"सुन लो मौलाना, आप जैसे छत्तीस हजार घूमते हैं। चुप्प.. चुप्प बैठ जाओ,वहीं पर खामोशियों से। नहीं तो वहीं गर्दन आकर नाप दूंगा।" जिस सिनेमाई अंदाज में दिल्ली के जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी ने लखनउ में उर्दू के पत्रकार अब्दुल वाहिद चिश्ती को जान से मारने की धमकी दी और प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद मारपीट किया,उससे साफ है कि धार्मिक संगठनों का तेवर किस तरह का है?
अब्दुल वाहिद चिश्ती ने इस घटना के बाद मीडिया को दिए अपने बयान में साफतौर पर कहा कि इमाम ने न केवल उन्हें जान से मारने की धमकी दी बल्कि अपने साथ आए लोगों से ये भी कहा कि इसे यही मारो,दफन कर दो,आगे ये हमारे लिए नासूर बन जाएगा। दर्जनों नेशनल चैनलों और मीडिया के सामने अहमद बुखारी ने जिस तरह की हरकत की है उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि उनका मुस्लिम समाज के बीच किस तरह का खौफ और दबदबा बरकरार है। अहमद बुखारी साहब ने साफ कर दिया कि धर्म की सत्ता,कानून की सत्ता से उपर होती है भले ही देश में लोकतंत्र बहाल हो गया हो,एक संवैधानिक प्रावधान के तहत शासन किए जाते हैं जहां सबों को अपनी बात कहने औऱ जानने का अधिकार है। फिर अब्दुल वाहिद चिश्ती अहमद बुखारी से जिस मसले को लेकर सवाल करना चाह रहे थे वो इस देश के लिए एक बड़ा मसला है और उस पर शाही इमाम की हैसियत से उनका मत जानना बेहद जरुरी है।
एक उर्दू अखबार के पत्रकार की हैसियत से अब्दुल वाहिद चिश्ती ने अहमद बुखारी से अयोध्या मामले में उनकी राय जाननी चाही और जिस पर कि वो बुरी तरह भड़क गए। न सिर्फ भड़के बल्कि सुन लो मौलाना,तुम्हारे जैसे 36 हजार फिरते हैं,चुप बैठ जाओ खामोशियों से नहीं तो आकर गर्दन नाप दूंगा जैसी धमकी भी दे डाली। लखनउ में हो रहे प्रेस कॉन्फ्रेंस के खत्म होते ही वो चिश्ती की तरफ झपटे और अपने लोगों से इन्हें निबटा देने की बात कही। अहमद बुखारी प्रेस कॉन्फ्रेंस में थे और उनसे सवाल भी वही किया गया था। उन्हें इस माइंड सेट के साथ वहां होना चाहिए था कि कोई किसी भी तरह का सवाल कर सकता है। अगर उ्हें लगता है कि इस बात का जबाब उन्हें नहीं देनी है तो चुप मार जाते। लेकिन ऐसा करने के बजाय जो कुछ वहां किया उससे ये साफ हो गया कि उन्हें इस बात का गुरुर है कि वो जामा मस्जिद के शाही इमाम हैं औऱ वो चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं।
कुछ भी कर सकते हैं का ये गुरुर अहमद बुखारी को खुद की मेहनत,एफर्ट या फिर लोगों का प्यार पाकर हासिल नहीं हुआ है। उन्हें ये हैसियत सिर्फ और सिर्फ इमाम के घर पैदा होने की वजह से हासिल हुआ है। ये पद उन्हें इस बात पर नहीं मिली है कि उन्हें इस्लाम की कितनी समझ है,बल्कि राजतंत्र की तरह एक के बाद एक गद्दी का जैसे हस्तांतरण होता है,वैसे ही है। शायद इसलिए भी इस्लाम में जिस इंसानियत औऱ मजहबी तहजीब की बात की जाती है,उसे लात मारकर इन सबसे महरुम शख्स की तरह बर्ताव किया। स्टार न्यूज ने अपनी रिपोर्ट में साफ कहा कि अगर अहमद साहब खुलेआम ऐसा कर सकते हैं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो बाकी क्या कर सकते हैं? दुनियाभ के लोगों को इंसानी तहजीब का पाठ पढ़ानेवाले शाही इमाम का ये चेहरा है तो सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि भीतरी हालात किस तरह के होंगे?
ये कोई पहला मौका नहीं है जब अहमद बुखारी किसी पत्रकार पर इस तरह झपट पड़े हों और खुलेआम धमकी दी हो। इससे पहले 2006 में दिल्ली में और वो भी प्रधानमंत्री निवास के ठीक सामने एक पत्रकार से बुरी तरह उलझ गए थे और अपना आपा बुरी तरह खो दिया था। मीडिया में ये बात आयी और बहुत ही हल्के तरीके से सरककर गयी। मीडिया इस तरह के मामले को बहुत ज्यादा तूल देने में संभव है कि हिचकता हो। लेकिन इस तरह से लगातार धार्मिक संगठनों,मतो और समुदायों का प्रतिनिधित्व करनेवाले धार्मिक सत्ता की सबसे उंची कुर्सी पर बैठनेवाले लोग कानून की बेसिक समझ की भी धज्जियां उड़ाते हैं तो ये साफ हो जाता है कि वो अब भी मानकर चलते हैं कि इस देश में उनका ओहदा कानून,सरकार और संविधान से उपर है। वो चाहे जैसे चाहें,चीजों को लेकर समाज के ड्राइविंग फोर्स बन सकते हैं। महाराष्ट्र और गुजरात जैसे राज्यों में शिवसेना,एमएनएस और दूसरे कट्टर हिन्दू संगठनों के आए दिन काननू को अपने हाथ में लेकर उपद्रव मचाने का जो घिनौना खेल चलता है,वो इसी सोच का नतीजा है। कुछ तो ढीली-ढाली व्यवस्था और बाकी वोट की राजनीति इन्हें नजरअंदाज करने में ही अपनी भलाई समझते हैं। दूसरी तरफ मीडिया जिस अंदाज में इन घटनाओं को दिखाते हैं,वो एक तरह से उनकी सत्ता को मजूबती ही देते हैं। संस्कृति और समुदाय के लिए काम करने के नाम पर वो एक बंद जुबान रचना चाहते हैं जहां कि सिर्फ और सिर्फ उनकी बात सुनी जाए,उनकी बात मानी जाए और उन्ही की भाषा में उसके अर्थ लिए जाएं। इससे अलग अगर कोई कुछ बोलता या करता है तो वो उसे कुचल देंगे।
जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी ने लखनउ में जो हरकत की है वो न केवल देश के संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ाता है बल्कि लाखों इस्लाम में आस्था रखनेवाले लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाता है। उन्हें सोचने पर मजबूर करता है कि देश का एक सामान्य मुसलमान भी अगर संवैधानिक प्रावधानों के तहत जीता है,जीने की लगातार कोशिश करता है,उसका प्रतिनिधित्व करनेवाला शाही इमाम उसके इज्जत की टोपी उछाल आता है। हमारे लिए तो संविधान बड़ा है लेकिन अहमद बुखारी साहब के लिए इससे भी अगर कुछ उपर है तो वो है एक गुरुर कि वो इस देश के करोड़ों मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उन्हें अगर मजहब के इस मर्म को बचाना है और सही अर्थों में उनका प्रतिनिधि बनना है तो देश के लोगों से इस बात की माफी मांगनी ही चाहिए। दूसरी तरफ इस तरह की घटनाओं को राजनीति का हिस्सा न बनाकर नागरिक और इस्लाम के सम्मान-अपमान का मामला माना जाना चाहिए और प्रशासन को भी चाहिए कि इस मामले को गंभीरता से ले। मीडिया को इसे एक बिकाउ एलीमेंट बनाने के बजाय समाज के भीतर वो ताकत पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए,वो माहौल पैदा करनी चाहिए कि लोग खुलकर ऐसी घटनाओं का विरोध कर सकें। बेहतर हो कि पत्रकार संगठन इसमें आपसी राजनीति चमकाने के बजाय बिरादरी का मामला मानकर इसके विरोध में एकजुट हों।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287226549044#c8522376907450482617'> 16 अक्तूबर 2010 को 4:25 pm बजे
वीनित भाई काहे गज़ब करते हो... खुद बोलते हो हम से भी बुलवाते हो... गर्दन कटवाओगे ..हाहा ..हाहा...
इस तरह की घटनाओं को राजनीति का हिस्सा न बनाकर नागरिक और इस्लाम के सम्मान-अपमान का मामला माना जाना चाहिए और प्रशासन को भी चाहिए कि इस मामले को गंभीरता से ले। मीडिया को इसे एक बिकाउ एलीमेंट बनाने के बजाय समाज के भीतर वो ताकत पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए,वो माहौल पैदा करनी चाहिए कि लोग खुलकर ऐसी घटनाओं का विरोध कर सकें। बेहतर हो कि पत्रकार संगठन इसमें आपसी राजनीति चमकाने के बजाय बिरादरी का मामला मानकर इसके विरोध में एकजुट हों।
बात तो सोलह टक्का सही है... ससुरा कौनो मानेगा तब न...राजनीती तो होगी ही... टी आर पी का खेल भो होगा... हमारी तुम्हारी कौन सुनेगा... हाँ अगर कुछ मुसलमान भाई सुन ले..और उनका ईमान जाग जाए तो बात बन सकती है... सच बताऊँ जब छोटा था तो सोचता था..शाही इमाम या फिर शंकराचार्य ये सब लोग बड़े नेक होते होंगे... परियों की कहानियों वाले खुदा के नेक बन्दे ... उफ़ ..नहीं जनता था.. मेरी मासूमियत जब जहीन हुयी तो बस ये शेर पढ़ लीजिये और समझ जाइये क्या सोचता हूँ..
मेरे दिल के किसी कोने में एक मासूम सा बच्चा
बड़ो की देख कर बड़ा होने से डरता है...
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287229729245#c7012205691111590142'> 16 अक्तूबर 2010 को 5:18 pm बजे
ऐसे लोगों को कवर करने जाते ही क्यों हैं. और बढ़ाओ इनकी इगो....
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287236562029#c1225181889810963914'> 16 अक्तूबर 2010 को 7:12 pm बजे
शुक्रिया इस पोस्ट लिए मैं सेकुलर ब्लागरों की रह देख रहा था कब वे इस मामले पर लिखते हैं लेकिन मुझे अफसोस है की कोई भी नहीं दिखा इस्सी से झल्ला कर F B पर एक पोस्ट भी डाली उसके बाद अब आपकी पोस्ट नज़र आई है...शुक्रिया देश के अमाहन सेकुलर लोगों का सेकुलरिज्म पता नहीं कहाँ चला जाता है जब एक मुसलमान के खिलाफ लिखने की बारी आती है....FB KI पोस्ट-
देश के महान सेकुलर आकावों कहाँ हो आप.दो रोज हो गए लखनऊ के थप्पड़ कांड को.और आप खामोश हैं आपके ब्लॉग पर सन्नाटा है आपका फेसबुक स्टेटस चुप है इस घ्रिडित मामले पर.आप आशाराम के मीडिया को कुत्ता कहने पर क्लास लेते हैं हम खुश होते हैं.मगर इस मामले पर आपकी चुप्पी मुझे सोचने पर मजबूर कर रही है कहीं आप सेकुलरिज्म के नाम पर तुस्टीकरण की राजनीति तो नहीं खेल रहे नहीं तो इस बार आपका आपका सेकुलरिज्म कहाँ गया है तेल लेने.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287238319632#c4977187604453515846'> 16 अक्तूबर 2010 को 7:41 pm बजे
भ्रष्ट पत्रकारों-भ्रष्ट राजनेताओं और भ्रष्ट अधिकारीयों के गठजोड़ ने इस मुकाम पर पहुँचाया है इस इमाम को ...कहते हैं भस्माशुर को पालोगे और पोसोगे तो वह सबसे पहले पालने पोसने वालों को ही नापता है | बहरहाल यह बात सही है की अभी भी अगर पत्रकार बिरादरी इस मुद्दे को बिना किसी भेद-भाव के एकजुटता से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नापने का मुद्दा बनाये तो शाही इमाम को सही राह दिखाया जा सकता है ... धर्म के तथाकथित ठेकेदारों की ऐसी हरकत धर्म को कब्र में पहुँचाने का काम करती है ...
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287241425766#c2317655495942382712'> 16 अक्तूबर 2010 को 8:33 pm बजे
सचमुच शर्मनाक है विनीत भाई. यह तो सत्ता का दंभ ही कहा जाएगा.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287241870482#c6498222263084845494'> 16 अक्तूबर 2010 को 8:41 pm बजे
खैर ..... आपने लिख दिया !!
....लेकिन तथाकथित सेकुलर मीडिया मौन साधे बैठा है और रहेगा .............!!
हालाँकि इसे जायज ठहराने की कोशिश ना समझी जाए तो भी जितना सेकुलर मीडिया तथाकथित हिन्दुवादिओं को गरियाता है ...ऐसे मुद्दों पर आते आते उसकी गर्दन से आवाज बाहर नहीं आ पाती है !! यही कारण है की इस देश में कभी भी आरएसएस, बीजेपी, हिन्दू जागरण मंच, शिवसेना को कभी भी खारिज नहीं किया जा सकता है !!
चलिए इस प्रकरण पर आपकी पोस्ट ने आपके प्रति कुछ आशाएं ज़िंदा रखी हैं !!
बधाई !!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287277684528#c6034956582044046228'> 17 अक्तूबर 2010 को 6:38 am बजे
ये बात सैकड़ों मीडिया कर्मियों के बीच हुई ... इस पर तुरंत प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी ...एफ आई आर दर्ज होनी चाहिए थी ... लेकिन ये शर्मनाक है कि चौथे खम्भे को अपने प्लास्टर और चमक दमक बनाए रखने के लिए इन जैसे कठमुल्लों से डरना पड़ रहा है ... बेहद खेद जनक और शर्मनाक घटना
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287305199356#c2543432234010431492'> 17 अक्तूबर 2010 को 2:16 pm बजे
क्या बात है। इतना गुस्सा सिर्फ़ सवाल पूछने पर।
बहुत अच्छी तरह से पेश किया यह लेख। बधाई!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287312007550#c2155858112398896770'> 17 अक्तूबर 2010 को 4:10 pm बजे
From The New York Times:
U.S. Had Warnings on Plotter of Mumbai Attack
American officials received warnings from two wives of David Headley,
who was the chief reconnaissance scout for the attacks that killed 163
people in Mumbai, that he was planning such an attack.
http://nyti.ms/btfuBD
aatankvad America aur pakistan ki nazayaz aulaad hai...ye sab jaante hain... bharat ke saath inka doglapan hume pata hai.... lekin ab wo din dur nahi jab inki nazayaz aulaad inki kaali kartuton se parda khud uthayengi..ye kahin mood dikhane layak nahi rahenge...
aapka email kya hai>
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287408413296#c6857447830768873380'> 18 अक्तूबर 2010 को 6:56 pm बजे
शाही इमाम के इस वक्तव्य से सदियों पहले हुए गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद के समय याज्ञवल्क्य का कथन याद आ गया, "गार्गी, यदि इसके पश्चात तुमने प्रश्न किया तो तुम्हारा सर धड़ से कटकर गिर जाएगा."
...गार्गी चुप हो गयी और अभी तक चुप है. जब बोलती है तो उसकी गर्दन नापने की धमकी दे दी जाती है.
ये व्यवस्था द्वारा आम आदमी को चुप कराने का तरीका है... ब्राह्मणवादी पितृसत्ता द्वारा दलितों और स्त्रियों की और दलित स्त्रियों की आवाज़ को दबाने का हथियार है.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287411247281#c3416483746349412033'> 18 अक्तूबर 2010 को 7:44 pm बजे
धन्य हो कौम के ठेकेदारों!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_16.html?showComment=1287424684300#c509834298630163840'> 18 अक्तूबर 2010 को 11:28 pm बजे
प्रिय विनीत
आपकी टिपण्णी बिलकुल सही है. सिर्फ़ दो-एक चीज़ों पर ध्यान दिलाना है. आपने अहमद बुखारी के नाम के आगे और पीछे क्रमशः 'शाही' और 'साहब' शब्दों का इस्तेमाल बार-बार क्यों किया जबकि पीड़ित पत्रकार के नाम के साथ कोई सम्मान सूचक शब्द नहीं इस्तेमाल किया? क्या बुखारी कुनबे ने आप पर भी कोई रौब-दाब बना रखा है? इन्हें पहले ये सम्मान अर्जित करने दीजिये तब सम्मान दीजिये. भारत एक लोकतंत्र है, यहाँ जो भी 'शाही' या 'रजा-महाराजा' था वो अपनी सारी वैधानिकता खो चुका है. आज़ाद भारत में किसी को 'शाही' या 'राजा' या 'महाराजा' कहना-मानना संविधान की आत्मा के विरुद्ध है. अगर अहमद बुखारी ने कोई महान काम किया भी होता तब भी 'शाही' शब्द के वे हकदार नहीं इस आज़ाद भारत में. और पिता से पुत्र को मस्जिद की सत्ता हस्तांतरण का ये सार्वजनिक नाटक भी भारतीय लोकतंत्र को सीधा सीधा चैलेंज है
रही बात बुख़ारी बंधुओं के आचरण की तो ये बताइए की इस शख्स से जुड़ी कोई अच्छी ख़बर-घटना या बात आपने कभी सुनी? इस पूरे परिवार की ख्याति मुसलमानों के वोट का सौदा करने के अलावा और क्या है? अच्छी बात ये है की जिस किसी पार्टी या प्रत्याशी को वोट देने की अपील इन बुख़ारी-बंधुओं ने की, उन्हें ही मुस्लिम वोटर ने हरा दिया. मुस्लिम मानस एक परिपक्व समूह है. हमारे लोकतंत्र के लिए ये शुभ संकेत है.लेकिन पता नहीं ये बात भाजपा जैसी पार्टियों को क्यों समझ में नहीं आती ? वे समझती हैं की 'गुजरात का पाप' वो 'बुख़ारी से डील' कर के धो सकती हैं.
एक बड़ी त्रासदी ये है की दिल्ली की जामा मस्जिद भारत की सांस्कृतिक धरोहर है और एक ज़िन्दा इमारत भी जो अपने मक़सद को आज भी अंजाम दे रही है. एक प्राचीन निर्माण के तौर पर जामा मस्जिद इस देश के अवाम की धरोहर है, ना की सिर्फ़ मुसलमानों की. बादशाह ने इसे केवल मुसलमानों के चंदे से नहीं बनाया था बल्कि देश का राजकीय धन इसमें लगा था और इसके निर्माण में हिन्दू-मुस्लिम दोनों मज़दूरों का पसीना बहा है और श्रम दान हुआ है. इसलिए इसका रख-रखाव, देख-भाल और इससे होनेवाली आमदनी पर सरकारी ज़िम्मेदारी होनी चाहिए. ना की एक व्यक्तिगत परिवार की? लेकिन पार्टियां ख़ुद भी चाहती हैं की चुनावों के दौरान बिना किसी बड़े विकासोन्मुख आश्वासन के, केवल एक तथाकथित परिवार को साध कर वे पूरा मुस्लिम वोट अपनी झोली में डाल लें. इसलिए वे बुख़ारी जैसों के प्रति उदार हैं ना की बाटला-हाउज़ जैसे फ़र्ज़ी मुठभेढ़ की न्यायिक जांच में!
ये हमारी सरकारों की ही कमी है की वह एक राष्ट्रीय धरोहर को एक सामंतवादी, लालची और शोषक परिवार के अधीन रहने दे रहे हैं. जिसके चलते ये एक अतिरिक्त-सत्ता चलाने में कामयाब हो रहे हैं. इससे मुस्लिम समाज का ही नुक्सान होता है की एक तरफ़ वो स्थानीय स्तर पर इनकी land-grabbing, भू-माफिया गतिविधियों का शिकार हैं, तो दूसरी तरफ़ इनकी गुंडा-गर्दी को पूरे मुस्लिम समाज के तुष्टिकरण से जोड़ कर दूसरा पक्ष मुस्लिम कौम को ताने मारने को आज़ाद हो जाता है.
बुखारी परिवार किसी भी तरह की ऐसी गतिविधि, संस्थान, कार्यक्रम, आयोजन, या कार्य से नहीं जुड़ा है जिससे मुसलामानों का या समाज के किसी भी हिस्से का कोई भला हो. ना तालीम से, ना सशक्तिकरण से, ना हिन्दू-मुस्लिम समरसता से, ना और किसी भलाई के काम से इन बेचारों का कोई वास्ता.... तो ये काहे के मुस्लिम नेता?
बहेरहाल आपकी टिपण्णी सही है और कई आयामों को समेटे है. बधाई.