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शुरुआती दौर में जब हिन्दी दुनिया के लोग ब्लॉगिंग कर रहे थे तब मामला शेयरिंग का, मन की बात करने का भले ही रहा होगा लेकिन बाद में ब्लॉगों के कलेवर को देखते हुए साफ होने लगा कि नहीं, ये सिर्फ ब्लॉगिंग करने नहीं आए हैं। ब्लॉगिंग तो उनके लिए गेटपास भर है। ब्लॉग को लेकर वो बहुत सीरियस हैं वो इसे सिर्फ माध्यम के तौर पर नहीं ले रहे, उनके लिए ये एक औजार है। बहुत पैसा कमाना न भी रहा तो पॉपुलरिटी, ठसक और लोगों के बीच अपना प्रभाव बनाना तो जरुर रहा है। लेकिन, माफ कीजिएगा कि शुरुआती दौर में हिन्दी समाज जितना ही संतोषी रहा है, बाद में उसकी कामना और जल्दी-जल्दी पाने की इच्छा इतनी तेज होती गई, उसकी रफ्तार इतनी बढ़ गई कि आज वो हर पोस्ट के पीछे एक ठोस मतलब ढूंढ़ता, फिरता है।
पहली कोशिश तो ये होती है कि पोस्ट का ढांचा कुछ ऐसा हो, भाषा कुछ ऐसी हो, लिखावट में कुछ ऐसी शिष्टता हो कि अखबार उसे ज्यों का त्यों उठाए और छाप दे। कुछ दिनों के बाद उसके नाम से चेक अपने-आप पहुंच जाए।
दूसरी स्थिति कुछ ऐसी बने कि जब भी कोई अखबार ब्लॉग पर कोई स्टोरी करे तो उसके विचार को शामिल करे और ऐसा तभी संभव है जबकि ब्लॉगर खालिस ब्लॉगर न होकर सेलिब्रिटी ब्लॉगर बन जाए। इसके लिए लोग जो कुछ भी कर रहे हैं उसे आप सब जानते हैं।
तीसरी और बाकी की स्थितियों पर बात करें इसके पहले दोनों स्थितियों पर विचार कर लें। जब भी कोई ब्लॉगर उपर की दोनों स्थितियों के हिसाब से पोस्टिंग करनी शुरु करता है वो ये भूल जाता है कि वो ब्लॉगिंग कर रहा है और उसके पाठक का मिजाज अखबार के मिजाज से अलग है और उसकी पोस्ट पिट जाती है।जबकि कभी-कभार वो अखबारों के लिए उम्दा कच्चे माल के तौर पर काम आती है। इन सब के बीच शायद ही कोई ब्लॉगर जो कि अखबारों में छपता है नहीं सोच पाता कि वो अखबार की शर्तों से किस तरह से बंधता चला जा रहा है। कोई अच्छा ब्लॉगर है इसका सीधा पैमाना मान लिया गया है कि अखबारों में उसकी तस्वीर छपती है कि नहीं, उसकी राय ली जाती है कि नहीं और कहीं किसी अखबार से लिखने की ऑफर मिली या नहीं। जिस ब्लॉग को असहमति का धारदार वैकल्पिक माध्यम होना चाहिए था, आज वो भी मुख्यधारा की मीडिया में शामिल हो गया औऱ इसे वो उपलब्धि मान रहा है। अविनाश भाई के साथ जो कुछ भी हुआ वो इसी मानसिकता का नतीजा है।
हिन्दी ब्लॉगिंग करते हुए किसी ने इतनी ताकत पैदा की ही नहीं कि वो अखबार और मुख्यधारा की मीडिया की शर्तों पर लिखने के बजाए सारे ब्लॉगर खुद मिलकर ब्लॉग के उपर एक पत्रिका निकालें और उसे मुख्यधारा की मीडिया के सामने लाकर खड़ी कर दें।
ब्लॉग को लोगों ने बहुत सतही तौर पर लिया और अगर नहीं भी लिया तो अपने कारनामों से सतही तौर पर कर दिया।ब्लॉगिंग करते हुए जिसे उसने उपलब्धि मान लिया दरअसल वो एक पराधीन मानसिकता का नूतन संस्करण है जहां आप ऑफिस के बॉस का उपहास करते हुए भी, सिस्टम को गरिआते हुए भी परोक्ष रुप से उसे स्वीकार कर लेते हैं। सही बात तो ये है कि आज हमारे बीच ऐसा कोई ऐसा स्पेस नहीं बचा है जहां अपने मन की बात लिख सकें।
ब्लॉग की दुनिया में इसकी बड़ी गुंजाइश थी और एक स्तर पर अभी भी है लेकिन लोग इसे आगे बढ़ने के पहले ही इतने प्रोफेसनली लेने लग गए कि ब्लॉग ने अपनी चमक, प्रकृति और साहस ही खो दिया। लोग इसे बेबसाइट बनाने में लग गए। एक पोस्ट के पीछे दुनिया भर के लिक्स देने लग गए। आपको देखते ही समझ में आ जाएगा कि लगता है ये बहुत जल्द ही मेनस्ट्रीम की मीडिया में इमर्ज कर जाएंगे। इसलिए जब आपको मेनस्ट्रीम की मीडिया में इतनी इमर्ज हो जाने की छटपटाहट है तो फिर ब्लॉगिंग की शर्तें नहीं बल्कि मेनस्ट्रीम की शर्तें लागू होंगी।
कुछ ऐसे भी लोग ब्लॉगिंग कर रहे हैं जिनके लिए पोस्ट लिखने में और लेख लिखने में कोई खास फर्क नहीं है। माध्यम भर का फर्क है और कुछ भी नहीं। जो मटेरियल उनके पास है उसे देखते हुए साफ लगता है कि या तो इसकी खपत उनके ऑफिस में नहीं हुई या फिर पोर्टल बनाने की मानसिकता से हमारे सामने ठेल रहे हैं। जबकि एक बार गंभीरता से विचार करें तो ब्लॉग इससे कहीं आगे की चीज है। कोई भी बंदा जब कुछ भी लिख रहा होता है तो उसके पास उस विषय को लेकर किसी अखबार या चैनल से ज्यादा प्राइमरी सोर्सेज होते हैं। खबरें भी होती है तो उसमें मानवीय संवेदना के स्वर होते हैं। वो चैनलों से कहीं आगे की चीज है और ब्लॉग की दुनिया में इसका स्वागत होना चाहिए लेकिन प्रोफेशनल होने की मार के कारण चीन, तिब्बत औऱ इराक पहले याद आ जाते हैं और गली में देर से हुए फैसले के काऱण पागल हुई औरत बाद में या फिर याद आती ही नहीं है।
मुझे कोई अधिकार नहीं है किसी की पोस्ट पर कमेंट्स के अलावे कोई व्यक्तिगत राय मढ़ने की, पर, ब्‍लॉगलिखी अब जनसत्ता में नहीं आएगी जैसी पोस्ट पढ़ने को मिलती है तो बात समझ में आ जाती है मेनस्ट्रीम की मीडिया के साथ ब्लॉगर के गलबइंया करने से ब्लॉग झंझट, किचकिच और कलह का माध्यम बनकर रह जाता है। कितना कुछ किया जा सकता है ब्लॉग के जरिए लेकिन नहीं, आए दिन अदालती फैसले सुनाने, एक-दूसरे के खिलाफ फरमान जारी करने और विरोध में कारवाइयां करने के अलावे कुछ मतलब का नहीं हो पाता। मतलब का ये भी हो सकता है जब इससे बौद्धिक क्षमता का विकास हो। लेकिन यहां तो आलम ये है कि सामने वाले को पाखंडी, इगोइस्ट और मक्कार साबित करके ही दम लेना है।
अविनाश भाई के मामले में जनसत्ता ने जो फैसला लिया है, उसके बारे में कुछ न ही कहना बेहतर होगा क्योंकि एक बार बोलकर देख चुका हूं। अब बार-बार यूनिवर्सिटी में जाकर अपने बारे में सफाई देने की हिम्मत मुझमें नहीं है। थानवीजी ने अविनाश भाई के संदर्भ में जो कुछ भी तर्क दिया है वो उनकी जगह पर सौ फीसदी सही ही होगा कि-
रविवारी संस्‍करण के प्रभारी संपादक ने जो एक पैरा संपादन करते वक्‍त निकाल दिया, उसे आपने अपने ब्‍लॉग “मोहल्‍ला” में “मजाक” करार दिया है और “कड़ी आपत्ति” दर्ज की है (स्त्रियां जो ब्‍लॉग लिख रही हैं)
मैं तो इस बात पर खुश हो ले रहा हूं कि अविनाश भाई ने जो संपादकीय कारनामें को मजाक करार दिया इसके बहाने काफी हद तक मठाधीशी का भी मजाक उड़ाया जान पड़ता है, अविनाश भाई इसे कहें या न कहें और संभवत जनसत्ता के तिलमिलाने और फरमान जारी करने की बड़ी वजह यही हो।
इस मामले में ब्लॉग ने अखबार की औकात बता दी है। जो मामला ब्लॉग के न रहने पर दरद न जाने कोई सा रहता उसे अविनाश भाई ने जनसत्ता के प्रति असहमति जाहिर करके ब्लॉग के जरिए सार्वजनिक कर दिया। इस पूरे प्रकरण में ब्लॉग का सही अर्थ स्थापित हुआ है और एक ब्लॉगर की हैसियत से हमारे लिए गर्व की बात है। मेनस्ट्रीम की मीडिया से ब्लॉग को ज्यादा असरदार, धारदार, बेबाक और स्वाभिमान का माध्यम साबित करने के लिए अविनाश भाई को एक कॉलम गंवानी पड़ी तो भी कोई बात नहीं। ब्लॉग के इतिहास के लिए ये स्वाधीनता दिवस है। कॉलम तो फिर भी मिलते रहेंगे, यहां नहीं तो कहीं और सही।
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6 Response to 'ब्‍लॉगलिखी के बहाने ब्लॉग विमर्श'
  1. Arun Arora
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_16.html?showComment=1208348820000#c5328053166409152896'> 16 अप्रैल 2008 को 5:57 pm बजे

    जब आप अपने ब्लोग पर दूसरो के लेख एडिट करते है तो यह संपादन नही हुआ क्या ? और अगर अगले ने संपादन कर दिया तो मजाक हो गई ? क्या तेवर है झी वैसे भी आप लिखते क्या है सिर्फ़ आग लगाऊ मैटर वो भी आरफ़ा मंडल से उधार लेकर ;)

     

  2. झालकवि 'वियोगी'
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_16.html?showComment=1208350800000#c6118414346864439434'> 16 अप्रैल 2008 को 6:30 pm बजे

    "ब्लॉग के इतिहास के लिए ये स्वाधीनता दिवस है।"

    मुबारक हो जी. स्वतन्त्रता दिवस की ढेर सारी बधाई.

     

  3. गुस्ताखी माफ
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_16.html?showComment=1208350860000#c5813835809712772823'> 16 अप्रैल 2008 को 6:31 pm बजे

    प्रिन्ट मीडिया तो बस थोड़े दिन का मेहमान है. सारी चमक केवल पांच सालों तक और है.

    आप भी देखियेगा और हम भी देखेंगे.

     

  4. निशान्त
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_16.html?showComment=1208380260000#c693591548288302406'> 17 अप्रैल 2008 को 2:41 am बजे

    सही कहा विनीत आपने. ब्लॉग को अभी भी डायरी के स्वरूप से ने मिडिया के रूप स्थापित करने में वक्त लगेगा. दूसरा की ब्लोग्गेर्स यह भूल जाते हैं वह केवल अपना उद्गार व्यक्त कर रहे हैं या एक दिशा में चलने के लिए टायर हैं. वैसे, एक बिना मांगे की राय है - ब्लोग्लिखी में जगह खली है... ट्राइ मारिये...!

     

  5. Anshu Mali Rastogi
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_16.html?showComment=1208435220000#c262196392330895714'> 17 अप्रैल 2008 को 5:57 pm बजे

    विनीतजी, आपसे सहमति बनती है। अविनाश और जनसत्ता का मामला कोई नया नहीं है। लेखक-संपादक के बीच कांट-झांट को लेकर प्राय: तना-तनी हो ही जाया करती है। निश्चित ही ब्लॉग बतकही का बेहतर माध्यम बन सकता है-जोकि अभी नहीं बन सका है- मगर यहां आए दिन होने वाले बेतुके झगड़े-टंटों से सारा संवाद गालियों की भेंट चढ़ जाता है। यानी जो अखबारों में हो रहा है वो यहां पर भी होने लगे तो ऐसी आजादी का मतलब ही क्या रह जाता है।

     

  6. अनूप शुक्ल
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_16.html?showComment=1249282319783#c4133277260024124632'> 3 अगस्त 2009 को 12:21 pm बजे

    जब आपको मेनस्ट्रीम की मीडिया में इतनी इमर्ज हो जाने की छटपटाहट है तो फिर ब्लॉगिंग की शर्तें नहीं बल्कि मेनस्ट्रीम की शर्तें लागू होंगी।आज इसे पढ़ा और अच्छा लगा।

     

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