मैं
पवन कुमार वर्मा की किताब भारतीयता की ओर पढ़ने के बाद बहसतलब 6 में उन्हें इस नीयत से बिल्कुल सुनने नहीं गया था कि किताब पढ़ने के बाद जो कई सवाल मेरे मन में लगातार उठ रहे हैं, उसका समाधान वो करेंगे, उस पर अपनी राय रखेंगे। लेकिन हां, इतनी बदतर उम्मीद भी नहीं थी कि मेरी लंबी-चौड़ी टिप्पणी के बीच घुले कई सवालों को गौर से सुनने के बाद (गौर से सुना, ये उनके ही शब्द हैं) एक शायरी कहते हुए कहेंगे कि मुझे तो याद नहीं कि सवाल क्या थे? मैं वहां मौजूद लोगों और इस पोस्ट को पढ़नेवाले अपने तमाम लोगों से सॉरी कहता हूं कि मैंने बहुत अधिक वक्त लिया। शायद मुझे उतना अधिक नहीं बोलना चाहिए था लेकिन
मैं कल लगभग समझिए कि बिफर गया। दिमाग में बस एक ही बात घूमती रही कि अगर इसी किताब को कोई हिंदी का लेखक लिखता तो क्या अंग्रेजी समाज और खुद हिंदी समाज उसे इस तरह से सिर पर बिठा लेता। यकीनन उनकी भारी फजीहत होती और आलोचना की पहली लाइन होती – ये एचएमटी (हिंदी मीडियम टाइप) लेखक अभी तक भारतीयता और पाश्चात्य के बीच एक वर्जिन स्पेस खोजने में लगे हैं। लेकिन नहीं, लोग वहां इस बात को लेकर गदगद हो रहे थे कि एक अंग्रेजी लेखक ने अंग्रेजी में लिखते हुए अंग्रेजी को गरियाकर हिंदी को बेहतर बताया है। ये भी एक किस्म की गुलाम मानसिकता है। पवन वर्मा के हिसाब से आज अगर ये देश अंग्रेजी की उपनिवेशवादी दबाब से मुक्त नहीं हुआ है तो वही पढ़े-लिखे लेकिन लोभ-लाभ में पड़े लोगों के बीच से सामंती चारण का संस्कार गया नहीं, बल्कि महीन तरीके से बरकरार है। इसलिए ये अकारण नहीं था कि जिस किताब में दुनियाभर के झोल हैं, कई तथ्यात्यमक गलतियां हैं, उस किताब को हाथोंहाथ लिये जाने के लिए जबरदस्त माहौल बनाने की कोशिशें की गयीं।
मैंने टिप्पणी क्या की थी, कुछ चालू जार्गन का इस्तेमाल करते हुए (जिसे नहीं भी किया जाता तो बात हो सकती थी) पवन कुमार वर्मा की समझ, नास्टैल्जिक होकर हिंदी, भारतीयता, ऐतिहासिक आदतों और अस्मिता के सवाल और जीवन शैलियों को बेहतर करार देने पर असहमति दर्ज की थी। ये असहमतियां बहसतलब से निकलने के बाद और मजबूत और तल्ख हुई है। किताब का एक अध्याय पढ़ने के बाद पवन वर्मा पर मैंने जो मोहल्ला लाइव पर लिखा, उस पर कुछ जो कमेंट आये, उसका मिजाज ये साफ तौर पर बताना था कि एक अध्याय पढ़कर लिखना सिर्फ अपने को चर्चा और पवन कुमार वर्मा से नजदीकियां बनाना भर है। दो दिन बाद जब पूरी किताब पढ़ी तो लगा कि इस पर और तल्खी से लिखे जा सकते हैं।
सवाल और असहमतियां बहुत साफ हैं कि अगर पवन कुमार वर्मा को भारतीय अस्मिता की इतनी गहरी चिंता है तो उस अस्मिता के दायरे में स्त्री अस्मिता, दलित अस्मिता और आदिवासी अस्मिता (आदिवासी संस्कृति को अगर आप पर्यावरण और पारिस्थितिकी के लिहाज से देखें, तो सबसे बेहतर संस्कृति जान पड़ेगी) के सवाल क्यों नहीं आते? क्या ये अकारण है कि जब भी वो भारतीय संस्कृति और उसकी धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो उसमें हिंदू और उनके रीति-रिवाज एक-दूसरे से घुल-मिल जाते हैं और निष्कर्ष के तौर पर हिंदू संस्कृति, भारतीय संस्कृति का पर्याय के तौर पर दिखाई देते हैं। माफ कीजिएगा, गालिब पर किताब लिखकर और शुरुआती अध्याय में मुगलों के आने से कला के विस्तार की चर्चा करके पवन कुमार वर्मा को इस बात की कतई छूट नहीं मिल जाती कि आगे वो भारतीय संस्कृति पर बात करने के लिए हिंदू संस्कृति को हाइवे की तरह इस्तेमाल करें। ये नजरिया विभूति नारायण राय से अलग नहीं है, जो कि शहर में कर्फ्यू लिखने के बाद उसकी जिंदगी भर की कमाई जाति आधारित फैसले लेने और लेखिकाओं को जलील करने में लगाएं। लेखन कोई जाति प्रमाण पत्र या ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है कि एक बार मिल जाने के बाद आप उसे हर फॉर्म के साथ चिपका दें। जैसे वहां रिन्यूअल की जरूरत होती है, लेखन में भी आपको लगातार उस स्टैंड को लेते हुए सक्रिय बने रहना होता है।
पवन वर्मा की इस बात से मैं सौ फीसदी सहमत हूं प्रेम करना इस देश की अपनी स्वायत्त संस्कृति है तो फिर अलग से वेलेंटाइन डे की चोंचलेबाजी क्यों? सही बात है, लेकिन पवन वर्मा से सीधे तौर पर सवाल करें कि अगर प्रेम इस देश की संस्कृति है तो फिर ऑनर किलिंग किस देश की संस्कृति है? निरुपमा जैसी एक युवा पत्रकार का जाति के दबाब में जान लेना-देना किस देश की संस्कृति है? गर्व करने को मैं भी हिंदी के अपने उन तमाम कवियों पर गर्व कर सकता हूं, जिन्होंने प्रेम को लेकर कालजयी रचनाएं की लेकिन क्या मैं उन कवियों और आलाचकों पर गर्व कर सकता हूं जो इन कविताओं पर बात करते हुए, ऐसी कविताओं लिखते भार-विभोर हो उठते हैं जबकि दिल्ली से सटे मेरठ में प्रेमी की हत्या कर दी जाती है तो एक लाइन लिखना जरूरी नहीं समझते। इस तरह के झोल सिर्फ प्रेम को लेकर ही नहीं बल्कि भारतीयता की उन तमाम सर्किट में हैं, जिस पर कि पवन वर्मा को गर्व है।
पवन वर्मा का कहना है कि कुछ घटनाओं को छोड़ दे तो ये देश धर्मनिरपेख है,यहां के हिन्दुओं ने धर्मांतरण का काम नहीं करवाया। इस देश की संस्कृति अगर उदार और सहोदर है,इसका पैमाना सिर्फ हिंदू बरक्स मुस्लिम,हिंदू बरक्स इसाई के तौर पर ही देखा जाना चाहिए क्या? इस बात पर सवाल नहीं की जानी चाहिए कि खुद हिंदू अपने भीतर जाति,मान्यताओं,रिवाजों को लेकर एक-दूसरे क्यों इतना कट्टर है? अगर सामंजस्य हिन्दुओं की संस्कृति है तो इंटर में पढ़ाई करनेवाली एक विकलांग दलित लड़की सुमन को उसके घर में जिंदा जला देने की संस्कृति किस देश के हिस्से में आती है? गोहाना,मिर्चपुर में हुआ,वो देश का कौन सा हिस्सा है? 84 के दंगों में जिस गर्व करनेवाले हिन्दुओं ने सिक्खों के साथ जो कुछ किया वो किस देश का हिस्सा है जिसकी चर्चा जरनैल सिंह ने अपनी किताब कब कटेगी चौरासी में विस्तार से की है। मैं फिर कहता हूं पवन वर्मा जिस भारतीयता की बात करते हैं वो मध्यवर्ग की चोचलेबाजी को ही सांस्कृति नकल का हिस्सा मानकर डिफाइन करना भर है। संस्कृति को लेकर समाज में जो आये दिन टेंशन्स पनपते हैं, संस्कृति और तनाव एक-दूसरे से गूंथे हुए हैं, वो सिरे से गायब है। ये सबकुछ अकारण नहीं है बल्कि नास्टॉल्जिया का शिकार होने की वजह से हुआ है जो कि हिंदी भाषा के विश्लेषण में साफ तौर पर दिखाई देता है।
वो एक जगह लिखते हैं कि एक सर्वे के मुताबिक जीटीवी के समाचार में 70 फीसदी शब्द अंग्रेजी के प्रयोग किये जाते हैं यानी कि चैनल ने हिंदी का कबाड़ा किया है। आगे कुछ पन्ने बढ़कर लिखते हैं कि टेलीविजन और सिनेमा ने हिंदी को लोकप्रिय बनाया है यानी कि हिंदी के प्रसार में उसका योगदान है। ये परस्पर विरोधी बातें इसलिए आती हैं कि वो तय नहीं कर पाते हैं कि दरअसल हिंदी के विकास के ड्राइविंग फोर्स के रूप में कौन काम करते हैं। पवन वर्मा का कहना है कि ऊंचे ओहदे पर बैठे लोग अपनी भाषा यानी हिंदी, बांग्ला… आदि का एक भी अखबार नहीं पढ़ते। इसे वो खुद भी साबित कर देते हैं, ये अलग बात है कि ये हिंदी के प्रति अतिरिक्त प्रेम दिखाने से चूक हुई है। उन्होंने लिखा कि इस तरह की गड़बड़ियां अंग्रेजी के अखबार अक्सर किया करते हैं लेकिन देशी भाषा के अखबार नहीं करते। …ये कौन सा भाषाई प्रेम है जो कि गड़बड़ियों पर पर्दा डालने का काम करते हैं। एक-दो अखबारों को छोड़कर पवन वर्मा को कोई बताये कि अंधिकांश हिंदी अखबार, बाकी के बारे में जानकारी नहीं, किस तरह अंग्रेजी अखबारों की रिप्लिका बनने की छटपटाहट में होते हैं और आये दिन भारी गड़बड़ियां करते हैं। लेकिन पवन वर्मा का ये अतिरिक्त भारतीय और भाषाई प्रेम इसे देख नहीं पाता और वो हिंदी समाज की मनोदशा को ताड़ते हुए उन्हें खुश कर जाते हैं।
दरअसल अंग्रेजी में एक छोटा ही सही लेकिन खिलाड़ी लेखक तेजी से उभर रहा है जिसने कि अब हिंदी भाषा और साहित्य के मसले पर अंग्रेजी में बात करनी शुरू कर दी है। इरादा साफ है कि ग्लोबल स्तर पर जब भी वर्नाकुलर, हिंदी भाषा और साहित्य की बात हो तो वो जाकर मलाई काटें और इधर टिपिकल हिंदी का लेखक और मास्टर त्रिवेणी, इंडिया हैबिटेट की बहसों और मानदेय में ही फंसा रह जाए। हिंदी समाज जिस अंग्रेजी लेखकों को अपने ऊपर किया गया एहसान समझ रहा है, वो दरअसल उसके स्पेस को पूरी तरह हाइजैक करने का मामला है। इस खेल में हरीश त्रिवेदी भी एक मंजे खिलाड़ी हैं और हिंदी नेशनलिज्म के बहाने अलोक राय की दावेदारी से हम सब परिचित हैं। हरीश त्रिवेदी जब हिंदी पर स्यापा करते हैं, तो वो इतना कलात्मक होता है कि हिंदी समाज अभिभूत हो उठता है लेकिन जैसे ही इसके विस्तार पर जश्न मनाने की बारी आती है, वो इसका क्रेडिट आजतक चैनल और विज्ञापनों को दे डालते हैं। ये खेल महीन है, इसलिए इसे समझने में थोड़ा वक्त तो जरूर लगेगा लेकिन कायदे से अगर ये खेल समझ आ गया तो ये अकादमिक जगत की औपनिवेशिक, भूमंडलीकृत और सामंती मानसिकता एक कॉकटेल के तौर पर दिखाई देंगी। अभी हिंदी समाज को पवन वर्मा की भारतीयता की चिंता इसलिए रास आ रही है क्योंकि वो हिंदी समाज की छाती कूटने की अभ्यस्त आदतों से मेल खाती है।
इन तमाम असहमतियों और सवालों के बीच एक बड़ा सवाल कि भारतीयता और भारतीय संस्कृति को लेकर अब तक जो भी किताबें लिखी गयी हैं, उसके बीच पवन वर्मा की ये किताब पूरी बहस को किस तरह से आगे बढ़ाती है? बढ़ाती भी है या नहीं कि सिर्फ छपाई के स्तर पर एक नयी किताब है, बहस के स्तर पर वही चालीस-पचास साल से चली आ रही पुरानी दलीलें। हटिंग्टन की क्लैशेज ऑफ सिविलाइजेशन और फीदेल कास्त्रो की कल्चरल सॉब्रेंटी की बात सिर्फ छौंक लगाने के लिए है या फिर उसकी गहराई से जांच भी करती है? अगर हां, तो फिर अब ग्लोबल स्तर पर तकनीक के जरिये लोकतंत्र की जो बहस छिड़ी है, वो सब सिरे से गायब क्यों है? भूमंडलीकरण क्यों वन वे फ्री फ्लो की तर्ज पर ही दिखाई देता है, प्रतिरोध के जो छोटे-छोटे पॉकेट्स बने हैं और सक्रिय है, पवन वर्मा को उन सब पर बात करना क्यों जरूरी नहीं लगता? हम अपनी संस्कृति छोड़कर पाश्चात्य के नकलची बनते जा रहे हैं, ये सारी बातें अनुवाद के जरिये हिंदी के उन लोगों के बीच लाने की क्या जरूरत है, जो कि अपनी लाख कोशिशों के बावजूद भारतीयता के टेढ़े-मेढ़े खांचे के बीच जीने के लिए अभिशप्त हैं। उनके भीतर ये कॉम्प्लेक्स पैदा करने की कोशिश तो नहीं कि तुम जो हो पतित हो, घटिया हो, नकलची हो। ये नजरिया पवन वर्मा को एक एलीटिस्ट सोच में बंधे लेखक से क्यों अलग नहीं है, इसे खोजने की जरूरत है। जिसकी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा रोज भारतीयता को जीते-ओढ़ते बीतता है, उसके आगे पवन वर्मा की भारतीयता क्यों एक ब्यूरोक्रेट की नसीहत से ज्यादा नहीं लगती? कहीं पवन कुमार वर्मा प्रशासन के डिक्टेटरशिप फार्मूले को अकादमिक जगत पर लागू तो नहीं कर रहे कि हम संहिता बना रहे हैं और तुम्हें उस हिसाब से जीना होगा।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_31.html?showComment=1288519142558#c2346897718707389267'> 31 अक्तूबर 2010 को 3:29 pm बजे
बहुत खरे और कड़े ढंग से आपने लिखा है. पवन वर्मा की भारतीयता वही है समाज के उच्च वर्ग के डिनर टॉक में कभी-कभी जिसका ज़िक्र आ जाता है. आ़प बेकार में इतनी उम्मीद पाल रहे हैं.