ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास के लेखक पवन वर्मा की किताब विकमिंग इंडियन इन दिनों खासी चर्चा में है। हिंदी समाज के बीच इस किताब की चर्चा की मूल वजह कंटेंट के अलावा इसका हिंदी अनुवाद की शक्ल में आना है। हिंदी के युवा आलोचक वैभव सिंह ने इस किताब का अनुवाद भारतीयता की ओर : संस्कृति और अस्मिता की अधूरी क्रांति शीर्षक से किया है। मूलतः अंग्रेजी में छपी किताब का प्रकाशन पेंगुइन ने किया है और इसका अनुवाद भी पेंगुइन हिंदी और यात्रा प्रकाशन की ओर से ही है। लिहाजा इस किताब को और खासकर हिंदी में पढ़ने की बेचैनी को हम बहुत अधिक रोक नहीं पाये और आखिरकार ये किताब मेरे हाथ लग गयी। कोर्स की किताब की तरह पहले पन्ने से शुरू करने के बजाय हमने इस किताब को आखिरी अध्याय से पढ़ना शुरू किया। विश्वग्राम के अंदर : विषमता और समायोजन अध्याय को पूरा पढ़ गया। इस किताब को लेकर मेरी पूरी दिलचस्पी इस बात को लेकर रही है कि पवन वर्मा ने आज के परिवेश को जिसे कि ल्योतार के शब्दों को उधार लेकर कुछ लोग पोस्ट मार्डन कंडीशन कहते हैं, कुछ लोग लेट कैपिटलिस्जम (फ्रेडरिक जेमसन) का सांस्कृतिक तर्क तो कुछ लोग मैक्लूहान की समझ अपनाते हुए ग्लोबल विलेज की स्थिति बताते हैं, को कैसे परिभाषित किया है और इन सबके बीच भारतीयता और संस्कृति को किस रूप में डिफाइन किया है।
हममें से जिन लोगों को भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति के चिन्हों को एक दूसरे से अलग करने के लिए आये दिन माथापच्ची करनी पड़ती है, उनके लिए ये किताब रामबाण का काम करती है। इस अध्याय में पवन वर्मा ने बिल्कुल ही साफ और स्पष्ट विभाजन हमारे सामने किया है। हम भारतीय संस्कृति को लेकर बड़े ही मजे से थै-थै कर सकते हैं और दूसरी तरफ पाश्चात्य संस्कृति की खामियों को और मजबूती से रेखांकित कर पाते हैं। लेकिन विभाजन की यह सुविधा आगे चलकर पूरे विमर्श को बहुत विश्वसनीय नहीं रहने देती। इस स्पष्ट विभाजन के बीच जैसे ही हम कल्चरल रेजिस्टेंस के सवाल को डालते हैं, उपभोक्तावादी आदतें जो कि अब खुद में एक संस्कृति का हिस्सा बन चुकी हैं, की बहस को शामिल करते हैं तो पवन वर्मा के इस स्पष्ट विभाजन की बाउंड्री ब्लर हो जाती है। ये एक बड़ा सच है कि संस्कृति को लेकर इस तरह का विभाजन न तो बहुत साफ तौर पर संभव है और न ही इसकी कोशिशें विश्वसनीय क्योंकि संस्कृति का एक रूप, दूसरी संस्कृति के किस रेशे से जाकर कहां मिल जाता है, इसे रेखांकित किया ही नहीं जा सकता। फिर भी पवन वर्मा अगर ऐसा कर पाते हैं तो हमें जाहिर तौर पर उनकी समझ पर थोड़ी बात करनी होगी।
पवन वर्मा भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति को एक-दूसरे से अलगाने के क्रम में खान-पान, पोशाक, अभिवादन के तरीके और ह्यूमन मेंटलिटी की बात करते हैं। इस फेहरिस्त से गुजरते हुए लगता है कि वो रेमंड विलियम्स की परिभाषा –culture is basically the way of life का ही व्यावहारिक विस्तार दे रहे हैं। लेकिन पंक्ति दर पंक्ति जब हम गुजरते हैं, तो हमें सहज ही एहसास हो जाता है कि दरअसल संस्कृति को लेकर उनकी जो समझ है, वो पूरी तरह से नेशन स्टेट की जो संस्कृति होती है और जिसे खुद नेशन स्टेट वैलिडिटी देता है, वो संस्कृति इनकी बहस में शामिल है। वैसे भी उन्होंने तमाम उदाहरण राज्यकीय और प्रशासनिक संदर्भों के बीच संस्कृति रूपों के आधार पर ही दिये हैं। संस्कृति के इस रूप को कल्चरल स्टडीज के तहत अल्थूसर ने ऑडियोलॉजी एंड ऑडियोलॉजिकल स्टेट अपरेटस के तहत विस्तार से चर्चा की है। फिर हेबरमास ने दि पब्लिक स्फीयर में संस्कृति के इसी रूपों की बात की है। पवन वर्मा की भारतीयता और उसकी सांस्कृतिक समझ इन्हीं दो-तीन विद्वानों के लक्षणों को लेकर विकसित होती है। हां ये जरूर है कि उन्होंने जो भी उदाहरण और संदर्भ दिये हैं, उसमें व्यक्तिगत स्तर के अनुभव और सच्चाई हैं। कविता की भाषा में कहें तो भोगा हुआ सच है, जिसका मैं पूरा सम्मान करता हूं।
आगे वो एक बड़ी स्थापना देते हैं कि अंग्रेजों के अधीन जो भी देश या नेशन स्टेट रहे, उनके भीतर आज भी इनफीरियर कॉम्प्लेक्स बरकरार है। बल्कि अपनी इस स्थापना को वो पाश्चात्य संस्कृति और ग्लोबल डिस्कोर्स तक विस्तार देते हैं। वो साफ तौर पर मानते हैं कि भारत अगर अपने को, अपनी संस्कृति को एक स्वतंत्र संस्कृति मानता है, तो ये इसकी भारी भूल है। आज भी दरअसल हम पाश्चात्य को लेकर श्रेष्ठताबोध से ग्रसित हैं, वो बेहतर हैं और हम उनसे कमतर। इस बात को उन्होंने बुकर, नोबेल और बाकी बातों के साथ जोड़ते हुए विस्तार दिया। “हमारी पूरी सोच पर नियंत्रण की एक मिसाल यह भी है कि हम पश्चिम द्वारा की गयी आलोचना व प्रशंसा दोनों को ही जरूरत से ज्यादा अहमियत देते हैं।” (भारतीयता की ओर, पेज नं 273) पवन वर्मा का मानना है कि इन सबके वाबजूद अगर हमें उनलोगों की ओर से कोई सम्मान मिलता है, तो वह भी कहीं न कहीं उनकी नीयत, उनकी मंशा और उनकी ही समझ का विस्तार होता है। संभवतः वो इसलिए भूमंडलीकरण को हम जैसे प्रगतिशील देशों के लिए कोई नया अवसर न मानकर उपनिवेशवाद और सामंतवाद का ही नया और बारीक रूप मानते हैं। मीडिया और तकनीक को आधार लेकर इलिहू कर्टज ने ये सारी बातें आज से आठ साल पहले ही कही थी और मोटे तौर पर उदाहरण दिया कि शेर और चूहे की बीच भला बराबरी के मौके कहां पनप सकते हैं? पवन वर्मा इस आलोक में जो तर्क और संदर्भ देते हैं वो बहुत ही विश्वसनीय लगते हैं और पढ़नेवालों के बीच संभव है एक जमीनी हकीकत से गुजरने का एहसास हो। उन्होंने लिखा है – “यह मान लेना महज भोलापन होगा कि भूमंडलीकरण सभी को समान लाभ का अवसर देता है या उंच-नीच के तंत्र से मुक्त कराता है। अतीत व वर्तमान को इस तरह से दो भिन्न हिस्सों में नहीं बांटा जा सकता है। जो पहले शासक रह चुके हैं, वो रातोंरात अपना चरित्र नहीं बदल सकते और न ही वे, जिन्होंने गुलामी को सहा है। राजनीतिक आजादी तो आत्मोद्धार का केवल एक हिस्सा है। राजनीतिक समानता का दावा करना आसान है, आर्थिक विषमता का भी आकलन कर उसके लिए लड़ा जा सकता है, लेकिन सांस्कृतिक असमानता बड़े सूक्ष्म ढंग से काम करती है और उसे चुनौती भी नहीं दी जा सकती है।” (वही, पेज नं 247) पवन वर्मा के इन तर्कों को संभव है, सैद्धांतिक तौर पर और भी मजूबती मिले क्योंकि वैश्विक स्तर पर नव्यमार्क्सवादी लेखकों का एक बड़ा वर्ग है जो उनकी इस तरह की मान्यता को मजबूत आधार देते हैं। फीदेल कास्त्रो ने तो सांस्कृति संप्रभुता की पूरी बहस की छेड़ दी है।
लेकिन इन सबके वाबजूद पवन वर्मा अगर सचमुच में भारतीयता की बहस के बीच उसकी संस्कृति की चर्चा को एक रिसर्च की शक्ल तक ले जाने की इच्छा रखते हैं तो उन्हें भारतीय और पाश्चात्य के बीच सपाट रेखा खींचने के बजाय उनके छोटे-छोटे कॉनटेशंस को भी गंभीरता से बहस के दायरे में लाना चाहिए था। इस बहस से भला कौन अनजान है कि हम चाहे जितने भी ग्लोबल सीनेरियो की बात कर लें लेकिन हम चंद देशों के दबदबे से अपने को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। ये बहस जितनी बड़ी है, उसमें पेंच भी उतने ही कम हैं और अंत में निष्कर्ष तक आने में सहूलियत होती है। लेकिन जैसे ही हम छोटे और बारीक संदर्भों को शामिल करते हैं, अभी पवन वर्मा और आगे ऐसे ही तर्क लड़खड़ाने लग जाते हैं। उन्होंने संस्कृति की इस पूरी बहस मैं कैपिटल सी “C” को ध्यान में रखकर अपनी बात की है, जिसे की बौद्रिआं बहुत ही बारीकी तौर पर विश्लेषित करते हैं। मौजूदा संस्कृति की जो बहसें हैं, उनमें इन छोटे-छोटे कान्टेशंस को शामिल किया जाना न केवल अनिवार्य है बल्कि इसके बिना आप आगे बात कर ही नहीं सकते। ये केवल विमर्श के फैशन के स्तर पर नहीं है बल्कि आलोचना की बारीकियों और उसके टूल्स पैदा करने के लिए भी अनिवार्य है। पवन वर्मा अपने इस पूरे विमर्श में इससे या तो स्ट्रैटिजकली अनजान नजर आते हैं या फिर इस हिस्स को पूरी तरह छोड़ने में ही अपने को बेहतर समझते हैं। नहीं तो वो जिस खान-पान, पोशाक और माध्यम की बात करते हैं, वहां वे इसकी पसंद-नापसंद के बजाय उपलब्धता और पर्चेजिंग पावर की बात करते। अंग्रेजी स्टाइल की शर्ट के बजाय खादी कुर्ते खरीदने की पर्चेजिंग पावर की बहस को शामिल करते। मॉल और मल्टीप्लेक्स के बरक्स 25 रुपये में पांच फिल्में देख लेने की बनती स्वतंत्र सीडी पर चर्चा करते लेकिन नहीं।
अगर वो ऐसा कर रहे होते तो मौजूदा संस्कृति के इसी रूप के बीच से अस्मिताविमर्श के पैदा होने की संभावनाओं और विस्तार को इस तरह से अनदेखा नहीं करते और ये लाइनें शायद ही लिखते – “उन्हें यह भी पता होगा कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और कुछ दुर्भाग्यपूर्ण व भयावह घटनाओं के बावजूद यहां के हिंदू अन्य धर्मानुयायियों के प्रति शत्रुतापूर्ण भावनाएं नहीं रखते हैं। हिंदू धर्म दूसरों का धर्मांतरण करानेवाला धर्म नहीं है। न ही कभी यह धर्मयुद्ध करता है। प्राचीनकाल में हिंदू राजाओं ने बौद्ध विहार और अपने मंदिरों दोनों को संरक्षण दिया…” (वही पेज 262) पवन वर्मा अपनी इस समझ को पुख्ता करने के लिए आगे हार्वर्ड के दो विद्वानों की रिपोर्ट शामिल करते हैं। पवन वर्मा अपने इस पूरे अध्याय में हमें वस्तु, सुविधा और संसाधन के स्तर पर पाश्चात्य देशों से मुक्त होने के साथ-साथ मानसिक स्तर पर भी मुक्त होने की बात करते हैं। यहां अगर वो हार्वर्ड के इन दोनों विद्वानों के रिसर्च को शामिल करने के साथ-साथ गुजरात दंगे को लेकर सरूप बेन की 300 कहानियों – कोई तो उम्मीद होगी, असगर अली इंजीनियर और 84 दंगे पर जरनैल सिंह की किताब – कब कटेगी चौरासी की कुछ लाइनों को भी शामिल कर पाते तो संभव है कि हार्वर्ड विद्वानों का रिसर्च हल्का पड़ जाता। लेकिन नहीं…
कुल मिलाकर इस किताब के इस एक अध्याय को पढ़ते हुए मैंने जो महसूस किया, वो ये कि ये किताब भारतीयता और भारतीय संस्कृति को एक ब्यूरोक्रेटिक नजरिये से डिफाइन करती है, जो कि नेशन स्टेट की परिभाषाओं के नजदीक है। भारतीय और पाश्चात्य जीवनशैली और वस्तुओं की फेहरिस्त में स्वदेशी जागरण मंच की समझ के करीब लगती है। पवन वर्मा ये बताने में पूरी तरह चूक जाते हैं कि भारतीय के बीच के जो झोल हैं, जो शोषण का स्तर है, इंडियन और देसी शब्दों के जोड़ने के बाद जो उसकी कीमतें तय की जाती हैं, उसके पीछे की क्या राजनीति है? इसलिए ये किताब एक नास्टैल्जिक भारतीय, प्रवासी हिंदू भारतीय की मानसिकता की समझ से लिखी गयी किताब है। इस किताब को किसी समाजशास्त्री या फिर संस्कृति व्याख्याकार की समझ की किताब मानने में हमें भारी मशक्कत करनी होगी। ये किताब इनक्रीडबल इंडिया पर भरोसा रखनेवाले लोगों के बीच बहुत पॉपुलर होगी वहीं अस्मिताविमर्श में लगे लोगों के इरादे को अपनी टाट कसने के लिए लाचार तरीके से ही सही ललकारेगी। हिंदी समाज ऐसी किताबों को पढ़ने के लिए अभ्यस्त रहा है, इसलिए बाकी किताबों की तरह ही ये एक श्रेष्ठ पुस्तक करार दी जाएगी।
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
मूलतः प्रकाशित- मोहल्लाlive
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_3754.html?showComment=1288024206748#c7620772680310535719'> 25 अक्तूबर 2010 को 10:00 pm बजे
आपके कुछ तर्कों से मैं सहमत नहीं हो पाया लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि आपने विद्वत्तापूर्ण लेख लिखा है.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/10/blog-post_3754.html?showComment=1342575264020#c7762712313861565438'> 18 जुलाई 2012 को 7:04 am बजे
अच्छा लिखा है बाबू!