प्रतीकों के अंबार के बीच अभ्यस्त जीनेवाले समाज में कुछ प्रतीक ऐसे हैं, जिसे हथियाने के लिए लगातार आपाधापी मची रहती है। बाद में इन प्रतीकों के भीतर के अर्थ खत्म होते हैं, सीमित होते हैं, गायब हो जाते हैं या फिर इसके अर्थ के चेहरे बहुत ही खतरनाक और विद्रूप बनकर हमारे सामने उभरते हैं, इसकी चिंता नहीं हो पाती है। शायद यही वजह है कि जिस समय हम अपने क्लासरूम में प्रतिपादित कीजिए कि कबीर के राम तुलसी के राम से अलग हैं, सवाल के जवाब में राम को और अधिक तार्किक, संवेदनशील और मानवीय साबित करने की कोशिश में लगे रहे, ठीक उसी वक्त देश की एक राजनीतिक पार्टी उसी राम के आगे श्री लगाकर उसे अपने लिए उपयोगी बनाने में जुट गयी। शायद यही वजह है कि जिस वक्त स्लमडॉग को ग्लोबल बनाने के लिए जी-जान से जुटे थे, देशभर के संवाददाता धारावी की सीढ़ियों से ऊपर-नीचे होते हुए पीटूसी दे रहे थे, संपादकीय पन्नों पर आम आदमी के मरने-खपने की गिनती मिला रहे थे, ऐन उसी वक्त पर देश की एक दूसरी राजनीतिक पार्टी के कारनामे से कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देखनेवाला आम आदमी का बच्चा झक-झक स्कूल ड्रेस में सूरज सा चमकने लग गया। साहित्य में जो आम आदमी खा ले मिठुआ गेहूं की रोटी है की बात करता है, तो टेलीविजन स्क्रीन पर का आम आदमी तेंदुलकर के सेंचुरी बनाने पर मिल्क केक बांटता है। सिनेमा का आम आदमी कैसा है, है भी या नहीं… इस पर कैसे बहस करें – ये भी एक टेढ़ा सवाल है। कुल मिलाकर कभी जिस राम के भीतर सबने अपने-अपने मतलब के अर्थ ठूंस दिये, आज वही काम आम आदमी को एक प्रतीक की शक्ल में तब्दील करके किया जा रहा है। संभवतः इसलिए मीडिया का आम आदमी साहित्य के आम आदमी से मेल नहीं खाता और इन सबका आम आदमी समाज के आम आदमी से मेल नहीं खाता। थिएटर का आम आदमी सिनेमा में जाकर एहसास की लड़ाई लड़ता नजर आता है। आम आदमी को लेकर बहस की शुरुआत नये सिरे से शुरु हुई है, बहसतलब 2 के दौरान।
18 जून को मोहल्ला लाइव, जनतंत्र और यात्रा बुक्स की साझा पेशकश के दौरान अभिव्यक्ति माध्यमों में आम आदमी में जिस बहस की शुरुआत हुई, उसके कई संस्करण अब वर्चुअल स्पेस की दुनिया में पसर रहे हैं। इस बहस में जो भी लोग शामिल हुए, वो वक्ताओं से या तो असहमत हैं या उनकी बातों को सिरे से खारिज करते हैं या फिर उन्हें लग रहा है कि इस तरह के आयोजन आम आदमी के सवाल को ईमानदारी से उठाने में बहुत मददगार साबित होंगे, इसे लेकर पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। हम भी जुबान रखते हैं की तर्ज पर सबों के विचार आने शुरु हो गये हैं। किसी को ये लग रहा है कि नामवर सिंह में अब वो बात नहीं रह गयी, वो अब बोलने के नाम पर स्ट्रैटिजकली बाइट देने भर का काम करते हैं। नामवर सिंह से राजेंद्र यादव का सवाल दरअसल एक-दूसरे की धुरा-कुश्ती का हिस्सा है, सवाल कम पुरानी खुन्नस निकालने का काम ज्यादा है, अनुराग कश्यप जब परिधि पर रहे तो आम आदमी के सवाल को दूसरे ढंग से देखा, अब कुछ और बोल रहे हैं। अजय ब्रह्मात्मज को इस बात की पूरी समझ है कि सामने कैसी ऑडिएंस बैठी है और क्या बोलने से मामला जम सकता है। त्रिपुरारी शर्मा के भीतर एक खास किस्म की सादगी है, जो इंडिया हैबिटैट के भीतर और बाहर भी लगातार सक्रिय रहता है।
इन तमाम वक्ताओं को लेकर लगातार असहमति और बहस जारी रहे, अच्छा रहेगा। लेकिन उन्होंने दरअसल कहा क्या, उससे हम हूबहू सुनकर लगातार टकरा सकें, अपनी बात के बीच उनकी बात को उसी शक्ल में रख सकें, फिलहाल उस नीयत से उनकी बात ऑडियो की शक्ल में सुनिए...
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_9195.html?showComment=1277058341718#c4838278153570572253'> 20 जून 2010 को 11:55 pm बजे
Aabhar Vineet !
bas yahi sahi hai... suniye , guniye, aur apne apne aam aadmi ko andar-bahar pahchaniye.
Sheeba.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_9195.html?showComment=1277093819097#c874572143940772899'> 21 जून 2010 को 9:46 am बजे
बढिया किया विनीत.
शुक्रिया
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_9195.html?showComment=1277108426154#c9086663428558767086'> 21 जून 2010 को 1:50 pm बजे
भइया दिल्ली में रहते हुए भी बहसतलब 2 में शामिल न हो सका। आगे से जरुर प्रयास करूंगा।बहसतलब: आम आदमी का सिनेमा CONTEMPERORY CINEMA यानि 60-70 के दशक का सिनेमा था। आज सिनेमा मल्टीप्लेक्स कल्तर में रंग चुका है जहां , सिनेमा का आडियंस आम से खास आदमी में बदल चुका है। आम आदमी को फिर से सिनेमा में लाने के लिए PARALLEL CINEMA MOVEMENT जैसे उपक्रम की जरुरत है।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_9195.html?showComment=1277138477599#c2293354621335336819'> 21 जून 2010 को 10:11 pm बजे
sundar post ......