कुतुबमीनार से गुड़गांव तक मेट्रो के शुरु होने पर जो फुटेज हमें टीवी चैनलों पर दिखे,उसमें बैठे सबों के माथे पर तिलक लगे थे। ये तिलक कोई आम आदमी लगाकर नहीं बैठा था। खबरों के मुताबिक कल तो इस मेट्रो में किसी आम आदमी के बैठने की इजाजत भी नहीं थी। इसमें सिर्फ मेट्रो के अधिकारी,पत्रकार और समाज के प्रभावी लोग ही थे। तिलक भी वो घर से लगाकर नहीं आए थे। ये काम मेट्रो स्टेशन पर ही हुआ। फेसबुक पर मैंने लिखा- कुतुबमीनार से गुड़गांव तक शुरु हुई मेट्रो में बैठे सबों के माथे पर तिलक लगे थे। ट्रेन चलने के पहले हवन हुआ और फिर नारियल फोड़े गए। क्या सार्वजनिक कही जानेवाली मेट्रो या फिर ऐसे दूसरे कामों की शुरुआत टिपिकल हिन्दू रीति से होना जायज है,तब भी हम धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते रहें।
फुटेज में एक दूसरी बात भी दिखने को मिली। जब भी आप दिल्ली मेट्रो पर सवार होते हैं,निर्देशों की झड़ी लगा दी जाती है। इन निर्देशों में एक ये भी होता है कि मेट्रो के अंदर कुछ भी खाना-पीना मना है। कल फुटेज में हमने देखा कि लगभग सारे तिलक लगाए सीट पर बैठे लोग खा रहे हैं। जाहिर ये हवन का प्रसाद ही होगा। अब सवाल ये है कि क्या आम आदमी भी ट्रेन के भीतर प्रसाद के नाम पर कुछ बी खा-पी सकता है। अगर मेट्रो के पास इस बात की दलील है कि पूजा के दिन तो ऐसा होना स्वाभाविक है तो फिर अगर पहले ही दिन मेट्रो के अधिकारी इस नियम को तोड़ते हैं,अपने ही बनाए नियमों की धज्जियां उड़ाते हैं तो फिर आप किस अधिकार से इस बात की उम्मीद करते हैं कि लोग निर्देशों का हूबहू पालन करेंगे। हालांकि मेट्रो के भीतर बैठनेवाले लोगों में 12 रुपये 14 रुपये देकर इतनी तमीज जरुर आ जाती है कि वो अपने मन को रोके रखती है,खाते-पीते नहीं हैं। मैंने दर्जनों बार देखा है कि खाने के लिए मचलते बच्चे की मां ने उसे समझाने की कोशिश की है कि नहीं,ट्रेन में नहीं खाते,बाहर निकलने पर खाना। बच्चा ट्रॉपीकाना की पैकेट थामे राजीव चौक से विधान सभा तक बर्दाश्त कर लेता है।
फेसबुक पर लिखे स्टेटस को लेकर कई कमेंट आए जिसमें दो कमेंट को विशेष तौर पर शामिल करना जरुरी है। एक तो प्रशांत के पान का और दूसरा राकेश कुमार सिंह का कमेंट। प्रशांत ने एक नहीं दो-दो कमेंट किए। पहले व्यंग्य के अंदाज में और फिर मेरे प्रति थोड़े और बेरहम हुए। प्रशांत के पान ने पहले लिखा-
इसपे किसी का ध्यान ही नहीं गया था...आपने सही कहा...इसकी शुरुआत हमे नमाज के साथ करनी चाहिए...क्योंकि नमाज पढ़ना धर्मनिरपेक्षता की निशानी है।
आगे प्रशांत और तल्ख हो गए-
खराब न तो हिन्दू में है और न मुसलमान में है...हर रीति-रिवाजों का मकसद एक ही होता है...खराबी तुम जैसे कमीने और संकीर्ण विचारोंवाले लोगों में होती है..जो सिर्फ लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए उलजूलूल बयान देते हैं।
राकेश कुमार सिंह ने कमेंट किया-
न छेड़ें ऐसी बातें,अंदर तक आग लग जाता है.बड़े-बड़े प्रक्षेपास्त्रों की लांचिंग के वक्त भी नारियल ही फोड़ते हैं। देख नहीं रहे हो इनके आगे पीपल के पेड़ कैसे पनाह मांग रहे हैं। सबके नीचे रिजेक्टेड गणेश और हनुमान रखकर प्राचीन मंदिरों का निर्माण किस तरह हो रहा है। आड़ में हर तरह का दो नंबरी काम चल रहा है। फिर जब इच्छाधारी औऱ नित्यानंद निकलने लगता है तो इ सब बिलबिलाने लगते हैं। इनकी ऐसी की तैसी।....
इस पूरे मसले पर सिर्फ दो सवालों पर गौर करें। पहली तो ये कि जब चारों तरफ तिलक लगाकर मेट्रो के अधिकारी हवन में शामिल होते हैं,उस समय अगर कोई मुस्लिम,इसाई या फिर दूसरी मान्यता का अधिकारी होता है तो वो किस तरह का महसूस करता है? क्या ऐसी स्थिति में वो अपनी मौजूदगी का एहसास कर पाता है? क्या उसे नहीं लगता कि ये सबकुछ सिर्फ हिन्दू कौम के लिए है? उसके नजरिए से चीजों को देखने-समझने पर क्या निकलकर आता है? देखना तो होगा ही न।.
दूसरी बात कि मेट्रो,फैक्ट्री,सड़कें ये न सिर्फ सार्वजनिक होते हैं बल्कि इसका संबंध सीधे-सीधे बाजार से भी होता है। ऐसे में सवाल ये है कि क्या इस बाजार को आगे ले जाने में सिर्फ तिलक लगानेवाले समाज का ही योगदान होता है? बाकी का समाज का कोई योगदान नहीं होता। अगर सरकारी संस्थान हैं औऱ वहां की शुरुआत में नारियल फोड़े जाते हैं तो क्या उसमें इनके रिवन्यू का हिस्सा नहीं जाता? बाजार में मौजूद इस "बाकी के समाज" को सामाजिक तौर पर नजरअंदाज करना या फिर सिर्फ तिलक लगानेवाली कौम की रीतियों को शामिल करना किस हद तक सही है?
मुझे नहीं पता कि कल जिन पत्रकारों को नई-नवेली मेट्रो की सवारी कराई गयी,उन्होंने भी तिलक लगाए या नहीं,मेट्रो की सीट पर बैठकर प्रसाद खाया या नहीं लेकिन मेरी आंखें उस पीटूसी के इंतजार में जरुर फैली रही जो कह पाते- मेट्रो ने खुद उड़ाई अपने नियमों की धज्जियां.
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277189157108#c6033223045173572359'> 22 जून 2010 को 12:15 pm बजे
ट्रेन चलने के पहले हवन हुआ और फिर नारियल फोड़े गए। क्या सार्वजनिक कही जानेवाली मेट्रो या फिर ऐसे दूसरे कामों की शुरुआत टिपिकल हिन्दू रीति से होना जायज है,तब भी हम धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते रहें।
BHAI AAP KOI NAI BAT NAHIN KAH RAHE HAIN.
AISE SAWAL KAI HAIN LEKIN JAB KIYA JAYE TO APUN KATTAR KAHE JAATE HAIN.
HAM SE HOLI MANANE KI ZID KYON AUR YADI SHAHROZ NE MANA LIYA TO WAAH ! WAAH ! ISE KAHTE HAIN BHARTIYTA.AUR NA MANAYA TO.....
AISE AVSARON PAR KAI JAGAH MUSLIM KARMCHARIYON KO BHI KHUD SE NARIYAL PHODNA PADTA HAI.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277189227390#c4470717146651583728'> 22 जून 2010 को 12:17 pm बजे
क्या गलत है... कई बार सर्व धर्म सभा भी होती है.. धर्मनिरपेक्ष होने का मतलब धर्मछोडना नहीं होता..
पूजा के बाद प्रसाद बंटा और खा लिया तो क्या हो गया... नियम अपनी जगह है पर हर बार नियमों में नहीं बांधते.. नियम इसांन बनाता है.. नियम इंसान को नहीं बनाते...
आपने इग्नोर करने वाली घटना में बहुत पढ़ लिया... मुझे लगता है ये बहुत अतिवादी पोस्ट है...
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277194140480#c2453917135781109946'> 22 जून 2010 को 1:39 pm बजे
विनीत भाई,
तिलक लगाकर पूजा करना/करवाना या नारियल फ़ोड़ना भारतीय परम्परा का हिस्सा है, उसमें किसी "भारतीय नागरिक" को आपत्ति क्यों होनी चाहिये। व्यक्तिगत तौर पर मुस्लिम को हो सकती है, ईसाई को हो सकती है… लेकिन भारतीय नागरिक को नहीं होनी चाहिये।
"वन्देमातरम" पर बवाल खड़ा किया जा सकता है, दूरदर्शन के लोगो से "सत्यं शिवं सुन्दरम" हटाया जा सकता है (ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं) फ़िर भी "सहिष्णु" बने रहने की अपेक्षा की जाये… यह सिर्फ़ धर्मनिरपेक्षता में ही सम्भव है।
क्या अमेरिका या ब्रिटेन धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र नहीं है? वहाँ भी ऐसी कई परम्पराएं हैं जो शायद वहाँ के अल्पसंख्यकों को मान्य नहीं हैं, फ़िर भी वे "दिल से" उसका साथ देते हैं। सऊदी अरब या पाकिस्तान की बात करना तो बेकार है, जहाँ दूसरे धर्मावलम्बियों को भी जुमे की छुट्टी मनाना और रमज़ान में सार्वजनिक जगह पर कुछ खाने की पाबन्दी होती है…
शहरोज़ जी बहुत बड़े बुद्धिजीवी हैं और आप भी, मैं तो एक अदना सा कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति हूं… इसलिये ज्यादा क्या कहूं…
अलबत्ता मन में कई बार सवाल उठता है कि आखिर "ये सेकुलरिज़्म क्या कुत्ती चीज़ है… करोड़ों को नपुंसक बनाने में कामयाब इस बला का कोई तोड़ नहीं है क्या?" :) :)
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277195325465#c7958082160970895104'> 22 जून 2010 को 1:58 pm बजे
मुझे ऐसा लगता है जैसे ये भारतीयता है.. यह देश की सभ्यता है जो बरसो से चली आ रही है.. इसे धर्म से जोड़ना सही नहीं है.. खासकर सिर्फ ईसाईयों और मुस्लिम्स से.. भारत में और भी कई धर्मो के लोग है सिन्धी,सिख,पारसी,जैन,बौद्ध और भी कई जिनकी पूजन की विधि शायद अलग रही हो पर ऐसा उनके अपने परिसरों अपने घरो में होता है.. नारियल फोड़ना शायद इन सब धर्मो में नहीं होता हो पर भारतीयता में ऐसा होता है.. और शायद इनमे से किसी भी धर्म के व्यक्ति को बुरा नहीं लगेगा.. आपने भी अपनी पोस्ट में इनमे से किसी को भी बुरा/असहज लगना नहीं लिखा है.. जबकि धार्मिक भावनाए उनकी भी रही ही होगी.. पर हम उन्हें सहज मान लेते है दरअसल ये उनका बड्डपन है.. हम और आप जानते है कि सिन्धी भारतीय नहीं है वे लोग बाहर से आये है पर उन्होंने भारतीय संस्कृति को खुले दिल से अपनाया है.. वे अपने विधिवत तरीके से पूजा पाठ करते हुए भी ऐसे किसी भी मौके पर असहज महसूस नहीं करेंगे.. उनकी उपस्थिति को लेकर ऐसा संशय हमारे भी मन में नहीं आएगा.. क्योंकि उन्होंने भारतीयता में खुद को ढाल रखा है.. सिंधियो द्वारा मनाये जाने वाले चेटीचंड पर्व में लगभग सभी धर्मो के लोग सक्रीय होते है और सिन्धीयो ने भी भारतीय पर्वो को अपनाया ही है.. इसका ये अर्थ नहीं है कि बाकी धर्मो के लोग भारतीय नहीं है.. वे पूर्ण रूप से भारतीय है पर किसी सार्वजनिक स्थल पर नारियल फोड़ने से किसी की धार्मिक भावना कमजोर होती हो तो इसमें धर्म की गलती नहीं उस व्यक्ति की गलती है..
शहरोज़ साहब का कहना है ऐसे अवसरों पर मुस्लिमो को भी खुद से नारियल फोड़ना पड़ता है.. शहरोज़ भाई क्या ये इतना नीच काम है कि इतनी ग्लानि महसूस की जाये? आप मुझसे कहिये नमाज पढने को बिना हिचक आपके साथ वही बैठ जाऊंगा..
खैर ये तो पर्सनल विचार थे जो पोस्ट पढने के तुरंत बाद आये.. हो सकता है जो आप कहना चाह रहे हो वो मैं समझ नहीं पा रहा हूँ..
अंत में धर्मनिरपेक्षता को समझ पाना मेरे लिए चाँद पे जाने जैसा है.. पता नहीं कभी पहुँच पाऊंगा भी या नहीं..
विनीत भाई ज्यादा बोल गया हूँ.. तो माफ़ी..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277197431633#c4898768964996586083'> 22 जून 2010 को 2:33 pm बजे
आप अपने इस पोस्ट से कौन सी जागरुकता या रचनाधर्मिता निभा रहे हैं यह तो स्पष्ट नहीं हुआ, लेकिन यह जरुर स्पष्ट है कि आप भी उन्ही विभेदकारी विध्वंसक ताकतों के साथ हमकदम बने हुए हैं। भारत देश जिसकी बहुसंख्या हिन्दू है, और जिसकी परंपरा व संस्कृति को समय सापेक्षता के साथ कमोबेश सभी आक्रमणकारी ताकतों ने अपना ही लिया, चाहे वे शक रहे या हूण। नारियल फोड़ने, तिलक लगाने में, अथवा किसी समारोह के उद्घाटनावसर पर होने वाले मंगलाचरणों में भी "धर्मनिरपेक्षता का गला घोंटना" जैसी वाहियात चीजें देखना ही अतिवाद का जनक है, और आप मुझे पूरे के पूरे धर्मनिरपेक्ष अतिवादी और उन्मादी दिख रहे हैं।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277199711015#c5569156199456254867'> 22 जून 2010 को 3:11 pm बजे
न नारियल हिन्दू है और न तिलक। नारियल हिन्दू होता तो भारत के बाहर उगता ही नहीं। तिलक एक शुभकामना प्रकट करने वाला जादू टोना है, नास्तिक धर्म कहे जाने वाले जैन नित्य ही चंदन का तिलक लगाते हैं। तिलक, मांग में सिंदूर, हाथों में चूड़ियों, माथे पर बिन्दी और पैरों में बिछिया आदि का धर्म से संबंध साम्प्रदायिक लोगों ने पैदा किया है। ये सब भारतीय जीवन पद्धति का हिस्सा रहे हैं। पगड़ी और टोपी केवल सिखों की और भारत की नहीं रही है। लेकिन उस में भी धार्मिक चिन्ह खोज लिए जाते रहे हैं। रहा सवाल प्रसाद का, तो मेरे पड़ौसी अंसारी जी जब हज कर के आए तो पूरे मोहल्ले में एक-एक थैली में वहाँ से लाए हुए मेवे बांटे, वह क्या था। मजारों पर गुरूवार को जो शीरनी बंटती है वह क्या है?
सार्वजनिक हो चुके व्यवहारों को हिन्दू और मुस्लिम के खेमों में बांटना सांप्रदायिक लोगों का काम है धर्मनिरपेक्ष या नास्तिकों का नहीं।
हाँ, किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम में किसी धर्म विशेष की पूजा पद्धति का अनुसरण गलत है उस की कड़ी आलोचना होना चाहिए और सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों से धार्मिक पद्धतियों वाली परंपराओँ का विलोप होना चाहिए।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277200482759#c5938551514680053586'> 22 जून 2010 को 3:24 pm बजे
यह नारियल/तिलक वैगेरह अन्धविश्वाश है, जैसे शुभ -अशुभ आदि ...सार्वजनिक आयोजनों में इन सब का कोई औचित्य नही है.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277201429270#c187551293054521402'> 22 जून 2010 को 3:40 pm बजे
ईश्वर केवल एक हैं नाम उसके अनेक हैं. विनीत जी आपको अपने दिमाग में लगे जंग को साफ़ करना होगा. हिन्दू भी हाजी अली जाते हैं उसी श्रद्धा के साथ जिस तरह से सिध्धि विनायक जाते हैं और मुस्लिम भाई भी उसी आस्था के साथ हिन्दू मंदिर में आते हैं जिस आस्था के साथ हाजी अली जाते हैं. अब अगर उद्घाटन में नारियल फोड़ा गया. तिलक लगाया गया उस समय अगर हिन्दुओं के अलावा अगर कोई और समुदाय का रहा होगा तो वो भी पूरी ख़ुशी आस्था के साथ तिलक लगवाया होगा और प्रसाद खाया होगा. अब आप क्यों राशन पानी लेकर चढ़ गए. मान लीजिये की किसी दूसरे धर्म की रिवाज के अनुसार ये काम किया जाता तो आप क्या लिखते.. भाई तेरी पी एच डी बेकार जा रही हैं. ज़रा सभाल जा ...
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277201937156#c5872258096284361443'> 22 जून 2010 को 3:48 pm बजे
सरकारी कार्यक्रम में अगर आयोजक इस तरह की पूजा या इस तरह का कोई आयोजन करते हैं तो उसे 'हिन्दुओं की बपौती' कहना कहाँ तक जायज है? इन अफसरों के पास जाकर किसी हिन्दू ने नहीं कहा होगा कि 'हमारी बपौती' स्थापित कीजिये. सरकारी अफसर अगर ऐसा करता है तो यह उसकी गलती है और इसके लिए हिन्दुओं को दोष देना ठीक नहीं है. नारियल फोड़ना और तिलक लगाना शायद सबसे पुराणी प्रथा होगी और इसीलिए यह बिना किसी झंझट के कर दी जाती है.आप इसके लिए अफसरों को दोषी बताइए, हिन्दुओं को नहीं.
वैसे भी अफसर तो अफसर है. वह हिन्दू-मुसलमान से आगे की कोई चीज होता है...:-)
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277204733228#c2024132164730451654'> 22 जून 2010 को 4:35 pm बजे
विनीत, एक बन्दा जो ब्लॉग लिख रहा है, मैंने सोचा था, खुले दिमाग का होगा, नहीं तो कम से कम दिमाग तो होगा ही.
but, I am really sorry.
Natkhat sahi kah raha hai, plz agar sikh sako to sikho...
दिनेश सर की बात से मई सहमत हूँ| आप ये सब लिख कर क्या साबित करना चाहते हो?
कही से election लड़ने का विचार है क्या? तब तो लगे रहो, नेता बनने की राह पर हो|
सहरोज भाई, मुझे आज तक मजार में जाने में, वह का मावा खाने में कोई दिक्कत नहीं हुई|
मेरा मानना है, क अपनी माँ की इज्ज़त वाही कर सकता है, जो दुसरे की माँ की इज्ज़त करना जनता हो|
मुझे यकीन है क आप न तो अपने धर्म के बारे में जानते हैं, न किसी और धर्म के बारे में|
मै सुरगुजा (छत्तीसगढ़) का रहने वाला हु, एक बात बताता हु, मेरे पिताजी के एक मुस्लिम मित्र हैं,
मेरे भाई के जनेऊ में वो बनारस आये थे, हमारे साथ धर्मशाला में रुके और, मंदिर में जहा भाई का जनेऊ हो रहा था, पुरे दिन साथ में थे| उनका कहना था छोटू को जनेऊ के बाद अपने हाथ से नयी घडी पह्नानानी है|
खुला दिमाग रखो, सब साफ़ दिखेगा|
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277206866965#c1334692989239358071'> 22 जून 2010 को 5:11 pm बजे
in a convent if you will send your child to study many a times she would be asked to go to a church in the vicinity of the school irrespective of the faith that the parents of the child follow
also one thing i have never understood why should we not follow hindu custom and traditions in india . i am against orthodox behavior but not against hindu customs and traditions
Hinduism is a faith vineet and not a religion so please dont try to malign it in india . learn to respect Hinduism
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277207186859#c5400653178129394992'> 22 जून 2010 को 5:16 pm बजे
१) हालांकि इस पोस्ट में कोई बहुत महत्वपूर्ण सवाल नहीं उठाया गया है (क्योंकि नारियल और तिलक तो केवल सांकेतिक होते हैं) लेकिन दिख रहा है कि कुछ लोगो को वाकई में इस नारियल-तिलक परम्परा से आपत्ति है। यदि एक भी व्यक्ति को आपत्ति है तो इसका समाधान सोचा जाना चाहिये। इस तरह के सार्वजनिक आयोजनों पर पूजा-पाठ की जगह एक छोटी-सी सर्व-धर्म सभा की जानी चाहिये जिसमें सभी प्रमुख धर्मों के प्रतिनिधि परियोजना की सफलता की अपने-अपने तरीके से कामना करें।
२) इस पोस्ट पर कमेंट्स की भाषा देख कर बहुत दुख हुआ। आज बहुत समय बाद किसी हिन्दी ब्लॉग पर टिप्पणी कर रहा हूँ। सोचा था कि शायद इतने अर्से में लोगों की भाषा थोड़ी तो सहनशील, रचनात्मक और सभ्य हुई होगी। व्यक्तिगत आक्षेप से दूर हटी होगी। लेकिन आज भी देखा कि जैसे कमेंट ना कि जा रही हो बल्कि कोई जाति शत्रुता निभाई जा रही हो। मेरा मानना है कि विरोध भी सभ्य भाषा में दर्शाया जा सकता है।
३) विनीत ने इस पोस्ट को लिखने में जो समय लगाया उसके लिये शुक्रिया
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277208307298#c3572660401513717240'> 22 जून 2010 को 5:35 pm बजे
Ab agar kisi ko Hindustan mein rehkar, Hindu riti riwaazon per aapatti ho, aur woh anpna dharmanirpekh sikka chalana chahta hi hai, toh aise log desh chod kar jaa sakte hai, aise suwaron ki is desh mein koi zaroorat nahi hai. Pehle hinduism ko jhelna seekho, fir dharmanirpekhta ke bhaashan do
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277212808198#c1305739870453375943'> 22 जून 2010 को 6:50 pm बजे
India is a country of confused people, and that is the reason people outside India have started feling that "India is in COMA" We may accept it or not, there is ANARCHY in India, which is a result of widespread confusion.
We have confused ourselves on the concepts like Nation and Nationality, Integration and Diversity, Unity and decentrallization of Power.. and many such important concepts.. and that is why a country that was formed on the foundation of common Hindu culture, a country which do not have any other common thread that links all people from different regions other than Hindu culture, still decides to declare itself as a Secular country. This is nothing but intellectuall Bankruptcy.. India is a country because of shared Hindu culture, if Hindu culture gets weakened it will give rise to fragmentation..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277215005267#c8135989055494313784'> 22 जून 2010 को 7:26 pm बजे
मैं ललित जी के कमेन्ट से और द्विवेदी जी के कमेन्ट के इस भाग से सहमत हूँ-"हाँ, किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम में किसी धर्म विशेष की पूजा पद्धति का अनुसरण गलत है उस की कड़ी आलोचना होना चाहिए और सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों से धार्मिक पद्धतियों वाली परंपराओँ का विलोप होना चाहिए।"
दरअसल धर्म एक निहायत व्यक्तिगत आस्था का मामला है. हमारा देश धर्मनिर्पेक्ष इस अर्थ में है कि इसमें सभी धर्मों के लोगों के साथ सामान व्यवहार होता है और राज्य किसी भी धर्म के प्रति पक्षपात नहीं करता. इस दृष्टि से देखा जाए तो राज्य में किसी भी जिम्मेदार पद धारण करने वाले व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से किसी धर्म-विशेष की पूजा-पद्धति नहीं करनी चाहिए, वह अपने घर के अंदर, निजी क्षेत्र में चाहे जिस भी धर्म में आस्था रख सकता है... पर एक अधिकारी के रूप में अगर ऐसा करता है तो गलत है... हाँ, अगर किसी अवसर विशेष पर ईश्वर की आराधना करनी ही हो तो सर्वधर्म सभा की जा सकती है, जैसा कि ललित जी ने कहा है.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277223970751#c4067598527194394229'> 22 जून 2010 को 9:56 pm बजे
bhai aap english ka blog banao nahi to comments aasi hi milenga metro hi nahi yeh desh hindu,s ki bapauti hi
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277224058003#c2729222968221673169'> 22 जून 2010 को 9:57 pm बजे
ओह तो ये बात थी .........हमें तो पक्की खबर मिली है कि इस मेट्रो से अगले चुनाव में भाजपा और आरएसएस अपना चुनाव प्रचार करने वाले हैं ..रथ थोडा आऊटडेटेड भी हो गया है ..और फ़िर उस मरे में ..सीएनजी किट भी तो नहीं लगती ..सोचिए जब मेट्रो बिहार , झारखंड , उत्तराखंड, उडीसा , और इन जैसे राज्यों में पहुंचेगी चुनाव प्रचार करने तो सिवाय हिंदु वोटरों के बांकी सबके कलेजे तो छलनी हो जाएंगे कि नहीं .....बस नारियल और सिंदूर का इंतजाम किया जाए ..होलसेल में ।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277225541484#c1614555072154505840'> 22 जून 2010 को 10:22 pm बजे
हम है ही जाहिल टाईप लोग . शैम्पेन खोल कर सेलेब्रेट करना चाहिये और हम से जाहिल तो वह देश है जो अपनी करन्सी में गणेश जैसे काल्पनिक कार्टून करेक्टर को छापता है
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277225918806#c342336923846958444'> 22 जून 2010 को 10:28 pm बजे
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277225993842#c3994087227245338035'> 22 जून 2010 को 10:29 pm बजे
पूरी पोस्ट का लब्बोलुआब - बकवास
कुश की टिप्पणी से पूर्णत: सहमत
कुछ और अंश लूँ तो:
मुझे लगता है ये बहुत अतिवादी पोस्ट है..
तिलक लगाकर पूजा करना/करवाना या नारियल फ़ोड़ना भारतीय परम्परा का हिस्सा है, उसमें किसी "भारतीय नागरिक" को आपत्ति क्यों होनी चाहिये
नारियल फोड़ने, तिलक लगाने में, अथवा किसी समारोह के उद्घाटनावसर पर होने वाले मंगलाचरणों में भी "धर्मनिरपेक्षता का गला घोंटना" जैसी वाहियात चीजें देखना ही अतिवाद का जनक है, और आप मुझे पूरे के पूरे धर्मनिरपेक्ष अतिवादी और उन्मादी दिख रहे हैं
सार्वजनिक हो चुके व्यवहारों को हिन्दू और मुस्लिम के खेमों में बांटना सांप्रदायिक लोगों का काम है धर्मनिरपेक्ष या नास्तिकों का नहीं
इन अफसरों के पास जाकर किसी हिन्दू ने नहीं कहा होगा कि 'हमारी बपौती' स्थापित कीजिये
Hinduism is a faith and not a religion so please dont try to malign it in india
भाई तेरी पी एच डी बेकार जा रही हैं. ज़रा सभल जा .
खुला दिमाग रखो, सब साफ़ दिखेगा
आखिर में फिर वही बात जिसे कहीं पढ़ा था मैंने
इंगलैंड की प्रधानमंत्री रही मार्ग्रेट थैचर के शब्द थे
कि
अगर इस देश (ब्रिटेन) के कायदे कानून परम्परा मानने में तकलीफ़ हो रही तो यह देश छोड़ दो
ऐसा ही इस देश में भी होना बहुत जरूरी है, और यह देश है हिन्दुस्तान!!
बी एस पाबला
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277241886139#c3002227166321836145'> 23 जून 2010 को 2:54 am बजे
.
विनीत बाबू ने मेरा भ्रम तोड़ दिया,
वह तो टुँगीबाजी के मँजे हुये कलाकार निकले, परन्तु..
@ भाई कुश..
" हम और आप जानते है कि सिन्धी भारतीय नहीं है वे लोग बाहर से आये है "
क्या इस बात का कोई प्रमाणिक सँदर्भ देंगे , या आप भी विनीत कुमार की तरह एक दायरे में सोचने लगे हैं ?
वह तो उछालू सँस्कृति की पैदावार हैं, सुर्खियों में आने का हुनर जानते हैं, पर आप ?
जो सिर्फ लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के लिए उलजूलूल बयान देते हैं।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277262916191#c1529232449940701586'> 23 जून 2010 को 8:45 am बजे
ओह!...तो आप चाहते थे की वहाँ पर मस्जिद के एक अदद 'मौलवी'...एक गुरूद्वारे का 'ग्रंथी'...चर्च का एक 'पोप' ...बौद्ध मठ का एक 'मठाधीश'...राधास्वामियों के 'गुरु'...निरंकारियों के गुरु....जैन धर्म के अग्रणी ...नागा बाबा...हरिद्वार के असंख्य मठों के असंख्य मठाधीश...सत्य साईं बाबा ....
उफ़!...लिस्ट तो बहुत लंबी होती जा रही है...पूरी मेट्रो ही इनसे भर जाएगी...
क्यों बेकार के विवाद को तूल दे रहे हो मित्र?
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277263773873#c5114174747784498189'> 23 जून 2010 को 8:59 am बजे
खराब न तो हिन्दू में है और न मुसलमान में है...हर रीति-रिवाजों का मकसद एक ही होता है...खराबी तुम जैसे कमीने और संकीर्ण विचारोंवाले लोगों में होती है..
क्या गलत लिखा प्रशांत ने?
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277265343614#c8784749797730361270'> 23 जून 2010 को 9:25 am बजे
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सब कुछ शुभ-शुभ हो जाये, इसी भावना से किया गया यह सब... इसमें हिन्दू-प्रभुत्व का प्रश्न उठाना सही नहीं है... क्योंकि ऐसा करने वाले ने भी कभी ऐसा नहीं सोचा होगा... हमारे देश में शुभारंभ पर नारियल फोड़ने की व तिलक लगाने की परंपरा रही है... मैंने तो देखा है कि इंग्लैंड व आस्ट्रेलिया की टीमों के आने पर एयरपोर्ट में उनको टीका लगाया व माला पहनाई जाती है...इसमें कोई धार्मिकता ढूंढना सही नहीं...परंपरा कह सकते हैं।
हाँ उस दिन का इंतजार रहेगा मुझे, जब अपनी बनाई चीजों और अपनी व्यवस्था पर हमारा विश्वास इतना दॄढ़ होगा कि ऐसे ही किसी प्रोजेक्ट के उद्घाटन पर कोई नस्वार बाँटेगा...सूंघो और मारो चाहे जितनी छींकें...हमारे प्रोजेक्ट का कुछ नहीं बिगड़ने वाला... ;)
आभार!
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http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277270824820#c1045288105174956198'> 23 जून 2010 को 10:57 am बजे
@ Pabla ji: "इंगलैंड की प्रधानमंत्री रही मार्ग्रेट थैचर के शब्द थे कि अगर इस देश (ब्रिटेन) के कायदे कानून परम्परा मानने में तकलीफ़ हो रही तो यह देश छोड़ दो जिसे अंग्रेज़ी",
क्या मार्ग्रेट थैचर को स्वयं अपने देश की नीतियों की जानकारी थी? जब उनका देश भारत सहित दुनिया के दर्जन भर देशों में पांव पसारे था तब क्या ब्रिटिश अधिकारी और उनके परिवार भारतीय रीति-रिवाज अपना कर भारत में रह रहे थे की अपने चर्च, सिविल-लाइन्स, हस्पताल, कॉन्वेंट, मिशन, पादरी-नन, फादर-सिस्टर भारत की धरती पर और दुनिया भर में स्थापित कर रहे थे? 'रविवार' को चर्च की मास सर्विस के कारण छुट्टी का दिन पूरे भारत में और दूसरे उपनिवेशों में अंग्रेज़ों ने लादा, हम सब ने उसे स्वीकारा, ग्रेगारियन कैलेंडर को भारतीय पंचांग की जगह हम पर थोपा गया, 'common wealth ' जैसी दासता आज भी लागू है हम पर जिसका उदहारण दिल्ली में होने वाले राष्ट्र मंडल खेल है, और भी कितने ही उदहारण मिल जाएँगे. दुनिया को आजतक अपना सांस्कृतिक दास बनाय रखने के लिए मिस वर्ल्ड, मिस युनिवेर्स, आदि आदि लगातार जारी है. और अपने देश में उन्ही लोगों को बाहर का रास्ता दिखने के लिए मैडम कहती है की 'हमारी नक़ल नहीं करनी तो निकल जाओ', इसके बावजूद ये स्वयं को लोकतान्त्रिक, सेकुलर, प्रोग्रेस्सिव और बहुसान्स्क्रतिक समाज कहलाते हैं?
लेकिन पाबला जी आप-हम कैसे इनके इस जाल में फँस जाते हैं? न जलियांवाला याद रहता है ना काला-पानी !
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277271676313#c153369362913013201'> 23 जून 2010 को 11:11 am बजे
एक बात रेल-वाले की भी तरफ़ से-
ये ज़रूरत से ज़्यादा जात-पाँत का ज़हर अख़बार और मीडिया का परोसा हुआ है। पिछ्ले न जाने कितने मौक़ों पर मैं ख़ुद गवाह रहा हूँ इस बात का - कि रेल में कितना बढ़िया सर्व-धर्म-समभाव रहता है और किस तरह हम एक हो कर काम निपटाते हैं - सिर्फ़ 'जनता' के प्रति अपने दायित्व को नज़र में रखते हुए; जब भी कोई क्राइसिस होती है।
जब देश झुलस रहा होता है साम्प्रदायिकता की आग में - तब भी हमारी नज़र में सामने वाले की जाति या धर्म नहीं आता।
हमारा धर्म एक है - यातायात को सुलभ, सुरक्षित बनाए रखना। मुझे पता है कि इस बात पर बहुत से तंज़ हो सकते हैं - मगर यही सच है इसलिए मुझे इसे कहने में कोई गुरेज़ नहीं।
सामान्य दिनों की बात अलग है - उन दिनों हम भी आप जैसे सामान्य इन्सान ही होते हैं - भयंकर कमज़ोरियों से ग्रस्त।
एक और बात - कि सरोज ख़ान जैसी डान्स डायरेक्टर हों या अमज़द अली ख़ाँ या बिस्मिलाह ख़ाँ जैसे कलाकार - शिष्य बनाते समय ये भी पूरी पूजा करके गण्डा बाँध कर उस्तादी क़बूल करवाते हैं - तो हो सकता है कि आगे कोई इस पर भी उँगली उठाए। मेरे पिता को बचपन में मेरी दादी अपने भाई के साथ रामलीला देखने नहीं जाने देती थीं उनके मुँह बोले भाई अपने कन्धे पर बैठाकर मेरे ताऊ और मेरे पिता को रामलीला दिखाने ले जाते थे - और दादी जाने देती थीं - क्योंकि वो अपने कौल के पक्के मुसलमान थे और दादी को अपने भाई के शराबी और जुआरी होने का शक हो चुका था।
रेल में विश्वकर्मा पूजा भी होती है - और उसदिन जो वर्कशॉप का इन्चार्ज होता है - वो सारे इन्तज़ाम भी करता है और उसी के हाथों हवन भी होता है।
मैं एक बार अपने प्रवास पर - तत्कालीन बॉस के घर पर खाना खाता था और अपने घनिष्ठ ब्राह्मण मित्र के यहाँ नहीं -क्योंकि बॉस मुस्लिम होकर भी पूर्ण शाकाहारी थे - अण्डे से भी दूर - और मित्र के यहाँ स्थिति उलट थी।
कहना सिर्फ़ यह है कि कुछ चीज़ें जैसी हैं - अच्छी हैं, उन्हें ज़्यादा छेड़छाड़ के बिना रह्ने दें तो अच्छा होगा।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277272064546#c1116089855081537368'> 23 जून 2010 को 11:17 am बजे
धर्म निरपेक्ष राष्ट्र एक संवैधानिक शब्द है जिसका दुरुपयोग अभी तक कुछ राजनैतिक दल ही उठाते थे जनता को बेवकूफ बनाने के लिए.
अब आप भी उसी पथ पर चल रहे हैं याने बड़े आदमी होने की निशानी. बधाई हो .
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277272142407#c1662147150568468981'> 23 जून 2010 को 11:19 am बजे
बिलकुल असहमत हूँ ...विनीत के इस नजरिये से !
तार्किकता से लबरेज कोई शख्स इतनी अतार्किक बात करे ...पल्ले नहीं पढ़ रहा | शायद न्यूज़ को अलग नजरिये से या कोई ना कोई ब्लॉग पोस्ट निकालने का दबाव रहा हो विनीत पर ?
....हालांकि विनीत के बारे में अपनी पुरानी राय को देखते हुए मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा |
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277278044201#c8531156751337180769'> 23 जून 2010 को 12:57 pm बजे
u r sensetive...quite secular...and outspoken...and got 2 know hw 2 raise issues.vineet..indian society has never been areligious..it has tradition 2 start a new begining with a religious ceromony. i still remeber during childhood..i used to visit temple and adjacent dargah.simulteniously. and wt wd u say huge gathering at AJMER AND OTHER DARGAH..WHICH includs people from different religious background.we do celebrate many festival together.indian society has been and will be a syncretic society..where tradition of different religion and belief wl continue to merge..and this merging of tradition gives a new identity that is identity of being INDIAN..and the process is continuous..and this flexibility is uniquely indian..so i would urge u before expressing your thoght..ask the people 4m other religious community wt they say on this tradition..
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277279165792#c7928109489999473716'> 23 जून 2010 को 1:16 pm बजे
सही कहा आपने विनीत जी....अगर देश में सभी धर्मों का सम्मान कियी जाता है तो हर धार्मिक रीति रिवाज से इसका उदघाटन होना चाहिये था.....औऱ अगर देश को धर्मनिरपेक्ष कहते हो तो किसी भी ऐसे कार्यक्रम में किसी भी धर्म को शामिल मत करो.....वैसे यहाँ लोगों की सुलग रही है...
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277280128245#c1178523912026378622'> 23 जून 2010 को 1:32 pm बजे
@all : विनीत ने दो बिन्दुओं पर बात उठाई है
* एक - "कि जब चारों तरफ तिलक लगाकर मेट्रो के अधिकारी हवन में शामिल होते हैं,उस समय अगर कोई मुस्लिम,इसाई या फिर दूसरी मान्यता का अधिकारी होता है तो वो किस तरह का महसूस करता है? क्या ऐसी स्थिति में वो अपनी मौजूदगी का एहसास कर पाता है? क्या उसे नहीं लगता कि ये सबकुछ सिर्फ हिन्दू कौम के लिए है? उसके नजरिए से चीजों को देखने-समझने पर क्या निकलकर आता है? देखना तो होगा ही न"।
विनीत की इस बात में द्वेष नहीं 'समावेश' का आग्रह है, जो संपूर्ण भारतीय समाज को सार्वजनिक क्षेत्र की गतिविधियों में हम-कदम होने के लिए है. इसमें क्या बुराई है की भारत में बसी सभी सांस्कृतिक पहचानें अपने होने को ऐसे ख़ुशी के अवसरों पर भी, महसूस कर सकें?
* दो - "क्या आम आदमी भी ट्रेन के भीतर प्रसाद के नाम पर कुछ बी खा-पी सकता है। अगर मेट्रो के पास इस बात की दलील है कि पूजा के दिन तो ऐसा होना स्वाभाविक है तो फिर अगर पहले ही दिन मेट्रो के अधिकारी इस नियम को तोड़ते हैं,अपने ही बनाए नियमों की धज्जियां उड़ाते हैं तो फिर आप किस अधिकार से इस बात की उम्मीद करते हैं कि लोग निर्देशों का हूबहू पालन करेंगे। हालांकि मेट्रो के भीतर बैठनेवाले लोगों में 12 रुपये 14 रुपये देकर इतनी तमीज जरुर आ जाती है कि वो अपने मन को रोके रखती है,खाते-पीते नहीं हैं। मैंने दर्जनों बार देखा है कि खाने के लिए मचलते बच्चे की मां ने उसे समझाने की कोशिश की है कि नहीं,ट्रेन में नहीं खाते,बाहर निकलने पर खाना। बच्चा ट्रॉपीकाना की पैकेट थामे राजीव चौक से विधान सभा तक बर्दाश्त कर लेता है"
अधिकारीगण यदि मेट्रो ट्रेन में ही मुंह चलाते-खाते नज़र आते हैं तो ये वाकई अच्छी तस्वीर नहीं. बचपन में क्लास में यदि कोई सहपाठी किसी विशेष अवसर या मंदिर से लाया प्रसाद बाँट-ता था तो टीचर से लेकर हम बच्चे तक, सभी उसे एक काग़ज़ में एहतियात से रख लिया करते थे. ना कभी टीचर ने बीच कक्षा में प्रसाद खाया ना हमारी ही हिम्मत हुई हालाँकि मन उस छोटे से पेडे या बूंदी में ही अटका रहता था, पर टीचर के अनुशासन को देख कर हम भी रुक जाते थे. व्यवस्था बनाए रखने की ज़िम्मेदारी जिन पर है यदि वे ही आचरण से उदहारण ना पेश करेंगे तो बाक़ी जनता भी ढील मांगेगी.
सहज सी बात है, इसमें इतना उद्वेलित क्यूँ हों हम?
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277280566764#c8298338411565741414'> 23 जून 2010 को 1:39 pm बजे
इससे पहले मैं कुछ लिखता, Sheeba Aslam Fehmi ने खुद ही अपनी पहली टिप्पणी का ज़वाब दे दिया कि व्यवस्था बनाए रखने की ज़िम्मेदारी जिन पर है यदि वे ही आचरण से उदहारण ना पेश करेंगे तो बाक़ी जनता भी ढील मांगेगी
धन्यवाद Sheeba Aslam Fehmi जी
बी एस पाबला
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277311151378#c580645968759983319'> 23 जून 2010 को 10:09 pm बजे
अरे भाई, इस पोस्ट पर अभी तक आपका जवाब क्यों नहीं आया? भारत में किसी भी शुभ काम को शुरू करने से पहले नारियल फोडे जाते हैं और प्रसाद भी बांटा जाता है। क्या आपको भारत की इस परम्परा का ज्ञान नहीं है? एक तो आप धर्मनिरपेक्षता की बात कर रहे हैं, फिर हमारी भारतीय संस्कृति को केवल हिन्दुओं से जोड रहे हैं। आपका यह दोगलापन मुझे अच्छा नहीं लगा।
रही बात मेट्रो के अन्दर खाने की। आपके घर में या ऑफिस में कोई शुभ काम होता है तो क्या आप प्रसाद या मिठाई नहीं खाते? आपके किसी दोस्त का भी भला हो जाये तो आप उससे जबरदस्ती ट्रीट लेते हैं। अगर मेट्रो के अधिकारियों ने इस खुशी के मौके पर अपने ’ऑफिस’ में कुछ खा लिया तो आप खदक रहे हैं, सुलग रहे हैं।
लोकप्रियता पाने का यह तरीका सही नहीं है।
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277457741882#c5428301987357855877'> 25 जून 2010 को 2:52 pm बजे
जैसा कि महापुरुष कहते हैं कि धर्म जोड़ता है तोड़ता नहीं. तिलक और टीका तो बाहरी आवरण हैं बस मन में मैल नहीं होना चाहिए. डेल्ही मेट्रो कोई राजनीतिक मंच तो हैं नहीं जिसमे तिलक लगाने से विवाद पैदा हो जाएगा. रही बात तिलक की, तो भारत में तिलक लगाने की प्रथा मुसलमान भाइयों के आने से पहले की है. तिलक लगाना एक तरह से शुभ काम की शुरुआत है. इसे कह सकते हैं कि बिश्मिलाह है. बस!
अब अपने देश के राजनीतिक विचारधारा के लोगो को ही ले लो कंहा पहले बसपा का नारा था- 'तिलक, तराजू और तलवार, उनके मारो जूते चार'. अब जब ब्राम्हण लोगों के पार्टी में जुड़ जाने से वही नारा इस प्रकार हो गया - हांथी नहीं गणेश हैं, ब्रम्हा, विष्णु, महेश है.
जहाँ तक मेरी समझ है बस तिलक और मिश्मिलाह को धर्म के साथ गुत्थमगुत्था नहीं करना चाहिए. और किसी भी प्रकार की धार्मिक अफवाह को जन्म न दें. क्योंकि हम गुजरात के गोधरा और अयोध्या कांड देख ही चुके हैं कहीं इस प्रकार के लेखों से फिर से वो दिन देखने न पड़ जाएँ. .
'शिशु'
www.iamshishu.blogspot.com
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277474428040#c4485566003691476695'> 25 जून 2010 को 7:30 pm बजे
इस्लामिक धर्मान्धता को बढाने वाला और भारतीयता का गला घोंटने का सर्वोत्तम प्रयास है यह आलेख. !!
http://taanabaana.blogspot.com/2010/06/blog-post_22.html?showComment=1277477966750#c6125304578017978904'> 25 जून 2010 को 8:29 pm बजे
भारतीयता नहीं भाई हिंदुत्वा (ब्राह्मणवाद) की जड़ें कितनी मज़बूत हैं यह बताता है विनीत का प्रयास