसे लोग उनसे इसी स्तर पर जुड़े थे। नहीं तो वो दिल्ली किस काम से आते थे, किस किताब का लोकार्पण कर रहे हैं, किस किताब के लिए फ्लैप लिखा है, किस पुरस्कार समिति में हैं, इन सबसे हमें कोई मतलब नहीं होता।
एक बार मैंने उन्हें अपनी अभिरुचि जाहिर कर दी, तो कभी उससे इतर उन्होंने बात नहीं छेड़ी। मीडिया के प्रति मेरे पैशन को लेकर खुश रहते और कहते मजा आता है तुमसे बात करके। साहित्यकारों के बीच घिरे होने पर उसी में जब मुझे भी बुला लेते तो सबों के जाने पर कहते – तुम बोर तो नहीं हो गये? मैं हंसकर कहता, नहीं तो सर, आखिर मैं भी तो हिंदी से ही हूं। फिर भी कभी भी कुछ भी लादने और थोपने की कोशिश नहीं। कोई साहित्यक रचना पर लिखने, पढ़ने का दबाव नहीं बनाया।
इस बीच अकादमिक और साहित्यिक स्तर पर उनकी अपनी उठापटक चलती रहती लेकिन हमने उस हिस्से को कभी भी जानने की कोशिश नहीं की। कभी-कभी नौकरी के बारे में जरूर पूछते और मैं मुस्करा देता। फिर खुद ही कहते – परेशान मत होना ज्यादा, समय के साथ सब हो जाएगा।
आज जब मैं उन्हें याद कर रहा हूं, तो सबसे ज्यादा एक ही शब्द बार-बार याद आ रहा है – अधूरा। उनकी जिंदगी को लेकर क्या योजना थी, मुझे नहीं पता। क्या लिखना या प्रकाशित करना चाहते थे, नहीं मालूम। लेकिन मैंने अपनी जो भी योजना बतायी थी, उनके जाते तक वो सबकी सब अधूरी ही रह गयी। अधूरी पीएचडी, अधूरी किताब, वसुधा के लिए भेजा जानेवाला अधूरा लेख और यहां तक कि अंतिम बार देखने गया तो भी नाश्ते के लिए जो कुछ तैयार कर रहा था, वो भी अधूरा ही रह गया। रसोई में धुली दाल भगोने में पड़ी रह गयी और फ्रीज से बाहर निकाली दही फ्रीज के ऊपर ही… सब अधूरा ही।
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive

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DUCR 90.4 FM रेडियो की प्रोग्राम मैनेजर डॉ. विजयलक्ष्मी सिन्हा ने अल्सायी दुपहरी में फोन करके कहा- मैंने आपके बारे में सुना है,आप मीडिया पर लगातार लिख रहे हैं,मुझे आपके बारे में ज्यादा जानकारी अपने रेडियो प्रेजेंटर बलवीर सिंह गुलाटी से मिली। हम चाहते हैं कि आप इस चैनल पर मीडिया से संबंधित बात करें जिससे कि हमारे लिस्नर को फायदा हो। आप अपने अनुभव शेयर करें। गुलाटी से मेरी कोई मुलाकात नहीं थी। बस एक दिन उन्होंने मेल करके जरुर कहा था कि मैं आपको पढ़ता हूं और चाहता हूं कि आप हमारे यहां आएं। अब मैं उनसे मिल चुका हूं और उनके बारे में बस एक लाइन कहना चाहूंगा कि कायदे से इंटरव्यू मेरी नहीं उनकी ली जानी चाहिए और सिर्फ रेडियो पर ही नहीं अखबारों में भी छपे। बहुत ही अलग,सरोकार से जुड़ा और पूरे लगाव से वो काम कर रहे हैं। वो डीयू के उन छात्रों के लिए ऑडियो पाठ तैयार करते हैं जो कि खुद से किताबें नहीं पढ़ सकते। हिन्दी साहित्य की एक से एक किताबों को उन्होंने अपनी आवाज में पाठ तैयार किया है। मैं उन पर अलग से लिखूंगा। लेकिन ये शुद्ध रुप से वर्चुअल स्पेस के जरिए बननेवाला संबंध था। लिहाजा हमने खुशी जाहिर करते हुए कहा कि बिल्कुल आएंगे,बस कुछ दिन पहले बता दें। उन्होंने मेरे लिए 16 मार्च दिन के 11.00 से 12.00 बजे समय तय कर दिया। प्रोग्राम का नाम था- सक्सेस मंत्रा जिसमें मुझे कुछ अपने बारे में बात करनी थी- वही मेरा बचपन,मेरा शहर, दिल्ली तक का सफर,मीडिया के अनुभव,लेखन औऱ मीडिया में आनेवाले छात्रों के लिए सुझाव और संभावनाएं।

इन दिनों मैं पूरी तरह टेलीविजन चैनलों के बीच डूबा रहा लेकिन संयोग ऐसा बना कि  रेडियो को लेकर कुछ-कुछ गतिविधियां जारी रही। एक तो देवीप्रसाद मिश्र ने एफएम रेडियो पर बना रहे अपनी फिल्म के लिए कुछ कहने को कहा। वो भी शानदार अनुभव रहा। मैंने क्या कहा वो तो फिल्म में बात होगी ही। कभी उसकी ऑडियो रिकार्डिंग भी यहां लगाकर आपलोगों को सुनने के लिए जिद करुंगा। लेकिन फिर अपने पुराने काम को भी पढ़ने लग गया। नईम अख्तर ने ज्ञानवाणी से जुड़ी गड़बड़ियों का भारी-भरकम पुलिंदा भेजा,उसे भी पढ़ने लग गया और टेलीविजन में डूबते हुए भी रेडियो में तैरने लग गया। इस बीच एफ एम रेडियो में एकाध छोटे-छोटे लेख भी निबटाने थे। डीयूसीआर का काम इसी बीच आया। तब फेसबुक पर न्यू मीडिया को लेकर बहस जारी थी और मीडिया के कुछ मठाधीशों ने इसे बहुत ही पर्सनली लिया था। बहरहाल, टेलीविजन के बीच धकड़पेंच के बीच जब मुझे रेडियो पर बात करने,लिखने और उस पर काम करने का मौका मिला तो लगा कि जैसे मुझे खुश होने का सबसे बड़ा बहाना मिल गया। एक ब्याही स्त्री को जैसे ससुराल या फिर मेट्रो की अकेली जिंदगी से छूटकर जो सुख मायका जाने पर मिलता है,कुछ वैसा ही। टेलीविजन और रेडियो मेरे लिए भाई-बहन की तरह है क्योंकि भाईयों औऱ बहनों ने जब गृहस्थी की मजबूरियों के बीच साथ छोड़ दिया( भौगोलिक स्तर पर) तो भी इन दोनों ने मुझे खुश रखने की कोशिशें की।

रेडियो को लेकर बोलना,सोचना या फिर उस पर लिखना बचपन,रिसर्च और नास्टॉल्जिया में डूब जाने जैसा है। ये मेरी अब तक जिंदगी की तीन धूरी है जिससे मैं जुड़ा हूं। बचपन में रेडियो से इसलिए नहीं जुड़ा था कि उसे सुनना अच्छा लगता था बल्कि इसलिए कि जब टार्च की बैटरी निकालकर मैं दिनभर रेडियो बजाता और रात को वापस टार्च में डाल देता तो उसकी रोशनी बहुत ही डिम होती। पापा बहुत झल्लाते। वो जितना झल्लाते,मैं उतना ही खुश होता। मुझे जितनी खुशी मिलती,शायद ही किसी को अमीन सयानी को बिनाका गीतमाला सुनकर होती होगी। मैं बचपन से पापा को अपना विपक्ष मानता रहा और दबे-छुपे ही सही कभी उनकी नकल,कभी जो नहीं पसंद है वही करके अपना प्रतिरोध जाहिर करता रहा। हिन्दी विभाग के लोगों को देशभर में खोजे उत्तर-आधुनिकता के चिन्ह नहीं मिल रहे हैं,एक सुधी आलोचक के पूरे लक्षण गिना दिए जाने पर नाक-भौं सिकोड़े जा रहे हैं लेकिन अगर 2011 की जणगणना में उत्तर-आधुनिक बच्चे की गिनती शुरु हो तो मां मेरा नाम जरुर लिखवाएगी। मेरे लिए सारा मजा पापा की सोच औऱ नसीहत से ठीक उल्टा करने से पैदा होता और इसमें रेडियो सुनना सबसे ज्यादा शामिल था। बाद में पापा खुद से बैटरी लाने लगे थे,रेडियो भी। एकबारगी तो लगा कि अब रेडियो सुनने में मजा नहीं रहा लेकिन तब तक मजा चिढ़ाने से ज्यादा सुनने में पैदा होने लग गयी थी।

दूसरा कि एम फिल मैंने एफ एम चैनलों की भाषा पर ही की। रेडियो का पुराना प्यारा बहुत ही अलग अंदाज में हरा होने को था। रिसर्च बोर्ड के आगे विषय सुझाया तो ही ही,खीं-खीं की ध्वनि के बीच मेरा विषय ही लगा गुन हो जाएगा। लेकिन उन्हीं लोगों के बीच से कुछ को इस विषय में शोध की संभावना दिखी और मुझे मेरे मन-मुताबिक विषय पर रिसर्च करने के लिए मिल गया। मैं लगातार एफ एम चैनलों को सुनता। कई बार तो 24 घंटे रेडियो मिर्ची फिर कुछ दिन आराम फिर 24 घंटे तक रेडियो सिटी। यकीन मानिए तब मैं रेडियो ट्रामा में जीने लग गया था। फिर आकाशवाणी और एफ एम चैनलों से जुड़े लोगों से मिलना जुलना। मैंने इस पर कई पोस्टें लिखी है। वो संसद मार्ग पर दस के चार केले खाने से लेकर झाजी के साथ बैठकर रेडियो की किस्सागोई। एक अजीब सा नशा,एक खास किस्म का लगाव। अफेयर हो जाने जैसी नरम किन्तु असरदार अनुभूति और वो भी चौबीसों घंटे।

तीसरा कि मैं पूरी तरह टेलीविजन पर फोकस्ड होकर लिखने लग गया था। एक तो मेरे रिसर्च का पूरा काम इसी से संबंधित है और दूसरा कि मैं अखबारों-पत्रकाओं में इससे जुड़े मुद्दे पर बात करना चाहता था। अपने ब्लॉग पर अधिकांश पोस्टे टेलीविजन पर ही लिखता आया हूं। इसी बीच आकाशवाणी के भीतर हिन्दी को लेकर भारी खेल हुआ। फिर एफ एम गोल्ड की फ्रीक्वेंसी प्राइवेट चैनलों को अलॉट करने की बात आयी। एक जीते-जागते चैनल को बंद कर देने की खबरें आने लगी। मैं इस वक्त सबसे ज्यादा रेडियो को लेकर काम कर रहा था। लगातार अपडेट्स ले रहा था। लंबी-लंबी बातचीत और मुलाकातें करने लगा था,उन तमाम रेडियो में काम करनेवाले लोगों से जो कि रेडियो को हर हाल में बचाना चाहते हैं। अपने स्तर से जहां तक हो सका,लिखना शुरु किया।

DUCR 90.4FM की स्टूडियो में पहुंचा तो ये सारी यादें एक क्रम से याद आ रही थी। मैं थोड़ा नास्टॉल्जिक हो रहा था। गुलाटी और उसके साथ की सहयोगी रेडियो प्रेजेंटर दोनों की बहुत भले लगे। ब्रेक में उसने माहौल को बिल्कुल हल्का करने की कोशिश की थी और थोड़ी-थोड़ी चुहलबाजी भी। मजा आ रहा था मुझे इन दोनों से बात करते हुए। सुनिल बाबू- बढ़िया है..जब वो नकल कर रही थी तो मैंने ठहाके लगाने से अपने को रोक नहीं पाया। लेकिन इस नास्टॉल्जिया के बीच जब वो एक के बाद एक मीडिया और न्यू मीडिया से जुड़े सवाल पूछ रहे थे तो मैं थोड़ा सख्त हो जा रहा था, मेरे भीतर की कसमसाहट मेरी बातों में झलकने लगी थी और तभी मैंने कहा था कि- देश और दुनिया की आवाज उठानेवाला आज का पत्रकार सबसे ज्यादा गुलाम है। वो जेटएयर वेज की हड़ताल की खबर दिखा सकता है लेकिन उससे कहीं अधिक व्आइस ऑफ इंडिया पर ताला लग जाने से बेरोजगार,सड़कों पर आ जानेवाले मीडियाकर्मियों के बारे में एक शब्द नहीं लिख-बोल सकता।..उसी क्रम में मेरे मुंह से निकला कि संस्थानों में जो मीडिया की पढ़ाई हो रही है,वो संत बनाने की ट्रेनिंग है,पत्रकार बनाने की नहीं। लेकिन अच्छी बात है कि न्यू मीडिया और वर्चुअल स्पेस ने साबित कर दिया है कि अब किसी भी मीडिया स्टूडेंट को द्रोणाचार्य की जरुरत नहीं है। इस तरह मीडिया को लेकर बहुत सारी बातें मैंने की।

मेरी इच्छा नहीं बल्कि जिद है कि आप इसे सुनें। मीडिया को लेकर अपनी राय जाहिर करें। मेरी बात बकवास लगे तो बीच-बीच में कुछ गाने हैं ताकि आप इसे अधूरी छोड़ जाने की स्थिति में न आएं। नीचें ऑडियों लिंक चेंप रहा हूं, सुनने के लिए उस पर चटका लगाएं। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार है-

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एक मिनट एक खबर
स्टार न्यूज़ के कार्यक्रम 24 घंटे 24 रिपोर्टर की नकल करते हुए बाकी के न्यूज़ चैनलों ने भी बीस मिनट में बीस खबरें, खबरें सुपरफास्ट या खबर शतक जैसे कार्यक्रम की शुरुआत की। खबरों पर आधारित ये कार्यक्रम मीडिया से कम आइपीएल की संस्कृति से ज्यादा प्रभावित रहे। कुछ चैनलों पर तो ये कार्यक्रम आइपीएल के दौरान ही शुरु हुए। लेकिन तमाम चैनलों ने स्टार न्यूज़ की नकल तो जरुर कर ली, लेकिन जिस समझ के साथ इस कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी, वे उससे न केवल अलग हो गए बल्कि खबरों की दुनिया में बेवजह की हड़बड़ी पैदा कर दी। इस हड़बड़ी से चैनलों पर खबर के नाम पर जो शोर पैदा हुआ है,वो ऑडिएंस को परेशान करनेवाला है।

न्यूज़ शतक
24 घंटे 24 रिपोर्टर में आम तौर 24 अलग-अलग खबरें हुआ करती थी जो कि आज भी उसी तरह से है। जब तक एक ही इलाके की कोई बड़ी खबर न हो जाए,उसे दो या तीन खबर नहीं बनाया जाता। इससे इतना जरुर होता कि आधे घंटे में हम न्यूज चैनल के माध्यम से देश और दुनिया की 24 अलग-अलग खबरें जान पाते हैं। स्टार न्यूज का ये कार्यक्रम टीआरपी की चार्ट में चोटी के दस कार्यक्रमों में अक्सर शामिल होता। लिहाजा बाकी चैनलों ने भी इसी पैटर्न पर कार्यक्रम बनाने शुरु किए और तब आजतक ने खबरें सुपरफास्ट शुरु की, आइबीएन7 ने स्पीड न्यूज, इंडिया टीवी ने टी 20, न्यूज24 ने न्यूज शतक और यहां तक कि एनडीटीवी ने भी सुपरफास्ट खबरों में दौड़ लगानी शुरु कर दी। ज़ी न्यूज सालों से देश,विदेश,खेल से जुड़ी 10 बड़ी खबरें प्रसारित करता आ रहा है जो कि ज्यादा संतुलित और देखने लायक है। न्यूज चैनलों के बेहतरीन कार्यक्रमों की लिस्ट बनायी जाए तो उसमें इस कार्यक्रम को जरुर शामिल किया जाएगा। लेकिन 24 घंटे 24 रिपोर्टर की नकल पर बाकी चैनलों पर जितनी भी खबरें बनी है,उससे ऑडिएंस जुड़ने के बजाए उससे किनाराकशी कर लेने में ही अपनी भलाई समझती है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि एंकर्स खबरों को इतनी तेजी में पढ़कर निकलते हैं कि जैसे उन्हें खबरें प्रसारित करने से कहीं ज्यादा इस बात की चिंता और रिकार्ड बनानी है कि वे आधे घंटे में 20, 50 या फिर 100 खबरें प्रसारित करके शतक बना पाते हैं की नहीं। इन चैनलों ने अपने प्रतिस्पर्धी चैनलों से संख्या के आधार पर होड़ लगानी शुरु की और एक-दूसरे से अपने को बेहतर बताने में सिर्फ इस आधार पर जी-जान लगा दी कि वे उनसे कम समय में ज्यादा खबरें प्रसारित करेंगे।

नतीजा ये हुआ कि आज इन सारे चैनलों पर जो खबरें पढ़ी जाती है,उनमें आधा से ज्यादा खबरों को आप समझ ही नहीं पाएंगे कि क्या कहा जा रहा है। एंकर बदहवाश होकर खबरों की ऐसी दौड़ लगाते हैं कि सुननेवाली ऑडिएंस बहुत ही ज्यादा दबाव महसूस करने लग जाती है और सामान्य महसूस नहीं करते। दूसरा, लगे कि ये बहुत जल्दी में पढ़ी जानेवाली खबरें हैं इसलिए उसके साथ जिन ध्वनियों का प्रयोग किया जाता है,जिस तरह के ग्राफिक्स इस्तेमाल किए जाते हैं,वो अलग से परेशान करनेवाले होते हैं। न्यूज चैनलों में खबरों का विश्लेषण तो पहले से भी नहीं रहा है लेकिन सिर्फ हेडलाइन्स की खबरों का प्रसारित किया जाना,यह अपने आप में न्यूज चैनलों को अधूरा बनाता है। मानो वे स्वयं ही संकेत दे रहे हों कि बाकी की खबरों को विस्तार से जानने के लिए आप अखबार,इंटरनेट या फिर दूसरे माध्यमों की मदद ले। ऐसे में न्यूज चैनल खबरों के मामले में पहले के मामले में पहले से बहुत ही ज्यादा अधूरे और बेतरतीब होते चले जा रहे हैं।

इधर आप इन स्पीड न्यूज की खबरों पर गौर करें जिनमें कि संख्या पर ज्यादा जोर है तो शुरु की चार या पांच खबरें एक ही मुद्दे से जुड़ी होती है। विश्व कप से जुड़ी खबरों पर बात हो रही है तो शुरु के पांच-छह-सात खबरें इसी से जुड़ी होगी। उसी तरह बीच में भी एक ही खबर को तीन-चार बार पढ़ा जाएगा। शुरुआत में जब हमने इन स्पीड न्यूज कार्यक्रमों को देखा तो उसमें काफी विविधता हुआ करती थी। यहां तक कि न्यूज24 ने जब न्यूज शतक की शुरुआत की तो पहले एपीसोड में तकरीबन सौ अलग-अलग खबरें थी और हमारा भरोसा बढ़ा था कि अब टेलीविजन में दुबारा से चार-पांच मुद्दों के अलावे देश और दुनिया से जुड़ी बाकी खबरें भी होगी। शुरुआत के कुछेक एपीसोड के लिए इन चैनलों ने बहुत मेहनत की लेकिन अब वही छ-सात मुद्दों को जोड़कर सिर्फ संख्या बढ़ाने के लिए सौ,पचास या बीस खबरें प्रसारित करने लग गए हैं। ऐसा करने से हमें संख्या बदल जाने के बाद भी लगता है कि एक ही खबर की आधी-अधूरी और जैसे-तैसे गुजर जानेवाली खबरें देख रहे हैं। इस दौरान विजुअल्स का असर बिल्कुल खत्म होता जा रहा है जबकि टेलीविजन अंततः विजुअल माध्यम है। इन कार्यक्रमों के फेर में टेलीविजन की संभावना खत्म होती है।

बहरहाल न्यूज से जुड़े ऐसे कार्यक्रमों की शुरुआत के पीछे के तर्क को समझने की कोशिश करें तो चैनलो ने घोषित कर दिया है कि हम ऑडिएंस के पास विस्तार से खबरें देखने का समय नहीं होता। ऐसे में जरुरी है कि उन्हें कम समय में ज्यादा से ज्यादा खबरें दिखाई जाए। लेकिन अगर आप चैनलों के रवैये पर गौर करें तो वो हमारी चिंता से कहीं ज्यादा इस बात को लेकर परेशान नजर आते हैं कि कैसे देश और दुनिया की खबरों को जल्दी-जल्दी आनन-फानन में निबटाकर वॉलीवुड, क्रिकेट और रियलिटी शो से जुड़ी खबरों के लिए स्पेस तैयार करें। आप गौर करें तो न्यूज़ चैनल्स

 ऐसा करके अपनी जिम्मेदारी से पिंड छुड़ाकर टेलीविजन को पेड या स्पांसर प्रोग्राम का माध्यम बनाने में जुड़े हैं। इस पर गंभीरता से बात करने की जरुरत है।( मूलतः प्रकाशित- जनसंदेश टाइम्स, 23 मार्च 2011)

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8 मार्च को दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज की छात्रा राधिका तंवर की सरेआम हत्या का मुद्दा अधिकांश न्यूज चैनलों पर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के उस बयान के विरोध पर आकर टिक गया जिसमें उन्होंने कहा कि समाज को भी अपनी जिम्मेदारी अपनी समझनी चाहिए। दक्षिण दिल्ली जिला पुलिस उपायुक्त एजीएस धारीवाल की उस बाइट को भी लगभग सभी चैनलों पर दिखाया गया जिसमें उन्होंने साफ तौर पर कहा कि यह हमारे लिए अफसोस की बात है कि अभी तक कोई भी व्यक्ति गवाह के तौर पर सामने नहीं आया है।

जाहिर है कि राधिका तंवर की हत्या दिल्ली के जिस इलाके में हुई वह व्यस्त इलाकों में से है और हत्या के वक्त भी सैंकड़ों लोग मौजूद होंगे लेकिन प्रशासन ने साफ तौर पर कहा कि कोई भी यह सब बताने के लिए सामने नहीं आया। दिल्ली या किसी भी ऐसे शहर के लिए एक बड़ा वाल है कि जहां लोगों के बीच घिरकर भी कोई सुरक्षा नहीं है। पुलिस और प्रशासनिक सुरक्षा के पहले एक सामाजिक सुरक्षा और अपराधियों का उसके प्रति भय होना चाहिए लेकिन वह पूरी तरह से खत्म होता जा रहा है। न्यूज चैनलों को चाहिए था कि वे इस सवाल पर गंभीरता से बात करे और उन पहलूओं को भी सामने लाए जिसकी वजह से लोगों की मौजूदगी में भी घटना का अंजाम देने में उन्हें कोई भय नहीं होता। लेकिन न्यूज चैनलों ने अपनी पूरी बहस और खबरें इस बात पर केंद्रित रखा कि प्रशासन पूरी तरह से नाकाम है,पुलिस पूरी तरह से लापरवाह है और मुख्यमंत्री की तरफ से जो बयान आए हैं, वह दरअसल अपनी व्यवस्था की कमजोरियों को ढंकने का नतीजा है।
न्यूज24 जैसे चैनल ने दावा किया कि पुलिस इस मामले को लेकर जो हरकरत में आयी है,ये उनकी ही मुहिम का असर है। चैनल के एंकर ने इस बात को आधे घंटे की बुलेटिन में आठ बार दोहराया। आइबीएन7 ने साफ तौर पर कहा कि ऐसे में दो-चार अधिकारियों को सूली पर लटका दिए जाएं,शायद तब यह समझा जा सकेगा कि सुरक्षा की जिम्मेदारी कितनी बड़ी चीज है? स्टार न्यूज ने एजीएस धारीवाल से खास मुलाकात की और उनकी लंबी बातचीत चैनल पर दिखाया। धारीवाल की पूरी बातचीत में यह बात बार-बार खुलकर सामने आयी कि लोग ऐसे मामले में पुलिस के साथ बिल्कुल नहीं आते,उना सहयोग नहीं करते और कोई भी गवाह के तौर पर सामने नहीं आता लेकिन एंकर किशोर आजवाणी इस पूरी बातचीत को पुलिस की नाकामी और उस मुहावरे की तरफ ले गए जिसमें पुलिस में शिकायत दर्ज करने का मतलब दूसरी बार पीड़ित होना है। देखते ही देखते तमाम चैनल ने इस पूरे मामले को लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है दिल्ली को एक मुहिम की शक्ल देने में जुट गए। इस हत्याकांड की सिलसिलेबार और फील्ड रिपोर्टिंग सिरे से गायब हो गयी। चैनलों के लिए इस तरह की घटनाएं छानबीन का हिस्सा कम पैकेज की शक्ल में जिसमें कि ज्यादा से ज्यादा विजुअल इफेक्ट, सिनेमाई ध्वनियां और नाट्य रुपांतर के तौर पर ग्राफिक्स बनाने का मामला ज्यादा हो जाता है। राधिका हत्याकांड मामले को चैनल आरुषि हत्याकांड की तरह न्यूज चैनल का सीरियल बनाने में जुटते नजर आए। इनके बीच खास आजतक ने ओफ्फ! ये दिल्ली नाम से अपने खास कार्यक्रम में जरुर संतुलन बनाने की कोशिश की और सुरक्षा,समाज के रवैये और इस पूरे मामले को गंभीरता से दिखाने का काम किया। टाइम्स नाउ पर अर्णव गोस्वामी ने शीला दीक्षित के बयान पर भी गंभीरतापूर्वक विचार करने की बात कही और यह सवाल उठाया कि हमें समाज के बदलते चेहरे पर भी बात करने की जरुरत है।

आप गौर करें तो ऐसी कोई भी घटना जिसमें कि पुलिस,प्रशासन,सरकार या फिर किसी दूसरी सार्वजनिक संस्थानों के नाम आते हैं, न्यूज चैनल उन्हें अधिक से अधिक जनविरोधी बताने में बहुत अधिक देर नहीं लगाते । ऐसा वे ऑडिएंस के प्रति अपनी पक्षधरता साबित करने के लिए करते हैं जिससे लगे कि वह उनके प्रति कितने चिंतित हैं। ऐसा करने के क्रम में वे सही-गलत और तथ्यों को नजरअंदाज करके एक ऐसा माहौल बनाने की कोशिश में लग जाते हैं जिससे नागरिक समाज के बीच उनके प्रति आक्रोश पैदा होने शुरु हो जाएं। वे उनके विरोध में आगजनी करें,तोड़-फोड़ मचाएं,सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचानी शुरु करें। चैनल इस सोच के साथ काम करते हैं कि जब ऐसे माहौल पैदा किए जाएंगे तो खबर में अधिक से अधिक भड़काउ फुटेज शामिल किए जा सकेंगे जिससे कि टीआरपी पैदा होने में आसानी होगी। लेकिन ऐसा करते हुए वे इस बात की रत्तीभर भी चिंता नहीं करते कि इससे एक सार्वजनिक संस्था के तौर पर पुलिस,प्रशासन,सरकार और लोकतंत्र की मशीनरी से लोगों का भरोसा उठता जाएगा। चैनल उन संस्थानों के प्रति कभी भी उतनी तल्खी नहीं दिखाते जो आम नागरिकों के अधिकारों को कुचलते हुए अपना विस्तार कर रहे हैं। शायद यही वजह है कि न्यूज चैनलों में कार्पोरेट,मीडिया,पूंजीपति वर्गों से जुड़ी नकारात्मक खबरें उसका हिस्सा नहीं बनने पाती। यह दरअसल लोगों के जज्बातों से खेलकर, लोकतंत्र को कमजोर कर उनके 
लिए रास्ता तैयार करना है जो कि आगे चलकर एक लाचार समाज के समूह में तब्दील होता जाएगा। राधिका तंवर को सैंकड़ों लोगों के सामने हत्या करनेवाला शख्स समाज की इसी कमजोरी की पैदाईश है जो किसी न किसी रुप में न्यूज चैनलों ने पैदा किए है और बिडंबना देखिए कि ऐसे लोगों को स्वयं इन चैनलों से भी कोई खास डर नहीं है। ऐसा करके मीडिया अपना ही असर कम कर रहा है। (मूलतः स्वाभिमान टाइम्स में प्रकाशित 16 मार्च 2011)



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12 मार्च. टेलीविजन पर इंडिया और साउथ अफ्रीका के बीच क्रिकेट वर्ल्ड कप का रोमांचकारी मैच और दिल्ली में हिन्दीः बदलेगी तो चलेगी! पर बड़ी बहस। आयोजक ने भी हिन्दी समाज की अच्छी लॉइल्टी टेस्ट करवाने जा रही है,आज उनके लिए इमोशनल अत्याचार है। जो समाज हिन्दी के नाम पर दिन-रात बहसबाजी में पड़ा रहता है,उसके संकट में आ जाने के भय से रोता-कलपता नजर आता है,आज इसके बदलाव और बनी रहने को लेकर बहस हो रही है तो देखते हैं कि वो इसमें शामिल होते हैं भी या नहीं? वो जिस टेलीविजन को पूंजीवादी माध्यम मानकर दिन-रात कोसते हैं,क्रिकेट को सांस्कृतिक अफीम मानते हैं,उससे अपने को अलग रख पाते हैं भी या नहीं? मैच तो रोमांचकारी होगा ही,इसमें कोई शक नहीं । देश की करोड़ों ऑडिएंस साढ़े चार बजे अपने को टेलीविजन स्क्रीन के आगे झोंक देंगी..लेकिन दिल्ली में मौजूद हिन्दी समाज? क्या वो भी उन आंखों में शामिल होगा। वो भी दर्जनों मल्टीनेशनल कंपनियों से चिपके मैंदान से डूबता-उतरता रहेगा,हर 20 मिनट में कोक,थम्स अप के विज्ञापनों को झेलता रहेगा,अभी कायदे से जवानी चढ़ी नहीं कि इंश्योरेंस की चिंता में डूब जाएगा। नहीं साहब नहीं, वो ऐसा नहीं करेगा। उसे पता है कि ये मैच तो फिर भी कहीं दोबारा देखने को मिल जाए, कुछ नहीं तो न्यूज चैनलों की फुटेज में ही सही,टुकड़ों-टुकड़ों में मैच का मजा मिल जाएगा,लेकिन ये जो बहस होने जा रही है, वो कहां से रिपीट होगी? लेकिन दिक्कत तो फिर भी है। हिन्दी समाज को वो तबका जिसे हिन्दी से भी उतनी ही मोहब्बत है और क्रिकेट को अपना धर्म मानता है,उनका क्या करेंगे? आयोजक से उनके लिए बस इतनी अपील है कि उनके फैसले को लॉयल्टी का हिस्सा न मानकर अंतिम समय में लिया गया फैसला मानकर बख्श दें। बहसहाल


हिंदी बदलेगी तो चलेगी! आज यानी 12 मार्च को होनेवाली बहस के इस शीर्षक में विस्मयादिबोधक चिन्ह लगाकर आयोजक ने भले ही विनम्रता जाहिर करने की कोशिश की हो कि ऐसा लगे कि वे वक्ताओं से उनकी राय जानना चाह रहे हैं, अपनी तरफ से कोई स्टेटमेंट जारी नहीं कर रहे हैं – लेकिन ये शीर्षक अपने आप में बिना किसी बहस के कुछ स्टेटमेंट भी जारी करता है, जिसे मैं इस रूप में समझ रहा हूं…
एक तो ये कि अगर हिंदी नहीं बदली, तो इसके विभाग तो फिर भी चलेंगे लेकिन इस विभाग से पैदा होनेवाली हिंदी नहीं चलेगी। मतलब कि हिंदी के बरतने में हिंदी विभाग से पैदा होनेवाली हिंदी का कोई योगदान नहीं माना जाएगा। वैसे भी हिंदी भाषा को लेकर जब भी बहस की शुरुआत होती है और इसके संकट पर मर्सिया पढ़ा जाता है, तो कहीं न कहीं इस बात की रस्साकशी चलती है कि अकादमिक संस्थानों में उगायी जानेवाली हिंदी का इस्तेमाल क्यों नहीं हो रहा है और वो गहरे संकट के दौर से गुजर रही है? हिंदी के पूरे विमर्श का एक बड़ा हिस्सा संकट का विमर्श है। ये संकट से कहीं ज्यादा अकादमिक संस्थानों के हृदय का कचोट है कि जिस हिंदी को उन्होंने लाठी-डंडे-नंबर और ग्रेड के दम पर वर्चस्व में बनाये रखने की कोशिश की – ये एक बड़ा मसला है कि लोग इन तमाम यातनाओं के बावजूद इससे मौका मिलते ही बगावत क्यों कर बैठते हैं? दूसरा ये कि अगर हिंदी नहीं बदलेगी तो संभव है कि भविष्य में हिंदी विभाग भी न चले। इसकी वजह साफ होगी कि आनेवाले समय में सरकारी नीतियां कुछ इस तरह से काम करेगी कि जिन विषयों की मॉनिटरी वैल्यू नहीं है, वो बाजार पैदा नहीं कर सकते या वो बाजार के अनुरूप अपने को नहीं बना पाते, उन्हें ऐसे कई दूसरे विषयों के साथ मिलाकर इमर्ज कर दिया जाए और ऐसे विषय बनाये जाएं जो कि रोजगार और बाजार पैदा करने में सहायक हो। ऐसे में हिंदी इंडियन कल्चरल स्टडीज, इंडियन लैंग्वेच एंड लिटरेचर के भीतर एक विषय बनकर रह जाए और अभी जो देशभर में हिंदी विभाग शक्तिपीठ के तौर पर स्थापित हैं, वो धीरे-धीरे ध्वस्त कर दिये जाएं। आनेवाले समय में विदेशी विश्वविद्यालयों की जो फ्रैंचाइजी खुलनेवाली है, वो बिना किसी बहस और झंझट के ये साबित कर देगी कि इस देश की शिक्षा में हिंदी के लिए अलग से विभाग की कोई खास जरूरत नहीं है, ये परजीवी विषय है इसलिए इसे दूसरे विषयों के साथ जोड़ दिया जाए। संभव है कि ये लग्जरी सब्जेक्ट के तौर पर करार दिया जाए और इसकी फीस इतनी अधिक कर दी जाए कि वो एलीट और अत्यधिक संपन्न लोगों की पहुंच के लिए ही हो। जिस हिंदी को आज मुगलसराय जंक्शन की तरह पकड़ा और पढ़ाया जा रहा है कि कहीं की कोई गाड़ी नहीं मिली तो हिंदी की सवारी पकड़ ली – इससे बिल्कुल अलग स्थिति होगी।
इन दोनों स्थितियों में जो एक चीज कॉमन है कि हिंदी को हर हाल में ये जिद छोड़नी होगी कि सिर्फ साहित्य हिंदी नहीं है। देश के विभागों को इस ठसक से बाहर निकलना होगा कि हिंदी सिर्फ उनके ही कारखाने से पैदा हो रही है। उन्हें सख्ती से समझने की जरूरत है कि हिंदी को सिर्फ न तो साहित्य बना रहा है और न ही विभाग से अकादमिक शिक्षा लेनेवाले लोग। इसमें एक भाषा या अभिव्यक्ति के स्तर पर तेजी से एक तबका शामिल हो रहा है, जो कि बोलने के स्तर पर पहले से ही मौजूद था और अब वो लिखने के स्तर पर भी सक्रिय हो रहा है, जिसने कि रोजी-रोजगार के लिए कुछ और इलाका चुना है और रचनात्मक बने रहने के लिए हिंदी। हिंदी का ये वर्ग आपको इंटरनेट पर जो लोग अपनी प्रोफाइल घोषित करते हुए लिख रहे हैं, उससे साफ अंदाजा लग जाएगा। हिंदी के इस इस्तेमाल से ये भाषा एक हद तक व्याकरण और शुद्धता की हठधर्मिता से छिटककर तकनीकी सुविधा और कीबोर्ड की चालाकी पर आकर टिक जाती है। संभव है कि हिंदी का ये प्रयोग कई स्तरों पर गलत हो लेकिन ऐसी हिंदी इस्तेमाल करनेवाले लोगों की सोशल स्टेटस और पर्चेजिंग कैपिसिटी किसी विभागीय हिंदी बरतनेवाले से ज्यादा है तो वही हिंदी को ड्राइव करेगा। वो पहले तो अनजाने में लेकिन बाद में अपनी बादशाहत दिखाने के लिए हिंदी को वैयाकरणिक स्तर पर डैमेज करेगा और अकादमिक संस्थान उसका कुछ नहीं कर पाएंगे। ये दबंगई वाली हिंदी होगी, जिसका असर हम पॉपुलर मीडिया और मंचों पर साफ तौर पर देख रहे हैं। आयोजक ने जो शीर्षक प्रस्तावित किया है, यहीं पर आकर वो एक स्टेटमेंट की शक्ल में दिखाई देता है।
अब हम एक दूसरी संभावना पर भी विचार करें जो कि हमें फिलहाल फैशन और आर्किटेक्चर के तेजी से बदलते रूप में दिखाई दे रहा है। आइडियोलॉजी के स्तर पर भी एक हद तक हमें ये देखने को मिल रहा है। आधुनिकता के विस्तार के बाद जिस तरह से विचारधारा रैडिकल और हाइपर रैडिकल होती चली गयी, फैशन और आर्किटेक्चर टिकाऊपन के बजाय अपने भड़कीले और भव्य तौर पर विस्तार पाता गया, आज वो फिर से उस पारंपरागत दौर में लौटने की कोशिश में नजर आता है, जो कि कभी तर्क के आधार पर खारिज कर दिये गये थे। पुरानी चीजों को खारिज करने का जो दौर चला, उसमें उसके एक-एक चिन्ह निकाल-बाहर किये गये। अब वो सबकुछ एक पोस्टमाडर्न परिवेश रचते हुए भी लौटने की प्रक्रिया में है। ऐसे में संभव है कि बालमुकुंद गुप्त और द्विवेदीयुग की हिंदी के कुछ शब्दों को अपनाते हुए हिंदी आगे बढ़े। इस हिंदी को आप नास्‍टैल्जिक होकर फिर से अपनाएंगे और भावनात्मक अत्याचार के बजाय इमोशनल अत्याचार बोलना ज्यादा पसंद करेंगे। मेरी अपनी समझ है कि हिंदी जैसी भी बदलेगी और जो भी बदलेगी उसमें अतीत के शब्दों को लेकर नास्‍टैल्जिक और अंग्रेजी, कॉल्किकल या स्ट्रीट लैंग्वेंज को अपनाने की छटपटाहट के साथ हिंदी आगे बढ़ेगी। इस हिंदी के साथ सूचना की सहजता और अनुभूति की गहनता का सवाल फिर भी बना रहेगा। हिंदी ने सूचना, बाजार, रोजगार की शर्तों को लेकर अपनी सूरत जिस तरह से बना डाली है, अनुभूति की गहनता का सवाल आनेवाले समय में एक बार फिर से उठेगा। ऐसे में विभागीय हिंदी की शिनाख्त फिर से हो कि जनाब चलिए, सूचनावाली हिंदी तो आप नहीं बना पाये, बाजार की हिंदी से आपका विरोध रहा लेकिन अनुभूति की गहनता का जिम्मा तो आपके हाथों में था, बताइए… आपने इसके लिए क्या किया?



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रश्मि ऑटो में बैठकर अभी थोड़ी दूर ही चली थी कि ऑटो हिलने लगा। उसने ड्राइवर से जब पूछा तो बताया कि कुछ नहीं मैडम,बस इंजन गर्म हो जाने से ऐसा हो जाता है। कुछ दूर तक सब ठीक रहा लेकिन फिर से हिलना शुरु हो गया। अबकी बार रश्मि ने थोड़ा जोर देकर पूछा और थोड़ी घबराहट भी हुई। अंत में उसने ड्राइवर से ऑटो रोकने कहा और रुकते ही एकदम से आगे उसके पास आ गयी। उसने देखा कि ड्राइवर की पैंट खुली हुई है,आपत्तिजनक स्थिति में है और मास्टरवेट कर रहा था,उसने झट से रुमाल रख लिया। बाद में लोग जुट गए और रश्मि ने भी कारवायी की मांग की।

8 मार्च,अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस को ध्यान में रखकर तमाम न्यूज चैनलों पर एक के बाद स्त्री अधिकार और उसकी सुरक्षा को लेकर विमर्श का दौर शुरु हो गया था। इस दौरान मनोरंजन चैनलों पर जो चरित्र पूरे साल तक व्रत रखने और करवाचौथ को पहले से खूबसूरत बनाने के टिप्स दिया करती है,स्त्री अधिकारों और सुरक्षा को लेकर बात करने लग जाती है। इसी में से स्त्रियों का एक ऐसा वर्ग उभरकर सामने आने लगा है जो इस दिन को फुलटाइम मस्ती का दिन देने की शक्ल में लगी है। इसमें पितृसत्तात्मक समाज के बीच रहकर होनेवाले संघर्ष और चुनौतियां गायब है। वहीं दूरदर्शन पर चर्चा में नीलम सिंह के साथ पैनल के भीतर इस बात को लेकर चर्चा हो रही थी कि एक दिन ही क्यों महिला के अधिकारों,सुरक्षा और उनके हक की बातें सालभर होनी चाहिए। इस लिहाज से लोकसभा टीवी पर नियमित प्रसारित कार्यक्रम जेंडर डिस्कोर्स को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। लेकिन आइबीएन7 पर जिंदगी लाइव में इस तरह के विमर्श से बिल्कुल जुदा जो कार्यक्रम प्रसारित हुए,उसने एकबारगी विमर्श के असर पर ही सवाल खड़े कर दिए। कार्यक्रम की रुपरेखा देखकर एक सवाल तो एकदम से मन में आया कि स्त्री अधिकार औऱ चुनौतियों पर विमर्श करने  के बजाय क्या यह ज्यादा जरुरी नहीं है कि स्त्रियां अपने अनुभवों को ज्यादा से ज्यादा साझा करे? शायद यही वजह रही कि दूरदर्शन पर स्त्री विमर्शकारों की जो पैनल रही,स्त्री विमर्श की दुनिया में स्थापित नाम है, बावजूद उसके जिंदगी लाइव पर अपने अनुभवों को साझा कर रही स्त्रियों ने हम जैसे दर्शकों पर अपनी पकड़ ज्यादा बना पायी। रश्मि के साथ-साथ हिना और उज्मा की साझेदारी वैसा ही असर डालती है।

हिना और उज्मा पढ़ाई करने के लिए बाहर जाती,आज वह डॉक्टर है। लेकिन जैसे ही वह घर पहुंचती,उसके अपने ही सगे भाई उसके लिए वेश्या शब्द का इस्तेमाल करते। हिना ने बताया कि ये बात अगर कोई बाहर का व्यक्ति करता तो फिर भी नजरअंदाज किया जा सकता था लेकिन अपने ही लोग ऐसा कर रहे थे। आगे उज्मा ने बताया कि लेकिन हमने सोचा कि इस बात को सार्वजनिक करना जरुरी है। हमने शिकायत दर्ज कराने की कोशिश की लेकिन थाने ने लापरवाही दिखायी और हमारी बात नहीं सुनी। हम इसे इसलिए भी सार्वजनिक करना चाह रहे थे कि समाज को वेनिफिट ऑफ डाउट न मिले कि बाहर जाकर पढ़ती है तो हो सकता है ऐसा करती हो? आगे चलकर दोनों बहनों ने अपने स्तर से संघर्ष किया।

जिंदगी लाइव में स्त्रियों के जो अनुभव खुलकर हमारे सामने आए,दरअसल वह हमारे पितृसत्तात्मक समाज का वह ब्लूप्रिंट है जिसके आधार पर आगे की पीढ़ियां गढ़ने की कोशिश की जाती है। बहुत कम ही मौके होते हैं जिसमें टेलीविजन इस ब्लूप्रिंट को हमारे सामने बेपर्दा करता है और अगर करता भी है तो इस तरह से नहीं कि उसका सीधा अर्थ लगाया जाए कि देश की आधी दुनिया अभी शिक्षा,सुविधा और संसाधनों के बीच जीती हुई भी अपने अधिकारों और सम्मान से कोसों दूर है। टेलीविजन का रवैया समाज के पितृसत्तात्मक समाज के पक्ष में है। तभी तो आजतक जैसे चैनल ने आगरा में ससुराल के लोगों के प्रताड़ित किए जाने की घटना पर कहा- 3 करोड़ दहेज देने के बावजूद लड़की को 13 घाव दिए गए। खबरों की लाइनों की तुकबंदी और भारी-भरकम पार्श्व ध्वनियों के बीच इस खबर का असर भले ही बढ़ गया हो लेकिन चैनल की मानसिकता भी सामने आने से बच नहीं पाती कि दहेज देकर शादी करना लगभग एक सुरक्षित जीवन की गारंटी है। चैनल ने इसी तरह 1 जनवरी 2011 को खबर चलाया कि 3 करोड़ मिलने के बावजूद भी वालीवुड की मुन्नी ने ठुमके लगाने से मना कर दिया।

एक तो समाज का शिंकजा इतना जटिल है कि स्त्रियों का प्रतिरोध हमारे सामने खुलकर सामने नहीं आ पाता है,हर तरह से उसे दबाने की कोशिश की जाती है लेकिन जब भी किसी रुप में उसके प्रतिरोध आते हैं,ऐसे वक्त अधिकांश मौके पर चैनल का पितृसत्तात्मक समाज से पैदा हुए शब्द उसे कुचल जाते हैं। स्त्रियों का यह प्रतिरोध सनसनी,एसीपी अर्जुन या जुर्म जैसे कार्यक्रम के खाते में जाकर टीवी सीरियल की शक्ल ले लेता है और खबरों की मुख्य बहस से बाहर हो जाता है। प्रतिरोध करनेवाली स्त्री के चेहरे पर लगाए गए लाल गोले और लूपिंग(बार-बार एक ही विजुअल दिखाना) उसे समाज का एक तमाशाई चरित्र में बदल देता है जिसके पीछे चैनल की एक ही कोशिश होती है कि इस पूरे घटना को देखकर मदद के बजाय सीरियल का मजा पैदा करना हो जिसे देखखर पुरुष समाज अट्टहास लगाए- देख लिया न,बने-बनाए ढांचे और नियमों से विरोध करने का नतीजा। बाकी रही सही कसर सास-बहू आधारित सीरियल पूरी कर ही रहे हैं।
(मूलतः प्रकाशित- टीवी मेरी जान,जनसंदेश टाइम्स 9 मार्च 2011) 
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17 फरवरी से इंडिया टीवी कलेजा ठोककर बिग टॉस नाम से वर्ल्ड कप पर सबसे बड़ा रियलिटी शो प्रसारित कर रहा है लेकिन उससे कोई पूछनेवाला नहीं है कि न्यूज चैनल पर रियलिटी शो प्रसारित करने की अनुमति किसने दी है? चैनल के खुराफात दिमाग एक के बाद एक स्टंट करने में सक्रिय हैं। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की मानिटरिंग टीम ने अभी तक इस पर किसी भी तरह की आपत्ति नहीं जतायी है। यह माननेवाली बात बिल्कुल नहीं हो सकती कि इन दिनों इंडिया टीवी पर दोहरे स्तर पर( शो के भीतर प्रतिभागी खिलाडियों पर दाव लगा रहे हैं और शो के प्रतिभागियों पर दर्शकों को दाव लगाने को कहा जा रहा है) वर्ल्ड कप को लेकर जो  सट्टेबाजी चल रही है,उसकी जानकारी मानिटरिंग टीम को नहीं है। लेकिन इस देश में सरकारी मंचों से टेलीविजन के किसी भी कार्यक्रम पर नकेल तब तक नहीं कसी जाती है जब तक कि कोई हादसा न हो जाए या फिर जनहित में किसी की ओर से मुकदमा न दायर कर दिए जाएं। इस हिसाब से इंडिया टीवी के उपर किसी तरह की कारवायी हो इसके लिए हमें किसी बड़े हादसे का इंतजार करना होगा। वैसे इस शो को चर्चा में लाने के लिए चैनल ने राखी सावंत और स्वामी अरविंद प्रसंग को हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दैनिक भास्कर और हिन्दुस्तान टाइम्स जैसे अखबार ने एक न्यूज चैनल पर रियलिटी शो शुरु किए जाने पर जहां आपत्ति में एक लाइन नहीं छापा,वही इस प्रसंग को सुर्खियों में बनाए रखा। इंडिया टीवी ने पब्लिसिटी के लिए खुद इन अखबारों की चर्चा की है।

इंडिया टीवी की ओर से प्रसारित बिग टॉस पर गंभीरता से बात करने की जरुरत सबसे पहले तो इस बात को लेकर है कि एक न्यूज चैनल पर रियलिटी शो की शुरुआत कैसे की जा सकती है? वैसे तो खबरों से जुड़े सवालों के जबाब देने के नाम पर कॉन्टेस्ट कराकर चैनलों और मोबाइल कंपनियों ने एक स्वतंत्र कमाई का जरिया विकसित कर ही लिया है लेकिन न्यूज चैनल की लाइसेंस पर विशुद्ध मनोरंजनपरक कार्यक्रम चलाने का काम कैसे कर सकता है? इस धंधे से चैनल को जो मुनाफा हो रहा है,उसका हिसाब-किताब वह कितनी पारदर्शिता से सामने रखता है, इस सवाल पर बात करना जरुरी है। साल 2007 में आजतक ने सीरियलों और टीवी पर आधारित जब धन्नो बोले तोऔर राजू श्रीवास्तव के शो की शुरुआत की थी तो उसे इसी बात की फटकार मिली थी और कार्यक्रम बंद करना पड़ा। ये अलग बात है कि आज देश के तमाम प्रमुख न्यूज चैनलों पर रियलिटी शो,टीवी सीरियल,सिनेमा और मनोरंजन आधारित कार्यक्रमों पर तकरीबन 4-6 घंटे का समय दिया जाता है। उसके बाद रात के 12 बजे से गंडे-ताबीज,माला-महामंत्र बेचने-खरीदने का कारोबार शुरु हो जाता है। किसी भी एक न्यूज चैनल के 24 घंटे की रनडाउन( प्रोग्राम की लिस्ट) पर गौर करें तो मुश्किल से 8-9 घंटे ऐसे कार्यक्रम निकलकर आते हैं जिन्हें कि न्यूज चैनल के कार्यक्रम की कैटेगरी में रखे जा सकते हैं। नहीं तो उन पर वे सारे धंधे चलते हैं जिसे कि सरकार की ओर से या तो प्रतिबंधित किया गया है या फिर टैक्स के अन्तर्गत शामिल किया गया है। न्यूज चैनल की लाइसेंस लेकर इंडिया टीवी जो काम कर रहा है,वह किसी भी लिहाज से पत्रकारिता का हिस्सा नहीं है।

दूसरा कि क्रिकेट या किसी भी खेल पर सट्टेबाजी पूरी तरह प्रतिबंधित है। इंडिया टीवी पर बिग टॉस की जो फार्मेट है,वह सट्टेबाजी के करीब है। शो के भीतर जितने भी प्रतिभागी हैं,वे दो टीमों में बंटे हुए हैं। एक टीम वीणा मल्लिक की है और दूसरी राखी सावंत की। ये दोनों टीमें वर्ल्ड कप के प्रतिभागी खिलाड़ियों पर दाव लगाती है और उस हिसाब से उन्हें प्वाइंट के तौर पर रन मिलते हैं। इधर दर्शकों से इन शो के प्रतिभागियों पर दाव लगाने को कहा जाता है। अंत में अगर दर्शक और शो के प्रतिभागी के दाव के अनुसार खिलाड़ी जीतते हैं तो दोनों को इसका लाभ मिलेगा। इंडिया टीवी ने खुद इस शो की जगह को बाजीघर का नाम दिया है।

तीसरी बड़ी बात जिससे असहमत होते हुए अगर चैनल दावा करे कि इससे क्रिकेट की भावना का विकास होता है तो यह बकवास से ज्यादा कुछ भी नहीं होगी कि इसमें बिग बॉस की अश्लील हरकतों,बेवजह झमेले पैदा करने की नीयत को और मनोरंजन चैनलों से होड़ लेने की आदत को शामिल किया गया है। आज के दौर में एक न्यूज चैनल को दूसरे न्यूज चैनल से प्रतिस्पर्धा होने के बजाय मनोरंजन चैनलों से खतरा है क्योंकि इसके मुकाबले न्यूज चैनल देखने में कमी आ रही है। लोगों का इनकी खबरों के प्रति भरोसा उठने की वजह से खबरों के लिए  न्यू मीडिया की शरण में जा रहे हैं और टाइमपास के लिए मनोरंजन चैनलों की तरफ जा रहे हैं। इंडिया टीवी इस खतरे से बचने के लिए 2007 में देर रात सेक्स संबंधी समस्याओं पर शो प्रसारित किया जिसका कि लोकप्रियता के बावजूद काफी विरोध हुआ और अब सीधे रियलिटी शो पर उतर आया है। अग इस पर कुछ कारवायी नहीं की गयी तो आनेवाले समय में कई दूसरे चैनल रियलिटी शो के मैंदान में उतरेंगे जो कि मीडिया के भविष्य के लिए बेहतर नहीं होगा। फिलहाल राखी सावंत ने बाबा अरविंद की साधना का बुरी तरह मजाक उड़ाया है और उनके शंख को डंबल की तरह इस्तेमाल किया है, रेडियो सिटी की मशहूर जॉकी सिमरन ने बाबा को काले अंगूर खिलाकर ठहाके लगाए हैं। इन सबसे बाबा को गहरा आघात लगा है और हॉस्पीटल में भर्ती हैं। बाबा के चेलों का विरोध जारी है। अगर ये विरोध जारी रहा और बाबा को कुछ हो गया तो उम्मीद कीजिए कि बिग टॉस पर सरकार की तरफ ध्यान जाएगा।  

मूलतः प्रकाशित- टीवी मेरी जान,जनसंदेश टाइम्स 3 मार्च 2011 


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महीनेभर से ज्यादा हो गए। अपनी व्यक्तिगत परेशानियों की वजह से मेरा मीडिया और टेलीविजन पर लिखना-पढ़ना लगभग बंद रहा। इस बीज कम्पोजिंग में दर्जनों आधी-अधूरी पोस्टें हैं जो पता नहीं कभी पूरे भी होंगे भी या नहीं। कुछ के तो अब पूरी करने का कोई मतलब नहीं है। इस बीच मैंने हिम्मत जुटाकर किसी तरह दैनिक अखबार जनसंदेश टाइम्स में "टीवी मेरी जान" नाम से कॉलम की शुरुआत की। ये कॉलम बुधवार को मीडिया पन्ने पर आता है। अब तक चार लिख चुका हूं। आज उसी में से एक यहां पोस्ट कर दे रहा हूं। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार है।

 ठकुराइन, हमहुं तो छोट जात के ही हैं,हम कौन बाभन-राजपूत हैं,लाइए न हमहीं कर देते हैं। अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ की प्रधान चरित्र ललिया के इस संवाद से उसका जो परिचय हमारे सामने आता है,वह करीब दो साल तक चलनेवाले इस सीरियल पर बात करने के दौरान मेनस्ट्रीम मीडिया में कभी नहीं आया।
आरक्षण( एनडीटीवी इमैजिन) को छोड़ दें तो टीवी सीरियलों में जाति का सवाल सिर्फ उंची जाति का निचली जाति से विवाह करने या मेलजोल बढ़ाने पर विरोध के स्तर पर ही आया है जिसमें कि अंत में निचली जाति को पराजित,कुंठाग्रस्त और यथास्थितिवाद का शिकार करार दिया गया है लेकिन टेलीविजन की व्यावसायिक शर्तों के बीच कैसे लगातार दो साल तक एकमात्र दलित चरित्र ललिया ठाकुरों के हाथों स्त्री के खरीद-बिक्री का सामान बन जाने का प्रतिरोध करती रही और दलित ऑडिएंस के बीच आत्मविश्वास पैदा करती रही,इसकी कहानी किसी भी अखबार,चैनल और यहां तक कि स्वयं जीटीवी ने बताना जरुरी नहीं समझा।

वैसे तो एक चरित्र के तौर पर ललिया की चर्चा इतनी हुई और वह इतनी पॉपुलर हुई कि इस चरित्र को जीनेवाली रतन राजपूत जीटीवी को लांघकर एनडीटीवी इमैजिन पर स्वयंवर रचाने जा रही है लेकिन चरित्र के तौर पर ललिया एक मजबूर गरीब लड़की के बजाय आत्मसम्मान और हर हाल में जीने की ललक बनाए रखनेवाली एक दलित लड़की का उभार कैसे उभार होता है,यह कहानी कभी भी चर्चा का हिस्सा नहीं बनने पायी।

इस
 सीरियल की चर्चा पैसे की मजबूरी में गौना नहीं हो पाने और बेटी बेचने की त्रासदी के बीच के बीच ही चक्कर काटती रह गयी और देखते ही देखते जीटीवी पर इसकी जगह 15 फरवरी से छोटी बहू ने कब्जा जमा लिया। आज आप जीटीवी सहित जितनी भी साइटों को खंगाले तो तो बताया जाएगा कि इस सीरियल में एक गरीब लड़की ललिया जो कि गौना के सपने देखती है और अंत में अपने ही बाप ननकू द्वारा ठाकुर लोहा सिंह के हाथों बेच देने की कहानी है। लेकिन सच्चाई है कि यह इससे कहीं ज्यादा एक दलित लड़की के ठाकुर के हाथों बिक जाने,हत्या की साजिशों के बीच फंस जाने,जानवरों से भी निचले दर्जे का व्यवहार किए जाने और इन सबसे प्रतिरोध करते हुए उसी गांव का सरपंच बन जाने की कहानी है जिस गांव में वह ठाकुर लोहा सिंह के हाथों बिककर आयी है। टेलीविजन में सामाजिक समस्याओं को आधार बनाकर अब तक जितने भी सीरियलों की शुरुआत हुई है उसमें अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ अब तक एकमात्र सीरियल है जो कि बेटी बेचने की कहानी कहते हुए भी समाज की जातिगत संरचना से सीधे तौर पर टकराता है। इतना ही नहीं ललिया के बहाने पहला कोई ऐसा सीरियल प्रसारित हुआ जो कि बिना किसी सामाजिक सरोकारों और जातिगत बराबरी के एंजेंडे की घोषणा किए दलित चरित्र को सबसे मुखर,सतर्क और परिस्थितियों के आगे गुलाम हो जाने के बजाय परिस्थितियों के बीच जीने की संभावना पैदा करते हुए दिखाया गया है। गांव की अगड़ी जाति का मर्द अपनी अय्याशी के लिए लड़कियों की पांच हजार की बोली लगाकर अपनी सम्पत्ति का हिस्सा बनाता है। कुछ लड़कियां ऐसी जिंदगी जीने के बजाय आत्महत्या का रास्ता चुनती है। ऐसे में ललिया उसे धिक्कारती हुई समझाती है- तुमरे हिसाब से तो हमको कबे का मर जाना चाहिए था रे। घर से हमको माय-बाप इ कहर विदा किया कि गौना हो गया लेकिन बाद में हमको पता चला कि हमको बेच दिया गया। तुम सब सोचोगी कि विपत्ति पड़ेगा तो हमरा भाय,हमरा पति बचावे आएगा,तब तो कभी भी अपना जिंदगी नय जी पाएगी। विपत्त पड़ेगा तो का हम जीना छोड़ देंगे,अपना जिंदगी ऐसे कैसे खतम कर देंगे? हमकों खुद लड़ना पड़ेगा। ललिया की विदाई नाम से खास एपिसोड में उसने जो कुछ भी कहा,उसमें सालों से स्त्रीवादी चिंतन होते रहने के बावजूद दलित स्त्रियों का स्वतंत्र चिंतन होना चाहिए की मांग शामिल है। हताश करने की मंशा से उसके पराजय की कहानी तो लगातार लिखी जाती रही है लेकिन दर्जनों ठाकुर सत्ताधारी स्त्रियों के आगे साधनविहीन किन्तु विजयी दलित स्त्री की इबारतें का न लिखना एक गहरी साजिश का हिस्सा लगने लगता है। दूसरी तरफ दलित विमर्श के भीतर मर्दवाद पैदा न हो इसके लिए जरुरी है कि विमर्श के दायरे में ललिया जैसे टेलीविजन चरित्र औऱ सीरियल शामिल किए जाएं.

सीरियल
 जिस थीम पर बना है उसमें अभाव में बाप का अपनी बेटी को बेच देना न कोई नई घटना है और न ही अगड़ी जाति के मर्द की अय्याशी के लिए निजी जाति की स्त्री का खरीद-बिक्री का हिस्सा बन जाना कोई नई बात है। लेकिन जैसे ही हम ललिया के संवाद में जिन जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए अपने उपर भरोसा पैदा करने की बात देखते हैं,उससे गुजरते हुए सीरियल के मायने एकदम से बदल जाते हैं। टीवी सीरियल भले ही व्यावसायिक दबाबों के बीच पॉपुलरिटी को भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता,जज्बातों का बाजार तैयार करने में अपनी पूरी ताकत झोंक देता है,ललिया के उत्कर्ष के साथ-साथ ठाकुरों के हृदय परिवर्तन कराकर अपनी जातिगत आग्रह से उबर नहीं पाता लेकिन इन सबके बावजूद सांस्कृतिक 
पाठ( कल्चरल टेक्सट) के तौर पर बहुत कुछ दे जाता है जिसकी व्याख्या विमर्श के दायरे में रखकर की जाए तो एक स्थिति साफ बनती है कि ऑडिएंस की मिजाज बदलने के क्रम में धोखे में ही सही वह कई बार न चाहते हुए भी प्रगतिशील हो उठता है। ललिया के मामले में जीटीवी ऐसा ही नजर आता है। टेलीविजन निर्धारित एजेंड़े के तहत जो अर्थ पैदा करने की कोशिश करता है, उससे प्रतिगामी और साकारात्मक अर्थ इसी तरह पैदा होते हैं।

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