किसी शख्सीयत के बारे में लिखते या बात करते हुए ये लाइन हमनें थोक के भाव में पढ़ी है कि वो शख्स हमसे खास आदमी का चोला उतारकर मिला। एकबारगी तो मन करता है कि अनुराग के बारे में यही लाइन जड़ दूं लेकिन नहीं, यहां चोले-वोले उतारने और पहनने का चक्कर नहीं था। हम उनसे और वो हमसे बहुत ही रॉ फार्म में मिले। ये कहना ज्यादा सही रहेगा कि वो हमसे कैंपस के पासआउट एक सीनियर की तरह मिले। होटल के अंदर पहुंचते ही दो बोतल लिये बैठे थे और सीधे कहा – तुमलोग जल्दी बताओ, क्या लोगे। ये या फिर वो, फिर जिस पर आम सहमति बनी उसे रखा और फिर कुर्सियों में धंस गये। खास के आम आदमी होकर मिलने में भी एक खास किस्म का बड़प्पन दिखाने का मोह नहीं छूटता है, लेकिन सीनियर होकर मिलने में ये भाव हमेशा बना रहता है – अपने इन जूनियर दोस्तों के साथ हवाबाजी करने से क्या फायदा, इन्हें सब कुछ तो पता ही है कि मैं कैसे यहां तक पहुंचा, कैंपस के दिनों में मेरी क्या स्थिति थी और करियर को बनाने-संवारने में हमने कौन-कौन से पापड़ बेले हैं?
उनके आगे हम सिर्फ उनके फैन नहीं थे। पहली बार मिलने पर भी न तो हम उनसे ऑटोग्राफ लेने के लिए मरे जा रहे थे और न कंधे पर हाथ रखकर फोटो खिंचाने के लिए बेचैन हुए जा रहे थे। एक तस्वीर मैंने और मिहिर ने रेस्तरां के सारे काम निबटाकर पार्किंग के आगे जरूर खिंचवा ली कि बस याद रहे कि हमने उनके साथ कुछ वक्त बिताये। लेकिन ये तस्वीर भी ठीक उसी हॉस्टल नाइट के अंदाज में, जब सीनियर की शह पर हम जैसे जूनियरों का कोक या लिम्का में ही नशे का पारा स्कॉच के नशे से ऊपर जाकर टिक जाता है। मुझे ये एहसास शायद इसलिए भी हुआ कि न तो हमें उनसे मिलने के बाद जल्दी से जल्दी पैकेज बनाने की हड़बड़ी थी, रेस्तरां के भीतर वो स्पॉट नहीं खोजने थे, जहां से हम सीधे पीटूसी कर सकें, हमें किसी चैनल स्क्रीन पर एक्सक्लूसिव की पट्टियां नहीं चलवानी थी कि उड़ान की स्क्रीनिंग के बाद अनुराग कश्यप ने सबसे पहले हमसे बात की, न उसे बाहर निकलते ही किसी इंटरव्यू की शक्ल में तब्दील कर देने की नीयत थी। इस मामले में हम उन सिद्धहस्त मीडिया पत्रकारों से कई गुना खुशनसीब हैं, जिनकी बातों का सिरा या तो पेशे से जुड़ता है या फिर मौके-मौके भर की दोस्ती से। निपट मिलने के लिए मिलने का सुख शायद ही उन्हें मिल पाता हो।
अब तक हमने डीयू के दर्जनों सीनियर के आईएएस, आइपीएस, टीचर, फेलो बनने या फिर किताब छपने के नाम पर उनके साथ लंच या डिनर किया है। लेकिन ये पहला मौका था कि हम एक फिल्ममेकर सीनियर से मिल रहे थे। अनुराग कश्यप के साथ वो चार घंटे और होटल सांगरी-ला का डिनर मुझे इसी रूप में याद रहेगा। मुझे इस रूप में अनुराग से मिलना सिर्फ इसलिए याद नहीं रहेगा कि उन्होंने हमारी तरह ही डीयू में रहकर पढ़ाई की, उन्हीं कॉलेज के हॉस्टल में रहे, विश्वविद्यालय के वो नजदीक इलाके जो बार-बार अपने को कैंपस का ही होने का दावा करते हैं, उसी के बीच सैंकेड़ों लोगों को देश की मशीनरी का पुर्जा बनते देखा और अपने भीतर की क्रिएटिविटी को लेकर कभी खुश हुए तो कभी-कभी आशंकित। ये तो डीयू का बहुत पुराना किस्सा है कि सब अपने-अपने कॉलेजों और हॉस्टलों के बारे में पौराणिक कथा की तरह याद करते हैं कि यहां से शाहरुख पढ़-रहकर गया, अमिताभ भी कभी किरोड़मल में थे, मनोज वाजपेयी तो अपने यहां ही रहकर गये… ब्ला, ब्ला। अब तो कई कॉलेज के सॉविनियर भी इन किस्सों को स्पेस देते हैं।
दूसरी तरफ वो शख्स जो जानता है कि सामनेवाले से मिलने के बाद इसकी खबर न तो किसी अखबार में आएगी, न ही ये पब्लिसिटी के काम आएगी और न ही ये पीआर के तौर पर काम आएगा। फिर भी चार घंटे साथ बिताने के बाद उसकी खुशी चेहरे पर साफ तौर पर झलकती है। हमें भले ही एकबारगी संकोच जरूर होता है कि इतनी देर तक इनके साथ बिता लिया, पता नहीं क्या सोच रहे होंगे? लेकिन समरेंद्र के ये कहने पर कि सिगरेट तो यहां नहीं पी सकते हैं, उनका जवाब था, तो चलो न कमरे में, आराम से पीते हैं। अगर सुबह की फ्लाइट न होती तो शायद मामला आगे लंबी रात तक जाता। बातचीत के दौरान उनके फोन आते हैं, कुछ सामान्य और एक-दो खास। हममें से बैठे लोग राय देते हैं, हम यहीं पर हैं, आप उधर जाकर बात कर लीजिए न। ये औपचारिकता नहीं बल्कि मिलने की वो सादगी और सहजता थी, जो कि किसी भी शख्सीयत की जिंदगी में पब्लिसिटी स्टंट तो हो सकता है लेकिन स्वाभाविक हिस्सा – ये इतना भी आसान नहीं है। इस तरह से एक सीनियर से मिलने का एहसास अनुराग कश्यप ने हमें खुद कराया। पूरी बातचीत का जो अंदाज था, जिस तरह की भाषा का प्रयोग वो हमारे साथ कर रहे थे, वो भाषा हमारे कैंपस की भाषा से (क्लॉकियल हिंदी/अंग्रेजी) जुदा नहीं थी। वो भी जैसे हम यूनिवर्सिटी की राजनीति और उसके भीतर पाये जाने वाले लोगों की चिरकुटई पर चुटकी लेते हैं, वैसे ही वो फिल्म इंडस्ट्री के गुणा-गणित पर अपनी बेबाक राय दे रहे थे, खालिस उसी भाषा में जिस भाषा में बात सबसे ज्यादा बेहतर तरीके से कम्युनिकेट हुआ करती है, आप तो समझ ही रहे होंगे।
बीच-बीच में हममें से कइयों की बात एक-दूसरे के ऊपर चढ़ा-चढ़ी कर देती तो फिर वो ठहरकर पूछते – अच्छा, तुम क्या कह रहे थे? फिर हम बताते कि अंडा वेज है और देर रात जब अजय ब्रह्मात्मज सर के दोस्त को लगा कि मैं क्या खाऊंगा, तो मैंने उनकी फ्रीज में पड़े अंडे देखकर अपनी नीयत जाहिर कर दी थी। फिर इसी से बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ जाता है। मिहिर और गौरव को लगातार फिल्मों पर बात करना अच्छा लगता है तो फिर अनुराग भी रौ में आ जाते हैं। उड़ान की बात, संस्मरण की शक्ल में पाश को लेकर नामवर सिंह से लगातार होनेवाली बातचीत, सिनेमा की कुछ मशहूर शख्सियतों के साथ की बिडंबना, इंडस्ट्री का बिजनेस कल्चर… इन सब मुद्दों पर बारी-बारी से बातचीत। जिसको अनुराग की बातों में हां में हां नहीं मिलानी नहीं है, तो अपनी बात के लिए आजाद। अपनी हर फिल्म को लेकर बाबूजी की प्रतिक्रिया और गुलाल को अब तक की सबसे बेहतर फिल्म करार देना, माताजी के नजरिये से फिल्मों के भीतर की कुलबुलाहट… सब कुछ, सब कुछ। हम बस टेबल पर केहुनी टिकाकर सुनने लग जाते हैं। वो हमारे लिए मानिक मुल्ला बन जाते हैं। किसी की पैग कमजोर न पड़ जाए, हम जैसे वेज खानेवालों की चम्मच प्लेट से न टकराने लग जाए, इसका वो इसी कहानी के बीच खास ख्याल रखते।
इस बीच चार घंटे कैसे बीते, पता तक नहीं चला। पार्किंग तक में आधे घंटे से ऊपर हो गया, कई बार एक-दूसरे ने आपस में कहा कि सुबह निकलना भी तो है… लेकिन फिर कुछ छिड़ जाता… फिर, फिर… अच्छा तो अब फाइनली विदा लेते हैं, फिर मिलते हैं, कुछ बड़ा करते हैं, जल्द ही मिलते हैं, संपर्क में रहेंगे। आपके पास मोहल्लालाइव का लिंक तो है न, बहस यहां भी होगी देखिएगा। अरे हां, सच में बहुत दिनों के बाद मजा आएगा, ये शाम याद रहेगी। कुछ-कुछ वैसे ही इमोशनल हुए जैसे माल रोड, निजामुद्दीन, नयी दिल्ली पर सीनियर को सीऑफ करते हुए। सीनियर से मिलना ऐसे ही तो होता है। बस एक कमी रह गयी जो कि अच्छा ही हुआ – अनुराग ने बाकी सीनियरों की तरह नहीं कहा – जल्दी से पीएचडी पूरी कर लो, तब फिर ये ब्लॉगिंग-श्लॉगिंग करना।
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_24.html?showComment=1277368001969#c2246277405646373177'> 24 जून 2010 को 1:56 pm बजे
ओह मेरे फेवरेट आदमी से मिल आये .......काश अपनी मर्ज़ी की जिंदगी मै भी जी सकता....उस शख्स से मैंने यही सीखा है ....उड़ान का मुझे इंतज़ार है ...हिंदी सिनेमा को एक नयी दिशा देने में अनुराग का योगदान शायद अगली कई पीडिया याद करे.......गुलाल के एक्सपेरिमेंटल गाने ओर फिर उन्हें पियूष का ही स्वर देना.....किसी कलाकार को आज़ादी देना है........i love this man.....
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_24.html?showComment=1277376674564#c9087392232397061364'> 24 जून 2010 को 4:21 pm बजे
Vinit Babu and Mihir Bhaiya. congrats for this opportunity and. Achha lagaa anubahv ko kahane kaa anadaaz bahut kuchh sikhaa gayaa.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_24.html?showComment=1277442222498#c2064276129890415089'> 25 जून 2010 को 10:33 am बजे
Achchha sansmaran sajha karne ke liye shukriya.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_24.html?showComment=1277576518368#c8303378631053014975'> 26 जून 2010 को 11:51 pm बजे
बहुत प्यारा अलग अंदाज का आत्मीय संस्मरण। पीएचडी कर डालो, ब्लॉगिंग मत करो ये नहीं कहा अनुराग कश्यप ने -अच्छा किया। वर्ना अगर ब्लॉगिंग बंद कर देते तो ये मुलाकात के किस्से कैसे पढ़ने को मिलते?
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_24.html?showComment=1277722197603#c4041417118146321939'> 28 जून 2010 को 4:19 pm बजे
और मेरे रौंगटे एक बार फिर खड़े हो रहे है..