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मीडिया पर जुल्म मत कीजिए

Posted On 1:26 am by विनीत कुमार |

हिन्दीवालों के बीच आजकल तेजी से फैशन चल निकला है-मीडिया और सिनेमा के उपर रिसर्च करने का। डीयू में ये फैशन तेजी से पॉपुलर हो रहा है इसकी वजह तो समझ में आती है लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में जहां का हिन्दी समाज मीडिया को जमकर गरियाता है वो भी इन दिनों मीडिया पर रिसर्च करने की कसरतें करने में जुटा है। डीयू की वजह मुझे तात्कालिक या अवसरवादी लगती है जबकि बाकी जगहों पर ये मुझे मानसिकता का सवाल लगता है।
परसों की ही बात लीजिए न। देश के बाढ़ प्रभावित इलाके से एक भायजी आए। हिन्दी से पीएचडी कर रहे हैं और मीडिया पर अलग से कोर्स। कोर्स के मुताबिक उन्हें किसी एक विषय पर लघु शोध-प्रबंध लिखना है। उन्होंने विषय लिया है- टेलीविजन का टीनएजर्स पर प्रभाव।....और मदद के नाम पर उन्हें मुझसे कुछ किताबों की सूची,काम करने के तरीकों और ऐसे ही मिलते-जुलते विषय पर कुछ मेरा लिखा-पढ़ा है तो वो सबकुछ चाहिए थे।
मैंने कहा- सेल्फ में देख लीजिए जो किताबें आपको काम की लगे उसकी आप फोटो कॉपी करा लें। पच्चीस मिनट तक जो मैं बता सकता था, बता दिया कि कैसे आपको काम करना है और जहां तक मेरे लिखे-पढ़े मटेरियल का सवाल है, ये लीजिए टेलीविजन के विज्ञापनों पर किया गया मेरा काम, जिसमें हमनें महिलाओं और बच्चों पर इसके प्रभाव को दिखाया है।
इस बातचीत के क्रम में उनसे जो फीडबैक मिली वो मैं आपके सामने रख रहा हूं।
अंग्रेजी किताबों के नाम पर उन्होंने कहा कि इसे आप छोड़ ही दीजिए, हिन्दी में हो तो कुछ बताइए।
अंग्रेजी आती नहीं लेकिन इसे सीखने के लिए प्रतिबद्ध हूं।
दूसरी बात, जब मैंने उनसे पूछा कि आप टेलीविजन के प्रोग्राम्स तो रिकार्ड कर रहे होंगे न, ताकि आप उसकी स्क्रिप्ट, प्रस्तुति, अंदाज, प्रोडक्शन, लेआउट आदि मसलों पर बात कर सकेंगे। उनका जबाब था कि इस हिसाब से तो अभी तक हमने सोचा ही नहीं है। मैंने कहा, ऐसा कीजिए आप दस दिन तक कम से कम प्राइम टाइम में रोज टीवी देखिए, प्रोग्रामों की स्क्रिप्ट नोट कीजिए, रोज फुटनोट बनाइए। उनका कहना था, टीवी कभी-कभार देखना होता है।
तीसरी बात, जब मैंने कहा, सारी किताबें तो आपको मिलेगी भी नहीं। ऐसा कीजिएगा, आप इंटरनेट से कुछ मटेरियल डाउनलोड कर लीजिएगा या फिर आप अपना इमेल आइडी दे दें, मैं ही खोजकर कामलायक चीजें भेज दूंगा। उनका जबाब था, जी मैं नेट पर कभी बैठा ही नहीं।
मैं नहीं कहता कि उनके जैसे देश भर में हिन्दी से एमए करनवालों को मीडिया पर रिसर्च करने का अधिकार नहीं है या फिर उन्हें इस पर रिसर्च करनी ही नहीं चाहिए। मेरा शुरु से जोर इस बात पर रहा है कि जब भी आप मीडिया पर रिसर्च कर रहे हों, आप उसकी प्रकृति और उसकी अनिवार्यताओं को ध्यान में ऱखकर रिसर्च करें, साहित्य के भोथरे औजार और साहित्य की दुनिया में हिट हो गए विद्वानों के विचारों को मीडिया में जबरदस्ती थोपने की कोशिश न करें। इसे जबरदस्ती साहित्य का ही अंग न मान लें। क्योंकि एक तो आपके मानने से ऐसा होगा नहीं, दूसरा साहित्य का रिसर्च मीडिया रिसर्च नहीं है, उल्टे आपकी थीसिस, रिसर्च पेपर ठीकठाक मीडियाकर्मी के हाथ लग गई तो जरुर कहेगा- मीडिया पर जुल्म मत कीजिए, रहने दीजिए उसे बिना रिसर्च के ही। आपके इस रिसर्च से हमें कोई दिशा नहीं मिलेगी, आपकी तरह दूसरे हिन्दीवालों पर भी गुस्सा आएगा और एक हद के बाद घृणा भी। तब तो और भी जब आप रिसर्च के पहले ही मान बैठे हैं-टीवी समाज को भ्रष्ट कर रहा है, बच्चे इससे बर्बाद हो रहे हैं,ऐसे में आप लेख लिखिए, मीडिया पर रिसर्च मत कीजिए।
आगे पढ़िए- यही हाल है देश के बाकी हिन्दी वालों का और
मीडिया रिसर्च कुंठा से बचने जैसा कुछ है
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4 Response to 'मीडिया पर जुल्म मत कीजिए'
  1. Rakesh Kumar Singh
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_08.html?showComment=1207640160000#c2503465772728772512'> 8 अप्रैल 2008 को 1:06 pm बजे

    बढिया लिखा बंधु. भइया आप जो कर रहे हैं उस हिसाब से तो डी यू वाले सैकड़ो रिसर्च पर सवाल खड़े हो जाएंगे.

     

  2. Ashish Maharishi
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_08.html?showComment=1207640940000#c6978917383587523612'> 8 अप्रैल 2008 को 1:19 pm बजे

    विनीत बाबू कितनी लोगे हिंदी वालों की, आपको उनकी मदद करनी चाहिए

     

  3. bhuvnesh sharma
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_08.html?showComment=1207660380000#c5510597880655244584'> 8 अप्रैल 2008 को 6:43 pm बजे

    हा हा...कल आप इन्‍हीं महाशय की बात कर रहे थे.

    सही है मीडिया को समझना है तो खुद को अद्यतन रखना होगा और तकनीक से दोस्‍ती करनी होगी.
    वैसे ये बात भी ठीक है कि पहले से नकारात्‍मक छवि बनाकर आप किसी विषय पर शोध करें तो ये उसका मजाक उड़ाना ही है.

     

  4. Mihir Pandya
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/04/blog-post_08.html?showComment=1207668960000#c7903438689429654889'> 8 अप्रैल 2008 को 9:06 pm बजे

    असल में एक फांक है या बन गई है मीडिया और उसके ऊपर होने वाली रिसर्च में. जो मीडिया में कार्यरत हैं वे शायद उसपर आलोचनात्मक नज़रिये के साथ काम नहीं कर सकते और अध्यनरत विद्यार्थी अब भी मीडिया के 'फर्स्ट हैण्ड' अनुभव से बाहर हैं. और ऐसे में आपका दोहरा अनुभव काम आता है..!

     

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