मथुरा में छः साल की बच्ची को आग में झोंक देने की घटना पर देशभर के चैनलों ने
स्क्रिप्ट लिखे। किसी ने कृष्णनगरी में राक्षस तो किसी ने दरिंदा शब्द का
प्रयोग किया। मेरे दोस्त ने भी स्क्रिप्ट लिखी। लेकिन उसकी स्क्रिप्ट को लेकर
मामला थोड़ा फंस गया।
मीडिया में इस खबर को लेकर जो कॉमन रही जिसे कि सारे चैनलों और अखबारों ने फालो
किया वो ये कि बच्ची के आगे दलित जोड़ना जरुरी है। सच पूछिए तो खबर बिकने के
लिए यही एक शब्द जरुरी था।इसके बिना खबर का कोई सौन्दर्य ही नहीं बनता। दोस्त
भी इस शब्द को छोड़ना नहीं चाहता था, न छोड़ना उसकी मजबूरी भी रही होगी। लेकिन
साथ में उसने जो किया वो ज्यादा रोचक है। उसने लिखा-
छः साल की बच्ची को सवर्णों ने आग में झोंक दिया। ये स्क्रिप्ट आगे गयी और बॉस
ने उसे काटकर दबंग कर दिया।
दोस्त का बहुत ही साफ तर्क है कि जब आप एक तरफ जातिगत शब्द का प्रयोग कर रहे
हैं तो दूसरी तरफ भी उसी के मुताबिक शब्द का प्रयोग करना होगा। यानि दलित के
साथ सवर्ण। ये दबंग शब्द का तो कोई तुक ही नहीं बनता। लेकिन बॉस का कहना था कि
नहीं, सवर्ण कैसे लिखोगे, दबंग ही ठीक है।
इससे आप क्या अर्थ निकालते हैं। एक बात तो साफ है कि इस घिनौनी हरकत के साथ
सवर्ण शब्द जोड़ दिए जाएं ये बात ठीक नहीं है। हो सकता है इससे देशभर के सवर्ण
भड़क जाएं और दिखाए जानेवाले चैनल में आकर तोड़-फोड़ मचा दें।
लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि इससे खबर को बताते हुए भी एक खास तरह की सावधानी
या फिर मानसिकता को बनाने की कोशिश की गयी। इस बात को मान भी लिया जाए कि हिंसा
न भड़के इसलिए सवर्ण शब्द न लिखकर दबंग का प्रयोग किया गया। लेकिन,
दूसरी तरफ दलित लिखकर क्या साबित करना चाह रहे हैं। यही न कि चैनल दलितों को
लेकर बहुत ही सहानुभूति रखता है। वो भी वहां जहां की सरकार दलितों के हित में
हमेशा तैयार खड़ी है। ये तो आप सोचते हैं। हो सकता है इसका सामाजिक प्रभाव कुछ
और बनता हो।
इधर आप देखिए कि दलित-विमर्श के नाम पर दलितों की स्थिति मजबूत करने के बजाए
दलित नेतृत्व उन सारे प्रसंगों को खोज लाने में अपनी ताकत झोंकती नजर आती है
जहां सवर्णों ने उनका शोषण किया, उनका अपमान किया। इन्हीं संदर्भों को
खोजते-खोजते वो प्रेमचंद की रचना रंगभूमि और गोदान तक चले जाते हैं और एक हद तक
प्रेमचंद जैसे प्रगतिशील रचनाकार भी दलितविरोधी लगने लग जाते हैं। ऐसा करने से
दलितों का कितना भला होता है इसके आंकड़े हो सकता है उन नेताओं के पास हो।
लेकिन सवर्ण के प्रति दलित आक्रोश का ग्राफ जरुर बहुत उपर चला जाता है जो कि
दलितों के हित में कम और नेताओं के हित में ज्यादा है। इस ग्राफ के भीतर वो
विकास काम के प्रति अपने निकम्मेपन को छिपा ले जाते हैं। इस अर्थ में ये पूरी
कारवाई हिन्दूवादी रुझान की राजनीति करनेवालों से किसी भी मामले में अलग नहीं
है। जो एक तरफ अपनी गौरव गाथा बताने के साथ ही ये भी बता देते हैं कि आज हमारी
दुर्दशा किसने की है।...और बंदा अपनी स्थिति सुधारने के बजाए प्रतिशोध में कूद
पड़ता है और सारा मामला विकास बनाम प्रतिशोध बनकर रह जाता है।
इसलिए दलितों के प्रति सहानुभूति जताने का जो रवैया चल निकला है जिसमें कि
मीडिया भी शामिल है। आनेवाले समय में वो भी इस बात का संदर्भ बने कि इसने देश
में जातिवाद की जड़ को मजबूती दी है। क्योंकि सहानुभूति का छद्म आगे जाकर जरुर
चरमराएगा और दलित इस बात को समझने लगेंगे कि जहां-जहां दबंग शब्दों का मीडिया
ने प्रयोग किया है, दरअसल वहां सब के सब सवर्ण ही रहे हैं। इसलिए मीडिया को अभी
भले ही लग रहा हो कि शब्दों के कुछ उलटफेर से दलितों के प्रति सहानुभूति और
सवर्णों का बीच-बचाव एक साथ कर ले रही है लेकिन बहुत जल्द ही शब्दों की ये
कलाबाजी दलितों की समझ के भीतर होगी। हर दलित शोषण और अत्याचार से जुड़ी खबरों
को बाकी चीजों को छोड़कर अंधाधुन केवल दलित बोलकर चलाने और दूसरी तरफ सवर्ण की
जगह दबंग जोड़ने के पहले सोचना होगा। नहीं तो... अभी तो बाजारवाद, पूंजी और
अश्लीलता में लिपटी मीडिया को कोस ही रही है लेकिन कल को इस पर जातिवाद को
मजबूत करने का आरोप भी लग जाए, जातिगत आधार पर खबर प्रसारित करने का आरोप लग
जाए तो वो भी बेबुनियादी नहीं होंगे।
यही बात आज की जनसत्ता के संपादकीय उत्पीड़न के हाथ पर भी लागू होती है।
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http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_02.html?showComment=1209725940000#c819927978354372083'> 2 मई 2008 को 4:29 pm बजे
आपने बिल्कुल खरी बात कह दी. इधर मै कुछ दिनो से हिन्दी ब्लोग पढना शुरु किया हु. आपको बता दु कि जातिवाद का खुल्लम खुला ड्रामा आज तक मैने नही देखा था. मैने कुछ लोगो से पुछा कि भाइ ये लोग कौन है जो जातिवाद के नाम पर एक दुसरे पर किच्चड उछाल रहे है. लोगो ने बताया कि अधिकतर लोग पत्रकार है. मुझे विश्वाश नही हुआ. आपने बिल्कुल सहि कहा है. एक क्रिमिनल का जाति नही होता. आपसी रन्जिस को भी जाति की लडाइ करार दी जाती है. कुछ पत्रकारो को मैने देखा कि अगर ऊनको दलित सवर्ण से जुडा कोइ मुद्दा मिल गया तो मानो लौटरी निकल गयी.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_02.html?showComment=1209729540000#c2961597458230281402'> 2 मई 2008 को 5:29 pm बजे
सर्वेश जी अगर आप मोहल्ला या रवीश को पढेगे तो पायेगे की इन्हे जाती शब्द के अलावा कुछ नही दिखाइ देता ,या तो ये अल्पसंख्यको की बात करेगे या दलितो की और दोनो मे जम कर अगडो को गरियायेगे. उन्हे राक्षस नर भक्षी दिखाने मे लग जायेगा, और ये सब पत्रकार ही है, इन्हे तो जानवरो के दूध मे भी जातिया ढूढने का शौक है,गाय अगडी जाती की भैस पिछडी जाती की ,क्या समझायेगे इनको हम और आप :)
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_02.html?showComment=1209730440000#c2401045788204706808'> 2 मई 2008 को 5:44 pm बजे
सही कहा आपने. न जाने कब तक ये प्रतिशोध की ज्वाला भड़काकर उसमें विकास की तिलांजलि दी जाती रहेगी.
मीडिया तो अभी अपने शैशवकाल में है. ऐसी बचकानी हरकतें बच्चे ही करते हैं.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_02.html?showComment=1209730740000#c3970886030431402378'> 2 मई 2008 को 5:49 pm बजे
वाह! वाह! वाह!
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_02.html?showComment=1209734640000#c5880593637593874907'> 2 मई 2008 को 6:54 pm बजे
भाई सर्वेश और सिंघई जैन साहब, बड़े भोले हैं आप या फिर पहुंचे हुए चतुर सुजान. विनीत की बात को आप क़ायदे से समझना ही नहीं चाहते, लिहाज़ा आपने अपने हिसाब से कुछ गढ भी लिया. इस इंसानफ़रोशी के लिए आपको बधाई. आपको तो शायद अपनी जाति भी पता नहीं होगी! रवीश और मोहल्ला आपको बड़े गलत लगते हैं. दरअसल आपने उन्हें भी अपने जैसा माना. आपकी महानता को लाख लाख सलाम! इमानदारी से समझना चाहें तो विनीत की बात ज़्यादा मुश्किल नहीं है. समझ सकते हैं. शर्त है इमानदारी.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_02.html?showComment=1209744840000#c8602062132571289336'> 2 मई 2008 को 9:44 pm बजे
बिल्कुल सही बात कही आपने।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_02.html?showComment=1209782640000#c4158056850238847501'> 3 मई 2008 को 8:14 am बजे
हम तो समझते थे कि मीडिया 'पुलिंग' है, आपने लिंग ही बदल दिया!
वैसे आपने यह लिखकर कि इस अर्थ में ये पूरी
कारवाई हिन्दूवादी रुझान की राजनीति करनेवालों से किसी भी मामले में अलग नहीं
है। जो एक तरफ अपनी गौरव गाथा बताने के साथ ही ये भी बता देते हैं कि आज हमारी
दुर्दशा किसने की है।...और बंदा अपनी स्थिति सुधारने के बजाए प्रतिशोध में कूद
पड़ता है और सारा मामला विकास बनाम प्रतिशोध बनकर रह जाता है।'- काफी बारीक प्रवृत्ति पकड़ी है.
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_02.html?showComment=1209787440000#c1553723482273268919'> 3 मई 2008 को 9:34 am बजे
सर्वेशजी आपने मेरी बात को अपनी तरफ से जोड़कर समझ लिया। मैंने कहां नहीं कहा कि क्रिमिनल की जाति नहीं होती. मैं तो शुरु से कर रहा हूं कि उनकी भी जाति होती है लेकिन मीडिया में उनकी खबर जाति के साथ नहीं आती जबकि पीडित की आती है।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/05/blog-post_02.html?showComment=1209830940000#c4914312359090427470'> 3 मई 2008 को 9:39 pm बजे
hmm...achcha lekh hai.aajkal jativaad ki aag par jis tarah rotiyaan seki jaati hain...kya leader, kya media. jaativaad sabka priya topic hai.