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दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड। रोज की तरह ही गहरे डिप्रेशन से उबरने के लिए किसी और नए तरीके की खोज। क्या किया जाए? आज फिर बाजार चलते हैं और अबकी बार साबुत हल्दी खरीदकर मिक्सी में डस्ट बनाते हैं इसकी। एक पुरानी जींस पड़ी है,उसे स्कीनी करा लेते हैं। ओह,टाटा स्काई रिचार्ज करा लेते हैं। आज बताते हैं दीदी को फोन करके कि बैंगन में बड़ी डालकर बनाने पर कितना मजा आता है? पहले बड़ी तो खोज लें,कहां मिलेगी?

 मैं अपनी इस हालत से पिंड़ छुड़ाने के लिए अक्सर बाजार में शामिल हो जाता हूं। कभी ग्राहक बनकर तो कभी भीड़ का हिस्सा बनकर। भीड़ का हिस्सा बनते हुए भी डर के बजाय रोमांच होता है। अगर विस्फोट होने पर मर गया तो लोग मेरे बारे में क्या बताएंगे? अगर मैं जिंदा बच गया तो मरे हुए लोगों के बारे में क्या बताउंगा। सॉरी,दिल्ली के बाजार में मुझे कभी डर नहीं लगता बल्कि देश के किसी भी बाजार में नहीं। उस बाजार से भी नहीं जिसे हिन्दी समाज ने सालों पहले खलनायक करार दे दिया है। बाजार मेरे भीतर हमेशा से उत्साह पैदा करता है। इसकी एक वजह ये भी हो सकती है कि हम लंबे समय तक पापा के साथ इसी बाजार में खड़े होकर लोगों से पूछते रहे हैं-आइए,क्या लेना है,बैठिए. साड़ी? टीशर्ट? बैठिए न,एक से एक है। जब वो शख्स ग्राहक बनकर बैठ जाता और हमारी दूकान की पैकेट सरसराती हुई सड़कों से गुजरती तो किसी परीक्षा में टॉप करने से कम उत्साह नहीं होता। इसी बाजार से हमारा भविष्य हमेशा से जुड़ा रहा है तभी मयूर विहार के इस संकरे बाजार में घूमते हुए हम उत्साह से भर जाते हैं और पापा से फोन करके पूछते- आज की बिक्री कैसी रही पापा? बहरहाल

मैं बड़ी की तलाश में पड़पड़गंज जानेवाली सड़क की तरफ बढ़ता हूं। तभी जोर से बच्चों के चिल्लाने की आवाज आती है- सर....। थोड़े समय के लिए जैसे सबकुछ ठहर गया होगा। मैं अपनी गति और बड़ी की चिंता में आगे बढ़ता जाता हूं। अबकी बार एक लड़की की आवाज आती है- विनीत सर...। मैं पीछे पलटकर देखता हूं तो  चौक पर लगी एसबीआइ एटीएम मशीन के पास छह-सात बच्चे खड़े हैं और मेरी तरफ देखकर हाथ हिला रहे हैं। मैं रुकता हूं और उनमें से एक आगे बढ़कर मुझे वहां ले जाता है। सर आपने हमलोगों को पहचाना नहीं? उनके चेहरे पर थोड़ा अफसोस भी झलक रहा था कि मैंने उन्हें पहचाना तक नहीं। मैं उदास सा हो गया और सॉरी-सॉरी कहने लगा। तभी जिस लड़की ने आवाज दी थी,उसने कहा- इट्स ओके सर. हम आपके स्टूडेंट हैं। आपके मीडिया स्टूडेंट। याद है आपने कभी कहा था कि अगर आप ये सोचते हैं कि आप सौ करोड़ के चैनल में जाकर पत्रकार बनेंगे तो कभी नहीं बन सकते। आपके हाथ में तीन-चार हजार की मोबाईल है,इससे फोटो जर्नलिज्म शुरु कीजिए। कॉलेज की वॉल पर इस सेमिनार की खबर लिखकर लगाइए। ये तीन साल आपके लिए वर्कशॉप की तरह है। याद आया सर...मैं एकदम से भावुक हो गया। हां-हां याद आया। पर यार मैंने तो बस  गेस्ट के तौर पर एक लेक्चर दिया था। टीचर कैसे हो गया तुम्हारा? ओह सर,आपको बुरा लगा तो सॉरी। पर हम तो आपको सर ही मानते हैं?

सर लीजिए न,एक लड़के ने लेज चिप्स के फटे हुए पैकेट मेरी तरफ बढ़ा दिए थे। आप इधर ही रहते हैं? मैंने कहा हां,पिछले दो सालों से।..औऱ तुमलोग। सर इसने( एक दूसरे लड़के की तरफ ईशारा करके) लास्ट वीक नौकरी ज्वायन कर ली है औऱ हमें पार्टी देने बुलाया था तो हम सब जमा हुए हैं। इसे इसके घर छोड़कर हम सब वापस अपने घर जाएंगे। हम एटीएम से थोड़े साइड होकर बात करने लग गए थे।..बार-बार सोच रहा था कि सेमिनारों में जो हम बोलकर आते हैं,बच्चे उसे इस तरह से याद रखते हैं? मुझे अच्छा लग रहा था और उन शिक्षकों को कोस रहा था जो अक्सर बच्चों को लापरवाह करार देते हैं।

लड़के ने थोड़े संकोच से बताया। मैंने पूछा नहीं था कि कहां नौकरी लगी है? लेकिन उसने खुद ही बताना शुरु किया- सर अभी एक कॉल सेंटर में ज्वायन किया है सर। मीडिया से बिल्कुल अलग दुनिया है। बस हम कुछ चीजों को याद रखके दस-बारह घंटे की नौकरी बजाकर आ जाएंगे। आगे उसकी बातों में कॉन्फेशन और एक हद तक गिल्ट की टच आने लगी थी कि मैं क्या सोच रहा हूं कि मीडिया की पढ़ाई करके कॉल सेंटर में चला गया। तभी उसने अचानक से कहा- सर, पर हम जनसत्ता औऱ तहलका में लिखा आपका रेगुलर पढ़ते हैं। तहलका में बहुत मजा नहीं आता,छोटा-छोटा रहता है और फिर टीवी सीरियल में मुझे दिलचस्पी भी नहीं है। लेकिन जनसत्ता में सही लगता है। आपके लिखे का मेरे प्रोफेशन में कोई काम नहीं है लेकिन आदत रही है शुरु से जनसत्ता पढ़ने की तो पढ़ते हैं।

एक दूसरी लड़की जो अब तक चुपचाप सारी बातें सुन रही थी,कहा- सर लेकिन मैं आपको थैंक्स कहना चाहती हूं। आपने पता है मीडिया के बारे में वही बताया जो अब हम ट्रेनी बनकर देख रहे हैं। आपने अच्छा किया नहीं कहा कि मीडिया चौथा स्तंभ है। हम अक्सर आपकी बातों को याद करते हैं और आपका ब्लॉग पढ़ते हैं। आप अविनाश सर,दिलीप मंडल सर,पुष्कर सर सब अच्छा काम कर रहे हैं। कम से कम हम बच्चों को पहले से पता तो हो जाता है कि हम क्या कर रहे हैं औऱ कहां जा रहे हैं? मैं अब पूरी तरह सहज हो गया था और अपनी तारीफ से कहीं ज्यादा उनकी बातों को,उनकी तकलीफ को सुनकर पूरी तरह इंगेज हो रहा था । सब बकवास है सर-सरोकार,समाज। बस बारह घंटे बैल की तरह खटो और वीक में एक छुट्टी के लिए भीख मांगो। पर मुझे अफसोस नहीं होता क्योंकि हम तो ये सब जानते हुए वहां गए थे न। आपसे हमने पूछा भी था कि आप मीडिया को लेकर इतने हताश होकर क्यों बात करते हैं? उस समय गुस्सा आया था पर अब फील करती हूं कि आपने सही कहा था।

सर,आप कहीं पढ़ाते नहीं हैं? आपकी फैलोशिप अभी है सर? वो बच्चे जिनके लिए मैं एक घंटे का एक लेक्चर देने वाला गेस्ट था औऱ वो भी किसी बड़े मीडियाकर्मी के अचानक मना कर देने की स्थिति में उनकी जगह भरनेवाला,वो मुझमें इतनी दिलचस्पी ले रहे थे? यकीन मानिए,मुझे मुहब्बतें फिल्म बार-बार याद आ रही थी। मैंने मजे में कहा- नहीं क्योंकि आपके जैसे बच्चे मीडिया में कहां आते हैं? अब सबों को ज्ञान फेसबुक,ब्लॉग और यूट्यूब के खदानों से मिल जाता है। लेकिन सर,जो बात किसी से सुनकर सीखी जाती है वो इंटरनेट के जरिए थोड़े ही न।.किसी अखबार में इन्टर्नशिप कर रहे दूसरे बच्चे ने कहा। मैं खड़ा-खड़ा महसूस कर रहा था कि कॉलेज में जिन टीचर को बच्चों बहुत प्यार करते होंगे,उन्हें कितना सुख मिलता होगा? उन्हें तो दुनिया जहां छोटी लगने लगती होगी इसके सामने।..अच्छा सर,आप लेट हो रहे होंगे। हमलोगों ने आपको इतनी देर तक फंसाकर रखा। फिर कभी मुलाकात होगी।

एकबारगी मन किया- आज तुम अपने दोस्त की नौकरी लगने पर पार्टी लेने आयी हूं। कभी मेरी लगने पर भी आना। झिंटैक पार्टी दूंगा। पर रुक गया।.. सारे बच्चे बाए-बाए सर करने लगे थे और मैं अग्रवाल स्वीट्स से खिसकर फिर अपनी उसी बड़ी और दीदी को मात देने की साजिश में गुम होने लग गया था।


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"मीडिया को आज डिसाइड करना है कि आपको राजनीति करनी है,कार्पोरेट बनना है या मीडिया बनकर ही रहना है। मीडिया में भ्रष्टाचार है,गड़बड़ी है और वो इसलिए है कि हम अपने धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं। आज जो बर्ताव बाबा रामदेव के साथ हुआ,यही बर्ताव बहुत जल्द ही हमारे साथ होनेवाला है। हमारे खिलाफ माहौल बन चुका है।लोग टोपी और टीशर्ट पहनकर कहेंगे- मेरा मीडिया चोर है।"-  पंकज पचौरी

संवाद 2011 में " भ्रष्टाचार और मीडिया की भूमिका" पर बात करते हुए एनडीटीवी के होनहार मीडियाकर्मी पंकज पचौरी जब अंदरखाने की एक के बाद एक खबरें उघाड़ रहे थे और ऑडिएंस जमकर तालियां पीट रही थी, उन तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अंबिका सोनी( सूचना और प्रसारण मंत्री,भारत सरकार) की ताली भी शामिल थी। चेहरे पर संतोष का भाव था और वो भीतर से पंकज पचौरी की बात से इस तरह से गदगद थी कि जब उन्हें बोलने का मौका आया तो अलग से कहा-पंकज पचौरीजी ने जो बातें कहीं है वो मीडिया का सच है,इस सच के आइने को बाकी पत्रकारों को भी देखना चाहिए। पंकज पचौरी के नाम पर एक बार फिर से तालियां बजी और उस दिन वो उस सर्कस/सेमिनार के सबसे बड़े कलाबाज साबित हुए। ये अलग बात है कि पंकज पचौरी की ये कलाबाजी किसी घिनौनी हरकत से कम साबित नहीं हुई। पंकज पचौरी ने कहा था CWG 2010 पर कैग की आयी रिपोर्ट को मीडिया ने जोर-शोर से दिखाया लेकिन इसी मीडिया को हिम्मत नहीं थी कि वो रिपोर्ट में अपने उपर जो बात कही गयी है,उसके बारे में बात करे। वो नहीं कर सकता क्योंकि वो पेड मीडिया है। लेकिन पंकज पचौरी ने ये नहीं बताया कि उनके ही चैनल एनडीटीवी ने कैसे गलत-सलत तरीके से टेंडर लिए थे। आप चाहे तो कैग की रिपोर्ट चैप्टर-14 देख सकते हैं।

पत्रकार से मीडियाकर्मी, मीडियाकर्मी से मालिक और तब सरकार का दलाल होने के सफर में नामचीन पत्रकारों के बीच पिछले कुछ सालों से मीडिया के किसी भी सेमिनार को सर्कस में तब्दील कर देने का नया शगल पैदा हुआ है। उस सर्कस में रोमांच पैदा करने के लिए वो लगातार अपनी ही पीठ पर कोड़े मारते चले जाते हैं और ऑडिएंस तालियां पीटने लग जाती है। ये ठीक उसी तरह से है जैसे गांव-कस्बे में सड़क किनारे कोई कांच पर नगे पैर चलता है,पीठ पर सुईयां चुभोकर छलांगे लगाता है..दर्शक उसकी इस हरकत पर जमकर तालियां बजाते हैं। मीडिया सेमिनारों में राजदीप सरदेसाई( हम मालिकों के हाथों मजबूर हैं),आशुतोष( मीडिया लाला कल्चर का शिकार है) के बाद पंकज पचौरी विशेष तौर पर जाने जाते हैं। उस दिन भी उन्होंने ऐसा ही किया और अपनी ईमानदारी जताने के लिए खुद को चोर तक करार दे दिया। मीडिया का यही चोर अब देश के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह जी के कम्युनिकेशन अडवाइजर नियुक्त किए गए हैं। हमें सौभाग्य से देश का ऐसा प्रधानमंत्री नसीब हुआ है जो अच्छा-खराब बोलने के बजाय चुप्प रहने के लिए मशहूर हैं। ऐसे में पंकज पचौरी दोहरी जिम्मेदारी का निर्वाह करने के लिए उनकी टीम के सूरमा होने जा रहे हैं। पंकज पचौरी की सोहबत में हमारे प्रधानमंत्री बोलेंगे,टीवी ऑडिएंस की हैसियत से उन्हें अग्रिम शुभकामनाएं। बहलहाल,

एनडीटीवी से मोहब्बत करनेवाली ऑडिएंस और प्रणय राय के स्कूल की पत्रिकारिता पर लंबे समय तक यकीन रखनेवाली ऑडिएंस चाहे तो ये सवाल कर सकती है कि जो मीडियाकर्मी ( भूतपूर्व) प्रणय राय का नहीं हुआ वो कांग्रेस का क्या होगा? चाहे तो ये सवाल भी कर सकती है कि जो पत्रकार कांग्रेस का हो सकता है वो किसी का भी हो सकता है। लेकिन मीडियाकर्मी और सरकार की इस लीला-संधि में एक सवाल फिर भी किया जाना चाहिए कि तो फिर तीन-साढ़े तीन सौ रुपये महीने लगाकर टीवी देखनेवाली ऑडिएंस क्या है? मुझे कोई और नाम दे,मैं खुद ही अपने को कहता-फच्चा। बात सरकार की हो या फिर मीडिया की,हम फच्चा बनने के लिए अभिशप्त हैं। अब इसके बाद आप चाहे तो जिस तरह से मीडिया विमर्श और बौद्धिकता की कमीज ऐसी घटनाओं पर चढ़ाना चाहें,चढ़ा दें।

एनडीटीवी मौजूदा सरकार की दुमछल्लो है,ये बात आज से नहीं बल्कि उस जमाने से मशहूर है जब एनडीटीवी के हवा हो जाने और बाद में सॉफ्ट लोन के जरिए बचाए जाने की खबरें आ रही थी। कॉमनवेल्थ की टेंडर और बीच-बीच में सरकार की ओर से हुई खुदरा कमाई का असर एनडीटीवी पर साफतौर पर दिखता आया है। विनोद दुआ को लेकर हमने फेसबुक पर लगातार लिखा। एनडीटीवी की तरह ही दूसरे मीडियाहाउस के सरकार और कार्पोरेट के हाथों जिगोलो बनने की कहानी कोई नई नहीं है। सच्चाई ये है कि नया कुछ भी नहीं है। संसद के गलियारे में पहुंचने के लिए या फिर मैरिन ड्राइव पर मार्निंग वॉक की हसरत पाले दर्जनों मीडियाकर्मी सरकार और कार्पोरेट घरानों के आगे जूतियां चटखाते फिरते हैं। नया है तो सिर्फ इतना कि जो दलाली करता है वही पत्रकारिता कर सकता है और वही ईमानदार करार दिया जा रहा है। पिछले दो-तीन सालों में अच्छी बात हुई है कि सबकुछ खुलेआम हो रहा है। जो बातें आशंका और अनुमान के आधार पर कही जाती थी, उसे अब मीडिया संस्थान और मीडियाकर्मी अपने आप ही साबित कर दे रहे हैं। ये हमारे होने के बावजूद बेहतर स्थिति है कि हम उन्हें सीधे-सीधे पहचान पा रहे हैं। ये अलग बात है कि ऐसे में देश के दल्लाओं का हक मारा जा रहा है और शायद मजबूरी में वो आकर पत्रकारिता करने लग जाएं।

मीडिया औऱ मीडियाकर्मियों के कहे का भरोसा तो कब का खत्म हो चुका है। पंकज पचौरी के शब्दों में कहें तो ये खुद समाज का खलनायक बन चुका है। ऐसे में चिंता इस पर होनी चाहिए कि हम चिरकुट जो सालों से  भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते-बकते आए हैं, इन मीडिया खलनायकों के लिए क्या उपाय करें? क्या ये सिनेमा में परेश रावल और गुलशन ग्रोवर को रिप्लेस करने तक रह जाएंगे या फिर सामाजिक तौर पर भी इनका कुछ हो सकेगा? मीडिया की श्रद्धा में आकंठ डूबे भक्त जो इसे चौथा स्तंभ मानते हैं,उनसे इतनी अपील तो फिर भी की जा सकती है कि अब तक आप जो पत्रकारिता के नायक या मीडिया हीरो पर किताबें लिखते आएं हैं,प्लीज ऐसी किताबें लिखनी बंद करें। अब मीडिया खलनायक और खलनायकों का मीडिया जैसी किताबें लिखें जिससे की मीडिया की आनेवाली पीढ़ी इस बात की ट्रेनिंग पा सकें कि उन्हें इस धंधे में पैर जमाने के लिए अनिवार्यतः दलाल बनना है और या तो कार्पोरेट या फिर सरकार की गोद में कैसे बैठा जाए,ये कला सीखनी है? ऐसी किताबें  आलोक मेहता,राजदीप सरदेसाई,आशुतोष,विनोद दुआ और बेशक पंकज पचौरी लिखें तो ज्यादा प्रामाणिक होंगी।

डिस्क्लेमर- हमें इस पूरे प्रकरण में अफसोस नहीं है बल्कि एक हद तक खुशी है कि जो पंकज पचौरी स्क्रीन पर जिस दलाली भाषा का इस्तेमाल करते आए हैं,हम उसे सुनने से बच जाएंगे।..और किसी तरह का आश्चर्य भी नहीं क्योंकि एनडीटीवी पर पिछले कुछ सालों से इससे अलग कुछ हो भी नहीं रहा है। एक तरह से कहें तो उन्होंने प्रणय राय के साथ भी किसी किस्म का धोखा नहीं किया है, जो काम वो अब तक अर्चना कॉम्प्लेक्स में बैठकर किया करते थे,अब उसके लिए मुनासिब जगह मुकर्रर हो गयी है।. रही बात भरोसे और लोगों के साथ विश्वासघात करने की तो इस दौर में सिर्फ मौके के साथ ही प्रतिबद्धता जाहिर की जा सकती है और किसी भी चीज के साथ नहीं।
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मीडियाऔर प्रसारण के धंधे से जुड़ी खबरों पर नजर बनाए रखनेवाले लोगों के लिए साल की शुरुआत एक बड़े सवाल से हुई है। सवाल है कि देश के प्रमुख टेलीविजन समूह नेटवर्क 18 के संस्थापक और संपादक राघव बहल अगर इस बात से खुश हैं कि उनकी बैलेंस शीट इन्डस्ट्री की सबसे मजबूत वैलेंस शीट होने जा रही है और दूसरी तरफ देश के सबसे अमीर कार्पोरेट मुकेश अंबानी इस समूह में करीब 1500 करोड़ रुपये निवेश करने की घोषणा के बाद भी मीडिया की स्वायत्ता और उसकी आजादी को बचाए रखने के लिए प्रतिबद्ध होने की बात करते हैं तो इसे किस रुप में लिया जाए? अब संपादक अपनी किसी खबर से समाज पर पड़नेवाले असर के बजाय कार्पोरेट घरानों के साथ हुई डील से खुश है और इसके ठीक विपरीत कार्पोरेट ,मीडिया में करोड़ों रुपये निवेश करते हुए भी संपादक को ही मालिक बने रहने देना चाहता है तो इससे मीडिया के चरित्र पर किस तरह का असर पड़ेगा? इसी के साथ जुड़ा सवाल है कि जिस टेलीविजन समूह के संपादक और एंकर मीडिया सेमिनारों में लगातार कहते आए हैं कि वे मालिकों के हाथों मजबूर पत्रकार हैं और मीडिया पूरी तरह लाला संस्कृति का शिकार हो चुका है,क्या आनेवाले समय में उनके मुहावरे में कुछ तब्दीली आएगी? 

3 जनवरी को नेटवर्क 18( जिसमें कि टीवी 18 और उसके चैनल सीएनएन-आइबीएन,आइबीएन7,आइबीएन लोकमत,सीएनबीसी आवाज भी शामिल हैं,मनकंट्रोल डॉट कॉम और इन डॉट कॉम जैसी वेबसाइट हैं) और रिलायंस इन्डस्ट्रीज लिमिटेड के बीच हुए करार के बाद दोनों की तरफ से जो प्रेस रिलीज जारी किए गए,वह अपने आप में दिलचस्प ही नहीं बल्कि एक हद तक चौंकानेवाला है। नेटवर्क 18 ने प्रेस रिलीज के शुरुआत में ही घोषणा की कि अब वह पूरी तरह कर्जमुक्त होने जा रहा है और आनेवाले समय में इटीवी के सभी क्षेत्रीय समाचार चैनलों पर उसका कब्जा होगा। इतना ही नहीं इटीवी के सभी मनोरंजन चैनलों पर उसकी पचास फीसदी की हिस्सेदारी होगी। मीडिया धंधे की खबरों से जुड़े लोगों के लिए यह हैरान करनेवाली बात थी कि जिस नेटवर्क 18 की गर्दन कर्ज में बुरी तरह धंसी हुई है और वह महीनों से इससे उबर नहीं पा रहा है,कर्ज की रकम बढ़कर 500 करोड़ रुपये से भी ज्यादा हो गयी है,अचानक ऐसा कौन सा करिश्मा हुआ कि वह 2100 करोड़ से भी अधिक रुपये लगाकर इटीवी का अधिग्रहण करने की हैसियत में आ गया? इटीवी के अधिग्रहण से वह कैसे कर्जमुक्त हो सकता है,यह बात प्रेस रिलीज के पहले तीन पैरा को पढ़ते हुए बिल्कुल समझ में नहीं आया। आगे उसने बताया कि समूह का रिलायंस इन्डस्ट्रीज लिमिटेड की सहयोगी कंपनी इन्फोटेल के साथ व्यावसायिक समझौता हुआ है। यह ब्राडकास्ट से जुड़ी कंपनी है जो कि अपना विस्तार पैन इंडिया कंपनी के तौर पर करने की रणनीति बना रही है और साल के अंत तक 4जी सेवा शुरु करने जा रही है। समूह का करार इस बिना पर हुआ है कि इन्फोटेल नेटवर्क 18 की डिजीटल और इंटरनेट की सभी सामग्री का इस्तेमाल करेगी और आनेवाले समय में इन्टरनेट के जरिए लाइव टेलीविजन की लोकप्रियता तेजी से बढ़ेगी तो दोनों का इसका सीधा लाभ मिलेगा।


 प्रेस रिलीज में राघव बहल का कहना है कि नेटवर्क 18 के इतिहास में यह गर्व करने का समय है जब उस पर किसी तरह का कर्ज नहीं होगा और अब वह अपने को सिर्फ कंटेंट के स्तर पर मजबूत करेगी। फिलहाल नेटवर्क 18 की रगों में जब अंबानी का पैसा दौड़ना शुरु होगा तो उसकी कंटेंट पर क्या असर पड़ेगा,यह देखना हमें बाकी है। बहरहाल, इधर रिलांयस इन्डस्ट्रीज लिमिटेड ने अपनी ओर से जारी प्रेस रिलीज में जो बातें कही है,वह विश्वास करने से कहीं ज्यादा अफसोस करनेवाली है कि कार्पोरेट की जुबान कितनी साफ-सुथरी होती है कि वह अभी भी सरोकार,मीडिया की आजादी और स्वायत्तता जैसे शब्दों का प्रयोग करते हुए लड़खड़ाती नहीं है। इसमें स्पष्ट किया गया है कि कंपनी को राघव बहल की टीम और प्रबंधन पर पूरा भरोसा है इसलिए उनके साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। नेटवर्क 18 और टीवी18 पर मालिकाना हक पहले की तरह बना रहेगा। इस करार से समूह की व्यवस्था किसी भी तरह से प्रभावित न हो इसे ध्यान में रखते हुए ही कंपनी ने सीधे-सीधे निवेश करने के बजाय स्वतंत्र रुप से एक ट्रस्ट का गठन किया है जो कि कंपनी का लाभ देखते हुए भी उसके दबाव में नहीं होगा। कंपनी ने यह करार सिर्फ इसलिए किया है कि इन्फोटेल जो 4जी सेवा शुरु करने जा रही है,उसमें देश के सबसे बड़े टेलीविजन और इंटरनेट समूह की सामग्री के उपयोग का अधिकार मिल सके। इसके साथ ही निवेश किए जाने से नेटवर्क 18 के लिए इटीवी का अधिग्रहण करने में आसानी होगी और इसका लाभ मिल सकेगा। हालांकि पिछले दिनों रिलांयस इन्डस्ट्रीज लिमिटेड ने रामोजी राव की इटीवी को अधिग्रहण करने का मन बनाया था लेकिन सीधे तौर पर अधिग्रहण करने के बजाय नेटवर्क 18 में निवेश करने से भारतीय मीडिया पर उसकी पकड़ पहले से कई गुना बढ़ जाती है। 


संपादक राघव बहल अगर इस बात से खुश हैं कि उनकी बैलेंस शीट और नेटवर्क सबसे मजबूत होने जा रही है तो मुकेश अंबानी के लिए यह फायदेमंद सौदा नहीं है कि एनडीटीवी और न्यूज एक्स जैसे चैनलों पर किसी न किसी रुप में अपनी पकड़ बनाए रखने के बाद अब नेटवर्क 18 और इटीवी के चैनलों पर उसकी छाया हमेशा पड़ती रहेगी। वैसे भी कंपनी ने इटीवी के मनोरंजन चैनलों पर पचास फीसदी की अपनी हिस्सेदारी सुरक्षित रखेगी। इस तरह जो देश का सबसे बड़ा कार्पोरेट है,वही मीडिया मुगल भी हो जाएगा।

इस करार को लेकर दो-तीन चिंताएं साफतौर पर दिखाई देती है? सबसे पहले तो यह कि रिलांयस की इस घोषणा के बाद भी कि वह नेटवर्क 18 के प्रबंधन और स्वायत्ता को किसी तरह प्रभावित नहीं करेंगे,यह व्यावहारिक सच्चाई नहीं है। जो मीडिया कुछेक लाख के विज्ञापन के लोभ में कार्पोरेट के खिलाफ जुबान नहीं खोलता क्या वह इतनी बड़ी सौदेबाजी के बाद ऐसा कर सकेगा? ऐसे में अंबानी ने राघव बहल और नेटवर्क 18 के बाकी संपादकों को मालिक बने रहने की जो छूट दी है,उसका क्या अर्थ है? इसका एक मतलब तो साफ है कि अंबानी को इस बात की गहरी समझ है कि मीडिया अभी भी ऐसा धंधा नहीं है जिसमें मोबाइल,पेट्रोलियम और साग-सब्जी जैसे दूसरे धंधे की तरह सीधे कब्जा किया जा सके। टीवी चैनलों खासकर समाचार चैनलों को देखते हुए दर्शकों के दिमाग में यह बात स्थायी तौर पर बनेगी कि वे अंबानी के चैनल देख रहे हैं। इससे आनेवाले समय में खबर की साख पर तो असर पड़ेगा ही इसके साथ ही मीडिया के जरिए अंबानी जो खेल करना चाहते हैं,वह आगे चलकर सीधे-सीधे कार्पोरेट,जनता और सरकार की लड़ाई हो जाएगी। मीडिया में निवेश करनेवाला कोई भी कार्पोरेट मीडिया को इस तरह की छवि से दूर रखना चाहेगा। राघव बहल को मालिक बने रहने देने में यह सुविधा अपने आप छिपी है कि अंबानी का कहीं भी नाम या छवि की चर्चा हुए बगैर देश के सबसे बड़े टेलीविजन नेटवर्क पर कब्जा होगा और वही सब होगा जो अंबानी चाहेंगे।


 मालिक बने रहने के सुख के पीछ मीडिया की धार खत्म होने का कितना बड़ा दर्द छिपा है,यह शायद राघव बहल से बेहतर उनकी कंपनी में काम करनेवाले पत्रकार ज्यादा बेहतर तरीके से बता पाएंगे जो कि अब तक डंके की चोट पर नेशन को फेस करते आए हैं।( प्लीज- फेस दि नेशन सीएनएनआइबीएन का प्रोग्राम है इसलिए नेशन का फेस का हिन्दी न करें) दूसरी तरफ 4जी सेवा के साथ मुकेश अंबानी एक बार फिर मोबाइल और इंटरनेट के बाजार में उतरने जा रहे हैं। खबर यह भी है कि उनकी कंपनी पहले की तरह ही मोबाइल उपकरण और 5-7 हजार रुपये में ऐसे टैब मुहैया कराएगी जिस पर कि 4जी तकनीक आसानी से काम करेगा। इन मोबाइल और टैब के जरिए नेटवर्क 18 की सारी सामग्री प्रसारित होगी जिसमें कि इटीवी के क्षेत्रीय चैनल भी शामिल होंगे। यह समझने वाली बात है कि ऐसा होने से क्षेत्रीय स्तर पर मुकेश अंबानी की पकड़ कितनी मजबूत बनेगी और वह किस तरह से जनमत को प्रभावित करेंगे?

करार के साथ जरुरी चिंता यह भी है कि क्या आनेवाले समय में बाकी के मीडिया संस्थान अपनी आर्थिक असुरक्षा और लाचारी से निजात पाने के लिए इसी तरह किसी दूसरे कार्पोरेट घराने की गोद में गिरेंगे? नब्बे के दशक में जिन निजी मीडिया संस्थानों की शुरुआत इस घोषणा के साथ हुई थी कि हमें सरकार से कोई लेना-देना नहीं है,वे एक-एक करके सरकार का विरोध करते हुए भी कार्पोरेट घरानों के कल-पुर्जे बन जाएंगे? ऐसे में मीडिया के भीतर जिस सरोकार,सामाजिक जागरुकता और बदलाव की बात की जाती रही है,वह उसकी ब्रांडिंग का हिस्साभर होगा ताकि कार्पोरेट मंडी में उसकी उंची से उंची बोली लगायी जा सके? रामोजी राव ने इटीवी को जिस सोच के साथ खड़ा किया और व्यवसाय करते हुए भी क्षेत्रीय स्तर पर मीडिया की साकारात्मक भूमिका निभायी,वह क्या रिलांयस के लिए अपने पक्ष में जमीन तैयार करने से ज्यादा रह जाएगा? ठीक उसी तरह राघव बहल ने नेटवर्क 18 को देश का बेहतरीन मीडिया नेटवर्क बनाने के इरादे से खड़ा किया, क्या उसकी हैसियत कार्पोरेट के रहमोकरम पर बने रहने से ज्यादा का रह जाएगा? वे अब संपादक या पत्रकार से कहीं ज्यादा उद्यमी हैं तो इस बात से खुश हो सकते हैं कि उनका कारोबार पहले के मुकाबले तेजी से बढ़ेगी लेकिन 


जिन सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ ऐसे पत्रकार सरकार के आगे लाइसेंस मांगने जाते हैं,सालों तक दर्शक जिन पर भरोसा करते हैं,क्या इन दोनों के आगे किसी भी तरह का जबाब देने की स्थिति इनके पास रह जाती है? यह सच है कि सरकार कभी भी ऐसे पत्रकारों से सवाल-जबाब नहीं करेगी क्योंकि यह बिजनेस के नियम और शर्तों के अधीन हुआ है और न ही दर्शक उन सरोकारों का हिसाब मांगने जा रही है जिसका कि उन्होंने बतौर ब्रांड भुनाया है लेकिन सूचना संसाधनों के विकास के साथ-साथ सामाजिक जागरुकता का सवाल तो यही खत्म हो जाता है। राघव बहल और रजत शर्मा जैसे मीडिया उद्यमियों के पास जबाब है कि जब वे खुद ही नहीं रहेंगे तो मीडिया चलाकर क्या कर लेंगे? लोगों के सामने सवाल तो फिर भी है कि जब साख और लोगों का भरोसा ही नहीं बचेगा तो मीडिया चलाकर क्या कर लेंगे?
 (मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित)
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फेसबुक

ओ फेसबुक, आओ ना
करीब और करीब, थोड़ा और

दो जिस्म एक जान होना नहीं समझते क्या ?
तुम्हारे तो लाखों हिन्दी यूजर्स हैं
उन्होंने बताया नहीं 
कि विरह में तड़पना क्या होता है ?
नजदीक आने पर सांसों में गांठ लगाकर लेट जाना
कितना सुखद होता है ?
मैं तुम्हारे साथ वही करना चाहती हूं
फेसबुक.
मैं तुम्हारे साथ फोर प्ले
( लाइक, टैग, शेयर, अपडेट ) करना चाहती हूँ
उस मदहोश पार्टनर की तरह 

जिसकी अधखुली आंखें
आफ्टर सेव से पुते चेहरे पर जाकर ठहर जाती है.
जिसके हाथ हमेशा उतार-चढ़ाव के बीच
संतुलन बनाए रखने के लिए सक्रिय रहते हैं.
मैं अपनी आंखों में वही मदहोशी चाहती हूं
उंगलियों में वही तड़प 
कि तुम्हारे कमान्डस और हायपर पर पड़ें
तो तुम रात के सन्नाटे में सिसकारियां भरने लगो
एक फेसबुक यूजर की तड़प तुम नहीं समझोगे फेसबुक
नहीं समझोगे 
कि तुमने मेरी मरती हुई इच्छाओं को कैसे हरा किया है ?
कैसे तुमने मुझ पर वो जादू किया 
कि मैं तुम्हें आखिर कमिटेड सोलमेट मानने लगी हूं.
मैंने आर्कुट को कभी मुंह नहीं लगाया
मुझे वो शुरु से ही कोल्ड और एचआइवी पॉजिटिव लगा
थोड़ी उम्मीद बज़ से बंधी थी
पर वो जल्द ही शीघ्रपतन का शिकार हो गया.
मैं ब्लॉग,वेबसाइट,माइक्रो अपडेट्स में
पन्ने दर पन्ने भटकती रही 
लेकिन
भीतर की आग
लैप्पी के एग्जॉस्ट फैन की हवा में
और सुलगती रही.
जब तुम मेरी ज़िन्दगी में आए
स्काई ब्लू और व्हाइट से सजा गठीला शरीर देखकर ही
समझ गई कि तुम बहुत देर तक स्टे करोगे 
और मैं फ्लो-स्लो की पीड़ा से हमेशा के लिए  मुक्त हो जाउंगी.
ऐसा ही हुआ फेसबुक
सच्ची ऐसा ही हुआ.
मेरी सारी मरी इच्छाएं, अधूरे ख्बाब, टूटते सपने
एक-एक करके हरे और खड़े होने लगे 
मैं तुममे डूबती चली गयी
इतना भी पता नहीं चला
कि मैं अपने ब्वायफ्रेंड  के बिना तो जी सकती हूं
पर तुम्हारे बिना हरगिज नहीं.
उसकी बांहो में होते हुए भी
उंगलियां तुम पर ही नाचती हैं.

लेकिन
तुम नेटवर्क के मोहताज क्यों हो फेसबुक ?
मुझे डिपेंडेंट मेट बिल्कुल पसंद नहीं
जिसका वजूद इंटरनेट के होने पर टिका हो !
तुम उससे अलग होकर भी क्यों नहीं तन सकते
क्यों तुम अपने पापा जुकरवर्ग से नहीं कह सकते -
" पापा तन की खूबसूरती मेरे टाइमलाइन करने में नहीं
मुझे ऑफलाइन हग किए जाने में  है."                                                                                                  तुम मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते फेसबुक?

                       
   (उस लड़की के लिए जो चाहे किसी के बिना जी ले, फेसबुक के बिना नहीं जी सकती )
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