इंडियन ऑथिरिटी अभी तक जिन कलंकों को मानने से इन्कार करती आयी है, ये उससे भी बड़ा कलंक है। मुझे नेताओं से ज्यादा गुस्सा उन पत्रकारों पर आया। द टाइम्स ऑफ इंडिया भारत का सबसे बड़ा अखबार है और उसने जीविका के लिए भोपाल से दिल्ली आए लोगों के बार में एक शब्द नहीं लिखा.
( The fact that the Times of India, which is the biggest paper here, never said a word about the bhopal survivors coming to delhi...I find it more of scandal than the indian authorities who refused to receive them. i'm much angier at them than at the poiticians.
DOMINIQUE LAPIERRE, interview with Raghu Karanad, tehelka. vol 5 issue 20,page no-45, 24 MAY 08)
25 वर्षों से भोपाल और देश के दूसरे हिस्सों में लगातार काम करनेवाले, सिटी ऑफ ज्वॉय, फ्रीडम एट मिडनाइट और फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल के लेखक डॉमिनिक लैपीअरे ने देश के एक बड़े अखबार के रवैये पर टिप्पणी करके भारत में काम कर रही मीडिया के सच को हमारे सामने लाकर रख दिया.
लैपीयरे को इस साल पद्म भूषण से नवाजा गया है। वो पिछले पच्चीस साल से भोपाल, बंगाल और देश के दूसरे हिस्सों में लगातार सेवा का काम करते आ रहे हैं। हिन्दुस्तान की स्थिति और यहां की संभावनाओं पर किताब लिखते रहे हैं। हममें से सब ए सिटी ऑफ ज्वॉय के कायल रहे हैं। अपनी अभिव्यक्ति और काम के मामले में वो उतने ही भारतीय हैं जितने कि आप और हम। इसलिए अगर उनकी बात को एक भारतीय की भी बात के रुप में शामिल करके समझें तो मुझे नहीं लगता कि कोई परेशानी है।
लैपीअरे ने भोपाल गैस कांड के बाद अपनी जीविका के लिए भोपाल से पलायन कर दिल्ली आकर रोजी-रोजगार खोजनेवालों के बारे में बात करते हैं। उनकी परेशानियों को समझने की कोशिश करते हैं और इसी बीच उन्हें एक बड़ी सच्चाई हाथ लगती है कि द टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे अखबार ने इन लोगों की परेशानियों के बारे में एक शब्द भी नहीं लिखा। आप इसे क्या कहेंगे। कोई चूक, नजरअंदाज कर जाना, अखबार में स्पेस की कमी होना या फिर ऐसी खबरों का कोई खास मतलब नहीं होना। या फिर कुछ और....
लेकिन लैपीअरे के हिसाब से ये कलंक है। उन कलकों से भी बड़ा कलंक जिसे कि सरकार या प्रशासन तंत्र पचाने की कोशिश करती है, दबाती है, मानने से इन्कार करती है या फिर जांच के नाम पर कालीन के नीचे दबा देती है...और जब पत्रकार भी कुछ इसी तरह की कोशिशें करते हैं तो लैपीअरे को नेताओं से ज्यादा गुस्सा पत्रकारों पर आता है।
नेताओं पर गुस्सा आना एक इस्ट्रीम पोजिशन है। उससे ज्यादा गुस्सा आपको किसी पर भी नहीं आ सकता. क्योंकि हमारे सामने उनकी छवि ऐसी है कि हम मानकर चलते हैं कि उनसे ज्यादा कोई भ्रष्ट नहीं है लेकिन लैपीअरे को उससे भी ज्यादा गुस्सा आता है इन पत्रकारों पर जो कि मुद्दों को दबाने का काम करते हैं। आप इन पत्रकारों को क्या कहेंगे.......?
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_19.html?showComment=1211196540000#c3580188688056060063'> 19 मई 2008 को 4:59 pm बजे
scandal की सही हिन्दी है कलंक। पहले मैंने घोटाला कर दिया था। माफ करेंगे और सुधार कर पढ़ लेगें। वैसे भाव में कोई खास फर्क नहीं पड़ता।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_19.html?showComment=1211198340000#c8040292590554263604'> 19 मई 2008 को 5:29 pm बजे
विनीत जी, मुझे आज तक समझ नहीं आया कि यह समाचार पत्र अपने मुखपृष्ठ पर बांए हाथ पर लगभग सबसे ऊपर रोज़ किसी विदेशी अभिनेत्री या मॉडेल की फोटो क्यों छापता है। यदि कोई मुझे इसका रहस्य बता सके तो आभारी रहूँगी। शायद भोपाल के लोग इतने ग्लैमरस नहीं दिखते या फिर शायद उनके दुखों को पढ़ पढ़ कर लोग ऊब गए हैं।
घुघूती बासूती
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_19.html?showComment=1211199780000#c3581018897947963135'> 19 मई 2008 को 5:53 pm बजे
सिर्फ़ द टाइम्स ऑफ इंडिया को कोसने से क्या होगा?
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_19.html?showComment=1211210700000#c4362336948458396372'> 19 मई 2008 को 8:55 pm बजे
बड़ी चूक लेकिन कई उपेक्षावो के बावजूद टाइम्स ऑफ इंडिया अच्छा काम करता है. बाकी संस्करण के बारे में तो नही कह सकता लेकिन दिल्ली का इसका पहला पन्ना ख़ास होता है. जेसिका लाल हत्याकांड में कोर्ट ने जब सभी आरोपियों को बरी कर दिया था तो अखबार बैनर हेडिंग २० फॉण्ट साइज़ के साथ लिखता है नो वन हैस किल्ड जेसिका. No One Has Killed Jesica.