मेरे लिए ये पहला अनुभव रहा, जब हम डीएवी गर्ल्स कॉलेज, यमुनानगर जैसे लड़कियों के कॉलेज में, इस तरह की खचाखच भरी ऑडिएंस के बीच सिनेमा देख रहे थे और कुछ-कुछ वैसा ही महसूस करते रहे जैसे आमतौर पर लड़कियां मर्दों के जमावड़े के बीच होने पर करती हैं। मर्दों की मसखरई के बीच पड़कर कोई लड़की कैसा महसूस करती है, इसे समझने के लिए ऐसे जमावड़े में पड़ना और सिनेमा देखना मुझे सबसे ज्यादा जरूरी लगा। मेरी बॉडी लैंग्वेज सिकुड़ती है और हम अतिरिक्त तौर पर सतर्क होते हैं। हमारे लिए ये बहुत आसान था कि हम इससे उबरने के लिए हॉल से बाहर निकल जाएं। लेकिन रोजमर्रा तौर पर लड़कियों और स्त्रियों की ये बेचैनी कैसे दूर होती होगी, कहां-कहां से निकलकर किधर-किधर भागने के बारे में सोचती होगी, ये सवाल हमें लगातार मथे जा रहा था। बहरहाल…
ओमपुरी और फिर हरियाणा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टीवल के डायरेक्टर अजीत राय के छोटे से वक्तव्य के बाद उदयन प्रसाद की फिल्म My Son the Fanatic की स्क्रीनिंग शुरू हो जाती है। एक टैक्सी ड्राइवर की भूमिका में ओमपुरी पक्के पोस्टमार्डनिस्ट साबित होते हैं। हम अगले करीब ढाई घंटे के लिए घुप्प अंधेरे में पर्दे पर बदलते मंजरों के हवाले खुद को कर देते हैं। बीच-बीच में लोगों की आवाजाही बनी रहती है और इसकी जो रोशनी इस अंधेरे को काटती है तो मेरा लोभ उन बैठी करीब छह सौ लड़कियों के बीच जहां-तहां से चेहरे के भाव पढ़ने का लोभ बनता जाता है। हम सिनेमा का तत्काल रिएक्शन उन पर क्या हो रहा है, पढ़ना चाहते हैं, जो कि आसान काम नहीं होता है। कोई सीधे कहे कि या तो सिनेमा देख लो या फिर उन चेहरों की टोह ही लेते रहो। लेकिन उन लड़कियों और आगे बैठी स्त्रियों के रिएक्शन को समझने का एक सतही की सही, फार्मूला हमें मिलता दिखाई देता है।
मेरे ठीक पीछे बैठी स्त्रियां जिनमें से कुछ उस कॉलेज की लेक्चरर भी होती हैं, जिस सीन को देखकर फुसफुसाना शुरू करती हैं, ठीक उसी सीन पर पीछे से लड़कियों के ठहाके शुरू होते हैं। उन ठहाकों में अगर आधी लड़कियों की भी गूंज शामिल हैं, तो ये विश्लेषण की एक कच्ची सामग्री है ही। अधेड़, तीस साल पार स्त्रियों के लिए सिनेमा के जो सीन्स फुसफुसाहट पैदा करते हैं, ठीक पीछे बैठी लड़कियां उन पर ठहाके लगाती हैं। मैंने लेडिज सीट पर बैठकर दीदी की सहेलियों और सबसे ज्यादा मां के साथ दर्जनों फिल्में देखीं है। मुझे तब याद है कि जब हीरो किस भी नहीं लेता, सिर्फ उसकी बांह पकड़कर अपनी ओर खींचता तो हीरोइन कहती – कोई देख लेगा… बाबूजी आते होंगे… (विवाहित होने पर) मांजी बुला रही है, तो इधर दर्शक दीर्घा में लड़कियां समीज से सरक आये दुपट्टे को दुरुस्त करतीं और महिलाएं साड़ी के पल्लू को ब्लॉउज पर जमातीं।
यहां सीन ये है कि हीरो और हीरोइन बिल्कुल नंगे एक-दूसरे से लेटे-लिपटे जा रहे हैं और पीछे बैठी स्त्रियां फुसफुसाना शुरू करती हैं – बोल्ड सीन है। दूसरी ने कहा कि हां, इंग्लिश फिल्मों में ऐसा होती ही होता है जबकि लड़कियों के ठहाके साफ कर देते हैं कि मर्डर जैसी हिंदी फिल्म में ये तो कॉमन है। फिर इरफान हाशमी, मल्लिका शेरावत पैसे किस बात के लेते हैं? इतना तो छोड़ो, अब तो हीरोइन गद्दे लेकर खेत भी जाने लगी है। मुझे लग रहा था कि दुपट्टे दुरुस्त करनेवाली तब की लड़कियां अब अधेड़ फुसफुसानेवाली महिला में तब्दील हो चुकी है और टीनएजर्स और कॉलेज की लड़कियों की बिल्कुल एक नयी खेप पैदा हो रही है, जो कि इनसे जुदा है। ऐसे सीन्स को देखकर उनकी कनपटी लाल नहीं होती बल्कि इसे इजी टू सी मानकर आगे बढ़ जाती है। इसे आप बेशर्मी कहें या फिर ऑडिएंस के स्तर की मैच्योरिटी, लेकिन इसमें मैं एक आजाद ख्याल के चिन्ह जरूर देखता हूं।
इतना ही नहीं, यमुनानगर पहुंचने के दौरान जो हमें क्वांरा चौक मिला और उस नाम पर हमने ठहाके लगाये – मेरे मन में एक घड़ी ये ख्याल भी आया कि गर्ल्स कॉलेज के ठीक पहले क्वांरा चौक, ये युवा पीढ़ी पर किस तरह का शोषण है? वरिष्ठ पत्रकार उमेश चतुर्वेदी तो बीएचयू के महिला कॉलेज को याद करते हुए पीएमसी (पिया मिलन चौक) की उम्मीद कर रहे थे। खैर, हमें अंदर एक खुला माहौल दिखाई दिया। दिल्ली अगर खुलेपन का पर्याय मानी जाती है तो माफ कीजिएगा – कुछ इलाकों और कॉलेजों में हमें वो बहुत ही बंधा-फंसा, कंजर्वेटिव नजारा दिखाई देता है, यमुनानगर का ये कॉलेज उसे उलाहने देता नजर आया। गर्ल्स कॉलेज के भीतर फेस्टिवल के नाम पर ही सही, बाहर के बहुत सारे लड़के कॉरीडोर में लड़कियों से आराम से गप्पें लड़ाते नजर आये। लड़कियों के बात करने का अंदाज साफ बता रहा था कि ये कोई नया परिचय नहीं है बल्कि पुराना परिचय नये माहौल में रम गया है। अब बाउंडरी बॉल से छड़प-तड़पकर सिनेमा देखने की जरूरत नहीं रह गयी है।
डीएवी के कॉलेज, स्कूलों को लेकर जब भी सोचना शुरू करता हूं तो पहला शब्द हवन-पूजन याद आता है लेकिन यहां बर्गमैन से लेकर रोनॉल्ड जॉफी की फिल्में बड़े इत्मीनान से देखी और शेयर की जा रही थीं। पहुंचनेवाली रात जब अजीत राय हमसे मिले, तो फेस्टिवल को लेकर कुछ प्रसंगों की चर्चा की। एक प्रसंग ये भी कि वो जो फिल्म दिखाना चाह रहे थे, उसमें हीरोइन आग से बचने के लिए बिल्कुल नंगी दौड़ रही है। उन्होंने उस फिल्म का नाम भी बताया, मुझे याद नहीं। इसे दिखाने, न दिखाने पर जब बात हुई, तो कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ सुषमा आर्य का जवाब था कि ये किसी तरह की उत्तेजना या अश्लीलता पैदा नहीं करता बल्कि इसमें तो दहशत का माहौल दिखाया गया है। ओमपुरी ने भी ‘माय सन द फैनेटिक’ की स्क्रीनिंग के पहले यही बात कही कि आज जबकि लगभग हर सिनेमा में कुछ बोल्ड सीन एक फार्मूला बन गया है, इस फिल्म में भी कुछ सीन हैं लेकिन ये आपको अलग से, फार्मूला के नहीं लगेंगे, बहुत ही स्वाभाविक और जरूरत के हिसाब से हैं। सिनेमा को लेकर प्रिंसिपल की जो राय रही, वो हमें कॉलेज कैंपस के भीतर भी दिखाई दिया। मुझे नहीं पता कि ये कितना स्वाभाविक या फिर मौके भर के लिए था। लेकिन जो बॉडी लैंग्वेज, बात करने के तरीके और कॉनफीडेंस लड़कियों के बीच हमने देखे, वो रातोंरात, कोई एक दिन में इनबिल्ट चीज नहीं थी।
हां, इस पूरे 13-14 घंटे तक करीब छह सौ लड़कियों और दर्जनों महिला लेक्चररों के बीच गुजारते हुए हमें दो बातें जरूर चुभ गयीं। एक तो ये कि कुछ कोर्स ने कैसे पहले ही दिन से लड़कियों की शक्ल बदल दी है। प्रोफेशनल कोर्स उन पर इतना हावी है कि वो पहले ही दिन से अपने कब्जे में कर लेता है। एक ही कैंपस में इन कोर्स की लड़कियां ट्राउजर, शर्ट, टाई और हॉफ ब्लेजर में नजर आयीं, जो कि उनका ड्रेस कोड था तो बाकी सलवार सूट या फिर जींस शर्ट में। सलवार-कमीज वाली लड़कियों को संभव है कि कॉम्प्लेक्स होता हो और ट्राउजर पहनती लड़कियों को कोर्स चुने जाने पर फख्र। लेकिन हमें अफसोस इन्हें देखकर हो रहा था कि अभी से ही इन्हें वेटर जैसी शक्ल देने की क्या जरूरत है? फैमिली बैकग्राउंड का प्रेशर उन्हें ऐसे में मॉड बनाने के बजाय लाचार शक्ल देता है। और दूसरी बात कि जिन लड़कियों ने सिनेमा देखते हुए ठहाके लगाये, उनसे सिनेमा को लेकर राय ली जानी चाहिए थी, विमर्श जरूरी था। वो एक बड़ा और अलग काम कर रही हैं, उन्हें एक एकेडमिक, इंटलेक्चुअल टच दिया जाना जरूरी है।
वैसे आप यकीन नहीं करेंगे कि इससे पहले जिस हरियाणा में मैं सुमन को जिंदा जला दिये जाने की घटना के बाद देखने-समझने के लिए गया था, अबकी बार उसी हरियाणा में सिनेमा के बीच खिलखिलाती छह सौ सुमन को देखकर कितना अच्छा महसूस कर रहा हूं। हरियाणा में स्त्री-सत्ता को मजबूती देने के लिए इस गर्ल्स कॉलेज में सिनेमा फेस्टिवल का आयोजन एक जरूरी कदम है। हवन, धार्मिक कर्मकांड तो इनके अधिकारों को लील गये, उम्मीद है कि मीडिया कल्चर के बीच जीने की अनिवार्यता में सिनेमा उनकी दावेदारी को मजबूत करेगा।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_11.html?showComment=1286799001994#c7914399577474318402'> 11 अक्तूबर 2010 को 5:40 pm बजे
ज़माना बदल रहा है, और परिवर्तन संसार का नियम है ...
शायद यही बदलते वक़्त की आवाज़ है...
मेरे ब्लॉग पर इस बार
एक और आईडिया....
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_11.html?showComment=1286963121215#c7739205808524544537'> 13 अक्तूबर 2010 को 3:15 pm बजे
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_11.html?showComment=1286963214953#c382027934375549969'> 13 अक्तूबर 2010 को 3:16 pm बजे
विनीत,कुल मिलाकर अच्छी रिपोर्ट और लड़कियों की मानसिक स्तिथि का सटीक वर्णन किया आपने....
बस पोस्ट में इमरान हाशमी की जगह इरफ़ान हाशमी हो गया है...
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_11.html?showComment=1310826666792#c8432423966365862690'> 16 जुलाई 2011 को 8:01 pm बजे
क्वांरा चौक नाम का कोई चौक नहीं है, उस चौक का नाम "फव्वारा चौक" है जिसे चालू भाषा में "फ्वारा चौक" कह दिया जाता है जिसे शायद आपने "क्वांरा चौक" समझ लिया।