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विनीत में अगर आकार की मात्रा लगी होती तो मैं उससे शादी कर लेता. खाने-पीने की तकलीफ के नाम पर जो लौंडे घर में अपनी शादी की बात करते हैं, वो मेरी तारीफ में इससे अलग कुछ नहीं कह सकते. अगर किसी के लिए आदर्श पत्नी का मतलब बहुत ही घरेलू,स्नेहिल, भावुक, बात-बात पर टेंसुएं बहानेवाली हो तो उसे अक्सर मुझमें आदर्श पत्नी होने की छाया मिल जाती है. हां शर्त बस इतनी है कि वो कभी मेरा ब्लॉग न खोलकर पढ़े और न ही मेरे एफबी स्टेटस अपडेट देखने के लिए बेचैन रहे.

मैं शुरु से ही बहुत ही घरघुसरा किस्म का लड़का रहा हूं. आप घरघुसरा न कहकर रुमघुसरा या किचनघुसरा कहें तो ज्यादा अच्छा. मैट्रिक तक जब तक मां के साथ रहना हुआ, रसोई में ही बोरा जिसकी किल्लत पर  रवीश कुमार ने हाल में प्राइम टाइम में खबर दिखायी थी और जो हमारे शब्दकोश से लगभग गायब हो गया है, बिछाकर होमवर्क करता रहता. मां भात का अध्धन,दाल मेराना, जर के खंज-खोर हो जाना, सिठ्ठी, बकरी के मूत जैसा चाय बनाना जैसे सैंकड़ों शब्दों के साथ डूबती-उतरती रहती. पापा और भइया के लिए टिफिन तैयार करती रहती और मैं रसोईघुसरा होमवर्क खत्म होने पर कागज पर कुछ-कुछ चिसता रहता. हम मां के पास बैठकर एकदम बेफिक्र रहते. न तो हमें मिर्ची की गंध से छींक आती, न मई की गर्मी में चूल्हे की धाह से चेहरा काला पड़ने का भय व्यापता. मां खीज जाती कभी-कभी. पैदा तो लड़के किए थे, का जाने गोसइयां के संवारल एक भी लच्छन मर्दाना वाला कैसे नहीं आया. कई बार खीजकर कहती- जाओ न रे,बाहर खेलने.एकदम गांड में गांड सटाकर बैठा रहता है, हमर शरीर में जट्टा लगल है क्या ? मैं फिर भी टस से मस नहीं होता, पड़ा रहता मां की रसोई में. मेरे भीतर ये डर अक्सर रहता- इस रसोई के बाहर पाकिस्तान है,जहां मेरे पांच बड़े भाई-बहनों में से कोई एक पकड़कर कस देगा. रसोई मेरे लिए पुलिस चौकी थी.

लेकिन जैसे ही वो सामान लाने दूसरे कमरे जाती जिसे कि भंसा कहती, मैं भी पीछे-पीछे चला जाता. मां झल्ला जाती लेकिन फिर अपने मन से कभी हाथ पर चीनी, सूखा नारियल, दो-चार दाना कच्चा बादाम धर देती. मैट्रिक के पहले मैंने अपने घर में काजू कभी देखा नहीं. पापा स्वास्थ्य और अय्याशी का फर्क बेहतर समझते थे. तब हम जैसे बच्चे कैडवरी से अंजान थे. दूरदर्शन पर या तो मेंहदी लगायी मुंह से छीलकर उस लड़की को खाते देखते जो कि छठी कक्षा में पता नहीं क्यों मुझे बैठी मिलती या फिर गुड्डू जैसे अमीर दोस्त की बुआ से खरीदवाते देखा करते. पहली बार डेयरी मिल्क मोमिता रॉय ने खिलायी थी, बीए पार्ट 2 में..खैर,

मां ने मेरे इस घरघुसरे आदत को पता नहीं किस तरह से लिया लेकिन मैंने महसूस किया किया कि उसने मेरे साथ कभी पर्दा नहीं किया. कभी लिहाज नहीं किया. रोज नहाकर आती और मैं पढ़ता रहता और ब्रा के हूक जिसे कि वो लेडिस गंजी कहती, लगवाया करती. ऐसा मैंने करीब छह-सात साल तो जरुर किया होगा. वैसे भी जिस स्तन को चिमचिमी( प्लास्टिक) की तरह चबाकर जिससे बाद में कुछ भी नहीं निकलता,बड़े हुए मुझे कभी वो अश्लील नहीं लगा..शायद मां मुझे अपनी जात की समझने लगी थी. उपर से दीदी लोग के साथ ने उन चीजों में दिलचस्पी पैदा कर दी थी जो मुझे मौगा( मां कहती थी) कहलाने के लिए पर्याप्त था. किस दीदी ने कौन सी क्लिप ली, कौन सा सलवार सूट पहनकर अल्का के घर जाएगी, ममता मौसी की शादी में किस रंग का सूट सिलवाएगी,सब जानने की बेचैनी होती, उतनी बेचैन प्रतियोगिता दर्पण के अंकों में होती तो शायद एसएससी लायक तैयार हो जाता. मैं उस दिलचस्पी में उसी तरह की भाषा और शब्दों का प्रयोग करता. मां हमें "जनियामुरुख" कहती. जनिया मतलब जन्नी अर्थात औरत औऱ मुरुख इसलिए क्योंकि उसे यही दुनिया लगती है,बाहर किस देश ने हमला किया और केन्द्र में किसकी सरकार बन गयी,इससे कोई मतलब नहीं. घर छूटा लेकिन सालों की ये आदत और संस्कार शरीर के किसी हिस्से में जाकर टिक गए.

आज भी घर जाता हूं, दीदी लोगों के पास जाता हूं तो सालभर की जमा,खरीदी सारी चीजें एक-एक करके दिखाती है. चूडी,लहटी,जेवर,कपड़े..कौन किसने दिया,कौन कैसे जीजाजी से झूठ बोलकर लिए,कौन रोज का पैसा बचाकर लिए..आलम ये कि दीदी की देखादेखी कुछ-कुछ भाभी भी दिखाने लगी. मैं भाभी की चीजें देखने से थोड़ा शर्माता था और फिर गोदरेज से एक-एक चीजें निकालती तो बुरा लगता. मैं कहता- रहने दीजिए न, हम लंडा-मुंडा को क्यों दिखाती हैं ये सब. दीदी दिखाते हुए साथ में जोड़ देती है- तुमको तो अब इ सब बकवास लगेगा लेकिन देखो,शुरु से देखते आए हो तो. खैर, मां और दीदी के बीच पलने से काफी कुछ उन्हीं लोगों की तरह रह गया. उपर से जिंदगीभर पापा के मिजाज से ठीक उल्टा काम करने का रहा. लेकिन पता नहीं क्यों, उनके व्यक्तित्व का वो सपाट हिस्सा मेरे भीतर,मेरे खून में कैसे आ गया. जो कहना है,मुंह पर कहो. एक तरह की बात करो,संबंधों में गुणा-गणित मत लगाओ.सो वो चूंकि खून में है तो अभी तक दौड़ता रह गया.

इसी खून के दौड़ते रहने के बीच पिछले पांच सालों से उबड़-खाबड़, कच्चा-पक्का बहुत कुछ लिखता रहा. कभी कालजयी होने की खुशफहमी नहीं रही और न कभी गंभीर लेखक कहलाए जाने की तड़प रही. ऐसा इसलिए भी कि मुझे ये अवधारणात्मक रुप से गलत लगा. लिखना जरुरी है बाकी उसकी तासीर और प्रकृति पाठक तय करेंगे. इस लिखने में कई लोग छूट गए. कई लोग इस स्ट्रीट फूड टाइप लेखन को पचा नहीं पाए. नसीहतें,सलाह और धमकी भरे सुझावों के बीच लिखना जारी रहा. मेरे कुछ बहुत ही पुराने दोस्तों ने पहले तो मेरे जीवन,मेर करिअर का हवाला दिया. फिर लगा कि इसे तो फर्क ही नहीं पड़ता तो फिर कहना शुरु किया- यार,तुम लिखने का तो लिख देते हो और दिक्कत हमें हो जाती है. लोग कहने लगते हैं, तुम्हारा दोस्त है,समझा नहीं पाते,मैनेज नहीं कर पाते. अपनी स्थिति संकट में आ जाने का हवाला देते रहे. वो दोस्त के बजाय अचानक से ऑथिरिटी बन जाते हैं. डराते हैं कि तुम्हारा दिन खराब होनेवाला है. हैसियत का हवाला देते हैं, फेलोशिप खत्म होते ही सड़क पर आ जाओगे. लिखना जारी रहा और एक-एक करके लोगों का छूटना जारी है. ये सब होना ही है. मन तो बहुत बर्बर है न और उसकी बात अगर लेखन में आने लगे तो बिखराव के अलावे क्या हासिल होना है..सो जारी है. कुछ की परिणति तो बहुत ही अफसोसनाक और घटिया तरीके से हुई. लेकिन

ये वही लोग हैं,जो अपनी शर्तों पर छूट गए हैं, छोड़ दिया है.पहले की तरह लोगों से मेरे बारे में राय जाहिर करते हैं. पुराने दिनों की तरह तारीफ करते हैं. वो अपनी सुविधानुसार अतीत का वो टुकड़ा छिलके की तरह उतारकर अलग कर देते हैं. जिन लोगों से ऐसे भूतपूर्व साथी चर्चा करते हैं वो हमें हुलसकर बताते हैं- यार,आपके तो गजब के जलवे हैं, आपका साथी आपके बारे में ऐसा कह रहा था. बता रहा था कि हमारे दोस्त हैं. मैं उनकी बातों के आगे फ्रीज हो जाता हूं. सामान्य होने की कोशिश करता हूं और कहता हूं हां..लेकिन कसक सी उठती है. क्यों कहूं कि दोस्त है. उन शख्स के बारे में क्यों दावा करुं जिसने चीख-चीखकर कहा है- संबंध की बुनियाद भरोसे पर टिकी होती है, भरोसा नहीं रहा तो संबंध तो बंजर हो गए.सो खत्म करो सब. फिर भी,

समझ नहीं आता कि जिन लोगों के लिए पोक का जबाव,हाय-हैलो कहना अपनी प्रतिष्ठा और सुविधा के प्रतिकूल है,वो सार्वजनिक रुप से दोस्त होना क्यों क्लेम करते हैं. मैं भावुकतावश मेल करता हूं लेकिन उनका ऐसा करना भावुकता से कहीं ज्यादा स्ट्रैटजी लगती है. बडप्पन दिखाने का एक चालू लेकिन बहुत ही घिनौना तरीका. क्यों करते हो यार ये सब ? हिन्दी की दुनिया छोटी भले ही है लेकिन इसके भीतर समानांतर रास्तों की गुंजाईश दूसरे किसी भी क्षेत्र से कहीं ज्यादा है..लोगों की असहमति पर चुप्पी या नफरत के बीच भी बने रहने की संभावना ज्यादा है. सो, इतना कैलकुलेटिव होने की क्या जरुरत है ? कई बार लगता है तलाक की सुविधा केवल पति-पत्नी के संबंधों के टूटने पर नहीं दोस्ती के टूटने पर भी होनी चाहिए ताकि हम ऐसी प्रवंचना झेलने से बच जाएं. थोड़ी उम्मीद फेसबुक से थी लेकिन चेहरे वहां भी पोस्टर की तरह बदल जाते हैं. ऐसे में अपील के अलावे क्या रास्ता है- प्लीज, हम मार्केटिंग के लोग नहीं हैं कि हमारा काम किसी उत्पाद या कंपनी के शेयर उठाने-गिराने का है..जो जैसा है, उसे उसी हाल पर छोड़ दो न..लिखने-पढ़नेवाले दोस्तों से इस खुले समाज के बीच इतनी अपील तो की ही जा सकती है. है न..


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