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पिछले बुक फेयर के मुकाबले इस बुक फेयर में अपने को लेकर फर्क साफ देख रहा हूं और ऐसा हमारे दूसरे ब्लॉगर कम हिन्दी के साथी भी जरुर देख रहे होगें। लोगों के बीच ये मैसेज जा रहा है कि हिन्दी के रिसर्चर मास्टरों का झोला ढोने और पीछे-पीढे चलने का काम छोड़ रहे हैं।और बड़ी शिद्दत से अपनी पहचान बनाने में लगे हैं।
कल ही की तो बात है। मिहिर, मेरे लिए दोस्त और मास्टरजी के लिए विनीत का जूनियर ( कई बार टोक चुका हूं, उसकी पहचान मेरा जूनियर होने से नहीं है मिहिर होने से है, खैर) ने फोन किया कि चार बजे एक पत्रिका का लोकार्पण है और आप आएं। और बताया कि वो इस पत्रिका का सह-संपादक है।
पत्रिका के लोकार्पण हो जाने के बाद औपचारिक बातचीत के दौरान एक-दूसरे से परिचय का दौर शुरु हुआ। मेरे दो-तीन दोस्तों को साहित्यिक हलकों में लोग मेरे से ज्यादा जानते हैं सो मेरा परिचय कराने की जिम्मेवारी उन्होंने अपने उपर ले ली। ये है विनीत, डीयू से पीएचडी कर रहा है...मीडिया में विशेष रुचि है....और भी कुछ-कुछ ब्ला॥ब्ला॥। कुछ स्थापित साहित्यकारों को मेरी जाति की भनक लग गई थी मीडिया बोलते ही, मेरा नक्शा मेरे पूर्वजों से मिलाते इससे पहले ही मैं कट जाना उचित समझा।
एक साथी ने कोहनी से मारते हुए कहा कि अरे बताओ न अपने बारे में ...ऐसे सोचोगे कि कोई तुमको बुलाकर छाप दे तो कैसे होगा। उधर अखबार में नहीं छपे तो हॉय-हॉ कर रहे थे और इधर बातचीत से मामला बनना है तो इन्टरेस्ट ही नहीं ले रहे हो।
खैर, मेरे दोस्तों के पास बताने के लिए बहुत था कि सर आपने पिछला ज्ञानोदय का अंक देखा, पहल में भी ठीक मामला बन गया है सर। मेरी एक दोस्त को तो अशोक वाजपेयी ने वाकायदा कोट( अंग्रेजी के हिसाब से पढ़ें) किया है और हरिद्वार से अजीतजी का एसएमएस आया था। ये हैं .......एम।फिल् कर रहे हैं डीयू से। अरुण कमल ने इसकी कविता की नोटिस ली है और संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल किया है। इनसे मिलिए आधुनिकता पर अच्छा काम किया है, इंगलिशवालों से भी बढ़िया। मैं क्या बताता, जो बताता उन्हें चूतियापा लगता। जब मास्टरजी चालीस साल से लिख रहे हैं तो इन्हें लग रहा है तो हमारी लिखी बात की क्या बिसात। सच कहूं तो हिन्दी समाज में अपने लिए ऑक्सीजन की कमी होने लगती है।
अब तक आलम ये था कि बाबाओं के बीच अपना परिचय कराने का सीधा फंड़ा था कि ये फलां है डीयू से एम।फिल् कर रहे हैं ये फलां जेएनयू से पीएच।डी कर रहे हैं। बहुत हुआ तो टॉपिक पूछकर बाबा लोग बख्स देते। लेकिन इन दो सालों में कुच्छ दोस्तों ने लिखना शुरु कर दिया और छपने के लिए जी-जीन से लगे हुए तो मेरे प्रति भी बाबाओं की एक्सपेक्टेशन बढ़ गई है। सीधे पूछ बैठते हैं, इधर आपने क्या लिखा है। मेरा मन करता है कहूं कि- अजी उधर कब लिखा था कि इधर लिखने लगूं। ले देकर दो लेख छपी है जिसके बारे में लोगों की राय है कि एक तो एम।फिल् का ही काम है और दूसरा सेटिंग से छप गई है। एम।फिल का काम अगर छप जाए तो वो आर्टिकल नहीं होता और सेटिंग से छप जाने पर कुछ भी पढ़ने लायक नहीं रहता। सो अब मैंने उसकी चर्चा ही करनी छोड़ दी है। लेकिन एक बाबजी ने जब खोदकर पूछा कि पीएच।डी में आ गए हो और अभी तक कुछ लिखा ही नहीं तो बताना पड़ा कि लिखा है सरजी। उनका जबाब था कि लेकिन कहीं देखा नहीं। मैंने कहा-सरजी जिस मैगजीन में छपी है उसकी कीमत ४०० रुपये है और सब स्टॉल वाले रखते नहीं। संपादक सरजी जहां-तहां रिव्यू के नाम पर फ्री में नहीं भेजते। एक सेमिनार करायी थी इस पर औऱ अपील की थी कि सब लोग आएं। लोग आएं और वहीं पर इसका मूल्यांकन हो गया। इसलिए आपको दिखा नहीं, वैसे वाणी के स्टॉल पर है।
एक दोस्त ने गरिआया कि स्साले लिखते भी वहां हो जिसे लोग आसानी से( आसानी माने फ्री या कम दाम में) लोग खरीद न सकें। भाई लोगों को गुरुर था कि उन्हें साहित्य के तोप लोग जानते हैं। पानी के प्राचीर वाले लेखक जानते हैं, मतवाले की चक्की वाले संपादक जानते हैं और महान घोषित करने वाले आलोचक जानते हैं। एक ने तो कहा कि चार साल से डीयू में रहकर क्या उखाड़ रहे हो जी। किसी से परिचय नहीं।
पहले दिन भी वही हुआ था। सबको सबलोग जान रहे हैं। भाई लोग लेख का आर्डर ले रहे हैं, संपादक से समझ रहे हैं कि इसमें किसकी लेनी हैं, किस आलोचक का खंभा खिसकाना है और किससे सागर वाली दुश्मनी निकालनी है और किसे फिर से कासिम दवाखाना भेजना है। मैं बोतू बना अंगूर टूंग रहा था। उनके साथ चल रहा था। मेरी चुप्पी से संपादकों को लग रहा था कि लड़का सीरियस है, सब सुन-समझ रहा है, सो और जोश में समझा रहे थे। उन्हें नहीं पता था कि यहां मसाले की स्टोरिंग चल रही है।
बढ़ते-बढ़ते एक स्टॉल से आवाज आई कि मोहल्ले वाली बहस पर तुम क्या सोचते हो दिलीप। मैं रुक गया और बोला- रिजेक्ट माल और तब क्या था एक ही साथ- मसीजीवी, कस्बा, भड़ास,लिंकित मन कई नाम बुक फेयर के हॉल में गूंज गए। मनीषा थी, दिलीपजी से मिलवाया, दिलीपजी ने इरफान भाई से और फिर ब्लॉगर का पूरा कुनबा। सब गले मिले और कहने लगे बहुत सही लिखते हो गुरु, जमे रहो। अपनी-अपनी पोस्ट को लेकर बातें। दिलीप भाई ने कहा ऐसे कैसे जाने देंगे,चला फिर फोटो सेशन। लोग सहला रहे थे, प्यार कर रहे थे और शुभकामनाएं दे रहे थे। पीछे पलटकर देखा तो नवोदित आलोचक साथी खड़े थे। एक ने गरिआया- तुम सब स्साले भोसड़ी के चलते-फिरते प्रकाशक बनते हो। नो डाउट इसमें जेलसी का भी भाव था।
आधे घंटे के भीतर कई लोग मिले जो मुझे अलग-अलग वजहों से नहीं अलग-अलग पोस्टों को लेकर जान रहे थे। मैं थोड़ा डरा भी कि ये पहचान एकेडमिक्स में काम तो नहीं आएगी। सिर्फ पोस्ट तो नहीं लिखता और भी तो पढ़ता-लिखता हूं। लेकिन फिर खुशी हुई कि जाने दो फलां का झोला ढोता है उससे तो लाख गुनी बढ़िया है ये पहचान। इधर कल कर्मेंन्दु शिशिरजी ने सब कुछ सुन लेने के बाद कहा कि ये तो मोहल्ला पर लिखता है। अपना भी कोई ब्लॉग है, लिंक दे दो।.....
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4 Response to 'ये तो मोहल्ला पर लिखता है, लिंक दे दो'
  1. Mohinder56
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/02/blog-post_07.html?showComment=1202377080000#c590680149516040063'> 7 फ़रवरी 2008 को 3:08 pm बजे

    विनीत जी,

    बहुत खूब लिखा आपने. स्थापित और स्थापित होने की दिशा के बीच जो खाई है वह आपने अपने शब्दों में दर्शा दी.. बधाई.

    वैसे अगर आप वाणी की स्टाल के सामने नजर डालते तो हिन्द युग्म की टीम भी आपका स्वागत करती...

     

  2. PD
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/02/blog-post_07.html?showComment=1202378340000#c5443293520767790355'> 7 फ़रवरी 2008 को 3:29 pm बजे

    मोहल्ला पर तो मैंने भी एक बार लिखा है.. कल ही.. इससे पहले ढेर सारे कमेंट जरूर लिखे थे.. पर मुझे तो कोई भी नहीं जानता.. बू हू हू.... :D

     

  3. Mihir Pandya
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/02/blog-post_07.html?showComment=1202406240000#c3857873295691965041'> 7 फ़रवरी 2008 को 11:14 pm बजे

    दोस्त विनीत! हाँ ये सही है कि हिन्दी वालों की पहचान बदल रही है. और बदलनी भी चाहिए. क्योंकि जितनी ज़रूरत समाज विज्ञानों को साहित्य की है उतनी ही साहित्य को समाजविज्ञान से जुडाव की भी है. अगर हम अपना दायरा बड़ा नहीं करेंगे तो अपना ही नुकसान करेंगे.

    मैं तो और आगे की बात सोचता हूँ. ब्लॉगर के रूप में भी हमें और बंधन तोड़ने चाहियें. केवल भाषा के ही नहीं (अर्थात हम अन्य भाषाओं के ब्लॉगर्स से भी बहस/बातचीत में उलझें.) बल्कि विषयों के भी (जैसे समाज विज्ञान की किसी बहस को छोड़ कभी किसी 'विज्ञान' की बहस में उलझें.) यह खुलापन ही रूढियों को तोड़ने की पहली सीढ़ी है.

     

  4. विनीत कुमार
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/02/blog-post_07.html?showComment=1202408580000#c4294536585639270327'> 7 फ़रवरी 2008 को 11:53 pm बजे

    mihir, mijaaz to mera bhi yahi banta hai lekin pahle hindi ke is khulepan ka sanket logo tak jaayae to sahi, abhi to is disha me hi kaafi homework karne hai wasise kramik vikaas ke saath hame bhi wahi tak jaana hai.

     

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