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मैं( अशोक वाजपेयी) अपना आत्मविश्वास तो बहुत पहले खो चुका हूं, अब तो मेरे पीछे बैठे इन युवाओं( हमलोगों की तरफ इशारा करते हुए) को आत्मविश्वास हासिल करना है. जाहिर है अशोक वाजपेयी जैसे आभिजात्य कवि-आलोचक ने ये बात किसी कॉमेडी सर्कस या हंसोड़ दंगल में नहीं कही. ये बात उन्होंने भारतीय भाषा कार्यक्रम,सीएसडीएस से शुरु होनेवाली पत्रिका प्रतिमान के आलोक में समय,समाज और संस्कृति पर होनेवाली परिचर्चा के दौरान कही जिसमे समाजशास्त्री आशीष नंदी से लेकर राजनीति विश्लेषक योगेन्द्र यादव, इतिहासकार शाहिद अमीन, राजनीतिक वैज्ञानिक आदित्य निगम सहित देश के अलग-अलग हिस्से से आए करीब चालीस समाज वैज्ञानिक और अध्येता मौजूद थे. जाहिर है अशोक वाजपेयी जिस हल्केपन से ये बात कही, उनका इरादा इन अध्येताओं को चुटकुला सुख नहीं देना था बल्कि हम जैसे युवा की ओर से पूछे गए सवाल का उपहास उड़ाने के लिए था. लेकिन ऐसा करते हुए उन्होंने शायद ये बात समझ नहीं आयी होगी कि उनकी इस हरकत से हिन्दी देव-आलोचकों को लेकर एक बार फिर वही राय बनी जो कि वर्षों से बनी हुई है. उनकी इस हरकत से एक बार ये स्पष्ट हो गया कि हिन्दी के इन देव-आलोचकों के प्रवचन दिए जाने के बाद आप सवाल करते हैं( वैसे तो हिन्दी के सेमिनारों में इस तरह से सवाल किए जाने की परंपरा अभी तक विकसित नहीं हुई लेकिन आयोजक अगर ऐसा प्रावधान रखते भी हैं तो) तो आपका खुलकर उपहास उड़ाया जाएगा, अगर अपनी मां की भाषा में कहूं तो आपके सवाल को पाद धरकर उड़ा दिया जाएगा. अशोक वाजपेयी ने ऐसा ही किया.

जिस सत्र में अशोक वाजपेयी अपनी बात रख रहे थे उसमें सवाल भाषा, विषयवस्तु से हिलते-टहलते पठनीयता तक आ गयी और अशोक वाजपेयी ने इस पर बात करने के क्रम में डॉ. नगेन्द्र के लिखे की चुटकी ली. ये वही डॉ. नगेन्द्र हैं जिनका एक जमाने में सिर्फ हिन्दी विभाग ही नहीं पूरे दिल्ली विश्वविद्यालय में आतंक रहा है और संभव है कि स्वयं अशोक वाजपेयी उनके आतंक से आतंकित रहे हों. अशोक वाजपेयी ने डॉ. नगेन्द्र के लिखे को अपठनीय करार दिया और आगे बहुत व्यंग्य में कहा कि पता नहीं इससे क्या निकाला भी जा सकता है ? देश और दुनिया के साहित्य की तथाकथित गंभीर समझ रखनेवाले अशोक वाजपेयी के सामने पठनीयता और दुरुहता को लेकर सैंकड़ों उदाहरण होंगे लेकिन माहौल देखकर और सीएसडीएस की दिल्ली विश्वविद्यालय से बहुत ही कम दूरी जानकर शायद लगा हो कि यहां उनके चेले-चपाटी होंगे तो क्यों न चुटकी लेकर पिनका जाए. वैसे भी अशोक वाजपेयी अपने पूरे स्वभाव में इस तरह की मसखरई के लिए ख्याति प्राप्त आलोचक -वक्ता रहे हैं. बहरहाल,

अशोक वाजपेयी ने जब अपनी बात पूरी कर ली और लोगों ने उनसे सवाल करने शुरु किए जिनमें कि एक मैं भी शामिल था तो एक तो उन्होंने अपने हिस्से की जिम्मेवारी शाहिद अमीन के आगे डालनी चाही लेकिन जब उन्हें भी बोलने कहा गया तो बालविहीव सिर के बीच का हिस्सा खुजलाते हुए  पहली पंक्ति में ही घोषित कर दिया- मुझे तो याद भी नहीं है कि लोगों ने क्या सवाल किए ?  मुझे क्या किसी को भी हैरानी हो सकती है कि जहां भाषा,साहित्य,संस्कृति और समाज को लेकर इतनी गंभीर बहस चल रही हो वहां अशोक वाजपेयी जिसे कि लिटरेचर फेस्टीवलों ने ब्रांड एम्बेस्डर बना दिया हो ने सवाल ध्यान में रखने तक की जरुरत महसूस नहीं की. नहीं कि तो नहीं, इस लायक भी नहीं समझा कि उस पर अपनी राय दे सकें. इतना ही नहीं, इन सवालों पर कुछ भी बोलने के बजाय अलग से एक स्वतंत्र लघु प्रवचन पेश कर दिए जिसका कि सवालों से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था.

हमने अशोक वाजपेयी की इस समझ पर सवाल किए थे कि एक तरफ तो आप कह रहे हैं कि हिन्दी समाज बौद्धिक और सांस्कृतिक रुप से बहुत विपन्न है और दूसरी तरफ आपका कहना है कि कविताओं में बाजारवाद पर, भूमंडलीकरण से लेकर बाकी मुद्दों पर बहुत गंभीरता से बातें हो रही है तो इस विरोधाभास को लेकर आपकी क्या राय है, कहीं ऐसा तो नहीं कि हिन्दी में लोग इन मुद्दों पर बात तो जरुर कर रहे हैं लेकिन इसमें एकहरापन है. मसलन हिन्दी सेमिनारों में जाने से पहले ही हम हिन्दी चालू फिल्मों की कहानियां को लेकर अंदाजा लगा लेते हैं कि यहां सिरे से बाजार को कोसा जाएगा और इनसे जुड़े मुद्दों पर विश्लेषण के बजाय अर्थ स्थिरीकरण होगा और दूसरा कि क्या पठनीयता का संबंध परिवेश और काल संदर्भ से नहीं है ? आखिर ऐसा क्यों है कि एक छात्र जो चार-पांच महीने पहले देरिदा-फूको पढ़ता है( अपूर्वानंद के हिसाब से कोई नहीं पढ़ता है और जाहिर है ये बात उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर ही कहे,ये अलग बात है कि हममे से कुछ छात्रों को उनसे बहुत कुछ पढ़ने-लिखने और समझने का मौका मिला. बॉमन से लेकर ग्राम्शी, वॉल्टर बेंजामिन सबों के बारे में पहली बार उन्हीं से सुना-समझा. समझ का बड़ा हिस्सा अपूर्वानंद जैसे शिक्षक के विभाग में होने की वजह से ही बनी है.खैर) वही परीक्षा के पन्द्रह दिन पहले चैम्पियन और अशोक प्रकाशन जो कल तक उसके लिए कूड़ा होता है, वो पठनीय हो जाता है. मतलब ये कि क्या पठनीयता का संबंध सिर्फ भाषाई कुशलता और संप्रेषणीयता भर से है. संदर्भ के तौर पर मैंने बजट के दौरान हिन्दी चैनलों के मुकाबले अंग्रेजी चैनल बेहतर समझ आने की बात कही थी. जाहिर है कि जिस तरह से अशोक वाजपेयी बाकी के सवालों को भूल गए, उसी तरह से इस सवाल को भी. लेकिन तंज अंदाज में,उपहास में और व्यंग्य में हम युवाओं पर टिप्पणी करना याद रहा.

समाज विज्ञान और भाषा को लेकर हो रही परिचर्चा के बीच इस तरह से प्रश्नकर्ता को युवा और खुद को वृद्ध बताने की क्या जरुरत पड़ गई, ये बात मुझे अचानक से आने की वजह से समझ नहीं आयी और मुझे समझने के लिए समाज विज्ञान पर आधारित इस परिचर्चा से अपने को निकालकर उसी टिपिकल हिन्दी संगोष्ठी में ले जाना पड़ा जहां देव-आलोचकों से सवाल किए जाने की परंपरा नहीं रही है..गर किसी ने सवाल कर भी दिए तो उसे लौंड़े-छौंड़े मानकर खिल्ली उड़ाते हुए चलता कर दिया जाता है. सवाल है कि ऐसे देव-आलोचक साहित्य  की दुनिया में तो बतौर सत्ता काबिज हैं लेकिन परिचर्चा में शामिल होते ही वृद्धा पेंशनवाली मुद्रा में क्यों आ जाते हैं और अक्सर ऐसे माहौल बनाने में सफल हो जाते हैं जिसमें बुजुर्ग मानकर नजरअंदाज कर देने की नसीहतें मिलनी शुरु हो जाती है.  ये कुछ-कुछ उसी तरह का है जैसे हमारे हिन्दी सिनेमा में किसी इज्जतदार की महफिल में हमारा कुली पहुंच जाता है और दरबान इसे धक्के मारकर बाहर करो जैसे सीन फिल्माए जाते हैं. उस वक्त संवेदना उस कुली के बजाय इज्जतदार के प्रति ज्यादा होता है. ऐसे में ये स्वाभाविक सवाल है कि आखिर क्या कारण है कि हिन्दी समाज की दुनिया विमर्श की दुनिया बनने के पहले ही युवा-वृद्ध के खांचे में विभाजित हो जाते हैं. क्या विमर्श की दुनिया में इस तरह के बायलॉजिकल सेपरेशन जरुरी है और बिना इसके हम बात नहीं कर सकते. ऐसे में तो अगर स्त्री सवाल करे तो वो गदहइया( अशोक वाजपेयी के जुमले से उधार) करार दी जाएगी और गर दलित से सवाल कर दिया तो बाप मर गया ठंड से और बेटा दाम पूछे एयरकंडीशन का जैसे जुमले उछाले जाएंगे या फिर वैसा व्यवहार किया जाएगा ?

मुझे लगता है कि अशोक वाजपेयी जैसे देव आलोचक का युवाओं के प्रति इस तरह का रवैया अपनाने की एक ठोस वजह शायद ये भी रही होगी कि युवा टिप्पणीकारों की एक बड़ी जमात उनके सान्निध्य में लगभग चाटुकारों जैसा व्यवहार करती आयी है, ऐसे में उन्होंने युवा को जातिवाचक संज्ञा के रुप में मान लिया है और उस हिसाब से उनसे पेश आने की एक पैटर्न विकसित कर ली है. संभव है कि उनका ये नजरिया आए दिन चैम्पियन मार्का युवा विशेषांक से गुजरती हुई पत्रिकाओं पर जाती रही होगी और इन्हें गुर्गे में तब्दील किए जानेवाले मास्टरमाइंड के प्रति हिकारत के भाव पनपते होंगे जिसका प्रतिबिंबन इस परिचर्चा में दिखा. एक बात, दूसरी बात ये कि ये एक किस्म का सामंती एप्रोच नहीं तो और क्या है कि आप चाहे जो भी सवाल कर लें, हम उसकी नोटिस नहीं लेंगे और फिर बाद में जो मन होगा, वही बात करेंगे. नहीं तो उसी परिचर्चा में आशीष नंदी, शाहिद अमीन, अभय कुमार दुबे, चारु गुप्ता सवालों को, मुद्दे को नोट कर रहे थे और एक-एक करके या तो उसकी जवाब दे रहे थे या फिर मौका मिलने पर टिप्पणी कर रहे थे.

मेरे ख्याल से अशोक वाजपेयी के जिंदगी में ऐसे सैंकड़ों सेमिनार और नजारे आए होंगे जहां एक से एक विद्वत जनों से बहुत ही सामान्य पाठक,श्रोता ने सवाल किए होंगे लेकिन उन स्थापित लेखक-वक्ताओं ने इस परिचर्चा की तरह ही ठहरकर बड़े ही अदब से जवाब दिए होंगे..फिर ऐसा क्या है कि अशोक वाजपेयी ने उसे कभी भी अपने व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बनाया. इसे उनके व्यक्तित्व की कमजोरी के बजाय टिपिकल मठाधीशी देव-आलोचना परंपरा के प्रति कट्टर प्रतिबद्धता कहना ज्यादा सही होगा क्या ?
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पिछले तीन-चार दिनों से रेल बजट के नाम पर चैनल के एंकरों और रिपोर्टरों द्वारा दालमखनी बनाने का काम शुरु हो गया है जिसे कि दिल्ली में मां की दाल कहते हैं. जिन रेल को सालभर तक कोई पूछता नहीं है, उन रेलों पर मंत्रियों को चढ़ाकर एंकर पीटूसी करने में मशगूल हैं. तुर्रा ये कि इतनी फुटेज तो खपा दी, अब नहीं सुधरेगी हमारी रेल तो कब. ? पेश है चंद फेसबुक अपडेट्स-



  1.टीवी एंकरों के लिए भारतीय रेल गांव की छूटी हुई भौजाई की तरह है जिसकी याद सिर्फ होली में आती है..बाकी के दिन वो मर रही है,जी रही है..कुछ नहीं. भौजाईयों को भी पता होता है, ये याद भी खानापूर्ति की ही है या हमारे बहाने चिपके हुए छुटपन के दिनों की याद..अभी कुछ एंकर जो कि जाहिर है रिपोर्टरों की हक मारते हैं, कभी रेल की आर नहीं पर नहीं बोला, आज बसंल साहब के साथ चाय-नाश्ता,पान-सुपारी करेंगे. कोई पूछनेवाला नहीं है कि भायजी ऑब्लिक मैडमजी आप तो सॉफ्ट न्यूज करते रहे हैं, आज रेल कहां से ? खैर, वो करेंगे और ऐसा करके मीडिया में अपने छुटपन यानी इन्टर्नशिप और ट्रेनी के दिन याद करेंगे. भारतीय रेल और बजट जैसे गंभीर मसले पर इस तरह बात करेंगे जैसे रेल मंत्रालय बिग बॉस का घर हो जहां चड्डी सुखाने से लेकर गीले बाल फटकारने तक की फुटेज दिखाई जाएगी. आप उनकी इस बारीकी पर मोहित हो सकते हैं लेकिन मीडिया में जिसे बीट कहते हैं वो भटिंडा से रतलाम कम चली जाएगी, पता भी नहीं चलेगा. आजतक पर तो देख ही रहे हैं, लेडिज वर्सेज पवन बंसल..जैसे अपने रेलमंत्री लेडिज कम्पार्टमेंट में फुटबाल खेलने जा रहे हों.


2. साल में दो दिन ऐसा होता है जब मुझे अपनी हिन्दी से अंग्रेजी कई गुना ज्यादा सहज और ठीक-ठीक समझ आनेवाली भाषा लगती है. एक तो रेल बजट पेश किए जाने के दिन और दूसरा आम बजट. मैं इन दोनों दिनों प्रसारित कार्यक्रमों और खबरों को अंग्रेजी में पेश किए जाने पर ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पाता हूं जबकि हिन्दी चैनलों पर जाते ही मुझे कुछ समझ नहीं आता. यहां पर आकर हिन्दी भाषा और अनुवाद के बजाय शोर लगने लगती है. इसकी बड़ी वजह है कि हिन्दी चैनल जिस ढोल-नगाड़े के साथ आपकी जुबान में आपकी बजट की तर्ज पर बजट पेश किए जाने और उससे जुड़ी खबरों का हिन्दी तर्जुमा करते हैं वो भाषा के नाम पर कठिन काव्य के प्रेत लगते हैं.
जाहिर है जिस सरकारी हिन्दी या कार्यालयी हिन्दी वो हमारे सामने पेश करते हैं, उनका न तो उन्हें अभ्यास है और न ही वो इसका अर्थ ठीक-ठाक समझ पाते हैं. ये तो छोड़िए, कल शैलेन्द्र ने ठीक ही लिखा था कि अपेक्षा को उपेक्षा और उपेक्षा को अपेक्षा बोल रहे हैं धड़ल्ले से एंकर और अफसोस में लिखा कि आपलोग कोई दूसरा धंधा क्यों नहीं कर लेते. इस तरह का प्रयोग हड़बड़ी के कारण नहीं है बल्कि छूटे हुए अभ्यास या कभी अभ्यास न किए जाने का परिणाम है. कुल मिलाकर इन दो दिनों में हिन्दी भाषा के बदले एक पाखंड़ रचती नजर आती है और इस पाखंड़ में करोड़ों दर्शक छले जाते हैं. आप बुरा नहीं मानिएगा तो एक बात कहूं, प्लीज आप इसे प्रोमोशन का हिस्सा मत लीजिएगा..आप बजट के लिए सीएनबीसी आवाज देखिए और खासकर संजय पुगलिया को..और अगर ये कहूं कि टाइम्स नाउ से लेकर इटी नाउ,एनडीटीवी प्रॉफिट किसी भी चैनल पर बजट देखेंगे तो ग्राफिक्स इस तरह से तैयार किए जाते हैं कि भाषा बहुत पीछे चली जाती है..तो हर्ट न हों..आपको हिन्दी सिनेमा की तरह जिसमें भोलेनाथ के पीछे से धर्मेन्द्र की वीओ- मैं भगवान बोल रहा हूं जैसे भौंड़ेपन से गुजरने की नौबत नहीं आएगी.

3. रेल बजट और आम बजट पेश किए जाने के दिन टीवी समाचार चैनलों की भाषा का विश्लेषण और उस पर अलग से चर्चा होनी चाहिए. आप गौर करेंगे कि इस दौरान समाचार चैनल उस हिन्दी,भाषा का इस्तेमाल करने की नाकाम कोशिश करते हैं जिसे वे कठिन,अकादमिक,साहित्यिक,ज्ञान देनेवाली भाषा कहकर,उपहास उड़ाते हुए छोड़ आए हैं. आप चाहें तो उनकी इस अदा पर लट्टू हो सकते हैं लेकिन जिस कोशिश में वो ऐसी हिन्दी बोलते नजर आते हैं लगेगा ही नहीं कि वो बक्सर,बलिया, भटिंडा की पैदाईश हैं. एक भारतीय का भाषा के स्तर पर इटैलियन हो जाने की घटना आपको इस क्रम में देखने को मिलेंगे और अगर आप शब्दों को एक स्वतंत्र जीव मानते हैं तो इन दो दिनों में न जाने कितनी कब्र की जरुरत पड़ जाएगी. ऐसा लगता है जैसे एंकरों और रिपोर्टरों ने कल रात ही भाषा एवं तकनीकी शब्दावली आयोग से शब्दकोश खरीदें हों और रतजग्गा करके कुछ-कुछ पलटने की कोशिश की हो. हैरानी होती है कि वो बजट के नाम पर रघुवीरी हिन्दी बोलने पर आमादा क्यों हो जाते हैं ? इन दो दिनों में हिन्दी आपको सबसे लाचार,कमजोर और उबा देनेवाली भाषा के रुप में आपके सामने होगी और आप कई बार नाराज भी होंगे कि टीवी ने हमारी जीती-जागती भाषा के साथ क्या किया ?

4. समाचार चैनलों के लिए रेल बजट बीकॉम पढ़नेवाले छात्रों के लिए हिन्दी जैसी है जिसे एक रात चैम्पियन और अशोक प्रकाशन पढ़कर पास भर हो जाना है. इस एक रात में वो प्रेमचंद साहित्य और किसानों की कर्ज समस्या के साथ कार्पोरेट गवर्नेस,रेणु के उपन्यास को कल्चरल डेमोग्रेफी से और जैनेन्द्र की मृणाल और कट्टो में स्ट्रेट मैनेजमेंट के जितने सूत्र खोज सकते हैं,खोज लें बाकी का क्या है..सरकारी काम जब ऐसे ही चलते हैं तो खबर का क्या है ? हां ये जरुर है कि आपके मन में सवाल उठेंगे- यार इतनी हड़बड़ी में तो हम टमाटर भी नहीं खरीदते जितनी हड़बड़ी में ये बजट पर खबर दिखा रहे हैं.

5. जिन टीवी चैनलों पर सालभर बाजार सवार रहता है, वो कितना लाचार नजर आ रहा है कि हमें बाजार और बजट पर समझ नहीं दे पा रहा है. ऐसे ही समय आप महसूस करेंगे कि किसी भी अनुशासन के शास्त्र से नहीं गुजरने की क्या पीड़ा होती है ? जिन एंकरों ने सालभर तक आम उत्सव,ताज उत्सव और कुंभ स्नान पर एंकरिंग की हो, वो आज रेल बजट पर बोलेगा ही नहीं बाकायदा रिपोर्टिंग करेगा तो कैसा करेगा ? टीवी में मुद्दे कहां,चेहरे पेश किए जाते हैं और जरुरी नहीं कि हर चेहरा आम पर भी और आम बजट पर भी फिट बैठ जाए.

6. तब मेरी मां मेरी किताबों में लिखी बात ठीक-ठीक नहीं समझने लगी थी. कहती- अब तुम उंचा क्लास में चले गए न, हमको नहीं ओरिआता( समझ आता है) है, अपने से कर लो, दीदी से पूछ लो. मैं तब भी जिद करता- नहीं मां तुम ही बताओ. मां के प्रति लगाव और श्रद्धा इतनी होती कि लगता मां है कुछ न कुछ तो ठीक ही बताएगी. रेल बजट,आम बजट और आतंकवाद जैसे गंभीर मसले पर आप चाहें तो इसी श्रद्धा से टीवी देख सकते हैं..मैंने तब दीदी से नहीं पूछा था, आप चाहें तो दीदी यानी दूसरे माध्यमों से गुजर सकते हैं.
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बिहार में सत्तापक्ष द्वारा मीडिया को नियंत्रित किए जाने को लेकर भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट पर जांच समिति के अलावा बाकी सदस्यों की मुहर लगती उसके पहले ही वह मीडिया के हाथ लग गई। इस संबंध में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मानना है कि यह काम खुद परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की मेल आइडी से किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि इस रिपोर्ट पर गंभीरता से बात होने के बजाय पूरा मामला समाचार चैनलों के अखाड़े में होने वाली रोजमर्रा की राजनीतिक बहसों में तब्दील हो  गया। उसके बाद इस पूरे प्रकरण पर मीडिया के चरित्र को लेकर बात करने वाला कोई नहीं बचा। सब इसे राजनीतिक मुद्दे में बदलने में लग गए। यह भारतीय प्रेस परिषद के लिए कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि  लोकसभा चुनाव 2014 के पहले वह पेड न्यूज और राजनीतिक पार्टियों की ओर से मीडिया नियंत्रण के
 मामले पर मुस्तैदी से काम करता, रिपोर्ट जारी करता, खुद उसकी हास्यास्पद छवि बना दी गई। उसमें राजनीतिक पार्टियों सहित मुख्यधारा मीडिया ने भी जम कर सक्रियता दिखाई। यहां तक कि जांच समिति    के सदस्य भी रिपोर्ट सार्वजनिक होने के पहले ही टीवी परिचर्चा में आने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। 


नतीजा, भारतीय प्रेस परिषद की रिपोर्ट और न्यायमूर्ति काटजू को लेकर एक के बाद एक आए राजनीतिक बयानों को मजबूती मिली। भारतीय प्रेस परिषद की छवि मीडिया को नियंत्रित करने वाली एक स्वायत्त संस्था के रूप में बने, इसके लिए जरूरी था कि इस संस्था से जुड़े लोगों पर किसी भी राजनीतिक दल या सत्ता प्रतिष्ठान के प्रभाव में काम करने के आरोप न लगें। लेकिन इस रिपोर्ट के आने से पहले ही मीडिया में बिहार के सत्तारूढ़ दल की तरफ से बयान आने शुरू हो गए और न्यायमूर्ति काटजू को कांग्रेस का आदमी बताया जाने लगा। इस रिपोर्ट के लीक होने के दौरान ही न्यायमूर्ति काटजू के गुजरात और मोदी को लेकर लिखे लेख पर तो राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने काटजू के परिषद अध्यक्ष पद से इस्तीफे की मांग तक कर डाली। यही नहीं, उन्हें कांग्रेसियों से भी बड़ा कांग्रेसी बताया। 



यह पहली बार नहीं है जब अध्यक्ष पद पर रहते हुए न्यायमूर्ति काटजू पर कांग्रेसी होने के आरोप लगे और यह काम सिर्फ गैर-कांग्रेसी राजनीतिकों ने किया। न्यायमूर्ति काटजू ने 5 अक्तूबर, 2011 को अध्यक्ष पद संभाला और उसके पांच दिन बाद अखबारों के संपादकों को संबोधित करते हुए कहा कि मौजूदा मीडिया के काम करने का तरीका ठीक नहीं है। अब आम आदमी भी कहने लगा है कि मीडिया निरंकुश होने लगा है। अगर पत्रकार अपने मालिकों की सेवा करते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं, लेकिन उन्हें जनता का भी ध्यान रखना होगा। 



न्यायमूर्ति काटजू की इस बात को मुख्यधारा मीडिया ने उनकी तरफ से दी गई चुनौती के रूप में प्रसारित किया। फिर 30 अक्तूबर, 2011 को करन थापर के कार्यक्रम में दिए साक्षात्कार के बाद से तो मुख्यधारा मीडिया ने खुलेआम काटजू का विरोध शुरू कर दिया। यहीं से उनकी छवि कांग्रेस का आदमी बनाने के रूप में हुई। उस बातचीत में उन्होंने मौजूदा मीडिया को जनविरोधी और ज्यादातर पत्रकारों के बारे में ठीक राय न होने की बात कही थी। उन्हें बहुत कम पढ़ा-लिखा बताया था। उसी में उन्होंने भारत सरकार से प्रेस परिषद के लिए और अधिक अधिकारों की मांग की थी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी प्रेस परिषद के दायरे में लाने और इसका नाम मीडिया परिषद करने की बात कही थी। 



न्यायमूर्ति काटजू की इन बातों का इस रूप में विरोध हुआ कि एक के बाद एक अखबारों और टीवी चैनलों ने उन्हें कांग्रेस का आदमी कहना शुरू कर दिया। एक अंग्रेजी अखबार ने तो अपनी खबर का शीर्षक दिया- ही डजंट डिजर्ब टू बी द चीफ आॅफ द परिषद- वे प्रेस परिषद के अध्यक्ष पद के काबिल नहीं हैं। एनबीए (न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन) के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जेएस वर्मा ने भारतीय प्रेस परिषद को ही भंग करने की बात कही थी। दिलचस्प है कि जब मीडिया न्यायमूर्ति काटजू का विरोध करते हुए उन्हें कांग्रेस का एजेंट बता रहा था, कांग्रेस सांसद और सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने उनके बयान को तूल देने का विरोध किया था। उन्होंने यहां तक कहा था कि वे जो कुछ कह रहे हैं, नया नहीं है। इससे पहले न्यायमूर्ति जेएन राय ने भी इसी तरह के सुझाव दिए थे। इस पूरे मामले पर गौर करें तो गैर-कांग्रेसी राजनीतिकों से पहले मुख्यधारा मीडिया न्यायमूर्ति काटजू को कांग्रेस का आदमी साबित कर चुका है, जिसके पीछे उसके ऊपर उठाए गए सवाल का विरोध शामिल है। ऐसे में अगर वह अब दुबारा उनके लेख, टिप्पणी या रिपोर्ट को एक खास राजनीतिक संदर्भ में पेश कर रहा है तो आश्चर्य नहीं, क्योंकि उसने दो साल पहले ही तय कर लिया था कि अध्यक्ष के रूप में काटजू की छवि खराब करनी है। यह अलग बात है कि न्यायमूर्ति काटजू पिछले करीब दस साल से उसी अंग्रेजी अखबार में साहित्य, कला और मीडिया पर लेख लिखते आए हैं। 



अगर बिहार में मीडिया की स्थिति पर प्रेस परिषद की रिपोर्ट बाहर न भी आती और मुख्यधारा मीडिया के प्रति चुप्पी बनी रहती तब भी यह सचाई छिपी नहीं रह गई थी कि वहां का मीडिया विज्ञापन और सरकारी लाभ की खातिर किनके इशारे पर काम करता है। यह सब हमारे बीच लगातार आ रहा था। सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग जानते हैं कि 2011 में फेसबुक पर नीतीश सरकार के खिलाफ टिप्पणी किए जाने पर डॉ मुसाफिर बैठा और अरुण नारायण को न केवल नौकरी से निकाल दिया गया, बल्कि उन्हें लगातार परेशान किया गया। उस दौरान मुख्यधारा मीडिया में लगभग चुप्पी बनी रही, लेकिन सोशल मीडिया पर लगातार खबरें आती रहीं। इस घटना के करीब एक महीने बाद 16 अक्तूबर, 2011 को उन टिप्पणियों को ‘बिहार में मीडिया कंट्रोल: बहुजन ब्रेन बैंक पर हमला’ शीर्षक से किताब की शक्ल में प्रकाशित किया गया। इसमें संकलित लेख इस बात की विस्तार से चर्चा करते हैं कि बिहार में दलित, पिछड़े वर्ग और मुसलमानों की आवाज को मुख्यधारा मीडिया सरकारी शह पर दबाने का काम करता है। इसी संदर्भ में प्रमोद रंजन की पुस्तक ‘मीडिया में हिस्सेदारी’ वहां के पूरे मीडिया परिदृश्य को उभारती है। इसी कड़ी में 14 अप्रैल, 2012 को ‘ओपन’ पत्रिका में धीरेंद्र के. झा की विशेष रिपोर्ट प्रकाशित हुई- ‘एडिटर इन चीफ आॅफ बिहार’। इसमें विस्तार से बताया गया कि बिहार के बड़े-बड़े अखबारों में, जिनके देश भर में संस्करण प्रकाशित होते हैं, जद (एकी) के खजांची विनय कुमार सिन्हा के घर आयकर छापे की खबर गायब रही। वह खबर लोग उन छोटे अखबारों के जरिए जान पाए, जिन्हें सरकारी विज्ञापनों से दूर रखा गया है। इन अखबारों को दबाने के लिए सरकार क्या-क्या नहीं करती, यह लंबी कहानी है। दूसरी तरफ ऐसे अखबारों की लंबी फेहरिस्त है, जो हमारी नजरों से नहीं गुजरते, लेकिन उनमें सरकारी विज्ञापन मौजूद होते हैं। ऐसे में सवाल है कि अब जबकि मुख्यधारा मीडिया इस रिपोर्ट को लेकर सिर्फ राजनीतिक माहौल बनाने में जुटा है, क्या वह खुद इसमें प्रमुखता से शामिल नहीं है! अगर इन रिपोर्टों, खबरों पर गौर करें तो यह स्पष्ट नहीं होने लगता है कि कॉरपोरेट मीडिया इस पूरे प्रकरण को अपने से काट कर सत्ता के गलियारों की गेंद बनाने में लगा है! उसमें उसके खुद के फंसने की पूरी संभावना है, क्योंकि जिस समय सरकार उनकी आवाज दबाने का काम कर रही थी, उस समय उसका विरोध करने के बजाय वर्ष के सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री से नवाजने में मशगूल था।



(मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित)
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आपबीती- मूलतः प्रकाशित, तहलका 28 फरवरी 2013

पटना की यह मेरी दूसरी यात्रा थी. तब मैं रांची के सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ता था. मुझे जानकारी मिली थी कि मशहूर आलोचक नामवर सिंह व्याख्यान देने पटना आनेवाले हैं. उन दिनों साहित्य और नामवर सिंह मुझ पर नशे की तरह सवार थे. मैं नामवर सिंह को दूरदशर्न पर नियमित देखा करता और कभी उन्हें सामने देखते हुए सुनने की कल्पना करता. कॉलेज की लंबी छुट्टी होने वाली थी. मैंने तय किया कि रांची से पटना सीधा चला जाता हूं, नामवर सिंह को सुनना भी हो जाएगा और साहित्यिक किताबों की खरीदारी भी. उन दिनों रांची में साहित्यिक किताबें बहुत कम मिला करतीं. कुछ दोस्तों ने बताया था कि पटना में गांधी मैदान के ठीक सामने पुरानी किताबों की ढेर सारी दुकानें हैं. वहीं अशोक राजपथ से नई किताबें खरीदने का विकल्प भी था.


शाम को मैं कांटाटोली बस स्टैंड पहुंचा और बस में बैठ गया. बगल की सीट खाली थी. मैं सोच ही रहा था कि पता नहीं कौन आएगा तभी करीब 45 साल का एक व्यक्ति उस पर आकर बैठ गया. उसने मुस्कुराते हुए पूछा, ‘कहां जा रहे हो?’ मैंने कहा,- ‘पटना.’ ‘वहां पढ़ाई करते हो?’ मैंने कहा,- ‘नहीं, पढ़ाई यहां करता हूं,वहां किताबें खरीदने और व्याख्यान सुनने जा रहा हूं.’ उसने तीन बार कहा- ‘गुड, गुड, गुड.’

जरा सी देर में इस व्यक्ति ने मुझसे पढ़ाई-लिखाई के बारे में काफी कुछ पूछ लिया था. उसे भी पता था कि प्रेमचंद कौन हैं, रेणु ने क्या लिखा है. हम इंजीनियरिंग मेडिकल की पढ़ाई नहीं कर रहे हैं, इसे लेकर हम दोस्तों-रिश्तेदारों के बीच मजाक के पात्र बनते थे. यह व्यक्ति मेरी पढ़ाई में दिलचस्पी ले रहा है, देखकर अच्छा लगा. 


फिर बस चल दी. थोड़ी देर में लाइटें ऑफ कर दी गईं. रांची छूटे कुछ ही समय हुआ था कि उस व्यक्ति ने मुझे छूना शुरू कर दिया. पहले तो मुझे कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन उसके हाथों की हरकतें बढ़ने लगीं तो मुझे बड़ा अजीब लगा. मैंने उसके हाथ पकड़ लिए. थोड़ी देर तक शांत रहा. फिर उसने मेरी पैंट के बटन खोलकर अपना हाथ भीतर डाल वदया. अब मैं बुरी तरह घबरा गया था. मैं उठकर जाने लगा तो उसने मेरे हाथ पकड़ लिए और बोला, ‘बैठो न, कुछ नहीं करूंगा.’ मैं चुप था और पटना जाने के फैसले पर अफसोस कर रहा था. आधे घंटे तक उसने कुछ नहीं वकया. फिर अचानक उसने मेरा हाथ पकड़ा और अपने पैंट में डाल दिया. मैंने प्रतिरोध में हाथ पीछे खींचने की कोशिश की. लेकिन इतनी ताकत से मेरा हाथ वापस वहीं ले गया कि मैं एकदम से रो पड़ा. एक बार रुलाई छूटी तो फिर मैं रोता ही रहा. उसने मुंह दबाने की कोशिश की.


चलती बस की आवाज में पहले तो किसी को कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन फिर एक महिला की आवाज गूंजी, ‘कंडक्टर साहब, लाइट जलाइए, कोई रो रहा है.’लाइट जली. एक महिला जो मेरी सीट के ठीक सामने बैठी थी, मेरे पास खड़ी थी. मैंने उस व्यक्ति की तरफ देखा.वह निढाल पड़ा था. उसकी पैंट पर सीमन बिखरे थे और मेरे कपड़े पर भी जहां-तहां फैल गए थे. उस महिला ने बिना मुझसे कुछ पूछे उस व्यक्ति को दनादन तीन-चार थप्पड़ जड़ दिए तो बाकी लोग भी मेरी सीट के पास जमा होने लगे. उसने मेरी पैंट पर अपनी मोटी फरवाली हैंकी डाल दी. शोर-शराबे की वजह से कंडक्टर ने गाड़ी रोक दी. तुम्हारा बैग कहां है ? मैंने रोते हुए इशारे से उस महिला को बताया और वो मेरा बैग लेकर मुझे अपने साथ लेकर नीचे उतर गई.

बैग से उन्होंने मेरा तौलिया निकाला और एक धुली पैंट और शर्ट. तौलिए लपेटकर मुझे पैंट उतारने कहा लेकिन मैं सिसकते हुए इतना कांप रहा था कि हाथ से पैंट की बटन और जिप खुल ही नहीं रही थी. उसने अपने हाथ लगाकर खोल दिए और पैंट की मोहरी खींचकर बाहर निकाल लिया. शर्ट के बटन भी उसने ही खोले. फिर एक-एक कर कपड़े पहनाए. अब उस व्यक्ति को बाकी लोग बुरी तरह पीटने लगे थे और धक्के देकर गेट की तरफ ले जा रहे थे. तय हुआ कि उसे ड्राइवर के बगल की सीट पर बिठाया जाए और आगे उतार दिया जाए. अब वह महिला मेरे बगल में थी. खिड़की की तरफ सिर टिकाकर मैं लगातार सिसक रहा था और वो मेरे सिर पर लगातार हाथ फेर रही थी. आंटी, मुझे उल्टी जैसी लग रही है..मैं फिर फफककर रोने लग गया था. उसने अपने बैग से परफ्यूम की शीशी निकाली और मुझ पर हल्का स्प्रे किया. जसमीन है, अच्छा लगेगा. वो कुछ बोल नहीं रही थी लेकिन उसका सहलाना जारी था.


सुबह के साढ़े छह बजे पटना पहुंचते-पहुंचते मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी. बस से उतरकर मैं जमीन पर पैर रखता उससे पहले मैं अचेत होकर गिर पड़ा. आंखें खोलीं तो मैं एक प्रसूति घर में पड़ा था. चारों तरफ से बच्चों के रोने और महिलाओं के  दर्द से चीखने की आवाजें आ रही थीं. मैं कुछ पूछता कि इससे पहले बगल में बैठी उन आंटी ने धीरे से पूछा, ‘अब बताओ, तुम्हें पटना में कहां जाना है? मेरे घर चलोगे?’ मैंने न में सिर हिलाया. दोपहर में मुझे वहां से डिस्चार्ज कर दिया गया. आंटी मुझे लेकर बाहर आ गई. दोबारा पूछा, ‘घर चलोगे ?’ मैंने कहा, ‘नहीं आंटी, अब कहीं नहीं जाऊंगा, वापस रांची.’ मुझे अब न तो नामवर सिंह को सुनना था और न ही साहित्य की किताबें खरीदनी थीं.


आंटी करीब डेढ़ घंटे और मेरे साथ रहीं. उन्होंने खाना भी मेरे साथ खाया. फिर बोलीं, ‘अब तुम पक्का ठीक हो न?’ ‘हां आंटी, आप प्लीज जाइए’,मैंने कहा. उन्होंने फिर मेरे सिर पर हाथ फेरा और कागज पर घर का पता लिखकर मुझे देते हुए बोलीं, ‘पटना आना तो मेरे पास आना मत भूलना. मैं रांची आई तो तुमसे मिलूंगी.’


करीब 13 साल गुजर चुके हैं. इसके बाद मेरा पटना कभी जाना नहीं हुआ. एक-दो मौके आए भी तो मैंने टाल दिया. लेकिन अब भी जब मेरे दोस्त मेरे बनाए खाने या मेरे साफ-सुथरे घर की तारीफ में कहते हैं, ‘तुम्हारे नाम के अंत में आ लगा होता तो तुमसे शादी कर लेता’, मुझे उस आदमी का चेहरा याद आ जाता है. टीवी चैनलों पर खासकर दामिनी,दिल्ली गैंग रेप की घटना के दौरान जब भी स्त्री की सुरक्षा के लिए किसी की मां किसी की बहन बनाकर एक तरह से कमतर और पुरुषों के साये में रहने की दलील दी रही तो आंटी का वह आत्मविश्वास से भरा चेहरा याद आता है, उनकी बांहें याद आती हैं जिनमें 18 साल का एक युवा सुरक्षित था.












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अरविंद केजरीवाल ने इंडिया न्यूज को लेकर जो ट्वीट किया है, वो उनकी इधर कुछ महीने से मीडिया के प्रति बढ़ी समझदारी के संकेत हैं. लगातार प्रेस कॉन्फ्रेंस और पुरानी रिर्काड के बूते ही सही एक के बाद एक जो वो खुलासे की शक्ल में जो प्रेंस कॉन्फ्रेंस करते आ रहे हैं, उससे कुछ नहीं तो एक बात तो स्पष्ट है कि मीडिया के प्रति उनकी समझदारी और उसके चरित्र को लेकर नजरिया साफ हो रहा है. अब वो ठीक-ठीक समझ पा रहे हैं कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा के बजाय कॉर्पोरेट और सरकार का वो धंधा है जिसमें वो खंभे के बजाय दोधारी तलवार का काम करता है. एक तरफ जनता की साख की हत्या करता है और दूसरी तरफ खूंखार मालिकों को प्रतिरोध करनेवाली ताकतों से रक्षा करता है.

अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट किया है - इंडिया न्यूज विनोद शर्मा का चैनल हैं, विनोद शर्मा मनु शर्मा के पिता हैं. वही मनु शर्मा जिसने मॉडल जेसिका लाल की हत्या की है. विनोद शर्मा का संबंध कांग्रेस से हैं.

केजरीवाल ने अपनी इस ट्वीट में एक तरह से मीडिया खासकर इंडिया न्यूज की ठीक-ठीक व्याख्या कर दी है कि जिसे आम जनता लोकतंत्र का चौथा खंभा मानकर पूजते आए हैं वो दरअसल सत्ता, राजनीति, अपराधी, कार्पोरेट और यहां तक कि स्वयं पत्रकारों/मीडियाकर्मी की मिली-जुली खेती है जिसका हर हालत में उन्हीं को लाभ मिलना है जो इससे संबद्ध हैं. यहां पत्रकारों को भी इस मालिक के मुनाफे के खएल में शामिल करना औऱ अलग से रेखांकित करना इसलिए भी जरुरी है क्योंकि अब मीडिया संस्थान शेयर के रुप में एक हिस्सा मालिकाना हक भी दे देते हैं ताकि वो लगातार संस्थान के पक्ष में काम करता रहे और अगर नहीं करने की स्थिति की बात करे तो नुकसान सहने के लिए तैयार रहे. इंडिया न्यूज मामले में भी चर्चित चेहरे दीपक चौरसिया को भी इसी बिना पर लाया गया है.

अरविंद केजरीवाल ने इंडिया न्यूज को लेकर ठीक ऐसे समय पर ट्वीट किया है जब ये संस्थान एक के बाद एक चर्चित चेहरे और जिनमे से कुछ तो जेसिका लाल के पक्ष में खबरें करते आए थे, जुटाने शुरु किए हैं. दीपक चौरसिया के साथ-साथ पुण्य प्रसून वाजपेयी के भी यहां आने की खबर की पुष्टि स्वयं दीपक चौरसिया ने न्यूजलॉड्री में अभिनंदन सिकरी को दिए इंटरव्यू में की थी..ये अलग बात है कि वाजपेयी इसे झुठलाते हुए आजतक का दामन थाम लिया. दूसरा कि चुनाव को ध्यान में रखते हुए जब टटपुंजिए चैनल भी ब्यूरों खोलने से लेकर संस्करण बढ़ाने का काम तेजी से कर रहे हैं, ऐसे में इंडिया न्यूज जिसका मालिक ही कांग्रेसी है, क्या आश्चर्य है कि अपने और पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने के लिए इसे एक तेज हथियार के रुप में तैयार करे. दीपक चौरसिया सहित नई टीम के बनने से लेकर न्यूजx का विलय और विदेशी नेटवर्क से समझौते इसकी कड़ी है. ऐसा करके कुल मिलाकर विनोद शर्मा ने व्यापक रुप से ये संदेश देने का काम किया है कि बात चाहे दीपक चौरसिया की हो या फिर किसी दूसरे मीडिया चर्चित चेहरे की, पैसे के आगे सबको अपना अनुचर बनाया जा सकता है और मीडियाकर्मी ऐसे जटिल शख्स नहीं होते जिन्हें कि मैनेज नहीं किया जा सकता. कल को मनु शर्मा के बाहर आने पर उनके निर्देश पर मीडियाकर्मी स्टोरी गिराने और हेडलाइंस बनाने शुरु कर दें तो कोई आश्चर्य नहीं.

अरविंद केजरीवाल को ये सारी बातें हालांकि काफी बाद में समझ आयी और खासकर तब जब मीडिया ने सरकार के दवाब में आकर उनके आंदोलन की कवरेज न के बराबर कर दी. नहीं तो इससे पहले वो आंदोलन के लोकप्रिय होने में बार-बार न केवल उसी कार्पोरेट मीडिया का शुक्रिया अदा कर रहे थे बल्कि उससे शाबासी भी बटोर रहे थे.याद कीजिए सीएनएन-आइबीएन सम्मान और उस दौरान केजरीवाल के वक्तव्य. केजरीवाल ने हालांकि ये सब स्ट्रैटजी के तहत ही किया था और इस बात का अंदाजा लगा रहे थे कि मीडिया भ्रष्टाचार पर बोलने का मतलब है उससे पंगा लेना और आंदोलन की गति को कम करना लेकिन ऐसा करने के बावजूद उन्हें समझ आ गया कि मीडिया पंगे और दोस्ताना संबंधों पर नहीं "माल" पर चलता है और अगर उनके बजाय कार्पोरेट और सरकार देती रहे तो आंदोलन की दो दिन में हवा निकाली जा सकती है. लेकिन

मौजूदा ट्वीट को एक तरफ तो मीडिया के प्रति केजरीवाल की परिवक्व समझ के रुप में देखा जाना चाहिए,दूसरा कि उस भरोसे के मजबूत होने के भी संकेत हैं कि अगर मेनस्ट्रीम मीडिया ने उन्हें इस रवैये के बाद नकारना भी शुरु कर दिया तो वो सोशल मीडिया और आपसी जनसंपर्क से काम चला लेंगे. ट्वीट के पीछे जो खबर हम तक आ रही है कि केजरीवाल इस चैनल पर बोलने गए थे और उन्हें पहले आश्वस्त कर दिया गया था कि उन्हें भरपूर मौका दिया जाएगा. जो बात उन्होंने ट्वीट की है, वही बात चैनल पर जाकर भी कही है. इसका मतलब है कि चैनलों के बीच उन्होंने ये संदेश दे दिया है कि किसी के भी साथ ऐसा हो सकता है और जाहिर है कि सबकी गर्दन कहीं न कहीं फंसी है. ऐसी स्थिति में मेनस्ट्रीम मीडिया उन्हें पूरी तरह नजरअंदाज भी करती है तो भी लोगों के बीच उनका यकीन पहले के मुकाबले बढ़ेगा और ये यकीन सोशल मीडिया और गली-मोहल्ले की गप्पबाजी के बीच और मजबूत होगी. इसमे कोई शक नहीं कि केजरीवाल ने ऐसा करने बड़ी रिस्क ली है लेकिन एक मॉडल को लांच भी किया है..अगर ये मॉडल सफल हो गया तो मेनस्ट्रीम मीडिया की ताबूत की एक कील साबित होगी. अपनी तमाम बेशर्मी को ढोते हुए मीडिया का ये रुप बरकरार रहेगा लेकिन घटती साख की गति और तेज होगी.
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बिहार में मीडिया की स्थिति और सरकारी दबदबे,अंकुश को लेकर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट आने के बाद चैनलों ने लोकतंत्र के चौथे खंभे को लेकर फिर से बहस शुरु कर दी है. मार नीतिश सरकार को कोसने,गरिआने का काम युद्ध स्तर पर जारी है. मुझे इससे न तो कोई दिक्कत है और न ही मैं नीतिश के उन तमाम रवैये के प्रति किसी भी तरह की सहमति रखता हूं जिसमें उन्होंने अखबारों को विधान सभा की इनहाउस मैगजीन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. लेकिन सरकार की आलोचना हो इसके पहले मैं सिर्फ एक सवाल रख रहा हूं- आप बताइए तो सही कि किस राज्य में,यहां तक कि किस देश की सरकारें मीडिया को मैनेज करने,दबाने,कुचलने और पैसे के दम पर अपने पक्ष में बनाने का काम नहीं करती है..फिर ये खबर कब-कब और कितनी बार आपने अखबारों और चैनलों में देखा ? अगर रिपोर्ट न भी आती तो क्या नेशनल चैनलों और अखबारों के जो ब्यूरो बिहार में काम कर रहे हैं, उन्हें इन सब बातों की कोई जानकारी नहीं थी लेकिन एकदम सन्नाटा. इतना ही नहीं, इन सरकारी विज्ञापनों और टुकड़ों के दम पर कई टटपुंजिए चैनलों और अखबारों ने दनादन ब्यूरो खोलने और संस्करण निकालने शुरु किए. उठा कर देख लीजिए दैनिक जागरण,हिन्दुस्तान,दैनिक भास्कर और प्रभात खबर भी, आपको अंदाजा लग जाएगा कि कैसे ये अखबार सरकार की तो छोड़िए औने-पौने छोटे-मोटे व्यवसायियों और उन्हें द्वारा आयोजित जागरण,संध्या वंदना की खबरों को प्रमुखता से प्रकाशित करते आए हैं. कितनी बार आवाज उठाया मीडिया ने कि मेरा दम घुट रहा है, यहां पत्रकारिता मर रही है..नहीं,इक्का-दुक्का घटना को छोड़कर कभी नहीं. बताएं तो सही कि दिल्ली-नोएडा डेस्क ने निगेटिव स्टोरी होने पर किस तरह कुचला है और डस्टबिन में डाल दिया है..

आज नहीं, आज से एक साल पहले इसी फरवरी महीने में जस्टिस काटजू ने जब पटना का दौरा किया तो बताया कि बिहार में मीडिया के हाथ बंधे हुए हैं,आजाद नहीं है. इसके बाद आपने इस पर कितनी बार चर्चा देखी-सुनी..उल्टे नामचीन टीवी और अकादमिक दुनिया के चेहरे वहां सरकार के पैसे से आयोजित सेमिनारों में जाकर चारण-वंदना कर आए. सवाल बिहार में सरकार द्वारा मीडिया को मैनेज करने का नहीं है, सवाल उससे भी बड़ा है कि मीडिया की खुद की रीढ़ कितनी मजबूत है कि वो इसका प्रतिरोध कर पाते हैं ?

दूसरा कि अब अगर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने 11 महीने लगाकर रिपोर्ट तैयार की है तो इसमें मीडिया के चरित्र की व्याख्या किस तरह से होगी ? क्या मीडिया इतना मासूम बबुआ है कि उसे जैसे-जैसे नीतिश सरकार ने मैनेज करने की कोशिश की,होता गया. कहां तो ये अपने को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहता आया है और कहां एक राज्य की सरकार से मैनेज हो जाता है. अगर ऐसा है तो इसके प्रति हमदर्दी जताने के बजाय इसकी कड़ी आलोचना की जानी चाहिए कि अग आपकी रीढ़ इतनी कमजोर है तो ऐसे दावे करने छोड़ दें.

आप याद कीजिए प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की उस रिपोर्ट को जिसमें दैनिक जागरण और अमर उजाला सहित दर्जनभर अखबारों के इस धंधे में शामिल होने की बात रिपोर्ट में शामिल की गई. नतीजा प्रेस काउंसिल पर इस रिपोर्ट से अखबारों के नाम हटाने के दवाब बनाए गए. नाम हटाए भी गए और रिपोर्ट मरी हुई मछली की तरह मेनस्ट्रीम मीडिया के बीच तैरती रही. बाद में करीब एक साल बाद जस्टिस काटजू ने उस रिपोर्ट को जारी किया. इधर चुनाव आयोग ने संबंधित विधायक उमलेश यादव की अगले पांच साल के लिए चुनाव लड़ने की योग्यता खत्म कर दी लेकिन अखबार....? अखबार उसी तरह सीना तानकर खड़ा है और उसमें वही सारे नामधन्य पत्रकार,स्तंभकार लेख लिख रहे हैं, जिन्होंने की गर्दन की नसें फुला-फुलाकर पेड न्यूज का विरोध किया था.

ऐसे में सवाल सिर्फ बिहार सरकार का मीडिया पर अंकुश लगाना और मैनेज करने का नहीं है, सवाल है कि स्वयं मीडिया उनके आगे बिछने के बजाय किस तरह का प्रतिरोध करता आया है ? बार-बार बिहार कह देने भर से ये मामला बिहार भर का नहीं रह जाता. मैंने खुद एनडीटीवी इंडिया की एक परिचर्चा में महाराष्ट्र के एक सांसद की लेटरपैड पर लोकमत समाचार के लिए विज्ञापन मांगते दिखाया था. पंजाब में पीटीसी न्यूज और शिरोमणि अकाली दल के खेल से आप सब परिचित हैं. हमें ये बात किसी भी स्थिति में नहीं भूलनी चाहिए कि जब तक आप मीडिया को एक पार्टी की तरह, बराबर का दोषी माने बिना मीडिया की आजादी पर बहस करते हैं, तब तक आप सिर्फ मेनस्ट्रीम मीडिया के सिरे से ही सोचकर सरकार को कोसते रहेंगे. नीतिश सरकार ने हिन्दुस्तान,दैनिक जागरण के बिहार संस्करण को मैनेज करने की कोशिश की, देश के बाकी संस्करण तब क्या कर रहे थे, राष्ट्रीय संस्करण तब इस बात पर कितनी आपत्ति जता रहे थे, कितने अखबारों और चैनलों ने खुलेआम घोषणी की कि इस राज्य में हमारा रहना असंभव हो गया है, केन्द्र सरकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में बात करनेवाले लोग आगे आएं. नहीं तब वो गुपचुप तरीके से सरकार के साथ समझौते पर समझौते करते रहे, व्यावसायिक रणनीति तैयार करते रहे और अब जब रिपोर्ट आयी है तो ऐसे बहस कर रहे हैं जैसे वो भारत के मीडिया यानी अपने आप के बारे में नहीं पाकिस्तान में मीडिया की स्थिति पर बात कर रहे हों.

तीसरी जरुरी बात कि जब चैनलों पर इस रिपोर्ट को लेकर बहस हो रही है तो मीडिया और सरकार को ऐसे अलगकार देख रहे हैं जैसे सचमुच इतना अलग होकर काम होता है ? क्या प्रेस काउंसिल ने इस रिपोर्ट में मीडिया ऑनरशिप को लेकर अलग से कोई सूची जारी की है, बताया है कि किस विधायक का,किस सांसद का पैसा किस अखबार,चैनल में लगा है. किस कार्पोरेट के शेयर किस चैनल और मीडिया संस्थान में लगे हैं ? मुझे उम्मीद तो नहीं है कि काउंसिल ने इस दिशा से भी सोचने का काम किया होगा ? अगर इस सिरे से रिपोर्ट बनायी जाती है तो मीडिया और सरकार या राजनीतिक व्यक्ति एक दूसरे से बिल्कुल अलग दिखने के बजाय एक ही दिखेंगे..ये बहस मीडिया की आजादी की नहीं, सरकार और कार्पोरेट मीडिया के बीच के गणित के गड़बड़ा जाने का मामला ज्यादा है या फिर उस गणित पर जस्टिस काटजू की नजर पड़ने का ज्यादा है.

मुझे पूरा यकीन है कि इस रिपोर्ट को लेकर मेनस्ट्रीम मीडिया एक-दो दिन तक हो-हो करेंगे, सरकार के खिलाफ माहौल बनाएंगे और ऐसा करते हुए अपनी ही पीठ ठोकेंगे और उसके बाद मैनेज होने की दरें पहले से ज्यादा बढ़ेगी क्योंकि ये मुद्दे और सरोकार को लेकर मीडिया की तरफ से किया जानेवाला विरोध नहीं है बल्कि अपने ही राजस्व के मॉडल पर कुल्हाड़ी मारनी है और जाहिर है मेनस्ट्रीम मीडिया इतना वेवकूफ नहीं है. आप खुद सोचिए न प्रकाश झा जैसा फिल्मकार जिसने एक के बाद एक बिहार की बदहाली,अपराध और भ्रष्टाचार पर फिल्में बनायी लेकिन जब मौर्या टीवी लांच किया तो उसी बिहार में टीआरपी के लिए केबल ऑपरेटरों को इस तरह से मैनेज किया कि आप मौर्या टीवी के अलावे कुछ और देख ही नहीं सकते थे और चैनल नंबर वन हो गया. तो जब एक फिल्मकार इतना तिकड़मी हो सकता है तो बाकी जो धंधेबाज मीडिया चला रहे हैं, वो क्या सदाव्रत खोलकर बैठे हैं. जब तक आप मीडिया और उस पर आयी इस तरह की रिपोर्ट में मेनस्ट्रीम मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़े नहीं करते, चौथा खंभा बचाने के नाम पर रायता फैलाने का उनका काम जारी रहेगा. फिलहाल पढ़िए द ओपन मैगजीन की वो रिपोर्ट जिसमे प्रेस काउंसिल की इस रिपोर्ट से पहले ही बहुत ही खोजपरक तरीके से मीडिया की स्थिति के बारे में प्रकाशित की थी.
लिंक- http://www.openthemagazine.com/article/nation/editor-in-chief-of-bihar
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तब विजय दिवस पर बनायी बरखा दत्त की चालीस मिनट की डॉक्यूमेंटरी REMEMBERANCE KARGIL TEN YEARS LATER  देखते-देखते आंखों में अपने आप ही आंसू छलछला गए थे. तब लगा था- पता नहीं इस पर किसी हिन्दी चैनल बनाता तो ये प्रभाव पैदा हो पाता भी नहीं.मैंने बरखा दत्त की  इस डॉक्यूमेंटरी पर मीडिया खबर के लिए एक लेख लिखा था और इन्डस्ट्री के कुछ नामचीन लोगों ने मेरी आलचना इस बात पर की थी कि मैं बरखा को मिले साधनों को नजरअंदाज कर रहा हूं. लेकिन वो साधन बाकी लोगों को भी मिलते तो ऐसा कर पाते, पता नहीं.

पिछले तीन दिनों से हिन्दी-अंग्रेजी के सारे चैनलों से गुजरा. क्या कमी है टाइम्स नाउ को, सीएनएन-आइबीएन को और यहां तक कि एनडीटीवी चौबीस गुना सात को लेकिन ऐसी स्टोरी नहीं दिखी. लगातार द हिन्दू पढ़ता रहा. आज सुबह द हिन्दू की स्टोरी पढ़ी- In Tihar, officials feel ‘tinge of sorrow’. उसी तरह अपने आप आंसू आ गए जैसे बरखा दत्त की स्टोरी देखकर आयी थी. वही तरलता, वही सहजता और वही प्रभाव. ऐसे ही वक्त मुझे लगता है हिन्दी और अंग्रेजी के पार भी कोई भाषा है जो व्याकरणों में जाकर नहीं उलझ जाती, वाक्य विन्यास में नहीं फंसती. कभी ऐसा असर नहीं डालती कि हमें उस स्तर की अंग्रेजी नहीं आती, जिस स्तर पर जाकर मीडियाकर्मी ने अपनी बात रखने की कोशिश की हो. संवेदना को जिंदा रखने की तो कोई और ही भाषा होती है. जो हिन्दी,अंग्रेजी, उर्दू चाहे दुनिया की किसी भाषा से परे होती है.

द हिन्दू की इस स्टोरी को पढ़कर संभव है कि वैचारिक रुप से कईयों को असहमति हो लेकिन इस सिरे से जरुर सोचना शुरु करेंगे कि हम जब आंतकवाद,भ्रष्टाचार और यौन हिंसा के खिलाफ खड़े होते हैं और गुनाहगारों के लिए सजा की मांग करते हैं तो संवेदना की वो जमीन बिल्कुल छूट तो नहीं जाती जिसके विरोध में हम दूसरा समाज रचने की कोशिश करते हैं. लेख ने ठीक ही तो सवाल उठाया है कि अफजल की तरह कितने हिन्दुओं ने चारों वेद पढ़े होंगे ? कितने लोगों ने दोनों धर्मों के बीच तुलनात्मक अध्ययन करके साम्यता देखने की कोशिश की होगी? आप मत मानिए इस राइट अप की बात लेकिन मीडिया के उस चेहरे पर शक तो जरुर कीजिए जो खबर देने के बजाय एक पक्ष तैयार करता है जो कि अपने आप में इतना घिनौना,क्रूर और आगे चलकर स्वयं उन मूल्यों के विरोध में है जिसके बिना पर उसका पूरा का पूरा धंधा खड़ा है. आखिर क्या कारण है कि लगातार चौबीस घंटे की कवरेज के बावजूद टीवी वो संवेदना की जमीन नहीं ढूंढ पाता जो कई बार प्रिंट के आधे पन्ने कर जाते हैं. यहां प्रिंट को किसी भी हालत में बेहतर करार देने की रणनीति है बल्कि इसके अतिरिक्त दो माध्यम होने के लाभ की परख है.

दि हिन्दू की पिछले तीन दिनों से अफजल गुरु ने जिस तरह की स्टोरी प्रकाशित की है, उसके आगे टीवी बहुत ही हारा हुआ माध्यम लग रहा है. उसके पास प्रिंट के मुकाबले दो अतिरिक्त माध्यम है- रेडियो और टीवी, प्रिंट की तरह शब्द तो है ही उसके पास लेकिन दि हिन्दू की स्टोरी से गुजरने के बाद मन में सवाल उठता है कि इन दो अतिरिक्त माध्यमों के होने से भी क्या हो जाता है..नहीं भी होता तो संवेदना के स्तर पर क्या कमी रह जाती भला ? इस मामले में मुझे पूरनचंद जोशी का माध्यमों के विस्तार और सामाजिक विकास से जुड़े तर्क बहुत ही सही लगते हैं कि जिसे हम सूचना क्रांति कह रहे हैं, वो दरअसल तकनीकी क्रांति है और इससे मानवीय विकास होंगे, इसे लेकर किसी भी हाल में आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता. अफजल की कवरेज से पहले  भी जिस तरह से टीवी ने प्रतिबंध का पखवाड़ा चलाया, लगा नहीं कि उसके भीतर अपने पूर्वज माध्यमों की ताकत आ जाने से भी कोई अतिरिक्त लाभ समाज को मिला है. वो वहीं का वहीं खड़ा है बल्कि कई स्तरों पर पहले से और बदतर हो गया है. रॉबिन जैफ्री का भारत के समाचारपत्रों पर किया गया शोध फिर उस समाज की बारीक परख करता है जहां वो उत्तर साक्षर तो हो गया है लेकिन साक्षर नहीं. इस मामले में जैफ्री के अध्ययन पर भी गौर किया जाना चाहिए.

टेलीविजन जिन तथाकथित साक्षरों के बीच ढोल-नगाड़े पीटकर लोकतंत्र बचाना चाह रहा है या कहें कि प्रदर्शन कर रहा है, उसे उत्तर साक्षर से हटकर साक्षर या फिर सूक्ष्म साक्षर( micro-literate) होना होगा जो स्याह-सफेद का फर्क करने से आगे के चरण में शामिल हो सके और ये चरण वैचारिक बहुलता का सम्मान करने में निहित है. दुर्भाग्य से टीवी ने शुरुआती दिनों को छोड़ दें तो अब वो इसे बिल्कुल अलग और पिछड़ गया है.

बरखा दत्त की स्टोरी सी जुड़ी पोस्ट के लिए चटकाएं- http://mandimeinmedia.blogspot.in/2009/07/blog-post_26.html
दि हिन्दू की स्टोरी के लिए चटकाएं- http://www.thehindu.com/news/national/in-tihar-officials-feel-tinge-of-sorrow/article4400897.ece
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परदे का लोकतंत्र

Posted On 12:20 pm by विनीत कुमार | 4 comments


आशीष नंदी के ‘विचारों का गणतंत्र’ पर अपनी बात रखने के बाद शुरू हुए प्रतिबंध के पखवाड़े में मीडिया का उत्साह देखने लायक था। उन्होंने भ्रष्टाचार और जातिगत अवधारणाओं को लेकर जो कुछ कहा, आनन-फानन में वह ‘बयान’ हो गया और उसे देश के दर्शक-श्रोता के सामने इस तरह पेश किया गया कि जैसे आशीष नंदी ने एक समाजशास्त्री के नाते प्रबुद्ध समाज के सामने विमर्श नहीं, बल्कि किसी चुनावी रैली को संबोधित किया है।फिर शाहरुख खान के लेख पर ऐसा ही माहौल बनाने की कोशिशें हुर्इं। उस लेख के लिए भी ‘बयान’ शब्द का इस्तेमाल किया गया। कमल हासन की फिल्म ‘विश्वरूपम्’ पर प्रतिबंध लगाए जाने की घटना तक आते-आते तो चैनलों की सक्रियता चरम पर थी।

चैनलों के इस रवैए पर छिटपुट तरीके से जो भी प्रतिक्रियाएं आर्इं, उनमें टीआरपी और मुनाफे का खेल जैसी बातें प्रमुखता से शामिल हैं। वैसे टीआरपी का खेल मीडिया विमर्श का गंभीर मुद्दा बनने से पहले ही जुमले के रूप में इतना घिस गया है कि बिना तकनीकी समझ के कोई भी बहुत आत्मविश्वास के साथ इस शब्द का इस्तेमाल कर जाता है। यह तो ठीक है कि टीआरपी का खेल है, क्योंकि चैनलों के दूसरे खेल को समझने के लिए हमारे पास कोई दूसरा तरीका नहीं है, लेकिन साथ में यह भी है कि वे इस खेल के अलावा कुछ ऐसे बड़े खेल भी कर रहे हैं, जिसके आगे टीआरपी का खेल आने वाले समय में बहुत बौना नजर आएगा।
जिन चैनलों का साल भर अता-पता नहीं होता, वे कुंभ और चुनाव में अचानक कैसे अवतरित हो जाते हैं! जिन चैनलों के पास मीडियाकर्मियों को वेतन देने तक के पैसे नहीं होते, उनके संवाददाता किस बूते और किसके खर्चे पर कॉरपोरेट सम्मिलन की खबर करने विदेश चले जाते हैं! जो चैनल पांच- छह सौ करोड़ रुपए के कर्ज में डूबा हो, रातोंरात कैसे देश के सबसे बड़े क्षेत्रीय चैनल नेटवर्क को अपने अधीन कर लेता है? ये ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब तलाशें तो यह बात स्वाभाविक रूप से सामने आएगी कि इस देश में टीवी चैनलों का एक बड़ा जखीरा है, जिसे न तो टीआरपी से बहुत फर्क पड़ता है और न ही उसके जरिए मिलने वाले विज्ञापन से। मुनाफे की गली कहीं और खुलती है।
चुनावी मौसम में पेड न्यूज भले राष्ट्रीय समस्या बन जाते हों, लेकिन यह चैनलों के धंधे का स्वाभाविक तरीका है। प्रतिबंध के पखवाड़े में आशीष नंदी, शाहरुख खान, कमल हासन और अब प्रगाश बैंड को लेकर चैनलों ने जिन भाषा का प्रयोग किया, उसकी एक व्याख्या यह है कि भाषिक स्तर पर ये बहुत तंग और खोखले हैं। लेकिन अपने इस खोखलेपन को वे न केवल ढंकते, बल्कि उसे ही अपना शास्त्र मानते हैं।
मीडियाकर्मी हजार-बारह सौ शब्दों में होने वाली इस पत्रकारिता पर बाकायदा किताब लिखते हैं और नामवर आलोचक की ओर से प्रमाण-पत्र जारी किया जाता है। सवाल है कि जब देश और दुनिया की सारी घटनाएं इन्हीं निर्धारित शब्दों में व्यक्त की जानी हैं तो हर विमर्श और लेख को बयान बनने में कितना वक्त लगेगा? क्या इन हजार-बारह सौ शब्दों में तमाम तरह की गतिविधियों की पेचीदगी और संश्लिष्टता व्यक्त हो जाती है?
टीवी अपने को जिस लोकतंत्र को खड़ा करने की कोशिश में लगा है वहां इतने भर शब्द न केवल पर्याप्त, बल्कि इससे ज्यादा या तो कबाड़ हैं या फिर उसकी समझ से परे, जिसमें जाने की क्षमता उसने कभी विकसित नहीं की। जिस सरल, सहज और आमफहम भाषा की दलील देते हुए अपनी अक्षमता पर परदा वे सालों से डालते आए हैं, उसमें बौद्धिक विमर्श, संवेदनशील लेख और प्रतिरोध के स्वर की परणति बयान और प्रतिबंध में होती है तो आश्चर्य क्या।
दूसरी बात कि शब्दों और अभिव्यक्ति के अभाव में ये चैनल जो लोकतंत्र रचते हैं, वह आगे चल कर खुद कितना लोकतंत्र के विरोध में है, यह बात भी वे खुद बता जाते हैं। इस देश में जब समाचार चैनलों का दौर शुरू हुआ तो दूरदर्शन के जरिए अपनी पहचान कायम कर चुके मीडियाकर्मियों ने पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग का उपहास उड़ाते हुए कहा था- रेडियो और टेलीविजन सरकारी भोंपू नहीं हैं कि हर बुलेटिन ‘प्रधाननंत्री ने कहा है कि’ से शुरू हो। बात सही है, लेकिन किसने सोचा होगा कि अपने सोलह-सत्रह साल के इतिहास में टीवी का लोकतंत्र इस दिशा में विकसित होगा कि एक नागरिक उसी क्रूर सत्ता की तरह, कट्टर संगठनों की तरह व्यवहार करेगा, जिसके लिए अलग से सरकार के दमनकारी और साम्राज्यवादी माध्यमों को मेहनत न करनी पड़े?
आप गौर करेंगे कि जिस भी व्यक्ति या संगठन द्वारा विमर्श, लेख, सिनेमा या अभिव्यक्ति के दूसरे रूपों का विरोध किया जाता है, आमतौर पर उनका प्रशिक्षण इन अभिव्यक्ति में निहित तरलता और संवेदनशीलता को समझने की नहीं होती। संस्कृति रक्षा के नाम पर घूमफिर कर वही धार्मिक संगठनों और राजनीतिक मतों से जुड़े लोग टीवी के परदे पर हाजिर हो जाते हैं, जो संस्कृति को सनातन सत्य के बजाय रोजमर्रा का अभ्यास और एकरूपता के बजाय बहुलता में देखने को किसी भी स्तर पर तैयार नहीं हैं। ये मीडिया और राजनीति की वे फसलें हैं, जिन पर इन दोनों ने भारी पूंजी और समय निवेश किया है और इस लायक बनाया है कि वे लोकतंत्र की जमीन पर खड़े होकर इनकी जुबान बोल सकें। अब इन्हें अलग से क्रमश: दमनकारी और मुनाफे के पीछे भागने जैसी गतिविधि की जरूरत नहीं है। इस स्थिति में सरकार और उसके संगठनों को इतना उदार और मीडिया को इतना जनपक्षधर इसी करिश्मे के कारण देख पाते हैं।
यह कितनी खतरनाक स्थिति है कि जिस निर्मल बाबा को खुद चैनलों ने फर्जी करार दिया, मुकदमे हुए, अंधविश्वासी और समाजविरोधी बताया, उन्हें दुबारा प्रसारित करना शुरू किया। ज्योतिष के नाम पर उन पाखंडियों का प्रवचन अबाध गति से जारी है, जो व्यक्ति का ललाट और चेहरे का रंग देख कर नौकर रखने की सलाह देते हैं। स्त्री की आंख के हिसाब से बात करने की राय देते हैं। मतलब, चैनल के हिसाब से ये कभी संस्कृति के लिए खतरा पैदा नहीं करते, क्योंकि ये विज्ञापनदाता हैं चैनल के अर्थशास्त्र के नियंता, जबकि एक समाजशास्त्री, लेखक और कलाकार की अभिव्यक्ति इतनी खतरनाक मान ली जाती है कि उससे हजारों साल पुरानी संस्कृति संकट में पड़ जाती है!
टीवी के इस लोकतंत्र को नए सिरे से समझने की जरूरत है कि अपने कारोबारी संस्कार के बावजूद वह जिस जागरूकता की बात करता है और उससे प्रभावित होकर दर्शक सक्रिय भी होते हैं वही आगे चल कर उसे अपने लोकतंत्र से किस कदर कुचलता है। दामिनी के लिए दिल्ली में उमड़ी लाखों की भीड़ हो या फिर कश्मीर में प्रगाश बैंड की लड़कियों के समर्थन में जुटे लोग, चैनलों के लिए वह सब सामाजिक आंदोलन न होकर सियासी मसला ज्यादा हो जाता है। यहां आकर वह राजनीति और कॉरपोरेट की उस सामान्य नीति से अलग व्यवहार नहीं कर रहा होता है, जिसे लोकतंत्र की जमीन को स्याह-सफेद में बांटने की जल्दबाजी रहती है, क्योंकि इन दोनों के बीच की स्थिति में जिस चेतना के पनपने और बचे रहने की गुंजाइश बची रहती है, राजनीति, कॉरपोरेट और संभवत: मीडिया को भी अपने खतरे वहीं नजर आते हैं।
 (मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित 10 फरवरी 2013
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यार, तुमने आइआइएमसी से आरटीवी का बेकार ही कोर्स किया, तुम्हें एनएसडी में होना चाहिए था. बस ये है कि तुम अभी एंकर न होकर रंगमंच की आखिरी साल की स्टूडेंट होती. आइ20 की चाबी उंगलियों में नहीं इतराती और आज तुम यहां मुख्य वक्ता नहीं होती. लेकिन इससे पहले ही उसका मैसेज आ गया-तुम आज इतने सीरियस क्यों हो


सीरियस ! मीडिया पर इतनी जानकारीपरक बात करोगी तो मैं क्या कोई भी सीरियस हो  जाएगा और फिर इन सारी से गुजरना अपनी किताब से गुजरने जैसा ही तो है. नहीं लेकिन उसे ये सब कुछ मैसेज नहीं करेगा. अक्षत ने अपने को रोक लिया.

वैशाली जिस रौ में मीडिया के बारे में वो सब बोले जा रही थी जिसे कभी अक्षत के लिखे जाने पर बहुत बहसबाजी की थी, उसे उम्मीद ही नहीं थी कि ऑडिएंस की भी भीड़ के बीच अक्षत भी बैठा वो सब सुन रहा होगा. वो तो उसने जब अपनी बाहें उपर की और वैशाली की नजर उस पर पड़ी तो जान पायी कि इन पंक्तियों का लेखक यहां मौजूद है. अक्षत याद करता है झल्लाहट में वैशाली के उस चेहरे को, वो लगातार कह रही थी- अक्षत,तुम मीडिया को इस तरह से एक रंग से कैसे पेंट कर सकते हो कि इसके भीतर कुछ बी अच्छा नहीं है, सब कूड़ा है,बकवास है,धंधा है,टीआरपी का खेल है? यार,काफी कुछ किया है मीडिया ने समाज के लिए. तुम ही बताओ,जेसिका लाल के हक की लड़ाई बिना मीडिया के लड़ी जा सकतीथी,अन्ना का भ्रष्ट्चार आंदोलन बिना मीडिया सहयोग के खड़ा हो सकता था, 2जी,कॉमनवेल्थ,एक के बाद एक घोटाले का पर्दाफाश इसी मीडिया ने किया है,फिर तुम इसे सिर्फ ब्लैक से क्यों पेंट कर रहे हो ? तुम्हें पता है इस किताब को पढ़कर मीडिया के प्रति कितनी खराब राय बनाएंगे? कुछ तो पॉजेटिव भी लिखो यार. वैशाली किताब के कुछ पन्ने पढ़कर एक दिन तो इतनी उत्तेजित हो गई थी कि एक दिन यहां तक कह दिया था- मन कर रहा हैकि इन पन्नों को चिद्दी-चिद्दी फाड़कर डस्टबिन में डाल दूं. इतनी मेहनत करती हूं, बैल की तरह खटती हूं,कई बार डबल शिफ्ट तक लगानी पड़ जाती है लेकिन तुम्हें ये सब कभी नजर नहीं आता कि आखिर मैं ये सब किसके लिए कर रही हूं, क्यों कर रही हूं, क्या मैं बम बनाने सुबह छह बजे उठकर नोएडा फिल्म सिटी जाती हूं ? फिर अक्षत के गले में हाथ का सिक्कड बनाकर झूलने लगी- अक्षत,प्लीज यार..मत लिखो न मीडिया को लेकर इस तरह की बकवास. एक बार इत्मिनान से सोचा न मीडिया के बारे में,तुम्हें काफी कुछ पॉजेटिव दिखेगा.

तुम इस किताब को इतना पर्सनली क्यों ले रही हो वैशाली ? मैं मीडिया पर एक क्रिटिकल बुक लिख रहा हूं,किसी एंकर की जिंदगी पर बायोग्राफी नहीं एंड लिसन,मैं तुम पर तो कच्चू कभी लिखने जा रहा. लिखूंगा भी तो यही कि और वैशाली नंदीग्राम में मारे गए आंदोलनकारियों से जुड़ी खास खबर पढ़ने से पहले आइनें में शक्ल देखी- ओह..आइलाइनर बहुत लाइट दिख रही है..हा हा. ठीक रहेगा न वैशाली ? तब अक्षत ने बात टालने की कोशिश की थी लेकिन वैशाली आज कहां माननेवाली थी..नहीं अक्षत,मजाक छोड़ो..तुम ये नहीं लिख रहे हो न कि मीडिया में व्यक्तिगत ईमानदारी का कोई मतलब नहीं होता.होता है डियर,होता है.तू ही बता,तेरी वैशाली क्या कभी किसी से पैसे लिए खबर पढ़ने के, क्या किसी के साथ मेकआउट किया तरक्की पाने के लिए? क्या इसका इन्डस्ट्री पर कोई फर्क नहीं पड़ता..खैर,अक्षत को मीडिया को लेकर जो कुछ भी लिखना था,लिख दिया. वैशाली किताब के पन्ने आगे बढ़ने के साथ-साथ पीछे छूटती चली जा रही थी. उसे यहां तक लगा था कि अक्षत सिर्फ और सिर्फ उसे डिमीन करने के लिए ये किताब लिख रहा है. उसे इस बात का भी डर था कि उसके चैनलवालों को जरुर शक होगा कि मैंने ही बैलेंस शीट दी है अक्षत को, मैंने ही टीआरपी की रिपोर्ट दी थी और इन्डस्ट्री की लेडी विभीषण बनी थी..मेरी तो नौकरी गई. अक्षत तो चाहता ही है कि मेरी नौकरी छूट जाए. कहां तो उसने इस किताब को लेकर सपने देखे थे- मेरा पहला प्यार वैशाली के लिए, कवर पेज के ठीक बाद के पेज पर होंगे जिसे वो अपने चैनल हेड को गिफ्ट करेगी और कहां अक्षत ने कब्र ही खोद दी. अक्षत,यू गो टूद हेल, अब तू शक्ल भी मत दिखाना अपनी.भाड़ में जाए तेरी किताब और भाड़ में जाए तेरा कमिटमेंट. तू उसकी बत्ती बनाकर तिल्ली लगाता रह, मैं तो गई तेरी लाइफ से,बाए-बाए.

अक्षत उस दिन की वैशाली के चेहरे पर डूबते-उतरते भाव को याद करके आज मंच पर मुख्य अतिथि की हैसियत से बोल रही एंकर वैशाली से मिलान कर रहा था- मीडिया न तो कभी चौथा खंभा था और न कभी होगा, वो शुरु से धंधा रहा है और आगे भी रहेगा. यार वैशाली,ये तो कुछ ज्यादा हो गया. ये लाइन तो न मारती,मेरी अपनी है..तू बता न इससे पहले तूने देखा है किसी को पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग को लेकर आचोलना करते हुए. रुक,वैशाली की बच्ची, निकल बाहर. तुझसे पूछता हूं सबके सामने- मैडम, इस पर और ज्यादा जानने के लिए क्या पढ़ने होंगे ? हद है यार,तुम मीडियावालों का एप्रोच. स्क्रीन पर,डेस्क पर रहोगे तो हम आलोचकों को पानी पी-पीकर गाली दोगे कि ये सब अपनी कुंठा निकालते हैं जिसे कि मीडिया समीक्षा का पजामा पहनाकर पेश करते हैं, इन्डस्ट्री ने इन्हें किक आउट कर दिया तो आलोचक हो गए, हजार-दो हजारे के लिफाफे के पीछे हिनहिनानेवाले आलोचक और जब मीडिया स्ट्डेंट्स के बीच होते हैं तो वही भाषा,वहीजुबान बोलते हैं,जिसे लिखे जाने पर चिद्दी-चिद्दी करके डस्टबिन के हवाले करने की हसरत रखते हैं.

एक्सक्यूज मी, मिस वैशाली..हां,यही ठीक रहेगा,सीधे वैशाली बोलने से लगेगा कि अभी भी सॉफ्ट कार्न रखता हूं मैं उसके प्रति लोगों को भी पर्सनल लगेगा शायद.एनीवे, एक्सक्यूज मी मिस वैशाली..ये शुरु से धंधेवाली बात को अगर और गहराई में समझना हो तो क्या पढ़ूं? हां, ऐसा पूछना सही रहेगा..

हैलो, मैं अक्षत..मेरा काम भी इसी मीडिया पर है जिसके बारे में आप बात कर रही थी,प्लीज बताएंगे कि ये धंधेवाली बात को और कैसे समझें..वैशाली अचानक इस तरह के सवाल पूछे जाने से थोड़ी असहज हो गई थी..लेकिन फिर संभलते हुए कहा- क्यों, इतनी बेसिक सी बात को समझनेके लिए अभी और गहराई से जानने की जरुरत है ? आपको ध्यान तो होगा कि दूरदर्शन पर स्वाभिमान,शांति और जुनून का प्रसारण क्यों होता रहा, पीटीआइ की पूरी की पूरी रिपोर्ट है इस पर..फिक्की-केपीएमजी की रिपोर्ट आती है, उसे पलटिए..वो बोलता जा रही थी और अक्षत किताब के पीछे के पन्ने की रेफरेंस क्रम से याद करने लग जाता है और आखिर के पन्ने तक पहुंच जाता है जहां प्रकाशक की लोगो के ठीक नीचे किताब की कीमत लिखी होती है- मात्र 275 रुपये      

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