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बोलते-बोलते हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक विजयमोहन सिंहजी बोल गए कि- फेलोशिप किल्स दि टैलेंट। ये कोई नई बात नहीं है हिन्दी की दुनिया के लिए धन-दौलत माया है, ठगनी है। कोई बंदा हिन्दी में कालजयी होना चाहता है तो जरुरी है कि वो इन सबसे कोसों दूर रहे। लेखन के स्तर पर, असल जिंदगी में आपसे कौन हिसाब मांगने जा रहा है। लेकिन मुझे हैरानी विजयजी पर हुई कि जो विचार वो अब से चालीस-पचास साल पहले से देते आए हैं उसमें रत्ती-भर भी फेरबदल नहीं हुआ है।
मौका ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार समारोह का था। २ फरवरी की गुलाबी ठंड में हम सब कुछ घंटों के लिए नेशनल म्यूजियम का हिस्सा बन गए। साहित्य के बड़े-बड़े धुर्नधरों का जमावड़ा। बारह नए कहानीकारों को सम्मानित किया जा रहा था। सम्मान समारोह के बाद एक विषय भी रखा गया- युवा लेखन की चुनौतियां जिस पर कि प्रसिद्ध कथाकार और तद्भव के संपादक अखिलेश और वरिष्ठ आलोचक विजयमोहन सिंह ने अपने विचार दिए। कटेंट तो कुछ नया नहीं था और सुनकर ऐसा नहीं लगा कि पहली बार कुछ अलग सुना जा रहा है लेकिन आलोचकों के मुंह से साक्षात सुनने का अपना ही महत्व है, कुल मिलाकर मजा आया। लेकिन विजयमोहन सिंहजी ने जैसे ही कहा कि फैलोशिप किल्स द टैलेंट तो मेरे पूरे बदन में झुरझुरी सी आ गयी। एकदम से मुंह से निकला- क्या बात करते हैं। अफसोस भी हुआ कि काश ये आज के सन्दर्भ को समझकर कुछ कह जाते। अब कौन कंगाली के हालत में लिखना-पढ़ना चाहेगा। कुछ नहीं होगा तो कॉल सेंटर की नौकरी कर लेगा लेकिन घोर अभाव की स्थिति में रचनाकर्म आज कोई बिरले ही कर लें।
हमें असहज देखकर पीछे से कुछ सीनियर्स ने राय दी कि पूछो न जो पूछना चाहते हो। मेरे दिमाग में सवाल भी तैयार था कि- सरजी अगर फेलोशिप से किसी साहित्यकर्मी का हुलिया सुधर जाता है तो उससे आपको क्या परेशानी है, अगर वो एमबीए और कोई दूसरे प्रोफेशन की तरह जिंदगी गुजारता है तो इसमें क्या बुराई है। और बताइए कि क्या हिंदी में इतना सबकुछ हो जाने के बाद भी ऐसी स्थिति बनी है कि कोई बंदा सिर्फ लिखकर ठीकठाक जिंदगी जी ले। लोग तो बताते हैं रचना छप जाने के बाद भी माल हाथ आने में दो से तीन महीने लग जाते हैं और वो भी इतना कम होता है कि काम ही न बने। बल्कि खर्चें में अब मोबाइल बिल भी जोड़ना होगा न। और अब बाबा नागार्जुन वाला जमाना रहा नहीं कि आपके घर में झोला रख दिए और तीन-तीन दिन तक गायब। हिन्दी प्रेमी खिला-पिला रहे हैं। अब तो खिलाना तो दूर चाय के लिए लोग कुनमुनाने लगते हैं।
अच्छा इस अभाव के बीच भी अगर कोई लिख भी दे तो अपने ही आलोचक उसे साफ करार देते हैं कि ये रचना निहायत ही आत्मकेन्द्रित होकर लिखी गयी है, फ्रसटेशन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। अभाव में अब राम की शक्तिपूजा नहीं लिखी जाती, पउवा पीकर आलोचकों को गरिया जाता है, देखा हूं कई बार ऐसा लोगों को करते हुए।
एक बात और कि अगर किसी को फेलोशिप जिससे थोड़ी और चौड़ी करके समझे कि आय का साधन मिल जाता है तो उसके लिखने की प्रतिभा खत्म हो जाती है, ये आप कैसे तय कर लेते हैं, ये भी ठीक-ठीक लिखते हैं, ठीक-ठाक क्या जी बिकने-पढ़ने और पुरस्कार पाने लायक तो लिखते ही हैं । आज इसके अलावे भी कोई पैमाना है क्या उत्कृष्ट साहित्य होने का। साहित्य अभी भी पार्टटाइम एक्टिविटी है, जो फुलटाइमर हैं भी तो सिर्फ कहानी लिखकर नहीं सांस ले रहे हैं। इसलिए ऐसे वक्त में विजयजी की बात बड़ी ही अविश्वसनीय लगती है।अच्छा अगर हम पैसे से उपर उठ भी जाएं तो क्या बाकी के दबाब हमारे उपर से खत्म हो जाएंगे। आलोचकों के बीच हमारी रचना पहुंचें इसके लिए तो हमें कई शर्तों के हिसाब से लिखना ही होगा॥जिसमें संपादक की शर्तें यानि बाजार की मांग शामिल है। इसलिए सरजी रचना के तार जाने-अनजाने बाजार और मांग से जुड़ ही जाते हैं। अब आप इसका नाम न लेना न चाहें तो अलग बात है। कोई बंदा खुद ही सुलगाने और खुद ही बुझाने के लिए नहीं लिखता। और अगर नहीं लिखता तो हमारे और आपके हिसाब को ध्यान में रखकर लिखता है। मैं तो समझता हूं कि अगर कोई अपने ढंग से सुलगाने और बुझाने के लिए लिखता है तो फेलोशिप मिलने से उसे आसानी होगी। फेलोशिप पाना भी एक योग्यता ही है इसे आप दरबारी हो जाने की प्रक्रिया के रुप में क्यों ले रहे हैंधन मिलता रहे तो वो सिर्फ कहानीकार या कवि नहीं बनेगा, पढ़कर, रिसर्च करके आपकी करह आपसे कम उम्र में आलोचक भी बनेगा। एक युना कहानीकार को एक युवा आलोचक मिल जाए, इससे बेहतर औऐऱ क्या हो सकता है। आप नहीं चाहते कि ऐसा हो। मैं सच कहूं तो मुझे सम्मानित बारहों कहानीकार हुलिए से बहुत अच्छे लगे और अगर भीड़ में चलें तो आप अलग से पहचान नहीं पाएंगे कि ये हिन्दी के हैं जिसकी शिकायत अक्सर उदय प्रकाश को रहती है। ऐसा इसलिए कि ये सारे जीविका के लिए अलग से कुछ न कुछ करते हैं और आप भी इनकी लेखनी के कायल हो चुके। तो फिर जबरदस्ती का अंर्तविरोध क्यों फैला रहे हैं, सरजी..
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1 Response to 'फेलोशिप मिला हमें और परेशान हुए आलोचक'
  1. Ashish Maharishi
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/02/blog-post_05.html?showComment=1202193360000#c2998836481609212481'> 5 फ़रवरी 2008 को 12:06 pm बजे

    सीनीयर्स पर कभी कभी रोना आता है

     

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