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जिस नदी के घाटों पर सालभर तक गू की लेड़ियों का थौरा(जमघट) लगा रहता,उस छठ पूजा के दिन ऐसा चमकता की छठव्रती महिलाएं नया लुग्गा(साड़ी सुखाती)। हरेक घर के बच्चे की कनपटी छठ पूजा के दौरान एक बार जरुर गरम कर दी जाती कि उसने फलां पूजा की सामग्री छुन्नी( पुरुष लिंग का छुटपन के दौरान का नाम) मसलने के बाद छू दी। आज उस घाट पर आकर सब पवित्र हो जाता,अब कोई इस पर पीतल की परात रख दे,छठ का दौरा या फिर नारियल,फल लगे सूप,सब शुद्ध। छठी मईया और सूरज की महिमा का बखान के साथ छठ पूजा में उस बल्ली गोप की महिमा का गुणगान रत्तीभर भी कम न होता जिस पर सालोंभर तक छिनतई, किडनेपिंग, गुंडागर्दी और यहां तक की मर्डर के आरोप लगते रहते। बल्ली गोप अपनी श्रद्धा से इस नदी के घाटों की अपने खर्च पर सफाई करवाता। गू की लेडियों की जगह सफेद चूने और गेरु से लाइनें खींचवाने और रंगोली बनावाने के पीछे पूरी मेहनत करता। उसकी इस आस्था के आगे उसके सताए लोगों की जुबान पर भी छठ के समय आशीर्वाद निकलते। मां के शब्दों में यही लच्छन सालोंभर तक रहे तो अदमी नहीं देउता कहलाए।..

आज बारह साल बाद मुझे इस हदस(डर) से अभी तक नींद नहीं आ रही है कि सुबह उठकर मुझे घाट पर जाना है। ये जानते हुए कि अट जाव्वल तो सुबह उठना ही नहीं है,फिर जाना कैसा? कानों में दूर से झन-झन मंजीरे की आवाज आ रही है,पड़ोस ने कुछ शहरी टाइप का व्रत आयोजन किया है जिसमें पिछले दो दिनों से किट्टी पार्टी की तरह खाने की चीजें तैयार होती हैं और उसके बाद देर रात तक भजन। मुझे हिन्दू न जानकर सबों को बुलाते हैं,दीवाली के दिन दीया-बत्ती घर में नहीं जलाने का लगता है साइड इफेक्ट है,नहीं तो मुफ्त के खाने में विचारधारा पेलने की क्या जरुरत,चला ही जाता। दिल्ली के उस नेता की बाइट याद आ रही है जिसने डेढ़ करोड़ लगवाकर एमसीडी की ओर से छठ घाट बनने की बात बतायी और जिसे बाद में स्विमिंग पूल करार दिया जाएगा।..इस झन-झन के बीच दूर से छठ के गीत बहुत ही कमजोर आवाज में सुनाई पड़ रही है और फिर मुझ पर मां की यादें सवार हो जा रही है। यही दिक्कत है,जितने भी पर्व-त्योहार आते हैं,मां की एक-एक बातें मुझ पर सवार हो जाती है। एक तो टेलीविजन से बड़ा संस्कृति रक्षक कोई रह नहीं गया,सब त्योहारों को लेकर इस नीयत से ऐसा पेलो कि बेटा मनाओगे नहीं तो जाओगे कहां और उपर से मां की बातें। ये दो चीजें त्योहारों में मुझे सबसे ज्यादा परेशान करती है। विचारधाराओं की थोड़ी समझ ने इन सबों को मनाने से मुक्त कर दिया लेकिन जिस दिन ये दोनों चीजें छूट जाए,उस दिन त्योहारों में औसात दिन का सुकून बना रहे।

आज लोहण्डा है बेटा,रात में रोटी मत बनाना,कुछ दूसरा चीज बना लेना। जब तक छठ है प्याज-लहसुन मत बनाना की नसीहत के साथ दो दिन पहले ही फोन कर दिया। मेरे घर में कभी किसी ने छठ पूजा नहीं किया। मेरी जिंदगी में कई बार उठापटक आने की स्थिति में मां ने कई बार मनौती मांगने की कोशिश की कि इसके नाम से छठ करेंगे लेकिन मैंने ऐसी-ऐसी कसमें दिलायी और कहा कि तुम अगर ऐसा करोगी तो धर-द्वार सब छूट जाएगा आना मेरा। मेरे नाम से कोई व्रत-पूजा,उपवास मत किया करो प्लीज। मां कई बार कोसती- हमरे घर में पैदा लेवे के था इसको,अघोरी,खिटखिटाहा,लडबेहर।..लेकिन व्रत न करने की स्थिति में छठ पूजा को लेकर अपनी अपार श्रद्धा को दूसरे तरीके से जाहिर करती।

मोहल्ले में लगभग सबों के यहां छठ पूजा होता। मां बहुत मन-मारकर,मेहनत और श्रद्धा से काम करनेवाली महिला रही है। मोहल्ले में सम्मान के साथ सरस संबंध थे। छठ पूजा के दस दिन पहले से ही पड़ोसी मां को एडवांस में बुक कर लेते- चाची,दीजी,अबकी छठ पूजा में आपको मेरे यहां प्रसाद बनाना है। मां की जिससे पहले बात हो जाती,उसके यहां प्रसाद बना देती। लोहण्डा यानी शाम की छठ से एक दिन पहले की रात लोगों को बुलाकर खिलाया जाता। इसमें दो तरह की चीजें लोग खिलाते- एक तो रसिया जो कि चावल में गुड डालकर बनाया जाता,मीठी खिचड़ी ही कहिए और दूसरा दाल-भात के साथ चावल के आटे का सादा छोटा पीठ्ठा। फिर घर ही में गेंहू पीसकर ठकुआ बनाया जाता। ठकुआ छठ पूजा का मुख्य आइटम या प्रसाद है। मेरी मां बहुत जोरदार बनाती है।

मैं महसूस करता कि पड़ोस की भाभियां,चाचियां प्रसाद के नाम पर मां से बहुत सारा ठकुआ बनवा लेती और बाद में कई दिनों तक शाम के नाश्ते में इस्तेमाल करतीं। मैं जब कभी उनके घर जाता तो वापस आकर खूब हंगामा मचाता। कहता- तुम जाकर उनके यहां अपनी श्रद्धा जता आयी और देखो वो तुमसे बेगारी करवाकर नाश्ता बनवा ली,मत बनाया करो। मां दोनों हाथों से अपना काम छूती,कुछ-कुछ भुनभुनाती और कहती- लड़बहेर है,सुबुद्धि दीहो छठी मइया।

इस त्योहार में भी मोहल्ले की राजनीति से पिंड न छूटता। किस घर का संबंध किससे बेहतर है,ये आज ही के दिन तय होता। कौन किसके साथ घाट पर जाता है और साथ में चादर बिछाकर बैठता है? जिनके घरों में छठ होते,उनकी तो अपनी ही फैमिली के लोग होते और अपना इंतजाम करते। हम जैसे घरों के लोगों के लिए फजीहत हो जाती कि किसके साथ जाएं? ये पहला मौका होता जब मोहल्लेवाले से मेरे अपने संबंध और मां के साथ जाने ा लोभ एक-दूसरे से क्लैश कर जाता। मां जूली के घर से साथ जाना चाहती जबकि वोलोग मुझे चिरकुट लगते और मैं मुरारी भइया के घर से जाना चाहता। कई बार होता कि शाम किसी एक के घर से जाओ तो सुबह किसी दूसरे के घर से। ये सोच भी पॉलिटिक्स का ही हिस्सा होता कि दोनों से संबंध दुरुस्त रहे। अब अगर मैं मां का साथ के लोभ में जूली के घर से चला जाता तो सारा मजा किरकिरा हो जाता। मुझसे भी बेगारी कराने के लिए वेलोग एडी-चोटी एक-कर देते। मैं न तो कोई सामान छूना चाहता,न ढोना। आ ही गए सो एहसान मानो के अंदाज में जाता। मुरारी भइया के यहां से जाने का मतलब होता,फुलटाइम मस्ती। कोई कुछ करने को नहीं कहेगा। मां इस बात को बेहतर समझती। कहती- इ लड़का हमको धरम-धक्का में डाल देता है हर साल,अब किसके घर से जाएं? मुरारी भइया के यहां से जाने का मतलब होता कि मदद करने से बचने के लिए ऐसा कर रहे हैं। खैर,

घाट पर दो कामों को लेकर मां मेरे पीछे लगी रहती। एक तो दूध डालने जिसे कि सूर्य को अर्घ्य देना कहते हैं और दूसरा कि छठव्रती महिला की भीगी साड़ी से गाल पोछने और आरती लेने को लेकर। मां खाटी दूध जब अर्घ्य देने को देती तो मैं कहता- पापा वहां चाय के लिए हाय-तौबा मचा रहे होंगे दूध को लेकर और तुम यहां पानी में बहाने के लिए ले आयी। मां फिर कान छूती,बुदबुदाती। पीतल के दीए की लौ के उपर बहुत देर तक हाथ रखती और बहुत दबाकर मेरा माथा सेंकती। इतना गर्म और इतनी जोर से कि मैं झनझना उठता। मां का विश्वास इतना कि इतना उल्टा-सीधा बकता है,सब छठी मइया हर लेंगे ज्यादा गर्म करके सेंकने से। साड़ी से गाल पोंछने के नाम पर बिदक जाता तो कहती- छठी मइया का ऐसे अनादर नहीं करते बेटा।

मोहल्ले के सारे लौंडे का सारा आकर्षण इस बात को लेकर रहता कि किसी बहिन कौन सा सूट-सलवार,कपड़ा झाड़कर आयी है। जहां भइया बोलर मुस्करायी तो चार नसीहत जड़ दो कि ऐसे झमका के काहे ठी ठी घूम रही हो,कमीना सब मुसलमान का भी लड़का सब आता है अब मेला घूमने। हिसाब-किताब से रहा करो और जहां बराबरी से नाम लेकर बात की रमेश-सुरेश। तो तुम भी बॉबी-चंचल बोलकर चिपक लो। बाकी का एकांत सूर्य मंदिर की बाउंडरी तो दे ही देगी। महिलाओं की श्रद्धा और आस्था की पोल-पट्टी तब खुलती जब वो अपनी नजर पूरी तरह इस बात में गडाए रखते कि किसकी बेटी,किसकी बहन किसके साथ नजर आयी। मुझे तो लगता था कि वेलेंटाइन डे के बीज ऐसे ही मेलों में छिपे होते होंगे। सार्वजनिक जगहों पर भी एक नजर देखने और तुम्हारी फिजिक्स की कोचिंग कैसी चल रही है,मैथ्स के शशिशेखर सर एक नंबर के मास्टर है,बाकी चाल-चलन के ठीक नहीं हैं। तुम लगा दो उसमें लुक्का कि एक बार थ्योरम समझाते-समझाते एक लड़की का हाथ दबा दिए। नीयत ऐसी कि वो संभले कि न संभले वही नजारा यहां भी रच दो। इसी बीच ऐसे लौंडों की टोली होती जो छातियों की टोह लेते फिरते और बार-बार जान-बूझकर टकराते। इस त्योहार में सुगा मिडिराय के बाद सबसे ज्यादा- कोढ़िया,देह गल जाएगा,दिखता नहीं है,सुनने को मिलता।. 

शहर में नीयत चाट की जितनी दूकानें होती,वो सबके सब अपनी अस्थायी दूकानें घाट से थोड़ी पीछे हटकर लगाते और उनकी अकड़ आज के मथुरा रोड पर हल्दीराम से रत्तीभर भी कम न होती। मां अपनी पैरवी भिड़ाती- दे न देहो कल्लू,पिल्लूभर के बुतरु घंटाभर से खड़ा है एक प्लेट घुघनी के लिए। कल्लू चचा शान से मुस्करात-कि करें भौजी,यही एक दिन तो कमाय के है, बेटवा तो घर के बच्चा है। मां की पैरवी से पहले घुघनी,कचड़ी लेना पड़ोस की उन लड़कियों को खल जाता जो हमें चुप्पा के साथ-साथ बोक्का समझती। ये अलग बात है मां के साथ पूंछ की तरह लटके रहने से कैरेक्टर को लेकर हमेशा चर्चा में रहता- लगता ही नहीं कि वही पब्लिक स्कूल में पढ़ता है जिसमें कोढिया रजीवा,भूषणा पढ़ता है,एकदम शरीफ है।

मां नारियल लेने के पीछे तबाह रहती। वो हर मेले में मेरे साथ जाती तो नारियल जरुर लेती और मुझे ढ़ोना पड़ता। बारी-बारी से घाट पर चादर बिछाए पड़ोसियों से मिलते,सब कुछ न कुछ देते। कोई ये न कहे कि बाप तो भोला बाबा है,बेटा कइसन अइठल है,प्रसाद दिए तो नहीं लिया,चुपचाप ले लेता।..दीदी की सहेलियों के बीच सहमकर खड़ा हो जाता। कौन किस दर्जी से सूट सिलवाया,किसने उसके सूट के कपड़े बचा लिए,किसने सत्यानाश कर दिया,सुभषवा के यहां से हेयरबैंड लेना जान देने के बराबर है सुनता। ललमुनिया शादी के बाद मोटा गयी है,सरोजवा का दूल्हा हमसे बहुत लसक रहा था। पीछे से हमेशा चुप्प रहनेवाली बिदकी महीन आवाज में बोलती- एक के साथ एक फ्री चाह रहा होगा दीदी। फिर जोरदार लेडिस ठहाके। मैं टुकुर-टुकुर सबको देखता,उसी में कोई मेरा गाल छू देती और छोटू,कोई जमी? मैं बस सोचता,इतनी ही अच्छी,इतनी ही सुंदर मेरी जितनी बड़ी होती तो...या फिर यही मेरी जितनी बड़ी होती तो..?

पापा धर्म,त्योहार और आस्था के मामले में बहुत ही अलग-थलग रहे। इन सबों को लेकर उनके भीतर कभी न तो उत्साह रहा,न ही कोई बेचैनी। घाट से लौटने पर वे या तो सोए मिलते या फिर उठकर फुलगोभी भुनते हुए। प्रसाद का एक दौर चलता,फूलगोभी खाते। पापा नारियल के पीछे दम लगाते और मां अब दुपहरिया में कौन बनाएगा खाना के साथ आउट हो जाती। हो-हल्ला,तबाही मचती। पापा की इस डांट के साथ कि- हुआ नहीं तुमलोगों का,पढ़ने-लिखने का नहीं तो टंडेली( टाइम पास) कर रहा है,हमारे लिए छठ पूजा खत्म होने की घोषणा हो जाती।.
चारो तरफ बजना जारी रहता-
मारिवौ रे सुगवा घनुख से,
सुगा गिरी मुरझाए,सुगा गिरी मुरझाए

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4 Response to 'लड़बहेर है,सुबुद्धि दीहो छठी मइया'
  1. Rangnath Singh
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/11/blog-post_5123.html?showComment=1289615478844#c413801432580228542'> 13 नवंबर 2010 को 8:01 am बजे

    लड़बहेर है,सुबुद्धि दीहो छठी मइया :-)

     

  2. आनंद
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/11/blog-post_5123.html?showComment=1289619171539#c7603487476384937926'> 13 नवंबर 2010 को 9:02 am बजे

    गलती बात... संस्‍मरण बहुत अच्‍छा चल रहा था, किस्‍सा बीच में रोक दिया... यह पाठकों के लिए इमोशनल अत्‍याचार है।

    छठ हो या कोई और त्‍यौहार, आप जिस तरह अपने गांव-जवार का, घर-दुआर का वर्णन करते हैं, पूरा दृश्‍य आंखों के आगे बनता चला जाता है। बहुत सुंदर...

    हो सकता है आप थक गए होंगे, लेकिन ऐसे बीच में छोड़ना ठीक नहीं। जैसे डूबकर लिखा है, शुरूआत की है उसे पूरा लिखो यार। उपन्‍यास बन जाता है तो बन जाने दो।

    - आनंद

     

  3. anjule shyam
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/11/blog-post_5123.html?showComment=1289625503302#c3927593824638821572'> 13 नवंबर 2010 को 10:48 am बजे

    अब एक कट्टर नास्तिक को का सुबुद्धि देंगी छठी मइया..बेचारी वों भी कोष कोष के चुप रहती होंगी.....ही ही ही....

     

  4. देवेन्द्र पाण्डेय
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/11/blog-post_5123.html?showComment=1289638508413#c8199476921849838407'> 13 नवंबर 2010 को 2:25 pm बजे

    आलेख पढ़कर शीर्षक अच्छा लगा।

     

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